________________
शाखा से सम्बद्ध, वर्तमान शताब्दी के अब मुनिश्री की जन्म-शताब्दी के पूर्वार्ध में एक महान् प्रभावक जैन सन्त अवसर पर एक वर्षव्यापी कार्यक्रम बना हो गये हैं। सन् १८७७ ई. में नीमच है और प्रतिष्ठित मासिक तीर्थकर' का (म. प्र.) में जन्मे और १८९५ ई. में, विशेषांक प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर मात्र १७-१८ वर्ष की किशोर वय में अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मैं उफा विशेषांक साधु-दीक्षा ग्रहण करनेवाले इन महात्मा की तथा पुरे आयोजन की सफलता की का ५५ वर्षीय सुदीर्घ मुनि-जीवन अहिंसा हार्दिक कामना करता हूँ। एवं नैतिकता का जन-जन में प्रसार करने
मिनधर्म की सार्वभौमिकता को जनतथा जिनशासन की प्रभावना में व्यतीत
जन के हृदय पर अमित करने के सद्हुआ। उत्तर भारत, विशेषकर राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के प्राय: प्रत्येक नगर व
प्रयासी मनिश्री चौथमलजी महाराज की ग्राम में पदातिक विहार करके उन्होंने
पुण्य स्मृति में इस शभावसर पर मैं अपनी निरन्तर लोकोपकार किया। उनकी दृष्टि
श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उदार थी और वक्तृत्व शैली ओजपूर्ण,
-डॉ. ज्योतिप्रताद जैन, लखनऊ सरल-सुबोध एवं प्रभावक होती थी, उच्चकोटि के व्याख्यानदाता छोटे-बड़े, जैन-अजैन, सभी के हृदय को स्पर्श करती थी। यही कारण है कि उस
की थी। यही कारण है कि उस श्री चौथमलजी महाराज की जन्मसामन्ती यग में राजस्थान, मध्यप्रदेश, शताब्दी जो २३ नवम्बर १९७७ को पूरे गुजरात आदि के अनेक राजा, ठिकानेदार, भारतवर्ष में मनायी जा रही है; उसका जागीरदार, मुसलमान नवाब, कई अंग्रेज यह कार्यक्रम तेरह मास का होगा। उस उच्च अधिकारी तथा जैनेतर विशिष्ट जमाने में दिवाकरजी भारत के जैन समाज व्यक्ति भी उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों में विख्यात साधुओं में एक थे। आगरा की से प्रभावित हए। छोटी जातियों - यथा समाज' ने विनती करके आगर। में चातुमोची (जिनघर) जैसे लोगों में से अनेकों सि के वास्ते आमंत्रित किया और आप को मद्य-मांस-त्याग की महाराज ने प्रतिज्ञा वहाँ पधारे, आरका बड़ा स्वागत किया कराई।
गया था। दिवाकरजी का बड़ा नाम था
और वे बड़े अच्छे दर्जे के व्याख्यानदाता _ मुनि श्री चौथमलजी के दीक्षाकाल
थे। आपका जीवन एकता, मैत्री, शान्ति, के ५१ वर्ष पूरे होने पर अबसे ३० वर्ष
अहिंसा और वात्सल्य का अपूर्व शंखनाद पूर्व रतलाम की श्री जैनोदय पुस्तक प्रका
था। आपके आगरा में कई सार्वजनिक शक समिति ने 'श्री दिवाकर अभिनन्दन
व्याख्यान हुए। उनका आगरा की जनता ग्रन्थ' प्रकाशित किया था, जिसमें महाराज
पर मख्यतया सन्त वैष्णव संप्रदाय के साहब से सम्बन्धित सामग्री भी बहुत कुछ
लोगों पर जो जैनधर्म के बारे में भ्रांति थी। हमारा भी एक लेख 'राज्य का जैन आदर्श' उस ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ था।
थी, वह दूर हो गयी और बड़ा प्रभाव उसके तीन वर्ष पश्चात् ही, सन १९५० ई. में मुनिश्री का ७३ वर्ष की आयु में निधन उस समय लाउड स्पीकर नहीं था। हो गया। उनके साधिक अर्धशताब्दीव्यापी आपके प्रतिदिन के व्याख्यानों में सैकड़ों महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों को देखते हुए। आदमी जाते थे और सार्वजनिक व्याख्यानों वह ग्रन्थ अपर्याप्त था। उनकी विविध ___ में हजारों श्रोता होते थे, आपकी आवाज साहित्यिक रचनाओं का भी समोक्षात्मक इतनी बुलन्द थी कि हर व्यक्ति तक विस्तृत परिचय अपेक्षित था।
आसानी से पहुँच जाती थी। उस जमाने
पड़ा।
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org