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आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचार दिनकर - तृतीय खण्ड
प्राच्यविद्यापीठ ग्रन्थमाला-9
प्रतिष्ठा, शान्तिककर्म, पौष्टिक कर्म
एवं बलिविधान
सम्प्रेरिका
प. पू. हर्षयशाश्रीजी
अनुवादिका साध्वी मोक्षरत्नाश्री
संपादक डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक-प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) एवं अ.भा. खरतरगच्छ महासंघ, मुम्बई
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Quite
VAIMS
॥सम्यग्ज्ञानप्रदाभूयात् भव्यानाम् भक्तिशालिनी।
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जंगम युग प्रधान प्रथम दादा श्री जिनदवसूरिजी
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हमाSANGRE
(croen
प्रत्यक्ष प्रभावी दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी म.सा.
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सादरसमर्पण
प.पू. समतामूर्ति प्रव. श्री विचक्षण श्रीजी म. सा.
प:पू. प्रव. श्री तिलक श्रीजी म. सा.
मोक्षपथानुगामिनी, आत्मअध्येता, समतामूर्ति, समन्वय साधिका परम पूज्या प्रवर्तिनी महोदया स्व. श्री विचक्षण श्री जी म.सा. एवं आगम रश्मि परम पूज्या प्रवर्तिनी महोदया स्व. श्री तिलक श्री जी म.सा. आपके अनन्त उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आचारदिनकर की अनुवादित यह कृति आपके पावन पाद प्रसूनों में समर्पित करते हुए अत्यन्त आत्मिक उल्लास की अनुभूति हो रही है। आपकी दिव्यकृपा जिनवाणी की सेवा एवं शासन प्रभावना हेतु सम्बल प्रदान करें - यही अभिलाषा हैं।
-साध्वी मोक्षरत्ना
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अर्थ सहयोगी
श्रुत ज्ञान के
श्री गुलाबचंदजी श्रीमती शान्तिदेवी झाडचूर रिखबचंदजी झाडचूर - मुम्बई के पूज्य पिताश्रीजी एवं माताश्रीजी
श्री रिखबचन्दजी गुलाबचन्दजी झाडचूर
मुम्बई
:
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प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला - ६
आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर
तृतीय खण्ड प्रतिष्ठा, शान्तिककर्म, पौष्टिककर्म
एवं बलिविधान
सम्प्रेरक साध्वी हर्षयशाश्रीजी
अनुवादक साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी
सम्पादक डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) अ.भा. खरतरगच्छ महासंघ, मुम्बई
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ग्रन्थ नाम
वर्धमानसूरिकृत ‘आचारदिनकर'
तृतीय खण्ड प्रतिष्ठा, शान्तिककर्म, पौष्टिककर्म एवं बलिविधान
अनुवादक
पूज्या समतामूर्ति श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. की प्रशिष्या एवं साध्वीवर्या हर्षयशाश्रीजी की शिष्या साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी
सम्पादक
डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक
प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़, शाजापुर (म.प्र.) अ.भा.खरतरगच्छ महासंघ, मुम्बई
प्रकाशन सहयोग -
श्री रिखबचन्दजी गुलाबचन्द जी सा., झाडचूर परिवार, उपाध्यक्ष पश्चिम क्षेत्र अ.भा.खरतरगच्छ महासंघ, मुम्बई
प्राप्तिस्थल
(१) डॉ. सागरमल जैन, प्राच्य विद्यापीठ,
दुपाड़ा रोड़, शाजापुर (म.प्र.), ४६५००१ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार, हाथीखाना,
रतनपोल - अहमदाबाद (गुजरात)
प्रकाशन वर्ष
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प्रथम संस्करण, फरवरी २००७
मूल्य
रु. ८०/- अस्सी रुपया
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जिनके परम पुनीत चरणों में
शत शत वन्दन
खरतरगच्छाधिपति, शासनप्रभावक, आचार्य भगवन्त पूज्य श्री जिनमहोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. शासनप्रभावक गणाधीश उपाध्याय भगवन्त पूज्य श्री कैलाशसागरजी म.सा.
प्रेरणास्रोत जिनशासनप्रभावक, ऋजुमना परमपूज्य श्री पीयूषसागरजी म.सा.
परोक्ष आशीर्वाद जैनकोकिला, समतामूर्ति, स्व. प्रवर्तिनी, परमपूज्या गुरुवर्या श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. एवं उनकी सुशिष्या आगमरश्मि स्व. प.पू. प्रवर्तिनी श्री तिलकश्रीजी म.सा.
प्रत्यक्ष कृपा
सेवाभावी, स्पष्टवक्ता, परमपूज्या गुरुवर्या श्री हर्षयशाश्रीजी म.सा.
पूज्या साध्वीवृन्द के चरणों में नमन, नमन और नमन
शान्त-स्वभावी महत्तराश्री विनीताश्रीजी म.सा.
सरल-मना पूज्याश्री चन्द्रकलाश्रीजी म.सा. प्रज्ञा-भारती प्रवर्तिनीश्री चन्द्रप्रभाश्रीजी म.सा. शासन-ज्योति पूज्याश्री मनोहरश्रीजी म.सा. प्रसन्न-वदना पूज्याश्री सुरंजनाश्रीजी म.सा. महाराष्ट्र-ज्योति पूज्याश्री मंजुलाश्रीजी म.सा. मरुधर-ज्योति पूज्याश्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा.
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शुभा
कर रही साध्वीश्री मो
!! शुभाशीर्वाद !! साध्वीश्री मोक्षरत्नाश्रीजी आचारदिनकर का अनुवाद-कार्य कर रही हैं, यह जानकर प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। उनका यह कार्य वास्तव में सराहनीय है। इससे मूलग्रन्थ के विषयों की बहुत कुछ जानकारी गृहस्थों एवं मुनियों के लिए उपयोगी होगी। जिनशासन और जिनवाणी की सेवा का यह महत्वपूर्ण कार्य शीघ्र ही सम्पन्न हो एवं उपयोगी बने - ऐसी मेरी शुभकामना है।
___ गच्छहितेच्छु
गच्छाधिपति कैलाशसागर !! किंचित् वक्तव्य !! जैन-संघ में आचारदिनकर-यह अनूठा ग्रंथ है। इसमें वर्णित गृहस्थों के विधि-विधान आज क्वचित् ही प्रचलन में हैं, किन्तु साधुओं के आचार के कुछ-कुछ अंश एवं अन्य विधि-विधान अवश्य ही प्रचलन में हैं।
पूर्व में मुद्रित यह मूलग्रंथ अनेक स्थानों पर अशुद्धियों से भरा हुआ है, सो शुद्ध प्रमाणमूल अनुवाद करना अतिदुष्कर है, फिर भी अनुवादिका साध्वीजी ने जो परिश्रम किया है, वह श्लाघनीय है। आज तक किसी ने इस दिशा में खास प्रयत्न किया नहीं, अतः इस परिश्रम के लिए साध्वीजी को एवं डॉ. सागरमलजी को धन्यवाद देता
छ प्रमाणमूल पारश्रम किया है, या नहीं, अतः देता
आचारदिनकर की कोई शुद्ध प्रति किसी हस्तप्रति के भण्डार में अवश्य उपलब्ध होगी, उसकी खोज करनी चाहिए और अजैन-ग्रंथों में जहाँ संस्कारों का वर्णन है, उसकी तुलना भी की जाए तो बहुत अच्छा होगा। जैन-ग्रंथों में भी मूलग्रंथ की शुद्धि के लिए मूल पाठों को देखना चाहिए।
परिश्रम के लिए पुनः धन्यवाद। माघशुक्ल अष्टमी, सं.-२०६२ पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराज नंदिग्राम, जिला-वलसाड (गुजरात) श्री भुवनविजयान्तेवासी मुनि जंबूविजय
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"अभिनन्दन और अनुमोदन"
भारत एक महान् देश है। इस आर्यदेश की महान् संस्कृति विश्व के लिए एक आदर्शरूप बनी हुई है, क्योंकि यह आर्य-संस्कृति मोक्षलक्षी है। आत्मशुद्धि और आत्मा की पवित्रता को पाने के लिए इस संस्कृति में विविध ग्रन्थ उपलब्ध हैं। सभी आर्यधर्म आत्मतत्त्व की शाश्वतता में विश्वास करते हैं। आत्मज्ञान और आत्मरमणता ही सुख का साधन है।
मनुष्य अपनी साधना के बल पर विकृति से संस्कृति और संस्कृति से प्रकृति की ओर निरन्तर गतिशील रहता है। जीवन में विकृति है, इसलिए संस्कृति की आवश्यकता है। संस्कृति में क्या नहीं ? उसमें आचार की पवित्रता, विचार की गंभीरता एवं कला की सुंदरता है।
____ भारतीय-संस्कृति में संस्कारों के नवोन्मेष हेतु अनेक उदार-चेता मनस्वियों, धार्मिक-आचार्यों तथा महापुरुषों की संस्कार-विकासिनी वाणी का अभूतपूर्व संगम दृष्टिगोचर होता है। खरतरगच्छ के रुद्रपल्ली शाखा के एक महान् विद्वान् आचार्य वर्धमानसूरि ने भी आचारदिनकर जैसे ग्रन्थ की रचना कर जैन-संस्कृति और तत्कालीन समाज-व्यवस्था में प्रचलित विधि-विधानों को व्यवस्थित रूप प्रदान किया। प्रथम खंड में गृहस्थ-जीवन के सोलह संस्कार, द्वितीय खंड में जैनमुनि-जीवन के विधि-विधानों का तथा इस तृतीय खंड में प्रतिष्ठा-विधि, शान्तिक-कर्म, पौष्टिक-कर्म, बलि-विधान, जो मूलतः कर्मकाण्डपरक हैं, का उल्लेख है। इसके चतुर्थ खंड में प्रायश्चित्त-विधि, षडावश्यक-विधि, तप-विधि और पदारोपण-विधि - ये चार प्रमुख उल्लेखित हैं, जो श्रावक एवं मुनि-जीवन की साधना से संबंधित हैं।
प्रज्ञासम्पन्न, ज्ञानोपासक डॉ. सागरमलजी के ज्ञान-गुण से निसरित ज्ञानरश्मियों का साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने भरपूर उपयोग कर आचारदिनकर जैस गुरुत्तर ग्रन्थ का भाषांतर राष्ट्रभाषा (हिन्दी) में किया है, जो चार खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। यह कार्य श्लाघनीय एवं सराहनीय है।
साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी का यह पुरुषार्थ व्यक्ति की धवलता को ध्रुव बनाने में सहयोगी बने, ऐसी शुभेच्छा सह शुभाशीष है।
वीर निर्वाण दिवस कार्तिक कृष्ण अमावस्या विक्रम संवत् २०६३
जिनमहोदयसागरसूरि चरणरज
मुनि पीयूषसागर
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"आशीर्वाद सह अनुमोदना” खरतरगच्छ के शिरोमणि १५वीं सदी के मूर्धन्य विद्वान् एवं ज्ञानी श्री वर्धमानसूरिजी ने “आचारदिनकर" नामक इस महाग्रन्थ को प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध किया है। इसमें वर्णित विधि-विधानों का अनुसरण कर संघ का भविष्य समुज्जवल बने, व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को समझे एवं अपने आचार-विचार एवं संस्कारों से जीवनशैली को परिमार्जित करे।
ग्रन्थ के अनुवाद के सम्प्रेरक एवं प्रज्ञावान् डॉ. सागरमलजी सा. के दिशानिर्देशन में जैनकोकिला प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. एवं पू. प्रवर्तिनी तिलकश्रीजी म.सा. की प्रशिष्या विद्वद्वर्या मोक्षरत्नाश्रीजी ने जन-हिताय एवं आत्म-सुखाय इस ग्रन्थ का अनुवाद किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ चार खण्डों में विभक्त है - प्रथम खण्ड में गृहस्थ-जीवन से सम्बन्धित सोलह संस्कारों को संजोया है, द्वितीय खण्ड में मुनि-जीवन से सम्बन्धित सोलह संस्कारों को ज्ञापित किया है तथा तृतीय एवं चतुर्थ खण्ड में मुनि एवं गृहस्थ - दोनों के जीवन में उपयोगी - ऐसे आठ सुसंस्कारों को निबद्ध किया गया है। साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने इस अति दुरूह ग्रन्थ के द्वय खण्डों का अनुवाद कर उनका प्रकाशन करवा दिया है, जो पाठकगणों के हाथों में भी आ चुके हैं। अब इसका तृतीय एवं चतुर्थ खण्ड प्रकाशित होने जा रहे हैं। वास्तव में साध्वी का यह पुरुषार्थ सफलता के शिखर पर पहुँच रहा है। शासनदेव, गुरुदेव एवं गुरुवर्याश्री के असीम आशीर्वाद से साध्वी ने अत्यल्पकाल में ही सम्पूर्ण ग्रन्थ को अनुवादित कर दिया है। रसिकजन इन भागों का आद्योपात अध्ययन एवं पारायण कर अपने जीवन को निर्मल बनाएं तथा अपने को सच्चा जैन सिद्ध करें, यही शुभभावना है। विदुषी आर्या के भगीरथ प्रयास से अनुवादित इन ग्रन्थों को देखने का अवसर मुझे मिला है, मैं इनकी भूरि-भूरि अनुमोदना करती हूँ एवं अन्तर्भावों से आशीर्वाद प्रदान करती हुई, उनके भावी तेजस्वी जीवन की मंगलकामना करती हूँ।
विचक्षणविणेया-महत्तरा विनीताश्री
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"एक स्तुत्य प्रयास"
सम्यक् दर्शन ज्ञान है, सम्यक् चारित्र के आधार
सफल जीवन के सूत्र दो संयम और सदाचार उच्च हृदय के भाव हों और हों शुद्ध विचार
__ अनुकरणीय आचार हो, हो वंदनीय व्यवहार जैन गृहस्थ हो या मुनि, उच्च हों उसके संस्कार
इस हेतु 'आचारदिनकर' बने जीवन-जीने का आधार
“आचारदिनकर" ग्रंथ जैन साहित्य के क्षितिज में देदीप्यमान दिनकर की भांति सदा प्रकाशमान रहेगा। जैन-गृहस्थ एवं जैन-मुनि से सम्बन्धित विधि-विधानों एवं संस्कारों का उल्लेख करने वाला श्वेताम्बर-परम्परा का यह ग्रंथ निःसंदेह जैन-साहित्य की अनमोल धरोहर है। यह जैन-समाज में नई चेतना का संचार करने में सफल हो, साथ ही जीवन जीने की सम्यक् राह प्रदान करे। यह प्रसन्नता का विषय है कि विदुषी साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी द्वारा अनुवादित आचारदिनकर के अनुवाद का प्रकाशन बहुत सुंदर हो, यह शुभाषीश है। आपके प्रयासों हेतु कोटिशः साधुवाद ।
गुरु विचक्षणचरणरज चन्द्रकलाश्री एवं सुदर्शनाश्री
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" मंगलकामना सह शुभेच्छा”
जैन संस्कृति हृदय और बुद्धि के स्वस्थ समन्वय से मानव-जीवन को सरस, सुन्दर और मधुर बनाने का दिव्य संदेश देती है । विचारयुक्त आचार और आचार के क्षेत्र में सम्यक् विचार जैन - संस्कृति का मूलभूत सिद्धान्त है। किसी भी धर्म के दो अंग होते हैं विचार और आचार । विचार धर्म की आधार - भूमि है, उसी विचार-धर्म पर आचार धर्म का महल खड़ा होता है । विचार और आचार को जैन - परिभाषा में ज्ञान और क्रिया, श्रुत और चारित्र, विद्या और आचरण कहा जाता है। भगवान् महावीर ने जीवनशुद्धि के लिए जिस सरल सहज धर्म को प्ररूपित किया, उसे हम मुख्यतः दो विभागों में बाँट सकते हैं - विचारशुद्धि का मार्ग तथा आचारशुद्धि का मार्ग। धर्म की परीक्षा मनुष्य के चरित्र से ही होती है। आचार हमारा जीवनतत्त्व है, जो व्यक्ति में, समाज में, परिवार में, राष्ट्र में और विश्व में परिव्याप्त है । जिस आचरण या व्यवहार से व्यक्ति से लेकर राष्ट्र एवं विश्व का हित और अभ्युदय हो, उसे ही संस्कारधर्म कहा जाता है।
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खरतरगच्छीय आचार्य वर्धमानसूरि द्वारा विरचित आचारदिनकर का अनुवाद हमारी ही साध्वीवर्या श्री मोक्षरत्नाश्रीजी ने किया है। अनुवाद की शैली में यह अभिनव प्रयोग है। आचारदिनकर में प्रतिपादित जैन गृहस्थ एवं मुनि-जीवन के विधि-विधानों का अनुवाद कर साध्वीश्री ने जैन-परम्परा की एक प्राचीन विधा को समुद्घाटित किया है तथा रत्नत्रय की समुज्ज्वल साधना करते हुए जिनशासन एवं विचक्षण - मंडल का गौरव बढ़ाया है। प्रस्तुत ग्रंथ के पूर्व में प्रकाशित दो खण्डों (भागों) को देखकर आत्मपरितोष होता है। विषय-वस्तु ज्ञानवर्द्धक और जीवन की अ गहराईयों को छूने वाली है। यह अनुवाद जिज्ञासुओं ( पाठकगणों) के लिए मार्गदर्शक और जीवन को पवित्र बनाने की प्रेरणा प्रदान करेगा। लघुवय में साध्वी श्री मोक्षरत्नाजी ने डॉ. सागरमल जैन के सहयोग से ऐसे ग्रंथ को अनुवादित कर अपनी गंभीर अध्ययनशीलता एवं बहुश्रुतता का लाभ समाज को दिया है। यह अनुवाद जीवन-निर्माण में कीर्तिस्तम्भ हो, यही मंगलभावना सह शुभेच्छा है ।
मानिकतल्ला दादाबाड़ी कोलकाता
विचक्षण गुरु चरणरज चन्द्रप्रभाश्री
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" मंगल आशीर्वाद"
साहित्य समाज का दर्पण होता है । जिस प्रकार दर्पण में देखकर हम अपना संस्कार कर सकते हैं, ठीक उसी प्रकार साहित्य भी जनमानस को संस्कारित करने में सक्षम होता है । भौतिकता की चकाचौंध में भ्रमित पथिकों को सत्साहित्य आत्मविकास का मार्ग दिखाता है। साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने कठिन परिश्रम करके आचारदिनकर का अनुवाद कर और उस पर शोधग्रन्थ लिखकर जिनशासन का गौरव बढ़ाया है ।
विषय का तलस्पर्शी एवं सूक्ष्म ज्ञानार्जन करने के लिए लक्ष्य का निर्धारण करना आवश्यक होता है । अध्ययनशील बने रहने में श्रम एवं कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ता है । श्रमणपर्याय तो श्रम से परिपूर्ण हैं। साध्वीजी ने अथक् प्रयास करके जैन - साहित्य की सेवा का यह बहुत ही सराहनीय कार्य किया है।
अन्तःकरण से हम उन्हें यही मंगल आशीर्वाद देते हैं कि भविष्य में इसी प्रकार संयम साधना के साथ-साथ साहित्य - साधना करती रहें ।
विचक्षण पदरेणु मनोहर श्री मुक्तिप्रभाश्री
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“उर्मि अन्तर की"
जैन धर्म विराट् है। इसके सिद्धांत भी अति व्यापक और लोकहितकारी हैं। ऐसे ही सिद्धान्त-ग्रन्थ आचारदिनकर के हिन्दी अनुवाद का अब प्रकाशन हो रहा है, यह जानकर अतीव प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है।
प्रज्ञानिधान महापुरुषों द्वारा अपनी साधना से निश्रित वाणी ग्रन्थों के रूप में ग्रंथित हुई है। ज्ञान आत्मानुभूति का विषय है, उसे शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, किन्तु अथाह ज्ञानसागर में से ज्ञानीजन बूंद-बूंद का संग्रह कर उसे ज्ञान-पिपासुओं के समक्ष ग्रन्थरूप में प्रस्तुत करते हैं। यह अति सराहनीय कार्य है।
साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने अपने अध्ययनकाल के बीच इस अननुदित रचना को प्राकृत एवं संस्कृत से हिन्दी भाषा में अनुवादित कर न केवल इसे सरल, सुगम एवं सर्वउपयोगी बनाया, अपितु गृहस्थ एवं मुनियों के लिए विशिष्ट जानकारी का एक विलक्षण, अनुपम, अमूल्य उपहार तैयार किया है।
अन्तर्मन की गहराई से शुभकामना के साथ मेरा आशीर्वाद है कि साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी इसी प्रकार अपनी ज्ञानप्रतिभा को उजागर करते हुए तथा जिनशासन की सेवा में लीन रहते हुए, साहित्य-भण्डार में अभिवृद्धि करें। यही शुभाशीष है।
विशेष ज्ञानदाता डॉ. सागरमलजी साहब को इस ग्रंथ के अनुवाद में पूर्ण सहयोग हेतु, बहुत-बहुत साधुवाद।
विचक्षणश्री चरणोपासिका सुरंजनाश्री, सिणधरी-२००६
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"शुभाशंसा" स्वाध्यायप्रेमी मोक्षरत्नाश्रीजी द्वारा अनुवादित आचारदिनकर ग्रंथ के तीसरे भाग का जो प्रकाशन किया जा रहा है, वह प्रशंसनीय, अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय है। उनका यह परिश्रम सफल हो और जन-जन के मन में ज्ञान का दिव्य प्रकाश प्रसारित करे। उनकी यह साहित्य-यात्रा दिन प्रतिदिन प्रगति के पथ पर गतिमान हो, उनकी ज्ञान-साधना एवं संयमी-जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
वे सदा-सर्वदा संयम की सौरभ फैलाती हुई, ज्ञानार्जन करती रहें एवं अपनी प्रतिभा द्वारा जनमानस में वीरवाणी का प्रसार करती रहें, ऐसी शुभ मनोभावना है।
साथ ही वे खरतरगच्छसंघ एवं विचक्षण-मंडल में तिलक के समान चमकती रहें तथा अपनी मंजुल वाणी से भव्य जीवों में ज्ञान का प्रकाश फैलाते हुए उन्हें मोक्षाभिलाषी भी बनाती रहें। यही शुभ आशीर्वाद।
विचक्षणशिशु मंजुलाश्री __ "अनुमोदनीय प्रयास"
साध्वी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी ने आचारदिनकर जैसे कठिन किंतु महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का अनुवाद किया है, यह जानकर प्रसन्नता हो रही है। उनके द्वारा प्रेषित प्रथम भाग एवं द्वितीय भाग देखा। अब उसका तीसरा एवं चौथा भाग भी छप रहा है - यह जानकर प्रमोद हो रहा है। जिनशासन की सेवा परमात्मा की सेवा है और ज्ञानाराधना मोक्षमार्ग की साधना का ही अंग है। साध्वीजी के इस पुरुषार्थ से जैन-गृहस्थ और साधु-साध्वीगण हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत विधि-विधानों से परिचित हों और साधना-आराधना में प्रगति करें, यही शुभभावना है। साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी विचक्षण-मण्डल की ही सदस्या हैं, उनकी यह ज्ञानाभिरुचि निरन्तर वृद्धिगत होती रहे, यही शुभ-भावना है।
विचक्षणचरणरेणु
मणिप्रभाश्री
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"मंगलकामना"
जिनशासन में आचार की प्रधानता है। आचार के अपने विधि-विधान होते हैं। ‘आचारदिनकर' ऐसे ही विधि-विधानों का एक ग्रन्थ है। साध्वीश्री मोक्षरत्नाश्रीजी ने डॉ. सागरमलजी जैन के सान्निध्य में शाजापुर जाकर इस ग्रन्थ पर न केवल शोधकार्य किया, अपितु मूलग्रन्थ के अनुवाद का कठिन कार्य भी चार भागों में पूर्ण किया है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि उन्होंने सम्पूर्ण ग्रंथ का अनुवाद कर लिया है और उसका प्रथम और द्वितीय विभाग प्रकाशित भी हो चुका है, साथ ही उसके तीसरे एवं चौथे भाग भी प्रकाशित हो रहे हैं। आज श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-परम्परा में जो विधि-विधान होते हैं, उन पर आचारदिनकर का बहुत अधिक प्रभाव देखा जाता है और इस दृष्टि से इस मूलग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि इसके माध्यम से हम पूर्व प्रचलित विधि-विधानों से सम्यक् रूप से परिचित हो सकेंगे। इसमें गृहस्थधर्म के षोडश-संस्कारों के साथ-साथ मुनि-जीवन के विधि-विधानों का उल्लेख तो है ही, साथ ही इसमें प्रतिष्ठा आदि सम्बन्धी विधि-विधान भी हैं, जो जैन-धर्म के क्रियाकाण्ड के अनिवार्य अंग हैं।
ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद के लिए साध्वीजी द्वारा किए गए श्रम की अनुमोदना करता हूँ और यह अपेक्षा करता हूँ कि वे सतत रूप से जिनवाणी की सेवा एवं ज्ञानाराधना में लगी रहें। यही मंगलकामना ........
कुमारपाल वी. शाह कलिकुण्ड, धोलका
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"हृदयोद्गार"
भारत संस्कृति प्रधान देश है। भारतीय संस्कृति की मुख्य दो धाराएँ रही है - १. श्रमण संस्कृति एवं २. वैदिक संस्कृति। इस संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए समय-समय पर अनेक ऋषि-मुनियों ने साहित्य का सर्जन कर समाज का दिग्दर्शन किया। प्राचीन काल के साहित्यों की यह विशेषता रही हैं कि उस समय जिन-जिन ग्रन्थों की रचना हुई, चाहे वे फिर आचार-विचार सम्बन्धी ग्रन्थ हों, विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थ हों या अन्य किसी विषय से सम्बद्ध ग्रन्थ, उन सभी की भाषा प्रायः मूलतः संस्कृत या प्राकृत रही, जो तत्कालीन जनसामान्य के लिए सुगम्य थी। तत्कालीन समाज उन ग्रन्थों का सहज रूप से अध्ययन कर अपने जीवन में उन आचारों को ढाल सकता था। किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वे ही ग्रंथ जनसामान्य के लिए दुरुह साबित हो रहे हैं। भाषा की अगम्यता के कारण हम उन ग्रंथों का सम्यक् प्रकार से अध्ययन नहीं कर पा रहे, जिसके फलस्वरूप हमारे आचार-विचारों में काफी गिरावट आई हैं। अनभिज्ञता के कारण हम अपनी ही मूल संस्कृति को भूलते जा रहे
ऐसी परिस्थिति में उन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सरल-सुबोध भाषा में लिखा जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस आवश्यकता को महसूस करते हुए समन्वय साधिका प.पू.प्र. महोदया स्व. श्री विचक्षण श्रीजी म.सा. की शिष्यारत्ना प.पू. हर्षयशा श्रीजी म.सा. की चरणोपासिका विद्वद्वर्या प.पू. मोक्षरत्ना श्रीजी म.सा. ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में निबद्ध आचारदिनकर नामक विशालकाय ग्रन्थ का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। वास्तव में उनका यह प्रयास प्रशंसनीय है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, विद्वतवर्य डॉ. सागरमल जी सा. के दिशा-निर्देशन में साध्वी मोक्षरत्ना श्रीजी ने इतने अल्प समय में इस दुरुह ग्रंथ का अनुवाद कर न केवल अपनी कार्यकुशलता का ही
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परिचय दिया हैं, बल्कि जिनशासन के गौरव में अभिवृद्धि करते हुए जयपुर, श्रीमाल समाज की शान को भी बढ़ाया है।
इस ग्रन्थ के प्रथम एवं द्वितीय भाग का प्रकाशन हो चुका है। द्वितीय भाग का विमोचन जब प.पू. विनिता श्रीजी म.सा. के महत्तरा पदारोहण के दरम्यान हुआ, तब मैं भी वही था। डॉ. सागरमलजी सा. के मुखारविंद से इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में तथा साध्वी जी के अथक परिश्रम के बारे में सुना एवं यह जाना कि अभी इस ग्रंथ के तीसरे एवं चौथे भाग का प्रकाशन कार्य शेष है तो उसी समय मन में एक भावना जागृत हुई कि इस तीसरी पुस्तक के प्रकाशन का लाभ क्यों ना मैं ही लूं ? उसी समय मैंने अपनी भावना श्रीसंघ के समक्ष अभिव्यक्त की। पूज्या श्री ने मेरी इस भावना को स्वीकार करते हुए इस सम्बन्ध में सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।
इस ग्रन्थ के अनुवाद के प्रेरक, प्रज्ञा-दीपक, प्रतिभा सम्पन्न डॉ. सागरमलजी सा. भी अनुमोदना के पात्र है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अनुवाद के संपादन एवं संशोधन कार्य में उन्होंने अपना पूर्ण । योगदान दिया है, उनके प्रति शाब्दिक धन्यवाद प्रकट करना उनके श्रम एवं सहयोग का सम्यक् मूल्यांकन नहीं होगा।
क्रियाराधको एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी इस ग्रन्थ के प्रकाशन की बेला में मैं साध्वी मोक्षरत्ना श्रीजी म.सा. के इस कार्य की पुनः प्रशंसा करते हुए, उनके यशस्वी जीवन की मंगल कामना करता हूँ।
रिखबचन्द झाडझूड़
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"सादर समर्पण"
साधक जीवन में श्रद्धा, विनय, विवेक और क्रिया आवश्यक है। जीवन को सार्थक करने के लिए हमें संस्कारों द्वारा अपने-आपको सुसंस्कारित करना चाहिए। _ पूर्व भव में उपार्जित कुछ संस्कार व्यक्ति साथ में लाता है और कुछ संस्कारों का इस भव में संगति एवं शिक्षा द्वारा उपार्जन करता है; अतः गर्भ में आने के साथ ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न हों, इसलिए कुछ संस्कार-विधियाँ की जाती हैं। प्रस्तुत पुस्तक संस्कारों का विवेचन है। मूलग्रन्थ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर है। साध्वी मोक्षरत्नाश्री ने इसका सुन्दर और सुबोध भाषा में अनुवाद किया है।
आचारदिनकर ग्रन्थ के प्रणेता खरतरगच्छ के आचार्य वर्धमानसूरि जी ने गृहस्थ एवं साधु-जीवन को सुघड़ बनाने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की है। प्रथम भाग में गृहस्थ के एवं द्वितीय भाग में साधु-जीवन के सोलह संस्कारों का उल्लेख है तथा तीसरे एवं चौथे भाग में गृहस्थ एवं साधु-दोनों के द्वारा किए जाने वाले आठ संस्कारों का उल्लेख किया है। जैसे प्रतिष्ठा-विधि, प्रायश्चित्त-विधि, आवश्यक-विधि, आदि। यह संपूर्ण ग्रंथ बारह हजार पाँच सौ श्लोकों में निबद्ध है।
आचारदिनकर ग्रंथ का अभी तक सम्पूर्ण अनुवाद हुआ ही नहीं है। यह पहली बार अनुवादित रूप में प्रकाशित होने जा रहा है। जनहितार्थ साध्वीजी ने जो अथक पुरुषार्थ किया है, वह वास्तव में प्रशंसनीय है।
विशेष रूप से मैं जब भी पूज्य श्री पीयूषसागरजी म.सा. से मिलती, तब वे एक ही बात कहते कि मोक्षरत्नाश्रीजी को अच्छी तरह पढ़ाओ, ताकि जिनशासन की अच्छी सेवा कर सके, उनकी सतत प्रेरणा ही साध्वीजी के इस महत् कार्य में सहायक रही है।
इसके साथ ही कर्मठ, सेवाभावी, जिनशासन के अनुरागी, प्राणी-मित्र कुमारपालभाई वी. शाह एवं बड़ौदा निवासी, समाजसेवक, गच्छ के प्रति सदैव समर्पित, अध्ययन हेतु निरंतर सहयोगी नरेशभाई शांतिलाल पारख, आप दोनों का यह निर्देश रहा कि म.सा. पढ़ाई
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करना हो, तो आप शाजापुर डॉ. सागरमलजी जैन सा. के सान्निध्य में इनका अध्ययन कराएँ।
शाजापुर आने के बाद डॉ. सागरमलजी जैन सा. ने एक ही प्रश्न किया, म.सा. समय लेकर आए हो कि बस उपाधि प्राप्त करनी है। हमने कहा कि हम तो सबको छोड़कर आपकी निश्रा में आए हैं। आप जैसा निर्देश करेंगे, वही करेंगे। उन्होंने साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी को जो सहयोग एवं मार्गदर्शन दिया है, वह स्तुत्य है। यदि उन्होंने आचारदिनकर के अनुवाद करने का कार्य हमारे हाथ में नहीं दिया होता, तो शायद यह रत्नग्रन्थ आप लोगों के समक्ष नहीं होता। इस सम्बन्ध में अधिक क्या कहें - यह महान् कार्य उनके एवं साध्वीजी के अथक श्रम का परिणाम है।। . इस अवसर पर पूज्य गुरुवर्याओ श्री समतामूर्ति प.पू. विचक्षण श्रीजी म.सा. एवं आगमरश्मि प.पू. तिलकश्रीजी म.सा. की याद आए बिना नहीं रहती। यदि आज वे होते, तो इस कार्य को देखकर अतिप्रसन्न होते। उनके गुणों को लिखने में मेरी लेखनी समर्थ नहीं है। विश्व के उदयांचल पर विराट् व्यक्तित्वसंपन्न दिव्यात्माएँ कभी-कभी ही उदित होती हैं, किन्तु उनके ज्ञान और चारित्र का भव्य प्रकाश आज भी चारों दिशाओं को आलोकित करता रहता है। आप गुरुवर्याओं का संपूर्ण जीवन ही त्याग, तप एवं संयम की सौरभ से ओत-प्रोत था, जैसे पानी की प्रत्येक बूंद प्यास बुझाने में सक्षम है, वैसे ही आप गुरुवर्याओ श्री के जीवन का एक-एक क्षण अज्ञानान्धकार में भटकने वाले समाज के लिए प्रकाशपुंज है। वे मेरे जीवन की शिल्पी रहीं हैं।
