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________________ भटक गये हैं। आज बताने वाले नहीं रहे। अध्यात्म के रहस्य भी आज अज्ञात बन गये हैं। इसका कारण क्या बना ? एक आदमी चलता है। पैर से दबकर जीव मर जाता है। हम कहते हैंहिंसा हो गयी। उसने जीव को मार डाला, हिंसा हो गयी। यह हमारा निर्णय हुआ। यह व्यवहार का निर्णय है, बाहरी दुनिया का निर्णय है। भगवान् महावीर ने या किसी मनस्वी आचार्य ने यह तो नहीं माना। उन्होंने तो यही कहा—'बंध होता है-अध्यवसाय से। एक होता है अध्यवसाय और एक होती है घटना। दोनों दो बातें हैं। अध्यवसाय अन्तर्जगत् का निर्णय है; और घटना बाह्य जगत् में घटित होती है। आचार्य भिक्षु ने यह कहा था कि मारने वाला हिंसक होता है। जो मारता है अर्थात् जिसका मारने का अध्यवसाय है वह हिंसक है। जीव जीता है या मरता है, इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। जीता है तो कोई दया नहीं होती और मरता है तो कोई हिंसा नहीं होती। जीव मरता है या नहीं मरता, यह गौण बात है, दूसरी बात है। मारने का जो संकल्प है, अध्यवसाय है, परिणाम हैयह मुख्य बात है। हिंसा है मारने का अध्यवसाय, न कि किसी का मर जाना। अध्यात्म के जगत् में पहुँचकर जब हम रहस्यों को देखते हैं तब हमारी सारी साधनापद्धति बदल जाती है। फिर हम घटना को मुख्य मानकर व्यवहार नहीं चलाते; किन्तु अन्तर को मुख्य मानकर व्यवहार चलाते हैं। एक है सामाजिक जीवन । सामाजिक जीवन के निर्णय व्यवहार के आधार पर होते हैं और व्यवहार के आधार पर ही व्यक्ति जीवन चलाता है। एक है व्यक्ति का जीवन । इसमें निर्णय का सारा आधार होता है आन्तरिक जीवन; इसीलिए यह कहा गया कि दिन हो या रात, कोई देख रहा हो या न देख रहा हो कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता वह आन्तरिक स्थिति होती है। अन्तर आता है व्यवहार के जगत् में। व्यवहार को मानकर चलने वाला, आचरण करने से पहले यह देखेगा कि प्रकाश है या अन्धकार, कोई देख रहा है या नहीं देख रहा है। इस आधार पर उसका आचरण होगा, अगला कदम उठेगा। __स्वप्न क्यों आता है ? हम नींद में स्वप्न क्यों देखते हैं ? मानसशास्त्रियों की व्याख्या है कि हमारे मन की जो दमित वासनाएँ होती हैं, उनको प्रगट होने का जब मौका नहीं मिलता तब वे स्वप्न में प्रगट होती हैं, और इसीलिए हमें स्वप्न आते हैं। किसी सीमा तक यह सचाई है। कभी-कभी ऐसा होता है कि सोते समय जो बात मन में रह जाती है, सपने में वही दृश्य हमें दिखायी देता है। यह बहुत बड़ी सचाई है अध्यात्म की। क्रोध आता है। वहाँ तक पहुँच कर आप स्थिति को समाप्त करें। उसे दबायें नहीं उस पर नियन्त्रण न करें। व्यवहार की बात तो ठीक है। मैं आपको व्यवहार से सर्वथा मुक्त होने की बात नहीं कहता। हमारी चौ. ज. श. अंक १२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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