SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जरूरी हो गया है । हमारा यह निरुद्देश्य विकास कहीं निखिल मानवता को किसी गहरी खाई में न उतार दे, यह सावधानी हमें क़दम - द - क़दम बरतनी होगी और अपरिग्रह को क्रमशः जनजीवन में सघन करना होगा । मैंने ऊपर आधुनिक विकास का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें आशा की एक स्पष्ट किरण जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों के रूप में दिखलायी देती है । आज, वस्तुत: मनुष्य विकास की उस पराकाष्ठा पर आ उपस्थित हुआ है जहाँ उसे धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों से साक्षात्कार हुआ है, किन्तु क्या कारण है कि जो इन धर्मों को सदियों से पालते चले आ रहे हैं, उन्हें इनकी उपयोगिता की अनुभूति नहीं हो पा रही है । यह सब देखते क़बीर की वह पद-पंक्ति याद आ जाती है - 'पानी बिच मीन पियासी, सुन-सुन आवे हाँसी' । जैनों के पास सिद्धान्त हैं, आचरण नहीं है; शास्त्र है, किन्तु उसका स्पष्ट बोध नहीं है । एक तरह से वे एक तीखी आत्मप्रवंचना में जी रहे हैं; क्या 'पानी बिच मीन पियासी' की उक्ति को चरितार्थ नहीं कर रहे हैं ? उदाहरण के लिए हम पर्युषण की क्षमापना को ही लें; इस अवसर पर क्षमा हम केवल सगे-संबन्धियों और परिचितों से ही नहीं माँगते वरन् सारे चराचर जगत् से माँगते हैं । इस सिद्धान्त की उदात्तता को पर्यावरण- विज्ञानियों के इस अभिलेख से मिलाइये कि यदि मनुष्य को इस धरती पर शान्ति-सुख से अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो उसे समस्त प्रकृति, उसके परिवेश, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़-पौधे इत्यादि को भययुक्त करना होगा । उनके साथ मैत्री और अहिंसापूर्वक जीना होगा; किन्तु विडम्बना यह है कि जैनों की क्षमापना केवल एक औपचारिकता अब है, उसका जीवन से सीधा सरोकार नहीं रहा है । क्या हम अपने सिद्धान्तों को जीवन से जोड़ने की दूरदर्शिता दिखा सकेंगे ? मैंने जिन तथ्यों की ओर ऊपर संकेत किया है, वे और अधिक गहराई से सोचे जाने की अपेक्षा रखते हैं; अतः मैं चाहता हूँ कि इस शताब्दि- वर्ष में व्यर्थ के अपव्ययों से बचकर साधु और श्रावक - वृन्द जैनधर्म के सिद्धान्तों को आचरण में लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने का प्रयत्न करे । 'यह एक महापुरुष होगा' एक बार मन्दसौर के शास्त्रवेत्ता श्रावक श्री गौतमजी वाग्या ने वैराग्यावस्था में श्री जैन दिवाकरजी को देखकर टिप्पणी की थी- "ये क्या संयम पालेंगे ?" इस पर पूज्य श्री हीरालालजी महाराज ने कहा - "यह बालक भविष्य में एक महापुरुष होगा । जैन - जैनेतर लाखों मानवों और प्राणियों का कल्याण करेगा और सारे देश में ज्ञान, संयम और चारित्र की अनुपम गंगा प्रवाहित करेगा ।" अन्ततः माता और पत्नी से लिखित अनुमति प्राप्त तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ ५६ जवाहरलाल मुणेत, अमरावती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy