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__ यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि 'स्थानक' क्या है ? स्थानक यहाँ किसी मकान, भवन या इमारत का पर्याय नहीं है वरन् इसका अर्थ है 'आत्मा का स्थान' सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रमय जीवन ही आत्मा का स्थान है, इसमें निवास करने वाला कहलाता है 'स्थानकवासी।'
स्थानकवासी जैन समाज में साधु-संस्था को ही प्रमुखता दी गयी है। इस समाज का संचालन साधु-संस्था के आधार पर ही होता है, अतः इसका एक अन्य नाम 'साधुमार्गी' है।
साधुओं का मार्ग साधु-मार्ग कहलाता है तदनुसार इस मार्ग पर चलनेवाले, इसे अपनानेवाले 'साधुमार्गी' कहलाते हैं। शास्त्रानुसार साधुमार्ग वह है जो विशुद्ध ज्ञान और क्रिया के साथ सम्यक्चारित्र में आस्था रखता है; स्वभावतः इस मार्ग के अनुगामी साधुमार्गी कहे जाते हैं। इस तरह स्थानकवासो' और 'साधुमार्गी' दोनों शब्द एकार्थवाची हैं, इनके अलग-अलग अर्थ नहीं हैं। ध्यातव्य है कि स्थानकवासी जैन समाज के श्रमणवर्ग ने सदैव अपनी क्रिया-निष्ठा को सावधानी से सुरक्षित रखा है, इसीलिए इसकी प्रतिष्ठा समग्र भारत में तथा अन्यत्र बढ़ी-चढ़ो रही है। किन्तु आज इस समाज के श्रमणवर्ग में भी पुनः क्रिया-शैथिल्य और प्रमाद बढ़ने लगा है । जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के मिस आज के साधुवर्ग में विपरीत साधनों का उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में इस समाज का भविष्य क्या होगा, यह गंभीरतापूर्वक विचारणीय है।
प्रतिक्रमण प्रतिलेखन
प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन के दीप जब तक निर्धूम और निष्कम्प जल रहे हैं आलोकित कर रहे हैं मेरे अभ्यन्तर के
ब्रह्माण्ड को! कषायों के सांपअन्धकार में कुण्डली-आसन पर बैठ, हमें कभी भी भयाक्रान्त नहीं कर सकेंगे मेरे प्रभु ! तुम्हारा तेजोवलय विष्णु का सुदर्शन बनकर
काट रहा है हमारे जन्म-जन्मान्तरों की ग्रंथियों को, निर्ग्रन्थ का मलय पुलकाकुल' किये दे रहा है
प्राण-प्राण को; तृष्णाओं का दावानलशान्त है, प्रशमित है, प्रज्ञा-प्रसून खिल उठा है हृदय की कुँआरी धरती पर ! एक नयी सृष्टि के जन्म का शंखनाद सुन रहे हैं हम सब !
-रत्नेश 'कुसुमाकर'
तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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