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जापान से निम्नलिखित एस्टीमेट प्राप्त हुआ--
एलीफेक्स प्रतियाँ फोटो प्रतियाँ १०० १००
१००० 'गोम्मटसार' (२८३७ पृ.) येन-१,१००,००० ३,५००,००० ५,८००,००० 'लब्धिसार' (९७३ पृ.) येन- ४००,००० १,५००,००० २,०००,०००
(१ रुपमा लगभग ५० येन का होता है । ) यह लेख तीर्थंकर' के सम्पादक के अनुरोध पर लिखा गया । वे अभी मैसूर सेमीनार से लौटे और श्रमण बेलगोला के भट्टारक स्वामीजी के विशेष परिचय में आये हैं। संभव है इससे प्रेरणा पाकर इस ग्रन्थ के पुनः प्रकाशन का बीड़ा उठाया जाए-विशेष रूप से गोम्मटेश्वर के महामस्तकाभिषेक के पुनीत अवसर पर ज्ञान के हर अलौकिक दीपक को फिर से प्रज्वलित किया जा सके। वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अब यह कार्य निस्संदेह ही अत्यन्त सरल है, किन्तु क्या सचमुच इतना सरल है ?
(गोयलजी बेटे के आईने में : पृष्ठ १५६ का शेष) के साथ बितायी। कभी और कहीं भी अनाचार-अत्याचार के आगे नहीं झुके । हमेशा सीना तान कर रहे । लगन उनमें हद दर्जे की थी। जिस चीज़ के पीछे पड़ते थे, उसे बिना लिए छोड़ते नहीं थे। बड़े ही अध्ययनशील थे। · · · गोयलीयजी क्रान्तिकारी व्यक्ति थे। समाज को सुधारने में उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया।" - - - -
आदरणीय रायकृष्णदास के बहुमूल्य शब्दों में, " . . . वे अपने आप में एक संस्था थे। ज्ञान की मूर्ति थे साथ ही शालीनता के आगार थे।" . . . .
भैया साहब श्री नारायणजी चतुर्वेदी ने पिताजी के बारे में कहा--"वे हिन्दी के सम्मानित और मान्य लेखक थे। उर्दू के मर्मज्ञ काव्य-प्रेमी होते हुए भी उन्हें हिन्दी से बड़ा प्रेम था। 'सरस्वती' के वे सम्मान्य लेखक थे और उसके विशेष कृपापात्र थे। व्यवसाय में रहकर भी अपनी उत्कट साहित्यिक अभिरुचि और हिन्दी-प्रेम के कारण वे व्यवसाय की व्यस्तता से भी हिन्दी की सेवा करने का समय निकाल लेते थे। उनके उच्च चरित्र और मृदु स्वभाव के कारण वे बड़े लोकप्रिय थे।"
आइये, आज उनके किस्से को यहीं रहने दें। नींद तो अब उड़ ही चुकी है।
चौ. ज. श. अंक
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