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________________ हुए अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर देते हैं । ऐसे ही भटके हुए लोगों के लिए देखिये 'असर' खुदा की कितनी आसान पहचान बताते हैं ।" उनके बोलने - चालने का एक खास तरीका था। जिस दुकान में जाते दुकानदार आपको बहुत इज्ज़त से बैठाता । उसकी कुशल-क्षेम पूछते । पुरलुत्फ बात कहते । दुकान में सभी लोग मस्त हो जाते । महीने का सारा सामान एक बार ख़रीदते । भुगतान नगद करते । मोल-भाव में आप ज्यादा विश्वास नहीं करते थे । वे दुकानदार की भावना का बहुत ध्यान रखते थे । उधार से पिताजी को सख्त नफ़रत थी । सहारनपुर में रिक्शे से जाते समय स्कूटर से पिताजी के हाथ में बहुत चोट आयी। उस समय भी उन्होंने स्कूटर वाले का मुंह नहीं देखना चाहा और उस अनजान व्यक्ति को क्षमा कर दिया। उनका कहना था-- स्कूटर वाले को देखकर मैं क्यों अपने परिणाम बिगाड़ता ।' D उनकी पुस्तकें जब छपकर उनके सामने आती, प्रत्येक पुस्तक को अपने सामने २-३ दिन तक रखते और उसे बीसों बार उलट-पलटकर देखते । किताब की अशुद्धि, भूल, गेटअप, बाइंडिंग, प्रिंटिंग इत्यादि सभी चीजों पर फिर से विचार करते । अशुद्धि को तत्काल दुरुस्त करते । शब्दकोश देखने में जरा भी विलम्ब नहीं करते। उन्हें ग्रन्थ प्रकाशन एवं प्रिंटिंग प्रेस का बहुत अच्छा ज्ञान था । इस मामले में श्रीकृष्णप्रसादजी दर को अपने से बीस मानते थे । वे बोलते, वातावरण सुवासित हो उठता । बच्चे सही भाषा बोलें, मुहावरों और व्याकरण का शुद्ध उपयोग हो, शब्दों का चयन सुन्दर हो, व्यर्थ का शब्दपलोथन न हो, इसका वे बहुत ध्यान रखते । बच्चों को बढ़िया फ़िकरा, लतीफ़ा, मुहावरा सुनाने पर नगद इनाम देते थे। बच्चे की तारीफ़ सबके सामने करते । उनकी बोली मुहब्बत की बोली थी। जो उनसे एक बार मिला, वह उनका हो गया । वे / और वे श्री विष्णु 'प्रभाकर' के शब्दों में, “जिस काम के लिए ज़रा भी संकेत किया कि काम पूरा हो गया । ऐसे जन विरले होते हैं । कहाँ मिलेंगे अब ? सचमुच वे सब कुछ स्वान्तः सुखाय करते थे । " काका हाथरसी की निगाह में, “उर्दू हिन्दी के सितारे थे, परमप्रिय हमारे थे । ' श्री यशपाल जैन की भावना में, 'गोयलीयजी में अनेक दुर्लभ गुण थे । वह बहुत ही स्पष्ट वक्ता, परिश्रमशील और मिलनसार थे। ज़िन्दगी उन्होंने बड़े स्वाभिमान 16 ( शेष पृष्ठ १६१ पर) १५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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