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________________ संघ' के आचार्यपद के चुनाव की बात कही और उसके लिए मेरा नाम सुझाया। वे स्वयं किसी पद के लिए उत्कण्ठित नहीं थे; इससे उनकी उदारता, संगठन के प्रति उत्कट प्रेम, सहिष्णुता तथा उदात्त विचार के दर्शन होते थे । संगठन के पूर्व भी उनके अनुयायी क्षेत्रों में जहाँ भी मेरा जाना हुआ, वहाँ उन्होंने संतों और श्रावकों को मुझे पूर्ण सहयोग देने का इशारा किया। इन सब प्रसंगों पर मुझे उनकी उदार आँखों के भीतर छलकती निष्काम-अकलुष आत्मीयता दिखायी दी थी। जैन दिवाकरजी ओजस्वी वक्ता भी थे । वाणी का चमत्कार उनके व्यक्तित्व की एक अन्यतम विशेषता थी। उनकी वाणी में, वस्तुतः एक अद्भुत-अपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी कान्ति और दीप्ति से झलमला देता था। उनकी प्रवचन-पीयूषधारा हज़ार-हजार धाराओं में प्रवाहित हुई थी। राजा-महाराजाओं से लेकर मजदूरों के झोपड़ों तक उनकी कल्याणकर वाणी पहुंची थी और उसने अंधेरे में रोशनी पहुँचाई थी। उनकी भाषा में मधुराई थी, मंजुल और प्रभविष्णु मुखाकृति के कारण वे जहाँ भी गये सहस्रसहस्र जनमेदिनी ने उनका अभिनन्दन किया, अपने पलक-पाँवड़े बिछा दिये । कई राजाओं ने उनके प्रवचन सुनकर अपनी-अपनी राज्य-सीमाओं में हिंसा रोकने का प्रयत्न किया। उनकी वत्सलता बड़ी वरदानी थी, इसीलिए अछूतों को गले लगाकर, जैनधर्म में उन्हें प्रवेश देकर उन्होंने एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत किया। यह था उनके पतितपावन व्यक्तित्व का प्रभाव । __ उनकी साहित्य-साधना भी अनूठी थी। दिवाकर-साहित्य में से काव्य-साहित्य खूब लोकप्रिय हुआ। जनता-जनार्दन के कण्ठ में आज भी उसकी अनुगूंज है। मैंने मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब जैसे सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी विहार किया । वहाँ भी स्थान-स्थान पर उनकी कीर्ति-कथाएँ सुनीं। मेरे खयाल से उनके जीवन की सब में बड़ी उपलब्धि एक यह भी है कि मैंने उनके विषय में कोई अपवाद नहीं सुना। जब मैंने कोटा में उनके देहावसान का दुःखद संवाद सुना तब मेरे मन को गहन चोट लगी। शीघ्र ही हम सब ब्यावर में पुनः एकत्रित हुए। आचार्य होने के नाते मेरी उपस्थित लगभग अपरिहार्य थी। उनके प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है । जब मैं कोटा गया तब उनकी पुण्य-पुनीत स्मृति में 'दिवाकर जैन विद्यालय' चलाने की प्रेरणा देकर आया था। विद्यालय मेरी उपस्थिति में ही खुल गया था; प्रसन्नता है कि वह विकासोन्मुख है और आवश्यक उन्नति कर रहा है। लालटेन किसलिए? ‘एक अन्धा हाथ में लालटेन लेकर पानी लेने गया। जब लौट रहा था तब उसे एक सूझता आदमी मिला। उसने पूछा-'सूरदास, तुम क्यों वृथा तेल खर्च करते हो?' अंधे ने उत्तर दिया-'तुम्हारे जैसों के लिए। तुम जैसे सामने आ जाते और मेरे हाथ में लालटेन न होती तो तुम मुझसे टकरा जाते !' १२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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