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तनख्वाह पाते थे, किन्तु कभी लड़कों से एक पैसा नहीं लिया; बल्कि हमेशा उन्हें देते ही रहे।
उनके जीने में एक सलीका था, एक तरीका था। उनकी हर चीज़ व्यवस्थित होती थी। उनकी रखी हुई चीज़ अँधेरे में मिल जाती । उनका ट्रंक लगाना अपने आप में निहायत खूबसूरत उपमा थी। इस खूबसूरती पर चचा प्रभाकर रीझ गये और 'गोयलीय का ट्रंक; एक सलीका : एक तरीका' संस्मरण लिखा । दिनकरजी ने ठीक ही कहा था, "ब्रह्मा ने गोयलीय को बनाकर, उस साँचे को ही तोड़ दिया।" (बन्धुवर केदार के माध्यम से सुना) ।
वे मीर, ग़ालिब, मोमिन, इक़बाल और असर लखनवी के शेर अपनी बातचीत में 'कोट' करते थे। व्यथा पीर की और ज़बान की सुथराई हज़रत दाग़ की उन्हें पसन्द थी। वे अपने ज़बाने-मुबारक़ से शेर पढ़ते तो शेर का एकएक लफ्ज़ फूल की जगह फूल और बिजली की जगह बिजली बरसाता ।
वे १२ घंटे प्रतिदिन कुर्सी-टेबुल पर बैठकर लिखने की क्षमता रखते थे। न कोई अदा, न कोई नख़रा। बिसमिल्लाह का दादरा बज रहा हो, इक़बाल के नग्मे गूंज रहे हों; सहगल, शमशाद, सुरैया के तराने फ़जाँ में तैर रहे हों, पिताजी जेठ की दुपहरी में लिखे जा रहे हैं। बच्चे शोर मचा रहे हैं, उन्हें पता नहीं अगल-बगल क्या हो रहा है। जेठ की चिलचिलाती धूप गर्मी में इस शेर पर
यह भीगी रात, यह ठंडा समाँ, यह कैफ़े बहार।
यह कोई वक्त है, पहलू से उठके जाने का ?-दिल शाहजहाँपुरी दाद देते हुए कहते हैं, "हज़रते दिल का शाइराना कमाल देखिये कि उक्त शेर में न तो वस्ल और बोसो-कनार के अल्फाज़ आये हैं न कहीं छेड़छाड़ है, न कोई पोशीदा राज़ की तरफ़ इशारा किया है। फिर भी शेर मुंह बोलती तस्वीर बन गया है। पढ़ते हुए महसूस होता है, मसूरी में शानदार कोठी में ठहरे हुए हैं, और माशूक पहलू में है। धीमी-धीमी फुहारें गिर रही हैं, चाँदनी खिली हुई है और रेशमी रजाई में लिपटे पड़े हैं। अचानक माशूक उठकर जाने का ख़याल ज़ाहिर करता है तो उसके इस भोलेपन पर अनायास मुंह से निकल पड़ता है
यह कोई वक्त है, पहलू से उठके जाने का ?" उस्ताद असर लखनवी के इस शेर पर
हम उसी को ख दा समझते हैं।
जो मुसीबत में याद आ जाए ।। उन्होंने लिखा-"खुदा की तलाश में लोग वनों-पर्वतों की खाक छानते हैं। मन्दिरों-मस्जिदों में भटकते हैं। मगर खुदा नहीं मिलता । अगर किसी को मिलता भी है तो वह उसे पहचानता नहीं और इस तरह उसके दर्शनेच्छु दुनिया में भटकते
चौ. ज. श. अंक
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