SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संपादकीय प्रणाम, एक सूरज को जैनों का एक वर्ग मुनिश्री चौथमलजी का जन्म-शताब्दि-समारोह संपन्न कर रहा है, समारोह पूरे वर्ष चलेगा और उसके अन्तर्गत क़िस्म-क़िस्म के आयोजन होंगे, इन आयोजनों का आकार क्या होगा, व्यक्तित्व कैसा होगा, लक्ष्य क्या होगा, प्रायः सभी आयोजक इस संबन्ध में अनिश्चित और अनिश्चिन्त हैं, जहाँ तक हम देख पाये हैं, देख रहे हैं, अधिकांश लोगों का ध्यान धन जुटाने पर केन्द्रित है, इस बात को तलाशने में नहीं है कि हम देखें, पता लगायें कि उस महामनीषी का क्या-कितना योगदान था और उसने श्रमण संस्कृति के एक जीवन्त प्रतिनिधि के रूप में संपूर्ण भारतीय जन-जीवन को कितना प्रभावित किया ? जैनों के सामाजिक जीवन का जो कटाव, जो क्षरण, जो नुकसान, और जो टूट-फूट हो गयी थी, जो शिथिलताएँ और प्रमाद उसके सांस्कृतिक और नैतिक जीवन में आ गये थे मुनि चौथमलजी ने किन-किन कठिनाइयों का सामना करते हुए, उनकी मरम्मत की, उन्हें संभाला ? क्या हमारे पास वक्त है कि हम इन सारी स्थितियों का अवलोकन करें, उनकी सूक्ष्म जाँच-पड़ताल करें? हम जन्म-शताब्दियाँ और पुण्यतिथियाँ मनाते हैं, किन्तु यह शायद नहीं जानते, जान पाते कि जिन औपचारिकताओं में ठहरकर हम इन समारोहों को संपन्न करते हैं, वे हमारे जीवन को ऊँचा नहीं उठा पातीं वरन् उसे दुविधाओं और विकृतियों के ऐसे जहर में डाल जाती हैं, जिसे दूर न कर पाने के कारण हमारी आनेवाली पीढ़ी को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। वस्तुतः हमें इस बात पर सबमें अधिक ध्यान देना चाहिये कि जो श्रद्धांजलि हम संबन्धित विभूति के पाद-पद्मों में अर्पित कर रहे हैं उसकी सांस्कृतिक जड़ हमारे हृदय और हमारे सांस्कृतिक जीवन में कितनी गहरी है? कहीं हम ऊपर-ऊपर तो कोई काम नहीं कर रहे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम पत्ते सींच रहे हैं और जड़ें सूख रही हैं ? कहीं यों तो नहीं है कि हम उस विभूति का गगनभेदी जयघोष कर रहे हैं और उसके जीवन-लक्ष्यों का हमारे जीवन से कोई सरोकार नहीं है ? हमारे विचार में, जब तक हम ऐसे प्रश्नों का कोई ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे लेते तब तक किसी मुनि चौथमल-जैसी महान् विभूति को श्रद्धांजलि समर्पित कर पाना संभव नहीं है। और फिर मुनि श्री चौथमलजी को श्रद्धांजलि अर्पित करना तो सच में एक बहुत कठिन काम है, चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy