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वे आपकी सेवा के जीते-जागते उदाहरण हैं । ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी पूज्य गुरुदेव को उनकी सेवाओं के प्रति नतमस्तक होकर कोटिशः वन्दन !
विमल मुनि
अक्षर अध्यात्म
संवत् २००१ में गुरुदेव का चातुर्मास उज्जैन हो रहा था । उस समय का यह प्रसंग है । एक छोटा-सा अबोध बालक, जो करीब चार-पाँच वर्ष का ही होगा, उनके दर्शनार्थ आया । गुरुदेव ने कहा, 'तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या पढ़ते हो ?' वह उसी समय वहाँ से उठा और अपनी किताब लेकर आ गया । उन्होंने पूछा, 'यह क्या है ? ' तब उस बालक
सह निडर भाव से कहा कि यह 'अक्षर ज्ञान' की किताब है । 'तुम इसे पढ़ना जानते हो ?' 'हाँ' कहने पर गुरुदेव ने उसे पढ़कर सुनाने को कहा । वह बालक अपनी तोतली बोली में पढ़ने लगा। पहला ही पाठ था - 'अकड़ कर मत चल, नम कर रह ।'
यह सुनकर गुरुदेव समझाने लगे, 'है तो यह अक्षर ज्ञान, पर इसमें कितना महान् अर्थ छिपा हुआ है । उत्तराध्ययन के प्रथम अध्याय का पूर्ण चित्र इसमें चित्रित है । इसमें भगवान ने विनय को महत्त्व दिया है। मानव का कल्याण अकड़ कर चलते में नहीं, अपितु नम्रता के भावों से ही संभव है ।' उस दिन तत्त्व चर्चा का यही विषय बना रहा । गुरुदेव ने अक्षर ज्ञान को अध्यात्म का प्रतीक बतलाया । अक्षर ज्ञान को अध्यात्म का प्रतीक बतलाया । अक्षर ज्ञान में जो प्रथम अक्षर है वह 'अरिहन्त' का ही सूचक है । द्वितीय आचार्य का | मानव को इस पर बार-बार विचार करना चाहिये । ये विचार ही आत्मकल्याण के साधन हैं ।
अशोक मुनि
जीवन की प्रमुख घटनाएँ
पं. मुनि श्री चौथमलजी महाराज के जीवन की कतिपय प्रमुख घटनाओं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है ।
वि. सं. १९६३ में कानोड़ (उदयपुर) के बाजार में मुनिश्री के प्रवचन हो रहे थे । उस समय वैष्णव भाइयों का जुलूस निकल रहा था । झगड़ा होने की संभावना देखकर उन्होंने अपना प्रवचन बन्द कर झगड़ा नहीं होने दिया ।
वि. सं. १९६६ में उदयपुर के निकट नाईग्राम में मुनिश्री के प्रवचन से प्रभावित होकर चार हजार आदिवासियों (भीलों) ने माँस खाने का त्याग कर दिया ।
वि. सं. १९७८ में रतलाम में चातुर्मास के समय महावीर मंडल की स्थापना हुई और सं. १९८२ में जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस खरीदा गया । जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति, रतलाम द्वारा मुनिश्री का साहित्य प्रकाशित होने लगा ।
चौ. ज. श. अंक
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