________________
रूप दिया है तथा उत्तरवर्ती काल में श्रमण और श्रावक वर्ग भी उन आदर्शों को उत्प्राणित करने का प्रयत्न करते रहे हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अनेक कठिनाइयों के बीच भी उन्होंने अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि आदर्शों के हृदय को संभालने का प्रयत्न किया है और जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मंत्री, व्यापारी आदि गृहस्थों ने अपने-अपने ढंग से इसका प्रचार किया है।
परिणाम यह हुआ कि सिद्धान्ततः सर्वभूत दया को सभी के मानने पर भी जहाँजहाँ और जब-जब जैन लोगों का किसी-न-किसी प्रकार का प्रभाव रहा, सर्वत्र साधारण जनता में प्राणि-रक्षा के संस्कार अत्यधिक प्रबल बने हैं। उनके आचारविचार स्वयं की प्राचीन परम्पराओं एवं सांस्कृतिक सिद्धान्तों से बिल्कुल पृथक् हो गये। तपस्या के बारे में भी यही हुआ कि जैन तपस्या की देखा-देखी उन्होंने एक या दूसरे रूप में अनेकविध सात्त्विक तपस्याएँ अपनायीं। जन्मजात मांस-भक्षी और मद्यपायी जातियों ने कुव्यसनों के रोकने में सहायता दी और वे स्वयं भी खुले आम मद्य-मांस का उपयोग करने में सकुचाती हैं; शिष्टता, सभ्यता के विपरीत समझती हैं। अनेकान्त एवं कर्म-सिद्धान्त की चर्चा का परिणाम यह हुआ कि कट्टर से कट्टर विरोधी सम्प्रदायों और दार्शनिकों ने अपने सिद्धान्त के विवेचन एवं लोक व्यवस्था और व्यवहार की यथार्थता को स्पष्ट करने के लिए इन्हें स्वीकार किया है, इनसे प्रेरणा ली है।
जैन संस्कृति का उद्देश्य मानवता की भलाई है और उसके सिद्धान्तों में मानवीय भावनाओं का समावेश है; लेकिन कोई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास एवं यशोगाथाओं के सहारे जीवित नहीं रह सकती है और न ही प्रशंसनीय हो सकती है। यह तभी संभव है जब उसका अनुयायि-वर्ग तदनुरूप प्रवृत्ति करे, और प्राणिमात्र के योग-क्षेम की ओर अग्रसर हो; अतः हमारा कर्तव्य है कि बाह्य-रूप के विकास द्वारा ही जैन-संस्कृति के सुरक्षित होने के भ्रम को त्यागकर अतीत की तरह वर्तमान में भी उसके हृदय की रक्षा का प्रयत्न करें, उसे जीवन-वृत्ति का अभिन्न अंग बनायें। व्यक्ति व समाज का धारण, पोषण और विकास करनेवाली प्रवृत्तियों को स्वीकार करने एवं विकृत धारणाओं, कार्यों का त्याग करने में ही जैनत्व का गौरव गभित है।
'जो किसी से उधार ले आयेगा, उससे लेने के लिए भी वह आयेगा, इसी प्रकार तुम किसी के प्राण लोगे तो वह भी अवसर मिलने पर तुम्हारे प्राण लेगा। अगर तुम किसी के प्राण नहीं लोगे तो तुमसे कोई बदला लेने नहीं आयेगा। किसी भी प्रकार का बदला न चुकाना पड़े, ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाना ही मोक्ष कहलाता
-मुनि चौथमल
१४०
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org