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एक श्रास्था-स्तम्भ
। जन संस्थाओं के माध्यम से सत्साहित्य की जो सेवा हुई और होती रहेगी, क्या वे श्री जैन दिवाकरजी को आस्था स्तम्भ मानने से मुकर सकती हैं ?
जिन शिष्य - शिष्याओं को मुक्ति-मार्ग के मुख्य साधन संयम की प्राप्ति में उन्होंने जो प्रेरणा दी, वे संत तथा सती आजीवन अपनी श्रद्धा अन्यत्र कैसे समर्पित करेंगी ? जिन-जिन पतितों को राज्य, समाज तथा परिवारवालों ने गले नहीं लगाया, उनको अपनी करुणा की छाया में बैठने दिया, वे श्री जैन दिवाकरजी के प्रति श्रद्धावनत हों, इसमें आश्चर्य नहीं है ।
इस प्रकार जिन-जिन महानुभावों को श्री जैन दिवाकरजी म. के दर्शन मिले, प्रवचन सुनने का अवसर मिला, वात्सल्य सुलभ हुआ, ज्ञान-प्राप्ति हुई और मार्गदर्शन मिला, वे सब ही हृदय की गहराई से उनका सतत स्मरण करते और श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं, क्योंकि वे उनके लिए एक आशा-स्तम्भ ही तो रहे हैं ।
सुभाष मुनि
उनके आदर्शों का आत्मसात् करें
श्री जैन दिवाकरजी का संपूर्ण जीवन अगणित प्रेरक, मार्मिक, आदर्श और अनुकरणीय घटनाओं से ओतप्रोत था । वे संप्रदाय - समन्वय के हिमायती थे, उनके सान्निध्य में कोटा में जो सन्त-सम्मेलन हुआ, जिसमें दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सन्तों ने एक मंच से जनसमुदाय को सम्बोधित किया । वह परम्परा अक्षुण्ण रहे और समस्त सन्तसमुदाय मानव-कल्याण के लिए एक मंत्र से जिनशासन-धर्म का उद्घोष करें, यही इस पावन शती समारोह का आदर्श सन्देश है । जन्म-शताब्दि - वर्ष में हम उनके आदर्शों को आत्मसात् करें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
दिनेश मुनि
'मुझे दीक्षा दीजिये '
मेरी माताजी का स्वर्गवास हो गया था । हम तीन भाई छोटे थे । हमारी सार-संभाल और व्यापार को ध्यान में रखकर पिता श्री मोड़ीरामजी गांधी पुनर्विवाह का सोच रहे थे । संयोगवश, मेवाड़धरा को पावन करते हुए पूज्य गुरुदेव चौथमलजी का देवगढ़ ( मदारिया) नगर पढार्पण हुआ । चौक बाजार में उनके व्याख्यानों की धूम थी। एक दिन पूज्य गुरुदेव ने पिताश्री को उपदेश देते हुए इच्छा प्रकट की कि आप चारों प्राणी संसारी निवृति ग्रहण करें और धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त होकर जिनशासन को प्रकाशित करें । पिताश्री ने प्रत्युत्तर में कहा कि प्रताप अभी छोटा है । बड़ा होने पर हम आपकी इच्छानुसार करेंगे ।
चौ. ज. श. अंक
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