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________________ वह इसलिए कि उनका सारा जीवन श्रमण संस्कृति की उत्कृष्टताओं पर तिल-तिल न्योछावर था, वे उसके जीवन्त-ज्वलन्त प्रतिनिधि थे, उनका सारा जीवन उन लक्ष्यों की उपलब्धि पर समर्पित था जिनके लिए भगवान् महावीर ने बारह वर्षों तक दुर्द्धर तप किया, और जिन्हें सदियों तक जैनाचार्यों ने अपनी कथनी-करनी की निर्मलता द्वारा एक उदाहरणीय उज्ज्वलता के साथ प्रकट किया। मुनिश्री असल में व्यक्ति-क्रान्ति के महान् प्रवर्तक थे, उन्होंने अहसास किया था कि समाज में व्यक्ति के जीवन में कई शिथिलताओं, दुर्बलताओं और विकृतियों ने द्वार खोल लिये हैं, और दुर्गन्धित नालियों द्वारा उसके जीवन में कई अस्वच्छताएँ दाखिल हो गयी हैं, अतः उन्होंने सबमें बड़ा और महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया कि इन दरवाजों को मजबूती से बन्द कर दिया, और नैतिकता और धार्मिकता के असंख्य उज्ज्वल रोशनदान वहाँ खोल दिये। इस तरह बे जहाँ भी गये, वहाँ उन्होंने व्यक्ति को ऊँचा उठाने का काम किया । एक बड़ी बात जो मनिथी चौथमलजी के जीवन से जुड़ी हुई है वह यह कि उन्होंने जैनमात्र को पहले आदमी भाना, और माना कि आदमी फिर वह किसी भी कौम का हो, आदमी है, और फिर आदमी होने के बाद ज़रूरी नहीं है कि वह जैन हो (जैन तो वह होगा ही) चूंकि उन्होंने इस बात का लगातार अनुभव किया कि जो नामधारी जैन हैं उनमें से बहुत सारे आदमी नहीं हैं क्योंकि वे इस बात को बराबर महसूसते रहे कि भगवान महावीर ने जाति और कुल के आधार पर किसी आदमी को छोटा-बड़ा नहीं माना, उनकी तो एक ही कसौटी थी - कर्म ; कर्मणा यदि कोई जैन है तो ही वे उसे जैन मानने को तैयार थे, जन्म से जैन और कर्म से दानव व्यक्ति को उन्होंने जैन मानने से इनकार किया। यह उनकी न केवल श्रमण संस्कृति को वरन् संपूर्ण भारतीय संस्कृति को एक अपूर्व देन है, इसीलिए वे भील-भिलालों के पास गये, पिछड़े और पतित लोगों को उन्होंने गले लगाया, उनके दुःख-दरद, हीर-पीर को जाना – समझा, उन्हें अपनी प्रीत-भरी आत्मीयता का पारस-स्पर्श दिया, और इस तरह एक नये आदमी को जनमा; हो सकता है कई लोग जो गृहस्थ, या साधु हैं, उनके इस महान् कृतित्व को चमत्कार माने, किन्तु मुनिश्री चौथमलजी का सबमें बड़ा चमत्कार एक ही था और वह यह कि उन्होंने अपने युग के उन बहुत से मनुष्यों को जो पशु की बर्बर भूमिका में जीने लगे थे, याद दिलाया तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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