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________________ 'जब गोम्मटसार प्रकाशित हुआ' .... किन्तु अब ? - लक्ष्मीचन्द्र जैन प्रस के तकनीकी विकास के साथ ही धर्म-ग्रन्थों के जीर्णोद्धार की समस्या प्राचीनकाल जैसी नहीं रही; किन्तु आश्चर्य है कि जिन कठिन परिस्थितियों में आज से प्रायः ५५ वर्ष पूर्व 'गोम्मटसार' तथा 'लब्धिसार' जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ, वे अब और भी उलझी हुई प्रतीत होती हैं । इन ग्रन्थों को जैनधर्म के सिद्धान्तों का किला कहा जाता है । यत्र-तत्र गणित के प्रतीकों से गुंथी हुई भाषा ही इनकी किलेबन्दी है जो 'षट्खण्डागम', 'महाबन्ध' और 'कषायप्राभृत' की परम्परानुवंशी है । सभवतः इनकी सामग्री 'काइबर्नेटिक्स (जो समस्त विज्ञानों का विज्ञान है) को अंशदान दे सकती है। इनके गणितीय सौंदर्य की तुलना श्रमणबेलगोल की गोम्मटेश्वर मूर्ति-कला के शिल्प-शौर्य से ही हो सकती है; अतएव इन ग्रन्थों का प्रकाशन भी एक चुनौती ही है, जिसे कोई भी प्रकाशक स्वीकार नहीं कर सका। इनमें प्रतीकों की भरमार है और सैकड़ों पृष्ठ गणितीय सामग्री और प्रतीकों से पूरी तरह आच्छादित हैं । फिर जिन पण्डितों ने इस प्रकाशनकार्य को हाथ में लिया और उन्हें शुद्ध रूप में पवित्र प्रेस के पवित्र साँचों में ढालने में सफलता प्राप्त की , उनकी कहानी इस लेख के साथ जोड़ना अप्रासंगिक न होगा। उनकी साहसिक गाथा ग्रन्थ-प्रस्तावना में अंकित है । ग्रन्थ-परिचय : 'गोम्मटसार' में मूल प्राकृत गाथा आचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती-कृत व संगृहीत (७३३ जीवकाण्ड, ९६२ कर्मकाण्ड श्लोकमय) है। गाथा के नीचे संस्कृत छाया, उसके नीचे केशव वर्णी-कृत' 'जीव तत्त्वप्रदोपिका' नाम की संस्कृत टीका, उसके नीचे अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत 'मंद प्रबोधिका' नाम की संस्कृत टीका ('ज्ञान मार्गणा' के कुछ अंश तक) और उसके नीचे (पं. श्रीलाल के अनुसार) प्रसिद्ध भाषा टीकाकार श्री पं. टोडरमलकृत ५०००० श्लोकमय भाषा-वचनिका है (पं. हुकुमचन्द्र भारिल्ल के अनुसार यह ३८००० श्लोकमय है । ) यह ग्रन्थ ५० पौंड के पवित्र देशी कागज में बड़े, मध्यम, सब तरह के टाइपों में पवित्र प्रेस में जीवकाण्ड २ खण्ड तथा कर्मकाण्ड २ खण्ड में प्रकाशित हुआ। जीवकाण्ड में १३२९ पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें.मी.) तथा कर्मकाण्ड १२०० पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें.मी.) और 'अर्थ संदृष्टि' ३०८ पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें. मी.) साइज में प्रकाशित किये गये । उस समय (लगभग १९१९ ई.) इनकी लागत प्रकाशन का खर्च प्रायः १४२८० रु. वी. नि. से. २४४६ तक आ चुका था। प्रकाशित प्रतियों की संख्या इस प्रकार थी चौ. ज. श. अंक १५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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