SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' के कुशल शिल्पी - मुनि श्री चौथमलजी वस्तुतः कोई भी चयन आत्मनिष्ठ (सब्जेक्टिव्ह) और व्यक्ति की अभिरुचियों का प्रतिनिधि प्रतिबिम्ब होता है। प्रस्तुत कृति में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहाँ चयन में मनिजी की अन्तरात्मा ने अपनी व्यथा को उघाड़ा है। आचरण-विहीन शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रति अपनी अन्तर्व्यथा का प्रकटीकरण उन्होंने 'ज्ञान-प्रकरण' में 'उत्तराध्ययन' की कुछ गाथाओं को संकलित करके किया है। - डॉ. सागरमल जैन मुनिश्री चौथमलजी संगीतमय भक्तिगीतों के रचना-शिल्प के कुशल अभियन्ता एवं स्वर-लहरी के साधक गीतकार के रूप में जैन साहित्य-जगत् के एक भास्वर नक्षत्र थे । उनकी आरतियाँ और भजन जैनों में आज भी बड़े चाव से गाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में श्रोता के हृदय की अतल गहराइयों को छु लेने की अद्भुत-अपूर्व क्षमता है। एक सफल गीतकार के अतिरिक्त वे एक कुशल प्रवचनकार भी थे। उनकी सहज प्रवचन-शैली में श्रोता को अभिभूत कर लेने की विलक्षण शक्ति थी। उनके शब्द सीधे हृदय से निकलते थे, किन्तु इस सब से ऊपर वे एक साहित्य-सृष्टा भी थे। उनके रचना-शिल्प का सर्वोत्तम सौन्दर्य उनके ग्रन्थ 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाष्य' में प्रतिबिम्बित हुआ है। यद्यपि प्रस्तुत कृति की मूलगाथाएँ आगमों से संकलित हैं, तथापि इनके चयन, संयोजन तथा उन पर भाष्य करने में वे एक मौलिक लेखक की अपेक्षा भी अधिक व्यक्त हुए हैं। जैन-जगत् में 'गीता' एवं 'धम्मपद' के समान एक संक्षिप्त किन्तु सारभूत ग्रन्थ की महती आवश्यकता वर्षों से अनुभव की जा रही थी। इसकी पूर्ति का एक प्रयास पं. बेचरदासजी ने 'महावीर-वाणी' के रूप में श्वे. आगमों से कुछ गाथाओं का संकलन करके किया था; किन्तु मुनिजी का यह प्रयास उससे अधिक व्यापक एवं गम्भीर था। मुनिजी ने गीता की शैली पर १८ अध्यायों में 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' का संकलन किया और आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, स्थानांग, ज्ञाताधर्मकथांग, प्रश्नव्याकरण, भगवती, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक सूत्रों से उसके हेतु गाथाओं का चयन किया। प्रस्तुत ग्रन्थ षड्द्रव्य-निरूपण, कर्म-निरूपण, धर्म-स्वरूप, आत्मशुद्धि, ज्ञान प्रकरण, सम्यक्त्व प्रकरण, (चरित्र) धर्म निरूपण, ब्रह्मचर्य निरूपण, साधुधर्म निरूपण, प्रमादपरिहार, भाषास्वरूप, लेश्या-स्वरूप, कषाय-स्वरूप, वैराग्य सम्बोधन, मनोनिग्रह आवश्यक कर्तव्य, स्वर्ग-नर्क निरूपण एवं मोक्ष स्वरूप इन अठारह अध्यायों में विभक्त है। विषयों के अनुरूप शास्त्रीय गाथाओं का चयन कर एवं उन पर भाष्य लिखकर मुनिजी ने जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की है। यद्यपि भगवान् महावीर के २५ वें निर्वाणशताब्दिवर्ष में दिल्ली में जैन विद्वत्वर्ग के सान्निध्य में पारित 'समणसुत्तं' इसी दिशा में एक अगला कदम अवश्य है (जो कि सर्व जैन सम्प्रदायों के आगमों से संकलित एवं सर्व जैन सम्प्रदायों द्वारा स्वीकृत है) तथापि इससे 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' की गरिमा खण्डित नहीं होती, अपितु एक व्यक्तिके द्वारा वर्षों पूर्व किये गये इस महान् प्रयास की महिमा और भी बढ़ जाती है। चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy