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उनकी एक चिरस्मरणीय देन है । यह उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा की द्योतक कृति है। इसे हम जैनों की गीता, बाइबल, रामायण, कुरान आदि कह सकते हैं । यह जैनतत्वनवनीत है, जैनदर्शन का सर्वोत्कृष्ट सारांश । वास्तव में वे विराट् योगी थे। उन्होंने असंख्य भूले-भटकों को एक उज्ज्वल मार्ग दिखाया और उन्हें अपनी वरदानी वत्सलता से अभिषिक्त किया। उनके संपर्क से कइयों के जीवन की धारा ही बदल गयी । ऐसे संत महापुरुष के चरणारविन्द में मेरे शत-शत प्रणाम !
-श्रीमती भुवनेश्वरी जी. भण्डारी, इन्दौर
क्रान्तदर्शी जैन दिवाकर आज से लगभग सतर-अस्मी वर्ष पूर्व मालवा के अंचल में प्रतापी संत श्री चौथमलजी महाराज हुए। हज़ारों-हज़ार लोग उनकी वाणी से उपकृत-अनुगृहीत हुए । उनकी प्रवचनसभाएँ समवसरण-जैसी ही होती थीं, वहाँ कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं था । ग़रीबअमीर, जैन-जैनेतर, ऊँच-नीच की कोई भेद-भिन्नता नहीं थी। उनकी आवाज़ बुलन्द थी। ध्वनिविस्तारक के बगैर आसानी से वे पाँच-सात हज़ार लोगों को उद्बोधित करते थे। सभाएँ अद्भुत होती थीं। चारों ओर मौन और शान्ति की चादर-सी बिछ जाती थी। सब मन्त्रमुग्ध उन्हें सुनते थे। विहार में तो उनके साथ एक मेला ही चलता था। मार्ग में सैकड़ों ग्रामीण उनके पारस-संपर्क में आते थे और उनकी प्रेरणा से मांस-मदिरा का त्याग कर देते थे। उदयपुर के महाराणा, जो कभी किसी के सम्मुख नहीं झुके, बड़ी श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में नतमस्तक हुए। राव हो या रंक, प्रत्येक के लिए उनके हृदय में अपार वात्सल्य और स्नेह था । राजस्थान के भीलों पर भी उनके व्यक्तित्व का गहन-गंभीर प्रभाव हुआ। आज भी वहाँ के आदिवासी मुनि श्री चौथमलजी का स्मरण करके अन्य जैन साधुओं को पूरा सम्मान देते हैं । जैन दिवाकरजी क्रान्तदर्शी महापुरुष थे। उन्होंने समाज से अनेक कुप्रथाओं का अन्त किया और वृद्धों, उपेक्षितों तथा निराश्रितों को आश्रय दिया । चित्तौड़ का वृद्धाश्रम उनकी इस करुणार्द्रता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। माँ सरस्वती की उन पर ऐसी कृपा थी कि वे अजस्र रूप में गद्य-पद्य, गीत-भजन लिखा करते थे। उनके द्वारा प्रदत्त-प्रणीत साहित्य आज हमारी अमर निधि है । आज भी उनकी शिष्यपरम्परा के दो संत ऐसे हैं जो उनके उत्तराधिकार को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। पंडितरत्न कविवर्य केवलमुनिजी महाराज तथा श्री इन्दरमलजो महाराज के नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
-फकीरचन्द मेहता, इन्दौर
एक महान् संत - आज से लगभग आधी शताब्दी पूर्व देवास के भंडारी-परिवार के आग्रह पर जैन दिवाकरजी श्री चौथमलजी महाराज ने देवास में अपना चातुर्मास संपन्न किया था । भण्डारी
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९१७
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