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व्याख्या पढ़ी तो आश्चर्य हुआ। हमारे शरीर में दो प्रकार के विद्युत् हैं - एक है पॉजिटिव्ह और एक है निगेटिव्ह । एक है धन विद्युत् और एक है ऋण विद्युत् । शरीर का ऊपर का जो भाग है-- आँख, कान, नाक, सिर, मुंह -- इन सब में धन विद्युत् है। नीचे का जो भाग है - पैर, जाँघ आदि इन सबमें ऋण विद्युत् है। व्यक्ति ब्रह्मण्ड से, जगत् से भिन्न नहीं होता। जब इससे सम्बन्ध जुड़ता है तब व्यक्ति समाज बन जाता है। हम ऐसे जगत् में जीते हैं जहाँ वातावरण का प्रभाव होता है, परिस्थिति का प्रभाव होता है। हम इन सबसे प्रभावित होते हैं।
विश्व में दो ध्रुव माने जाते हैं। एक है उत्तरी ध्रुव और दूसरा है दक्षिण ध्रुव । जो उत्तरी ध्रुव है उसमें बिजली का अटूट भण्डार है। वहाँ इतनी बिजली है जहाँ जाने पर ऐसा लगता है कि मानो सैकड़ों सूर्य उग आये हों। बहुत चकाचौंध है। पता ही नहीं लगता कि कहीं अंधकार है। दक्षिणी ध्रुव में भी इतनी ही विद्युत् है। उत्तरी ध्रुव में धन विद्युत् है और दक्षिणी ध्रुव में ऋण विद्युत् । जब आदमी उत्तर की ओर सिर करके सोता है तब उसके पैर दक्षिण की ओर होते हैं। दक्षिण से जो विद्युत का प्रवाह आता है वह ऋणात्मक होता है और मनुष्य के पैर की विद्युत् भी ऋणात्मक होती है। जहाँ दो ऋणात्मक विद्युत् परस्पर मिलती हैं, वहाँ प्रतिरोध होता है, टक्कर होती है। इसी प्रकार जब धन विद्युत् से धन विद्युत् मिलती है तब प्रतिरोध होता है। तब वे एक-दूसरे को सहारा नहीं देतीं, किन्तु एकदूसरे को हटाने का प्रयास करती हैं; इसलिए जो व्यक्ति दक्षिण की ओर पैर करके सोता है, उसकी ऋण विद्युत् दक्षिणी ध्रुव से आने वाली ऋण विद्युत् से टकराती है। उस स्थिति में व्यक्ति के मन में चिन्ता उत्पन्न होती है, बुरे-बुरे स्वप्न आते हैं और शरीर में बीमारियाँ तथा विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसीलिए वैज्ञानिकों ने यह प्रतिपादन किया कि दक्षिण की ओर पैर कर नहीं सोना चाहिये। इससे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की बीमारियाँ होती हैं।
हम इस बात को न भूलें कि रहस्यों का उद्घाटन करने पर जो बात हमारी समझ में सही दृष्टि से आती है और जिस पर हमारा सही विश्वास होता है; वह केवल मान्यता मात्र से नहीं होता। अब मैं अध्यात्म के रहस्यों की भी चर्चा थोड़ी करना चाहता हूँ।
धर्म का मूल सूत्र है - पाप मत करो; पाप से बचो। पर कैसे बचा जा सकता है, यह प्रश्न है। कितना चंचल है मन ! कितना चंचल है शरीर! कितनी चंचल है वाणी ! इनसे कुछ-न-कुछ हो ही जाता है। हम पापों से कैसे बचें? क्या उपाय है उनसे बचने का ? अध्यात्म के रहस्य का उद्घाटन किये बिना यह समझ में नहीं आ सकता। यह प्रश्न समाहित नहीं हो सकता। वह यह मान ही नहीं सकता कि पापों से आदमी बच सकता है और उस दुनिया में रहकर आदमी पापों से बच सकता है, जहाँ पाप करने के लिए हजारों उत्तेजनाएँ निरन्तर प्राप्त होती रहती हैं। ऐसी स्थिति में पापों से कैसे बचा जा सकता है ?
चौ. ज. श. अंक
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