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________________ जैन दिवाकरजी : एक पारस-पुरुष "उनकी वाणी में, वस्तुतः, एक अद्भुत-अपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी स्वर्णिम कान्ति-दीप्ति से जगमगा देता था । उनका प्रवचनामृत हजार-हजार रूपों में बरसा था । राजा-महाराजाओं से लेकर अछूतों, भील-भिलालों और मजदूरों तक उनकी कल्याणकारी वाणी पहुंची थी। वे सघन अन्धकार में प्रखर प्रकाश थे। आचार्य आनन्दऋषि भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है संत-संस्कृति, जो संतों की साधना-आराधना से ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित हुई है। वस्तुतः संतों की महिमाशालिनी चर्या और वाणी का इतिहास ही भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का इतिहास है । अतीत के अगणित संत-महात्माओं की जीवनी आज भी प्रेरणा का अजस्र-प्रखर स्रोत है। ऐसे ही थे श्रमण संस्कृति की गौरवमयी संत-परम्परा के महान् संत जैन दिवाकर, प्रखर वक्ता श्री चौथमलजी महाराज। उनके दर्शन करने का परम सौभाग्य मुझे सर्वप्रथम मिला मनमाड़ में । लम्बा क़द, विशाल देह, गेहुँआ रंग, दीप्त-तेजोमय-शान्त मुखछबि, उन्नत भाल आज भी मेरे स्मृति-पटल पर ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। तब स्थानकवासी समाज में अलग-अलग अनेक संप्रदाय थे। वह युग था जब संतवर्ग एक-दूसरे के साथ व्यवहार-संबन्ध रखने में भी झिझक का अनुभव करता था। ऐसे विषम समय भी हम एक ही स्थान पर ठहरे थे। परस्पर आत्मीयतापूर्ण व्यवहार रहा। उन्होंने मुझे उस समय यही सुझाव दिया था कि तुम्हें अपने संप्रदाय को सुसंगठित करना चाहिये। सभी को एक मंच पर मिल-बैठकर विधान आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिये। उनका सुझाव शत-प्रतिशत अनुकरणीय था, क्योंकि संगठन में ही बल है, उत्कर्ष है। कलयुग में जन, धन, राज्य, अणु आदि कई शक्तियाँ हैं; किन्तु इन सब में सर्वोपरि शक्ति 'संघ-शक्ति' है। यूनाइटेड बी स्टेंड, डिवाइडेड वी फाल'-स्वामी विवेकानन्द का यह दिव्य घोष सभी के लिए सार्थक एवं अनुसरणीय है। इस तरह दो-चार दिन उनसे खूब खुलकर बातचीत हुई । परस्पर मधुर व्यवहार और अभूतपूर्व स्नेह रहा; इसके बाद भी कई बार मिलने के मौके आये और सौहार्द्र उत्तरोत्तर बढ़ता गया । कुछ वर्षों बाद संगठन की हवा चली । ब्यावर में नौ संप्रदायों के प्रमुख संतों का मिलन हुआ, उसमें ऋषि-संप्रदाय की ओर से मैं उपस्थित हुआ। अपने-अपने पूर्वपदों को छोड़कर सब का एक समुद्र बना, सब का विलीनीकरण हुआ। उस समय जैन दिवाकरजी ने 'वर्धमान चौ. ज. श. अंक ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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