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परिवार उन दिनों वस्त्र-व्यवसायी था। होल्कर, धार, कोल्हापुर, सिंधिया तथा देवास के राजघरानों में उन्हीं के यहाँ से कपड़ा मंगाया जाता था । देवास छोटी पांतो के महाराजा मल्हारराव बड़ी उदार वृत्ति के व्यक्ति थे। मेरे पिता श्री चम्पालालजी भण्डारी ने उनसे एक बार पूज्य मुनिश्री के दर्शन का आग्रह किया तदनुसार वे देवास के स्थानक में उनका प्रवचन सुनने पधारे। ३-४ दिनों तक नियमित प्रवचन सुनने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मनिश्री से स्वयं प्रार्थना की कि “स्थानक छोटा पड़ता है, आप राजबाड़े में प्रवचन देकर मुझे तथा यहाँ की जनता को अनुगृहीत करें"। उन दिनों देवास की आबादी कोई १५-२० हजार की होगी, जिसमें से १०-१२ हजार लोग उनकी प्रवचन-सभाओं में आते थे, आसपास के गांववाले भी वहाँ आते थे, पूज्य दिवाकरजी की वाणी बड़ी औजस्विनी थी। वे बगैर लाउडस्पीकर के बोलते थे। उन्होंने उस जमाने में हरिजन, आदिवासी जैसे निम्नवर्गों को भी गले लगाया; और धर्मान्धता, छुआछूत और अन्धी जातीयता को करारी चुनौती दी । वे महान् क्रान्तिकारी संत थे-मिथ्या आडम्बरों से कोसों दूर, सरल, सहज, सम्यक्, स्वाभाविक । उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों और अव्यवस्थाओं पर भी ती प्रहार किया । बुराइयों, कुरीतियों को कभी नहीं बख्शा । मोची, भंगी, मुस्लिम सभी भाइयों को उन्होंने उपदेश दिये और उन्हें एक विशुद्ध शाकाहारी जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी । वस्तुत: वे मानवतावादी सिद्धान्तों के प्रचारक थे; उनकी वाणी में अदम्य बल था, वे स्पष्टवादी थे, उनकी कथनी-करनी में आश्चर्यजनक एकता था। उन्हें मेरे, प्रणाम !
-गुलाबचन्द भण्डारी, इन्दौर
वसुधा मेरा कुटुम्ब _ "सारी धरती मेरा परिवार है" की भावना को कह-कह कर भी धर्म के नाम पर जब मानव-मानव के बीच दूरियाँ बन रही थीं, तब जैन दिवाकर मनिश्री चौथमलजी महाराज का उदय हुआ। उन्होंने अपने असाधारण चारित्रबल से टूट रहे समाज को एक नयी दिशा-दृष्टि प्रदान की। कोटा-चातुर्मास में विभिन्न धर्मों के श्रोता जिस उत्सुकता,
और श्रद्धा और उत्साह से उनके प्रवचनो को सुनते थे, उसे देख हम उन्हें सहज ही विश्वसंत कह सकते हैं । आज भी उनके श्रद्धालु भक्तं हाड़ौती-अंचल में एक भारी संख्या में है। उनके प्रवचनों में जो प्रकाश था उसने अनेक भूले-भटकों को राह दिखायी और उन्हें एक साफ-सुथरे जीवन में सुस्थिर किया। वि. सं. २००७ में उनका अन्तिम चातुर्मास कोटा में ही संपन्न हुआ। तब मुझे उनकी सेवा-शुश्रूषा का सौभाग्य मिला । वे क्षण मेरे जीवन की बहुमूल्य पूंजी है । उस समय भारत-विभाजन के शिकार हम लोग स्यालकोट से आये ही थे, ऐसे संकट के समय गुरुदेव के कृपामृत से हमें अपूर्व शान्ति मिली। वस्तुतः उनका जीवन एक उज्ज्वल मार्गदीप था, जो आह्वान करता था कि हम उनकी “वसुधैव कुटुम्बकम्" भावना के अनुरूप समाज-रचना के लिए स्वयं को अर्पित करें और बिना रुके अप्रमत्त भाव से कार्य करते चले जाएँ।
-हरबन्सलाल जैन, कोटा
चौ. ज. श. अंक :
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