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यही कारण था कि उसके प्रकाशन पर शताधिक जैन- जैनेतर विद्वानों ने और राष्ट्रीय स्तर के अनेक पत्रों ने उसकी असाम्प्रदायिकता एवं महत्ता की मुक्तकण्ठ से सराहना की थी ।
वस्तुतः प्रस्तुत संकलन में हम उनके विचारों का सच्चा प्रतिबिम्ब पाते हैं और यहीं उनकी मौलिकता भी परिलक्षित होती है । व्यक्ति की अभिरुचि और दृष्टि 'चयन' को प्रभावित करती है । वस्तुतः कोई भी चयन आत्मनिष्ठ ( सब्जेक्टिव्ह) और व्यक्ति की अभिरुचियों का प्रतिनिधि प्रतिबिम्ब होता है । प्रस्तुत कृति में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहाँ मुजी की अन्तरात्मा ने अपनी व्यथा को खोला है। आचरण-विहीन शास्त्रीय पाण्डित्य
प्रति अपनी आत्मव्यथा का प्रकटीकरण उन्होंने 'ज्ञान प्रकरण' में उत्तराध्ययन' की कुछ गाथाओं को संकलित करके किया है । वस्तुतः इस प्रकरण में ज्ञान की महत्ता गायी जा सकती थी और तत्संबन्धी अनेक गाथाएँ भी संकलित की जा सकती थीं, किन्तु मुनिजी ने जिन गाथाओं को चुना वे एक ओर उनकी मौलिक सूझ को अभिव्यक्त करती हैं, तो दूसरी ओर युग-प्रवाह चरित्र-विहीन ज्ञान का जो वर्चस्व बढ़ता जा रहा था उसके प्रति उनकी आत्म-व्यथा की परिचायक भी हैं । मुनिजी ने उक्त अध्याय में 'उत्तराध्ययन' की जिन गाथाओं को लिया है, वे निम्न हैं
इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरिअं विदित्ताणं, सव्व दुक्खा विमुच्चई ।। भणंता अकरिता य, बंधमोक्ख पइण्णिणो । वायाविरियमत्तेण समासासंति अप्पयं ।। ण चित्ता तायएभासा कओ विज्जाणु सासणं । विसण्णा पावकम्मेहिं बाला पण्डिय माणिणो ।।
( कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप कर्मों का परित्याग किये बिना ही केवल आर्यतत्त्व ज्ञान से ही वे सब दुःखों से मुक्ति पालेंगे, किन्तु जानते हुए भी आचरण नहीं करनेवाले वे लोग, बंधन और मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ, केवल शब्दों से अपनी आत्मा
-ज्ञान प्रकरण ८-१०
संतोष देते हैं (अर्थात् आत्मप्रवञ्चना करते हैं । ) अपने आप को पण्डित माननेवाले, पाप कर्मों में अनुरक्त. वे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि यह शब्द कौशल से युक्त वाणी ( भाषा) उनकी त्राता नहीं होगी । )
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वस्तुतः 'ज्ञान प्रकरण' में (एकान्त) ज्ञानवाद की इन आलोचनात्मक गाथाओं का संकलन निष्प्रयोजन या अस्वाभाविक नहीं है । यह रचनाकार एवं संकलन - कर्ता की सोद्देश्यता का प्रतीक है। वाणी का एक जादूगर एवं अगाध पाण्डित्य का धनी व्यक्ति पंक्तियों से जुड़ा होगा तो निश्चय या तो आत्म-पीड़ा के अनुभव से गुजरा होगा, या फिर सच्चरित्र के प्रति अनन्य निष्ठा से युक्त रहा होगा । प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकार के अनेक संदर्भ हैं जहाँ उसके शिल्पकार की अन्तरात्मा के दर्शन और उसके शिल्प - वैभव का आस्वाद हमें मिल जाता है । काश, हम उस महान् शिल्पी के शताब्दि - वर्ष में उसके जीवन-दर्शन से प्रेरणा ले सकते !
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तीर्थंकर नव. दिस. १९७७
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