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क्योंकि वे इस मरम को जानते थे कि जब तक आदमी स्वयं उदाहरण नहीं बनता, तब तक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । अधिकांश लोग उदाहरण देते हैं, उदाहरण बन नहीं पाते; आज उदाहरण देने वाले लोग ही अधिक हैं, उदाहरण बनने वाले लोगों का अकाल पड़ गया है । लोग कथाएँ सुनाते हैं, और सभा में हँसी की एक लहर एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ जाती है, बात आयी-गयी हो जाती है. किन्तु उससे न तो वक्ता कुछ बन पाता है, न श्रोता। प्रसिद्ध वक्ता मुनिश्री चौथमलजी वक्ता नहीं थे, चरित्र-संपदा के स्वामी थे, उनका चारित्र तेजोमय था, वे पहले अपनी करनी देखते थे, फिर कथनी जीते थे; वस्तुतः संतों का संपूर्ण कृतित्व भी इसी में है, इसलिए क्रान्ति के लिए जो साहस-शौर्य चाहिये वह उस शताब्दिपुरुष में जितना हमें दिखायी देता है, उतना उनके समकालीनों और उत्तरवर्तियों में नहीं। यही कारण था कि वे एकता ला सके और एक ही मंच पर कई-कई संप्रदायों के मुनिमनीषियों को उपस्थित कर सके. उनका यह अवदान न केवल उल्लेखनीय है वरन् मानव-जाति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। अग्न्यक्षरों में उत्कीणित उनका वह पुरुषार्थ आज भी हमारे सन्मुख एक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति वरदान का हाथ उठाये खड़ा है उस कवच-जैसा जो किसी भी संकट में हमारी रक्षा कर सकता है। सब जानते हैं कि जब कोई आदमी महत्त्वाकांक्षाओं की कीच से निकल कर एक खुले आकाश में आ खड़ा होता है, तब लगता है कि कोई युगान्तर स्थापित हुआ है, यग ने करवट ली है, कोई नया सूरज ऊगा है, कोई ऐसा कार्य हुआ है, जो न आज तक हुआ है, न होनेवाला है, कोई नया आयाम मानव-विकास का, उत्थान का, प्रगति का खुला है, उद्घाटित हुआ है।
मुनिश्री चौथमलजी इसी तरह के महापुरुष थे जो महत्त्वाकांक्षाओं के पंक में से कमल खिलाना जानते थे। उसे किसी पर उलीचना नहीं जानते थे, वे चिन्तन के उन्मुक्त आकाश-तले अकस्मात् ही आ खड़े हुए थे और उन्होंने अपनी वरदानी छाँव से अपने समकालीन समाज को उपकृत - अनुगृहीत किया था।
हमारी समझ में शताब्दियों बाद कोई ऐसा संपूर्ण पुरुष क्षितिज पर आया जिसने राव-रंक, अमीर-ग़रीब, किसान,मजदूर, विकसित-अविकसित, साक्षर-निरक्षर, सभी को प्रभावित किया, सबके प्रति एक अभूतपूर्व समभाव, ममभाव रखा,
( शेष पृष्ठ १९५ पर )
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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