SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D वि.सं. १९८२ में ब्यावर में सेठ श्री कुन्दनमल लालचन्द ने मुनिश्री के सदुपदेश से प्रेरित होकर रु. १,२२,८०० से कुन्दन ट्रस्ट बनाया। इस राशि को अनेक धार्मिक कार्यों में व्यय किया। - जब मुनिश्री पाली (राजस्थान) में विराजमान थे, उन्होंने सर्वप्रथम संघएकता के लिए अपनी स्वीकृति दी । फलस्वरूप श्री वीर वर्द्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ की स्थापना हुई। उनके जीवन-काल में चार मुख्य अवसरों पर रविवार आया - जन्म, दीक्षा, अंतिम प्रवचन और दिवंगति । - पं. मुनि हीरालालजी प्यार ही प्यार - प्रीति ही प्रीति जैन दिवाकरजी वाग्मी सन्त थे। उनके व्याख्यानों की प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। उनकी प्रवचन-शैली मौलिक थी, और गहन-गंभीर विषयों की उन्हें सम्यक् पकड़ थी। वे जहाँ भी गये, गाँव या शहर, झोपड़ी या महल, उन्होंने अपने प्रवचनों से गरीब-अमीर, किसान-मजदूर सबको प्रभावित किया । अहिंसा के वे शक्तिशाली पक्षधर थे। उनके हृदय में प्राणिमात्र पर अपार करुणा थी, किसी के प्रति कोई राग-द्वेष नहीं था । हृदय के अंतिम कोने तक उनमें प्यार-ही-प्यार--प्रीति-ही-प्रीति थी। -कान्ति मुनि परोपकारी प्रखर वक्ता जगद्वल्लभ, प्रसिद्ध वक्ता श्री चौथमलजी महाराज का समग्र जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि कोरी दीक्षा कभी भी श्रेयस्कर नहीं है ; उसके साथ ज्ञान और अभीक्ष्ण स्वाध्याय की एक सुदृढ़ पृष्ठभूमि आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने दीक्षा लेने के बाद संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का, और जैन-जेनेतर साहित्य का गहन-गहरा अध्ययन किया । गीता, बाइबिल, भागवत आदि अनेक जैनेतर ग्रन्थों का सन्तुलित मन्थन किया, स्वाध्याय किया, पारायण किया-उनकी बारीकियों को समझा । उन्होंने परोपकार में अपना समूचा जीवन ही लगा दिया। उन्होंने अनेक प्राणियों के कष्टों का निवारण किया, उन्मार्ग से सन्मार्ग पर डाला । कइयों के व्यसन छुड़ाये और कइयों से मांसाहार का त्याग कराया। उनकी अमृततुल्य वाणी सबका कल्याण करनेवाली थी । वे प्रखर वक्ता/परोपकाररत संत पुरुष थे। उन्हें मेरे प्रणाम ! -साध्वी मधुबाला ५० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy