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________________ किन्तु सचाई बिलकुल अलग है । यह बात वास्तव में चमत्कार-जैसी ही लग सकती है कि "भौतिक भागमभाग और होडबाजी के इस युग में जैनधर्म के बुनियादी सिद्धान्त सर्वथा प्रासंगिक हैं और आज के संशयग्रस्त मनुष्य को एक स्पष्ट जीवन-दर्शन दे सकते हैं।" इस संदर्भ में यदि हम पूज्य जैन दिवाकरजी के उपदेशों पर ध्यान दें तो सहज ही कोई रचनात्मक दिशाबोध हो सकता है। तीर्थकर' के 'मुनिश्री चौथमल जन्म-शताब्दिअंक' से संबन्धित फोल्डर में उनके तीन रूप सामने रखे गये हैं - वसुधा मेरा कुटुम्ब, मानवता मेरी साधना और अहिंसा मेरा मिशन । केवल आज के पग में यह संभव और व्यवहार्य है कि सारे संसार को एक परिवार माना जाए। विज्ञान ने आज हमें इतना समर्थ बना दिया है कि हम एक-दूसरे के निकट हो सकें और अपने विचारों का स्वतन्त्र आदान-प्रदान कर सकें। आज, वस्तुतः , हम इतने विवश हैं कि “वसुधा को एक कुटुम्ब" माने बिना हमारे पास कोई मार्ग ही नहीं है। अफ्रीका के सघन-बीहड़ वनों से लेकर उत्तरी ध्रुव के निवासियों तक और कोरिया-जापान से दक्षिण-अमेरिकी राज्यों तक आज सारी दुनिया का आदमी एक है । संभव है, जैनधर्म अपने प्रवर्तन-क्षणों में सीमित रहा हो, किन्तु उसके सिद्धान्तों की व्याप्ति अनन्त थी, इसीलिए वह तब समीचीन थी, आज मौजू हैं, पूरी तरह प्रासंगिक और सार्थक है। ___ संयुक्त राष्ट्रसंघ में आज लगभग १५० मुल्कों के प्रतिनिधि हैं, जो इस साधना के प्रतीक हैं कि धरती की मनुजता एक है, वह अलग-अलग भू-खण्डों में बँटी हुई नहीं है। विज्ञान के सारे आविष्कार, मनुष्य को स्वास्थ्य या आरोग्य प्रदान करनेवाली ओषधियाँ, उसके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने वाले साधन, आज बिना किसी पूर्वग्रह या कठिनाई के सर्वजन सुलभ है। इस तरह संसार का सामान्य नागरिक संपूर्ण मानवता की साधना में लगा हुआ है। माना, राजनीति से उसकी सद्भावना अभिशप्त है, किन्तु सदियों से चले आ रहे उसके प्रयत्न अभी ठंडे नहीं हुए हैं । संत पुरुषों ने, विश्व में जहाँ कहीं भी साधना की है, उसकी कोई-न-कोई फलश्रुति देर-अबेर ज़रूर सामने आयेगी। अहिंसा का संदर्भ तो और भी प्रखर है । पहले सिर्फ विवेक और ज्ञान ही अहिंसा के समर्थक थे, किन्तु आज अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि अहिंसा के बिना जगत् के सामने कोई रास्ता नहीं है। प्रदूषण और युद्ध, तनाव और संत्रास, बीमारियाँ और गृहकलह इस क़दर बढ़ रहे हैं कि अहिंसक जीवन-शैली को अपनाये बिना आज कोई विकल्प ही नहीं रहा है। आज हिंसा जीवन में सर्वत्र जिस तरह सुराख किये बैठी है. उसका सीधा अर्थ है – सर्वनाश । यही वह विवशता है वस्तुतः, जिसके कारण संपूर्ण जगत् को अहिंसा की ओर मुड़ना पड़ रहा है। यही नहीं, जैनधर्म के एक और सिद्धान्त अपरिग्रह को ही हम लें। भौतिक साधनों की अमर्यादा और असंयम के कारण आज 'विकास को विवेक' के साथ जोड़ना बहत चौ. ज. श. अंक . ५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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