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________________ कालीन संदर्भो में संयोजित करना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । मनीषी साधु-लेखक ने अकथ श्रमपूर्वक इस विशद ग्रन्थ का आयोजन किया है, किन्तु वह अंग्रेजी के अनावश्यक मोह से बच नहीं पाया है । सूच्य है कि जब पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का बहुमूल्य ग्रन्थ 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' प्रकाशित हुआ था तब कई लोगों ने सुझाव दिया था कि इसका अंग्रेजी संस्करण भी लाया जाए किन्तु स्व. ओझाजी ने यह कहकर इसके आंग्ल संस्करण से इनकार कर दिया था कि जिसे इसका उपयोग करना होगा वह हिन्दी सीखेगा; और हुआ भी यही । इस ग्रन्थ का उपयोग करने के लिए प्राच्य विद्या और भाषा-विज्ञान के बीसियों यूरोपीय विद्वानों ने हिन्दी सीखी । क्या हम इतने महत्त्व के नहीं हैं कि हमारे द्वारा प्रणीत साहित्य पढ़ने के लिए भारतीय भाषाओं के अध्ययन का लोभ विदेशियों के मन में उत्पन्न हो? हमें विश्वास है हमारे विद्वान् साधु-लेखक इस ओर ध्यान देंगे और अंग्रेजी के व्यर्थ के व्यामोह से मुक्त होंगे । प्रस्तुत ग्रन्थ न केवल उपयोगी है वरन् प्रथम बार इस तरह की सहज तुलनात्मक मुद्रा में तथ्यों को संयोजित करने में सफल हुआ है। छपाई सुघड़, गेटअप आकर्षक और मूल्य उचित है। विद्वत् अभिनन्दन ग्रन्थ : संपादक-मण्डल - सर्वश्री लालबहादुर शास्त्री, बाबूलाल जैन जमादार, विमलकुमार सोरया, बाबूलाल फागुल्ल, निहालचन्द जैन : अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् के निमित्त चांदमल सरावगी चेरिटेबल ट्रस्ट, गौहाटी : मूल्य – इक्यावन रुपये : पृष्ठ ७२३ : क्राउन - १९७६ । __ समीक्ष्य ग्रन्थ शास्त्रि-परिषद् का १०० वाँ पुष्प है और महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें लगभग ७३७ व्यक्तियों का परिचय है । आचार्य शान्तिसागर महाराज से लेकर ब्र. कु. मंजू शास्त्री तक विभिन्न ज्ञान-क्षेत्रों से इसमें विद्वानों को चुनकर संयोजित किया गया है। माना, ऐसे कामों में संपादकों को काफी परेशानियाँ भोगनी होती हैं और आवश्यक सामग्री कई-कई स्मरणपत्रों के बाद ही उपलब्ध होती है; किन्तु अन्ततः जो फसल आती है वह गौरवशाली होती है, और कई पीढ़ियों तक एक चिरस्मरणीय संदर्भ के रूप में काम आती है । सामग्री के आकलन में जो कठिनाइयाँ आती हैं, आम पाठक को उसका अनुमान लग ही नहीं पाता । मसलन कुछ लोग अपने परिचय भेजते ही नहीं हैं, कुछ ऐसा करने में अपनी हेटी मानते हैं, और कुछ तो यह मानकर ही चलते हैं कि वे काफी महत्त्व के हैं, उन्हें छोड़कर चल पाने का साहस ही कौन कर पायेगा; अतः वे लिखें-न-लिखें, उत्तर दें-न-दें, उन्हें सम्मिलित कर ही लिया जाएगा; ऐसे अनेक कारणों से संपादकों को निराश होना होता है और कई बार वे उदासीन भी हो उठते हैं। यही कारण है कि ऐसे ग्रन्थों की योजना काफी महत्त्वाकांक्षिणी होती है, किन्तु जब वे प्रकाशित होते हैं तब बहुत दीन-हीन-निस्तेजफीके-फस्स, पूरी जानकारी देने में असमर्थ-असहाय । प्रस्तुत ग्रन्थ पर भी कमोबेश यह बात लागू होती है। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि संपादकों ने अपार परिश्रम किया है और वे अभिनन्दनीय हैं। इतना होते हुए भी हम विद्वान् संपादकों का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित करेंगे कि परिचय अव्यवस्थित हैं, दुहरावटों से भरपूर हैं, भाषा कई जगह दोषपूर्ण है, संयोजन अ-वैज्ञानिक है । कुछ लोग छूटे भी हैं, और कुछ अनावश्यक रूप से १६४ तीर्थकर । नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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