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________________ मूर्तिमन्त अनेकान्त जो दीपक घर में ही प्रकाश करता है उसकी अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का महत्त्व अधिक है। 0 पं. नाथूलाल शास्त्री जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पंडित मुनिश्री चौथमलजी महाराज के प्रभावशाली प्रवचनों के श्रवण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। अभी उन्हें दिवंगत हुए २७ वर्ष हुए हैं। अपनी सुमधुर व्याख्यान-शैली द्वारा इस विशाल भारत में लगभग ५२ वर्षों तक धर्म का प्रचार-प्रसार उन्होंने किया है। उनकी विद्वत्ता, व्यक्तित्व एवं उपदेश से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में होनेवाली पशु-पक्षियों, जलचरों आदि के बलिदान, शिकार आदि हिंसाकार्यों को स्वयं व प्रजा द्वारा बन्द कराने की प्रतिज्ञा व हुक्मनामे निकाले गये, जिनका प्रकाशन हो चुका है। कहा जाता है कि सभी तरह के सांसारिक संबन्धों का परित्याग कर केवल आत्मकल्याण के लिए ही मुनि दीक्षा ली जाती है। पर इस उद्देश्य को मैं एकान्तिक मानता हूँ। जो दीपक घर में ही रह कर प्रकाश करता है उसकी अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का अधिक महत्त्व है। साधुगण का भी स्वकल्याण के साथ लोकहित संपादन करना मणि-कांचन संयोग के समान है। महाराजश्री न केवल प्रभावक वक्ता ही थे, वरन् प्रखर चिन्तक एवं कुशल लेखक भी थे। उनकी अनेकान्त आदि विषयों पर विद्वत्तापूर्ण रचनाएँ पढ़ने से उनके उच्च शास्त्रज्ञान, अनेकान्त तत्त्व के मनन एवं परिशीलन का परिचय मिलता हैं। आज से ३९ वर्ष पूर्व की उनकी महत्त्वपूर्ण रचनायें अन्य दर्शनों की समालोचना के साथ अनेकान्त, नयवाद और सप्तभंगीवाद का विशद विवेचन है। विश्व-शान्ति के लिए 'जीओ और जीने दो' इस सिद्धान्त के अनुकरण की आवश्यकता है, उसी प्रकार दार्शनिक जगत् की शान्ति के लिए 'मैं सही और दूसरे भी सही' का अनुसरण अनेकान्त की खूबी है। हमारा कर्तव्य है कि हम दूसरे के विचारों को समझें, उसकी अपेक्षा को सोचें और तब अमुक नय से उसे संगतियुक्त स्वीकार कर लें। इस अनेकान्त को जीवन में उतार कर एक बौद्ध विद्वान् के शब्दों में 'घुमक्कड़ भगवान् महावीर' के समान महाराजश्री ने भी घुमक्कड़ और कष्ट-सहिष्णु बनते हुए धर्मोपदेश के साथ ही पिछड़े वर्ग में सहस्रों पुरुषों एवं महिलाओं को मद्य और मांस आदि दुर्व्यसनों का त्याग कराया तथा वेश्याओं को उनके व्यवसाय का परित्याग ( शेष पृष्ठ ४२ पर) चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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