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जीवकाण्ड : प्रथम खण्ड ४५६; द्वितीय खण्ड १२६० कर्मकाण्ड : प्रथम खण्ड १४९२; द्वितीय खण्ड १५००
उक्त संख्या बतलाती है कि प्रकाशक का संघर्ष आर्थिक और सामाजिक रहा होगा।
इसी प्रकार 'लब्धिसार' में मूल प्राकृत गाथा आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत व संग्रहीत (६४९ एलोकमय) है। गाथा के नीचे संस्कृत छाया, उसके नीचे केशव वर्णी कृत 'जीवतत्त्व प्रदीपिका' नाम की संस्कृत टीका तथा उसके नीचे पंडित टोडरमल-कृत 'सम्यग्ज्ञान चंद्रिका' नाम की हिन्दी टीका दी गयी है जो १३००० श्लोक प्रमाण है। यह ग्रन्थ ७६६ पृष्ठों में है तथा इसकी 'अर्थ संदृष्टि' २०७ पृष्ठों में है, जिनकी साइज २५४ १९ सें. मी. है। लागत का ब्यौरा उपलब्ध नहीं है; किन्तु अनुमानतः यह खर्च उस समय ६००० रु. रहा होगा। __ ग्रन्थ-प्रकाशन संस्था : इन ग्रन्थों का प्रकाशन करनेवाली संस्था का नाम 'भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी' संस्था है। इसके संपादक पं. गजाधरलाल जैन न्यायतीर्थ और श्रीलाल जैन, काव्यतीर्थ है । मुद्रक 'श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ, जैन सिद्धान्त प्रकाशक (पवित्र) प्रेस, नं. ८ महेंद्रवासलेन, श्याम बाजार, कलकत्ता हैं । संरक्षक हरीभाई देवकरण गांधी नाम की प्रसिद्ध फर्म है, जिसके मालिक श्रीमान् सेठ हीराचन्द शोलापुर हैं। संपादकों ने स्वीकार किया है कि उक्त पाँच सिद्धान्त खण्डों के प्रकाशन का श्रेय उक्त फर्म के श्रेष्ठिद्वय की असाधारण सहायता को है।
इस संस्था के महामंत्री पं. पन्नालाल बाकलीवाल हैं, जो प्रकाशक भी हैं । पं. पन्नालाल 'जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय' के जन्मदाता थे और उन्होंने छापे का आदि-प्रचार किया था; ऐसा वर्णन संस्था के मंत्री श्रीलाल जैन ने त्रैमासिक विवरण (वी. वि. २४४४ से ४६ तक) में किया है। पंडित पन्नालाल ने बम्बई से संबन्ध विच्छेद कर लिया और इस संस्था की नींव “जैन धर्म प्रचारिणी सभा" के नाम से बनारस में डाली । यह लगभग १९१२ ई. को बात होगी। उन्हें सर्वप्रथम दो हजार रुपयों का अनुदान सेठ नेमीचन्द बहालचन्द से प्राप्त हुआ । उन्होंने 'आप्त परीक्षा', 'पात्र परीक्षा', 'राजवातिक', जैनेन्द्र प्रक्रिया' आदि अनेक ग्रंथों का प्रकाशन दो-तीन वर्षों में कर दिया।
धनाभाव और सामाजिक संघर्ष की स्थिति का पुनः सामना करने हेतु संस्था के मंत्रियों ने दौड़े की योजना बनायी और संस्था के संस्थापक और संरक्षक के रूप में उन्हें सेठ हरीभाई देवकरण फर्म के मालिक सेठ बालचन्द्रजी व उनके वर्तमान छोटे भाई हीराचन्द्र ने आश्रय दिया। यद्यपि शोलापुर में सेठजी ने ५०००) रु. की सहायता स्वीकार की थी, पर कलकत्ता पहुँचने पर उन्होंने १५०००) रु. की स्वीकृति दे दी। यह सभवतः द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व की बात रही होगी।
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तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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