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जीना जिसने सीखा
___मरना वही सीख सकता है
चौमुखी क्यूं ! प्रतिभा थी बहुमुखी, रसवंती के स्वामी । काव्य-निर्मिति, शास्त्र-संगति वाचस्पति थे नामी ॥ कविता आपकी हम गायें तो, गद्गद श्रोता होते । अहा ! काव्य यह श्राव्य अतिशय मुक्त कण्ठ से कहते ॥ थके नहीं, नहीं डरे किसी से, हारे कभी न आप । बढ़ते कदम थमानेवाले बांध गये महापाप ।। जीवित जागृत महापुरुषों को लोग नहीं पहचाने । खूब सुनाये ताने पहले बाद लगे गुण गाने ॥ महावीर की महावीरता सिखलायी सब को धर प्रेम । हिंसादि महापाप छुड़ाये खूब कराये व्रत और नेम ॥ हजारों भक्तों ने माना श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गुरुवर थे आप। गुरु की काया नहीं आज पर मन में श्रद्धा वही अमाप ।। लगन लगाना धर्म-मार्ग की काम नहीं किंचित भी सीधा। किन्तु शिष्यगण आप चरण में भागे छोड़ सुख और सुविधा ।। पर परिणति परलोक बिगाड़े समकित मोक्ष दिलाये। नगर-नगर और गाँव-गाँव जा यही तत्त्व समझाये । जीना जिसने सीखा मरना वही सीख सकता है। तन की, मन की दे कुर्बानी, याद अमर रखता है। जाने पर भी माने दुनिया, कैसी कीमया कर दी। भक्तों की रग-रग में धर्मास्था गहरी भर दी ।
- साध्वी प्रीतिसुधा
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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