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________________ नियन्त्रण की शक्ति है, हमारा विवेक है। हम बाह्य जगत् में जीते हैं, इसलिए व्यवहार को भी मानकर चलते हैं। कुछ नियन्त्रण भी होता है, दमन भी होता है, दबाव भी होता है; किन्तु अध्यात्म की चर्चा करते समय यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि यह मात्र व्यवहार की बात है, यह कोई अध्यात्म की बात नहीं। अध्यात्म की बात तो यह है कि हम मूल तक पहुँच जाएँ। सारी समस्याओं का मूल है -- राग और द्वेष । प्रचलित भाषा में कहा जा सकता है -- हिंसा। चाहे परिग्रह का प्रश्न है, चाहे अब्रह्मचर्य का प्रश्न है, चाहे चोरी का प्रश्न है, चाहे झूठ बोलने का प्रश्न है - इन सबको हमारे आचार्यों ने हिंसा माना है। इसे उलटकर देखें तो अहिंसा से भिन्न कोई महाव्रत नहीं है। दो शब्दों में सब कुछ आ गया -- हिंसा और अहिंसा। अहिंसा क्या है ? राग आदि को उत्पन्न न करना अहिंसा है। आप अहिंसा की बात को, अहिंसा की घटना को हिंसा के साथ मत देखिये। घटना को मिटाने का प्रयत्न भी मत कीजिये। उस क्षण को देखें जिस क्षण में राग उत्पन्न हो रहा है। जिस क्षण में राग उत्पन्न हो रहा है वही क्षण वास्तव में जागृत रहने का क्षण है। प्रेक्षा-ध्यान का सूत्र है-- अप्रमाद। प्रेक्षा-ध्यान का सूत्र है -- जागरूकता । किसके प्रति जागरूकता? अतीत के प्रति जागरूक रहने की ज़रूरत नहीं है। भविष्य के प्रति भी जागरूक रहने की ज़रूरत नहीं है। जागरूक रहें वर्तमान क्षण के प्रति और वर्तमान क्षण के प्रति जागरूक रहने का तात्पर्य यह है कि कोई बीज होगा वह बोया जाएगा वर्तमान के क्षण में। बाद में तो फल लगता है, बाद में तो परिणाम आता है, बाद में एक वृक्ष बनता है। आप वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते। आप फल को नहीं रोक सकते। आप केवल यहीं देखें कि बीज बोया जा रहा है या नहीं बोया जा रहा है। हमें जागरूक रहना है वर्तमान के उस क्षण के प्रति जिस क्षण में बीज की बुवाई होती है। यह राग का क्षण, यह द्वेष का क्षण; यह राग का बीज, यह द्वेष का बीज जब बोया जाता है उस क्षण के प्रति यदि हम जागरूक नहीं होते हैं तो परिणामों के प्रति जागरूक होने का कोई अर्थ नहीं होता। अध्यात्म का एक बहुत बड़ा रहस्य जो अध्यात्म के सूत्रों से प्रतिपादित हुआ है, वह है -- राग का क्षण, द्वेष का क्षण हिंसा है। और अ-राग का क्षण, अ-द्वेष का क्षण अहिंसा है। बहुत विचित्र घटनाएँ घटित होती हैं। मन में कोई भी विकल्प उठा, एक विचार आया और हमने उसकी उपेक्षा कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह बीज बो दिया गया और वह बीज जब बड़ा होगा तो निश्चित ही अपना परिणाम लायेगा। हम दुनिया की घटनाओं को देखें। पचास-साठ वर्ष तक जिस व्यक्ति का जीवन यशस्वी रहा, जिस व्यक्ति का पूर्वार्द्ध पूर्ण तेजस्वी और उदितोदित रहा, वही व्यक्ति अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पतित हो गया, नष्ट हो गया, हमें आश्चर्य १२२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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