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________________ समन्वयवादी सन्त दिवाकरजी महाराज समन्वयवादी महान् सन्त थे । उनकी वाणी में ओज, विचारों में गाम्भीर्य व मानव मात्र की कल्याण की भावना निहित थी । धर्म जाति एवं समाज-संगठन में आपका अपूर्व योगदान रहा है । निर्भीक वक्ता के साथ आप सफल कवि भी थे। उनके श्रेष्ठ कार्यों का दिग्दर्शन कराने में यह विशेषांक सफल बने, यही मेरी शुभकामना है । - आचार्य आनन्दऋषि, अहमदनगर अनुसरण में सार्थकता सन्त एवं महापुरुषों की जन्म-शताब्दीसमारोह की सफलता उनके बताये गये मार्ग पर चलना और तदनुरूप आचरण करना ही होता है । - उपाध्याय विद्यानन्द मुनि, बड़ौत करुणा की साक्षात् मूर्ति जैन दिवाकर, जगवल्लभ श्री चौथ - मलजी महाराज वस्तुतः जैनसंघ रूपी विशाल आकाश के क्षितिज पर उदय होने वाले सहस्रकिरण दिवाकर ही थे । उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व जैन-अजैन सभी पक्षों में श्रद्धा का ऐसा केन्द्र रहा है कि जन मन सहसा विस्मय- विमुग्ध हो जाता है । I उनकी जनकल्याणानुप्राणित बोधवाणी राजप्रासादों से लेकर साधारण झोपड़ियों तक में दिनानुदिन अनुगुंजित रहती थी प्रवचन क्या होते थे, अन्तर्लोक से सहज समुद्भूत धर्मोपदेश के महकते फूलों की वर्षा ही हो जाया करती थी । परिचित हों या अपरिचित, गाँव हों या नगर, जहाँ कहीं भी पहुँच गए, उनके श्रीचरणों में श्रद्धा और प्रेम की उत्ताल रंगों से गर्जता चौ. ज. श. अंक Jain Education International श्रद्धाञ्जलि एक विशाल सागर उमड़ पड़ता था । न वहाँ किसी भी तरह का अमीर, ग़रीब आदि का कोई भेद होता था और न जाति, कुल, समाज या मन, पंथ आदि का कोई अन्तर्द्वन्द्व ही । उनकी प्रवचन सभा सचमुच में ही इन्द्रधनुष की तरह बहुरंगी मोहक छटा लिये होती थी । श्री जैन दिवाकरजी करुणा की तो साक्षात् जीवित मूर्ति ही थे। इतने परदुःखकातर कि कुछ पूछो नहीं । अभावग्रस्त असहाय वृद्धों की पीड़ा उनसे देखी नहीं गयी, तो उनकी कोमल करुणावृत्ति ने चित्तौड़ - जैसे इतिहास - केन्द्र पर वृद्धाश्रम खोल दिया । अनेक स्थानों पर पुराकाल से चली आती बलि प्रथा बन्द कराकर अमारी घोषणाएँ घोषित हुईं। हजारों परिवार मद्य, मांस, द्यूत तथा अन्य दुव्यंसनों से मुक्त हुए, धर्म के दिव्य संस्कारों से अनुरंजित हुए। शिक्षण के क्षेत्र में बालक, बालिका तथा प्रौढ़ों के लिए धार्मिक एवं नैतिक जागरण के हेतु शिक्षा निकेतन खोले गए । मातृजाति के कल्याण हेतु कितनी ही प्रभावशाली योजनाएं कार्यरूप में परिणत हुईं। बस, एक ही बात । जिधर भी जब भी निकल जाते थे, सब ओर दया, दान, सेवा और सहयोग के रूप में करुणा की तो गंगा बह जाती थी । श्री जैन दिवाकरजी शासनप्रभावक महतो महीयान् मुनिवर थे । अनेक आचार्यों से जो न हो सकी, वह शासनप्रभावना दिवाकरजी के द्वारा हुई है । जितना विराट् एवं ऊँचा उनका तन था, उससे भी कहीं अधिक विराट् एवं ऊँचा उनका मन था; आज की समग्र संकीर्णताओं तथा क्षुद्रताओं से परे । संघ-संगठन के शत-प्रतिशत रखे हुए सूत्रधार । संप्रदाय विशेष में रहकर भी सांप्रदायिक घेराबंदी से मुक्त | अपने युग क : यह इतिहास पुरुष कालजयी है । युग For Personal & Private Use Only ७५ www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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