SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हमारा शरीर विद्युत् का शरीर है। मुझे इसकी बहुत चर्चा करने की जरूरत नहीं होगी। जैन दर्शन को जानने वाला भलीभाँति जानता है कि हमारी सारी अभिव्यक्तियाँ तैजस शरीर के माध्यम से होती हैं। यदि तैजस शरीर न हो तो शरीर का संचालन नहीं हो सकता। कोई बोल नहीं सकता, कोई अंगुली भी नहीं हिला सकता, कोई श्वास नहीं ले सकता, कोई खा नहीं सकता, कोई खाने को पचा नहीं सकता। हमारी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति जो प्रगट होती है, वह तैजस शरीर के द्वारा ही होती है। यह सारा विद्युत्-मण्डल, यह विद्युत् का शरीर, यह तैजस शरीर -- यह एक द्वार बनता है शक्ति के अवतरण का और अध्यात्म के निकट तक पहुँचने का। तैजस शरीर के द्वारा हम ऐसी शक्तियाँ उपलब्ध करते हैं जो वर्तमान विश्व के लिए भी आश्चर्यकारक हो सकती हैं। इन्हीं शक्तियों को प्राचीन साहित्य में 'लब्धि' कहा गया है। इन्हें 'योगजविभूति' भी कहा गया है। ये लब्धियाँ, ऋद्धियाँ, योगज विभूतियाँ तैजस शरीर के माध्यम से प्राप्त होती हैं। __ जैन आगम प्रज्ञापना में दो प्रकार के मनुष्यों का वर्णन प्राप्त है - ऋद्धि-प्राप्त मनुष्य और अऋद्धि-प्राप्त मनुष्य । जिस मनुष्य को ऋद्धियाँ प्राप्त हैं, विशेष शक्तियाँ उपलब्ध हैं वह ऋद्धि-प्राप्त मनुष्य है। उसकी शक्तियाँ सचमुच विस्मयकारी होती हैं। ____ अध्यात्म की चर्चा करते समय मुझे एक भेद-रेखा भी खींचनी होगी कि हम किसे बाह्य मानें और किसे अध्यात्म। प्राचीन आचार्यों ने एक भेद-रेखा खींची है। भगवान् महावीर ने कहा - 'अध्यात्म को जानने वाला बाह्य को जानता है और बाह्य को जानने वाला अध्यात्म को जानता है । इसका तात्पर्य है कि हमारे सामने दो स्थितियाँ स्पष्ट हैं - एक है बाह्य जगत् की और एक है अध्यात्म जगत् की। एक है हमारे बाहर का संसार और एक है हमारे भीतर का संसार। बाहर के संसार का नाम है - समाज और भीतर के संसार का नाम है -- व्यक्ति । व्यक्ति और समाज -- ये दो हमारे जीवन के पहलू हैं। हम जब-जब बाह्य जगत् से जुड़ते हैं, इसका तात्पर्य है कि हम दूसरे से जुड़ते हैं। जहाँ दूसरे के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित होता है, वहाँ समाज बनता है। व्यक्ति समाज बन जाता है। जहाँ हम अकेले रहे, किसी के साथ हम जुड़े नहीं, अकेलापन हमारा सुरक्षित रहा, वहाँ हम व्यक्ति ही रहे; समाज नहीं बने। हम समाज का जीवन भी जीते हैं और व्यक्ति का जीवन भी । व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाएँ भिन्न प्रकार की होती हैं। हम दोनों प्रकार का जीवन जीते हैं -- वैयक्तिक और सामाजिक । हमारा जीवन दोनों आयामों वाला जीवन है। हमारा वैयक्तिक जीवन आध्यात्मिक जीवन है, आन्तरिक जीवन है और सामाजिक जीवन बाहरी जीवन है। यह बाह्य दुनिया में होने वाला जीवन है। हम दोनों प्रकार के जीवन जीते हैं और दोनों के रहस्यों की खोज करते हैं। हम बाह्य जगत् (सामाजिक जीवन) की जो घटनाएँ हैं उनकी तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy