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________________ थे। 'मैं शतरंज खेलता हूँ, ताश नहीं' यह उनका खास मुहावरा उनके पत्रों में साफ़ झलकता है। उन्हें अच्छा पहनने और बढ़िया खाने-पीने का शौक़ था। अचकन-चूड़ीदार पायजामे में उनका व्यक्तित्व उभर जाता। लगता हुजूर कोई शेर कहेंगे। खद्दर के कुर्ते और महीन धोती में उनका सौम्य और सुन्दर शरीर एक दिलेर रईस की शोभा बढ़ाता। उन्हें असग़र अली (लखनऊ) के हिना का खास शौक़ था। उसका फ़ाया वे कान में ज़रूर लगाते । उन्ह उड़द की दाल, भरवाँ आलू, मटर-गोभी, काबली चने, पालक-बथुए का साग और बेसनी रोटी बेहद पसन्द थी। फलों में संतरा और आम की पसन्द थी। तेज़ मसाले का समोसा हो, धनिये की चटनी हो, मूंग की दाल का हलवा हो, टमाटर-संतरे का सैंडविच हो और रेडियो पर सुरैया-शमशाद के नग्मे हों और गोयलीय के लाडले बेटे हों फिर गोयलीय साहब उस महफ़िल के पीरे-मुंगा हो जाते। बच्चों को लतीफ़े, किस्से, शेर, अपने दोस्तों के टोकरों भर के गुण और एहसानात इस तरह से सुनाते, लगता घर में शहनाई बज रही है। बातचीत में हमारी अम्मा शेर और जुमले कहती तो हम लोग कहते--'पिताजी बेअदबी माफ़, आप भी हज़रत दाग़ और सुदर्शनजी की तरह अपनी साहित्यिक दुनिया में अम्मा से शेर, लतीफ़े और मुहावरे के लिए अम्मा से सलाह लीजिये'। इस पर पिताजी मुस्कराते हुए अपने खास अन्दाज़ में कहते, 'हाँ भाई ! बेटे तो आखिर अपनी माँ के हो' । हमारी माँ ने हमारे पिताजी को पूर्ण बताया। अम्मा ने पिताजी की चादर को हमेशा बड़ा बताया। पिताजी के घर को हवेली बना दिया। पिताजी ने आज तक अम्मा के रहते अपने हाथ से एक गिलास पानी नहीं पिया। पिताजी के वस्त्रों को माँ बड़े चाव से धोतीं। उनकी सेवा करतीं। उनके लिए व्रत-त्यौहार करतीं। उफ्, हमें क्या मालूम था, अम्मा पर उनके बिछोह की मार पड़ेगी। पिताजी स्वाभिमान की अन्तिम पंक्ति थे। दर्द का यह शेर तरदामनी पे शेख हमारे न जाइयो। दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वजू करें। उनके जीवन पर सही उतरता है। उन्होंने अपने अत्यन्त सीमित साधनों में पांचों बच्चों को उच्च शिक्षा दी, बच्चों का अच्छी तरह से विवाह किया, मकान बनवाया । सर्विस से निवृत्त होने के बाद, ६ वर्षों तक सहारनपुर की रौनक बढ़ायी। खानपान, रहन-सहन का वही ऊँचा स्तर। कहीं तबियत में तंगदिली नहीं। मेहमानों की चरणधूलि पड़ते देख उसी तरह से चहकना, सत्कार करना पिताजी का स्वभाव था। पिताजी ने कभी भी महंगाई नहीं गायी। उनके ४ में से ३ लड़के अच्छी १५४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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