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"नीमच तो आपकी जन्म-भूमि है फिर भी विहार में आपके साथ तीन-चार भक्तों से अधिक नहीं हैं ?" प्रश्न सुन कर वे दो मिनिट ध्यानस्थ हो गये । मैं स्तब्ध देखता रहा । चारों ओर से जन-समूह उमड़ पड़ा। मुझे याद है अधिक-से-अधिक पाँच मिनिट में वहाँ एक हजार से अधिक भक्तों की भीड़ जमा हो गयी थी। मेरे लिए निश्चित ही यह एक अद्भुत-अपूर्व घटना थी।
- सौभाग्यमल कोचट्टा, जावरा
युग का एक महान् चमत्कार जिस महान् विभूति का जन्म-शताब्दि-वर्ष सारे देश में मनाया जा रहा है, वह केवल' जैन समाज का ही नहीं वरन् संपूर्ण भारत का एक असाधारण संतपुरुष था। भारत की जनता के नैतिक जीवन को ऊँचा उठाने और अहिंसा के प्रचार-प्रसार की दिशा में श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने जो योगदान किया है, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने अपने अनूठे व्यक्तित्व और अपनी असाधारण वक्तृता से बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को प्रभावित किया और यथाशक्ति जीव-दया तथा अहिंसा का व्यापक प्रसार किया । सैकड़ों राजाओं और जागीरदारों ने जीव हिंसा-निषेध के पट्टे लिख कर उन्हें समर्पित किये । यह उस युग का एक महान् चमत्कार था। वस्तुतः वे मेरे परम आराध्य गुरु हैं । जब मैं ९ वर्ष का ही था, तब उनसे मैंने गुरु-आम्नाय (सम्यक्त्व) ली थी। एक लम्बी अवधि के बाद जोधपुर-चातुर्मास में मैं उनके दर्शनार्थ गया था। तब मैं बीस वर्ष का तरुण था। पूरे ११ वर्षों बाद मैंने यह दर्शन-लाभ किया था । गुरुदेव प्रवचन दे रहे थे। दस हजार से अधिक लोग एकटक, मंत्रमुग्ध उन्हें सुन रहे थे। व्याख्यान के बाद में भी उनके साथसाथ चलने लगा। मार्ग में उन्होंने मुझ से पूछा-“बापू, थने याद हे, संवत् १९८५ में गुरु-आम्नाय ली थी ?' इस आत्मीय स्वर ने मुझे नखशिख हिला दिया । ११ वर्ष के अन्तराल के बाद भी वे मुझे नहीं भूले थे। सैकड़ों लोगों के बीच चलते हुए उन्होंने मुझसे यह प्रश्न किया था । इस एक ही बात से मैं इतना अभिभूत हुआ कि फिर प्रति वर्ष उनकी सेवा में उपस्थित होने लगा। वि. सं. १९९६ से ही मेरा प्रयास रहा कि श्री जैन दिवाकरजी का एक चातुर्मास रतलाम कराऊँ । अपने प्रयत्न में मुझे सफलता मिली संवत् २००० में । उनका यह चातुर्मास संघ की एकता की दृष्टि से चिरस्मरणीय रहा । रतलाम के बाद संवत् २००७ में उनका चातुर्मास कोटा में हुआ । जैन-समाज की भावात्मक एकता के संदर्भ में यह चातुर्मास अद्वितीय रहा । इसके बाद ही वे उदर-व्याधि से पीड़ित हुए। १४ दिन उन्हें यह पीड़ा रही । मैं लगभग १२ दिन उनकी सेवा में अन्तिम क्षणों तक रहा । मुझे उनकी अन्तिम वन्दना का सौभाग्य मिला था ।
- बापूलाल बोथरा, रतलाम
- तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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