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________________ एक बड़े अभाव की पूति दरअसल बुनियादी सवाल यह है कि प्रस्तुत विशेषांक प्रकाशित कर 'तीर्थ- वर्तमान में निरन्तर कोई डेढ़ सौ पत्रिकाएं कर' ने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। साहित्य, समाज या संस्कृति के प्रति क्या विशेषांक में आरम्भ के ६१ पष्ठों में कोई योग कर पा रही हैं ? अतिशयोक्ति की विशिष्ट विद्वानों के पत्र-पत्रिकाओं पर खोज- ऊँचाई तक उड़ान किये जाने के बाद भी पूर्ण लेख हैं, जिनमें डा. ज्योतिप्रसाद जैन साकार उत्तर देना कठिन है। जैन पत्रिका लेख विशेष रूप से पठनीय है। तत्पश्चात् । नात काओं का इससे अधिक कोई योग नहीं है २० पष्ठों में जैन पत्र-पत्रिकाओं की भावी कि वे नामों की एक लम्बी फेहरिश्त बना भूमिका पर एक परिचर्चा दी गयी है। इसके सकती हैं। बाकी अधिकांश तो समाज की पश्चात विशिष्ट विद्वानों के विचार दिये रूढ़ियों, परम्पराओं व संस्थाओं से प्रतिबद्ध गये हैं। तत्पश्चात ४० पष्ठों में जैन पत्र- होकर एक निश्चित सुर निकालने का अनिपत्रिकाओं के बारे में परिचयात्मक टिप्पणी वाय कष्ट भोग रही हैं । कई इश्तहार से दी गयी है। इसी अंक में रमा जैन की स्मति अधिक नहीं हैं । न उन्नत स्तर का ध्यान में लेख दिये गये हैं। अंक में प्रमख संपादकों. है और न समाज के हित-अहित का कोई के बारे में लेख दिये गये हैं। परा अंक संक- चिन्तन है । अपने घोसला का रहवासा बने लन एवं पढ़ने योग्य है । प्रकाशन सुन्दर है । रहने के बाद भी जैन पत्रिकाओं ने समाज व इसके काटनेने संस्कृति के उभय सवालों पर निर्भीक जो प्रयास किया है, उसके लिए वे प्रशंसा चिन्तन किया होता तो शायद समग्रता की के पात्र हैं। जोड़ कुछ उपलब्धि तक पहुँच पाती, किन्तु ऐसा नहीं है । -वीर, मेरठ ; १५ नवम्बर ७७ जैन पत्रिकाओं पर समाज का भारी धन एक अछते विषय पर विवेचन व शक्ति व्यय हो रही है । यदि सभी पत्रि'तीर्थकर' ने जैन पत्र-पत्रिकाएँ विशेषांक काओं के वार्षिक व्यय को जोड़ा जाये तो प्रकाशित कर समाज को एक अछुते विषय कम-से-कम पच्चीस लाख रुपये का आंकड़ा पर विवेचन करने के लिए बाध्य कर दिया तो सरलता से अंकित किया जा सकता है। है । प्रस्तुत विशेषांक से एक महत्त्वपूर्ण लेकिन यदि जैन पत्रिकाएँ अपनी उपयोतथ्य स्पष्ट हुआ है कि जैन पत्र-पत्रिकाओं गिता साबित करें, तो कई गने रचनात्मक ने एक शताब्दी पूर्ण कर ली है । इस कार्य किये जा सकते हैं । पत्रकार समाज को शताब्दी के अन्तराल में निकली अधिकांश बदल सकता है, जैन पत्रकार ऐसा प्रयत्न जैन पत्रिकाएँ (पत्र शब्द भी जोड़ना उप करें तब न । युक्त नहीं है) दिवंगत हो चुके हैं, कतिपय आशा है कि 'तीर्थंकर' का उक्त विशेआज लंगडी फौज की सदस्य हैं एवं कछ षांक समाज में नयी परिचर्चा को जन्म देगा. एसो अवश्य हैं, जिन पर संतोष प्रकट किया जिसकी गूंज समाज के हर मंच पर ध्वनित जा मकता है। जैन पटल के जैन पत्रकारों होगी और जैन पत्रकारिता वर्तमान का आपसी रिशा नहीं के बराबर है, शताब्दी के प्रति ईमानदार बनाने में कामकेवल परिवर्तन में पत्रिकाओं का ले-देकर याब हो जाएगी । लेते हैं । इसके सिवाय उन्होंने एक घोंसले __-शाश्वत धर्म, मन्दसौर ; १० दिस., ७७ में एकत्र होकर आपसो सुख-दुःख पर विचार करने की कोई कोशिश नहीं की । अधिकांश पालन परिश्रम पूर्णतः सफल- सार्थक के घोंसले ही अलग-अलग हैं । और वे एक- विशेषांक बहुत सुन्दर है । यह आपकी दूसरेके घोंसलों को बिखेरने में जुटी हुई हैं। लगन, सूझबूझ, प्रतिभा तथा परिश्रम का १७२ तीथकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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