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________________ होता है कि यह कैसे हुआ ? जो व्यक्ति पचास-साठ वर्ष तक यशस्वी और तेजस्वी जीवन जी लेता है वह आगे के वर्षों में पतन की ओर कैसे जा सकता है ? हम सामान्यतः इसकी व्याख्या नहीं कर सकते; किन्तु ऐसी घटनाओं के पीछे भी कुछ कारण अवश्य होते हैं। यदि हम सूक्ष्मता से ध्यान दें, गहराई से सोचें तो यह तथ्य स्पष्ट होगा कि जो बीज बोया गया था, उसका प्रायश्चित्त नहीं हुआ, वह वृक्ष बन गया, घटना घटित हो गयी। प्रायश्चित्त यही तो है कि जिस क्षण मन में राग का संस्कार उत्पन्न हुआ, जिस क्षण मन में द्वेष का संस्कार उत्पन्न हुआ, उसे धो डालो, सफाई कर दो, परिवर्तन कर दो; फिर वह सतायेगा नहीं। बीज को नष्ट कर दिया, वह वृक्ष नहीं बन पायेगा । प्रायश्चित्त नहीं होता है तो बीज को पनपने का मौका मिल जाता है, अंकुरित होने का मौका मिल जाता है । कालान्तर में वह वृक्ष बन जाता है, उसके फल लग जाते हैं, उसकी जड़ें जम जाती हैं । अब हमारे वश की बात नहीं रहती । हमें उसके फल भगतने ही पड़ते हैं । फल भगतने के लिए हमें बाध्य होना पड़ता है । अध्यात्म का बहत बड़ा रहस्य है कि हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें जिस क्षण में राग और द्वेष के बीज की बवाई होती है । हम अहिंसक हैं । हमने बहुत स्थूल रूप से मान लिया कि किसी को न मारना अहिंसा है; किन्तु राग-द्वेष के बीजों की बुवाई होती जाएगी तो अहिंसा कैसे हो सकेगी ? व्यवहार के जगत् की बात तो ठीक है । कोई आदमी अगर किसी को नहीं मारता है तो वह कानून की पकड़ में नहीं आयेगा । कानून उसे पकड़ेगा नहीं, सतायेगा नहीं, क्योंकि वह ऐसा कोई काम नहीं कर रहा है, जो कानून की सीमा में आ सके । कानून का सूत्र है – कार्य । ऐसा कार्य जो पकड़ में आ सके। अध्यात्म का सूत्र है - अध्यवसाय। कार्य हो, न हो, अध्यवसाय मात्र जिम्मेवार हो जाता है । ऐसा अध्यवसाय, ऐसा संकल्प, ऐसा विचार, ऐसा परिणाम, जो हिंसाप्रधान हो, वह आया, आपने कुछ किया नहीं, फिर भी आप उस हिंसा से बंध गये । आप अपने-आपको वैसा प्रस्तुत कर सकते हैं कि हमने कुछ किया तो नहीं, फिर हम उस घटना के प्रति उत्तरदायी कैसे ? अध्यात्म इसे स्वीकार नहीं करता कि आपने क्रिया-रूप में कुछ किया या नहीं । वह वहाँ तक पहुँचता है कि आपने ऐसा सोचा या नहीं, ऐसा चिन्तन किया या नहीं । अध्यात्म का सारा निर्णय होता है चिन्तन के आधार पर, परिणाम और अध्यवसाय के आधार पर । कानून का सारा निर्णय होता है कार्य के आधार पर । यदि यह बात हमारी समझ में ठीक से आ जाती है तो जागरूकता का क्षेत्र खुल जाता है, जागरूकता की सीमा बढ़ जाती है, फिर हम परिणाम के प्रति उतने जागरूक नहीं होते जितने कि मूल के प्रति जागरूक हो जाते हैं । जब मन पर थोड़ा प्रमाद छाता है, हमारी जागरूकता चली चौ. ज. श. अंक १२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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