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________________ जैन संस्कृति : विश्व-संस्कृति को अन्तरात्मा मुनि महेन्द्र कुमार 'कमल' संस्कृति मानव से जड़ी हई है। यद्यपि इस विराट् विश्व में मानव के अतिरिक्त देव-दानव, पशु-पक्षी आदि अनंत प्राणधारी हैं। उन सबकी नियत वृत्ति है, प्राप्त का भोग करना उनके जीवन का लक्ष्य है; लेकिन मानव की अपनी अनूठी विशेषता है। वह प्राप्त का भोग करने के साथ-साथ अपने विकास के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का भी अधिकारी है। इसके लिए उसने जो सिद्धान्त निश्चित किये, आचार-विचार की प्रक्रिया स्वीकार की, चिन्तन-मनन किया, उन सबका समवेत नाम है- संस्कृति; अतः संस्कृति का अर्थ और उद्देश्य हुआ सुख, शान्ति, समता एवं समन्वय का संतुलित विकास। अतीत में अनेक युग बदले, अभी बदल रहे हैं और अनागत में भी बदलते रहेंगे; लेकिन संस्कृति के स्वरों में परिवर्तन नहीं आया है और न आने वाला है। वह तो अनिकेतन-अनगार की तरह अन्तर्मुखी होकर अहर्निश अपनी विशिष्ट कल्याणकारी परम्पराओं द्वारा सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय सक्रिय है सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ संस्कृति का लक्ष्य है 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का प्रसार करना । वह शरीर को भी स्वस्थ देखना चाहती है और आत्मा को भी बलिष्ठ। उसकी दृष्टि में न तो तन उपेक्षणीय है और न मन अवगणनीय। उसे व्यक्ति का उदय भी इष्ट है और समष्टि का विकास भी; इसलिए अन्य शब्दों में हम यों कह सकते हैं- संस्कृति अर्थात् सर्वोदय। रूपरेखा, उद्देश्य, लक्ष्य में अन्तर नहीं होने से यद्यपि संस्कृति के स्वरूप आदि में भेद-कल्पना संभव नहीं है; फिर भी वैदिक संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति आदि नामकरण होने का उन-उनकी दार्शनिक चिन्तन-मनन की विशेष पद्धतियाँ और उस पर आधारित आचार-व्यवहार की प्रक्रियाएँ हैं। यही दृष्टि जैन संस्कृति के नामकरण का आधार है। जैन संस्कृति यानी वीतरागता की संस्कृति, आत्मपुरुषार्थ को जाग्रत करनेवाली संस्कृति, पुनर्जन्म के नाश के उपायों को बतानेवाली संस्कृति, लोकषणाओं से अतीत निराकुल आनन्द का आदर्श उपस्थित करनेवाली संस्कृति । अन्य संस्कृतियाँ जहाँ भोगप्रधान हैं, दैहिक जीवन में अधिक सुख-सामग्री का भोग करना लक्ष्य है, वहीं जैन संस्कृति का ध्येय है निवृत्ति-परकता। इसमें त्याग पर सबसे अधिक बल दिया गया है। इसकी प्रत्येक क्रिया में त्याग के बीज निहित हैं। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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