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एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ता गं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥ एक को जीत लेने पर पांच जीत लिये जाते हैं, पाँच की जीत लेने पर दस पर विजय प्राप्त होती है और दस पर विजय प्राप्त करनेवाला समस्त शत्रुओं पर जय पा लेता है।
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अक्कोसेज्जा परे भिक्खु, न तेसि पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥ दूसरा कोई पुरुष भिक्षु पर आक्रोश करे तो उस आक्रोश करनेवाले पर भिक्षु क्रोध न करे। क्रोध करने पर वह स्वयं बाल-अज्ञानी के समान हो जाता है, अतएव भिक्षु क्रोध न करे।
१७ अच्छिनिमीलयमेत्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥ रात-दिन पचते हुए नारकी जीवों को नरक में एक पल-भर के लिए भी सुख नहीं मिलता, उन्हें निरन्तर दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है।
१८ जहा दद्धाण बीयाणं, ण जायंति पुर्णकुरा। कम्मबीएसु, दद्धसु न जायंति भवंकुरा ॥ जैसे जले हुए बीजों से फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार कर्मरूपी बीजों के जल जाने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते।
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'जिस आत्मा में ज्ञान की जितनी अधिक स्फुरणा होती है, प्रतिभा होती है या चमक होती है, समझ लीजिये वह आत्मा उतना ही अधिक निर्मल है।
'जैसे स्याही की गोली दूध से धोयी जाए तो गोली तो शुद्ध होती नहीं, दूध ही मलिन हो जाता है। इसी प्रकार पानी से धोने पर शरीर शुद्ध नहीं होता, बल्कि पानी ही शरीर के संसर्ग से अपवित्र हो जाता है।
-मुनि चौथमल तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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