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सम्मिलित हैं; तथापि ग्रन्थ एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ है और प्रथम बार विभिन्न आध्यात्मिक तबकों की जानकारी देने में सफल हुआ है। फिलहाल, दिगम्बर जैन मुनियों, आर्यिकाओं, क्षुल्लकों, ऐलकों, ब्रह्मचारियों और विद्वानों की इतनी विपुल जानकारी देनेवाला अन्य ग्रन्थ हमारे सामने नहीं है। फिर भी इसके आगे की राह खुली हुई है और एक अधिक प्रशस्त संदर्भ की, जिसका चरित्र ऐसा ही हो, प्रतीक्षा की जाना चाहिये । आशा यह भी की जानी चाहिये कि जब प्रस्तुत ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण प्रकाशित होगा तब खामियों को दूर कर लिया जाएगा और नयी या छूट-छोड़ दी गयी जानकारी सम्मिलित कर ली जाएगी । ग्रन्थ में ५ खण्ड हैं - आचार्य, मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी वर्ग के जीवन-परिचय'; परम्परागत संस्कृति के वर्तमान साहित्यिक विशिष्ट विद्वानों के परिचय; जैन विद्वानों, निष्णातों, साहित्यकारों और कवियों के अकारादिक्रम से संयोजित जीवनपरिचय तथा साहित्य और संस्कृति पर कुछ चुने हुए लेख । लेख, हमारे विनम्र मत में, इसलिए अधिक उत्कृष्ट होने थे कि यह विद्वानों का एक विशद परिचय-ग्रन्थ है । ग्रन्थ की जन्म-कथा इस प्रकार है- १९६८ में बीजारोपण, १९६९ में अंकुरण तथा १९६९१९७६ में पल्लवन-पुष्पन-फलन । ग्रन्थ की छपाई व्यवस्थित, निर्दोष है, गेटअप नयनाभिराम है । मूल्य पर चिपकी लगी हुई है, इसे उघाड़ कर देखा गया है।
आचार्य तुलसी दक्षिण के अंचल में : साध्वी कनकप्रभा : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) : मूल्य - पचास रुपये : पृष्ठ- ९९० : डिमाई -१९७७ ।।
हिन्दी में वैसे भी यात्रा-साहित्य अधिक नहीं है, और फिर पद-यात्राओं के विवरण तो आचार्य विनोबा भावे के अलावा किसी अन्य के उपलब्ध नहीं हैं । जैन साधुओं के विवरणों की न तो कोई परम्परा ही है और न ही आज तक इनकी उपयोगिता पर किसी का ध्यान ही गया है । आलोच्य ग्रन्थ इस दृष्टि से एक सुखद और महत्त्वपूर्ण उपक्रम है । यह आकार में बृहद् तो है ही, शैली और प्रस्तुति में भी विशिष्ट है । इसमें तेरापन्थ के आचार्यप्रवर और भारत में एक विशिष्ट आन्दोलन-अणुव्रत-के प्रवर्तक आ. तुलसी की २७ फरवरी १९६७ से २८ जनवरी १९७१ तक की राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, तामिलनाडु, केरल, कर्णाटक, आन्ध्र, मध्यप्रदेश, और उड़ीसा की यात्राओं
और चातुर्मासों का संस्मरणात्मक-प्रेरक वर्णन-विवरण है । ये विवरण जहाँ एक ओर किंचित् व्यक्तिपरक - इसीलिए यथार्थ भी हैं, वहीं दूसरी ओर एक सांस्कृतिक पुलक लिये हुए हैं । इनके द्वारा कई श्रमण-श्रेष्ठताएँ उजागर हुई हैं और हम आश्वस्त हुए हैं कि यदि धर्म अपनी किसी सक्रिय भूमिका में उतर सके तो वह भारत के लोकचरित्र को एक निर्मल धरातल प्रदान कर सकता है । कई निष्कर्ष भी हमारे सामने आये हैं, मसलन आचार्यश्री का यह कथन कि "उत्तर भारत में जैनत्व के संस्कार इतने परिपक्व नहीं हैं, जितने कि दक्षिण भारत में हैं" । जहाँ तक समीक्ष्य ग्रन्थ की भाषा-शैली का प्रश्न है वह सरस, सहज, मर्मस्पर्शी और प्रशस्त है । विदुषी साध्वीप्रमुखा ने तथ्यों के आकलन में कोई कोर-कसर नहीं रहने दी है, और इसे सर्वांगता प्रदान करने में अथक परिश्रम किया है । उक्त ग्रन्थ के अन्य कोई लाभ हों-न-हों इतने फायदे तो हैं ही कि जैन साधुओं का आकिंचन्य, उनकी निष्कामता
चौ. ज. श. अंक
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