ऐसी महान् गुरुवर्याओं का पार्थिव शरीर आज हमारे बीच नहीं है, परन्तु अपनी ज्ञानज्योति द्वारा वे आज भी हमें आलोकित कर रहीं
__ उन ज्ञान-पुंज चारित्र-आत्माओं के चरणों में भावभरी हार्दिक श्रद्धांजली के साथ-साथ यह कृति भी सादर समर्पित है।
विचक्षणचरणरज
हर्षयशाश्री
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"कृतज्ञता ज्ञापन" भारतीय-संस्कृति संस्कार-प्रधान है। संस्कारों से ही संस्कृति बनती है। प्राचीनकाल से ही भारत अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए विश्वपूज्य रहा है। भारत की इस सांस्कृतिक-धारा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भारतीय-विद्वानों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों की रचना कर अपनी इस संस्कृति का पोषण किया है। संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों से युक्त वर्धमानसूरिकृत 'आचारदिनकर' भी एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें भारतीय-सांस्कृतिक-चेतना को पुष्ट करने वाले चालीस विधि-विधानों का विवेचन मिलता है। इसमें मात्र बाह्य विधि-विधानों की ही चर्चा नहीं है, वरन् आत्मविशुद्धि करने वाले धार्मिक एवं आध्यात्मिक विधि-विधानों का भी समावेश ग्रंथकार ने किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ की प्रासंगिकता को देखते हुए मैंने इस ग्रंथ का भावानुवाद सुबोध हिन्दी भाषा में करने का एक प्रयास किया है।
मेरा अनुवाद कैसा है ? यह तो सुज्ञ पाठक ही निर्णय करेंगे। मैंने अपने हिन्दी-अनुवाद को मूलग्रंथ के भावों के आस-पास ही रखने का प्रयत्न किया है। विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थ के अनुवाद का यह मेरा प्रथम प्रयास है। मूल मुद्रित प्रति में अनेक अशुद्ध पाठ होने के कारण तथा मेरे अज्ञानवश अनुवाद में त्रुटियाँ रहना स्वाभाविक है। यह भी सम्भव है कि ग्रंथकार की भावना के विरुद्ध अनुवाद में कुछ लिखा गया हो, उस सबके लिए मैं विद्वत्वर्ग से करबद्ध क्षमा याचना करती हूँ।
प्रज्ञामनीषी प.पू. जम्बूविजयजी म.सा. ने इस ग्रन्थ के अनेक संशयस्थलों का समाधान प्रदान करने की महती कृपा की, एतदर्थ उनके प्रति भी मैं अन्तःकरण से आभार अभिव्यक्त करती हूँ।
___ इस पुनीत कार्य में उपकारियों के उपकार को कैसे भूला जा सकता है। इस ग्रंथ के अनुवाद में प्रत्यक्षतः परिश्रम भले मेरा दिखाई देता हो, किन्तु उसके पीछे आत्मज्ञानी, महान् साधिका, समतामूर्ति, परोपकारवत्सला गुरुवर्या श्रीविचक्षणश्रीजी म.सा. के परोक्ष शुभाशीर्वाद
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तो हैं ही। इस कार्य में परम श्रद्धेय प्रतिभापुंज, मधुरभाषी पूज्यश्री पीयूषसागरजी म.सा. की सतत प्रेरणा मुझे मिलती रही है। उनके प्रेरणाबल की चर्चा कर मैं उनके प्रति अपनी आत्मीय श्रद्धा को कम नहीं करना चाहती हूँ। ग्रंथ प्रकाशन के इन क्षणों में संयमप्रदाता प.पू. हर्षयशाश्रीजी म.सा. का उपकार भी मैं कैसे भूल सकती हूँ, जिनकी भाववत्सलता से मेरे जीवन का कण-कण आप्लावित है, वे मेरी दीक्षागुरु ही नहीं, वरन् शिक्षागुरु भी हैं। अनुवाद के प्रकाशन में उनका जो आत्मीय सहयोग मिला वह मेरे प्रति उनके अनन्य वात्सल्यभाव का साक्षी है। ग्रन्थ-प्रकाशन के इन सुखद क्षणों में आगममर्मज्ञ मूर्धन्य पंडित डॉ. सागरमलजी सा. का भी उपकार भूलाना कृतघ्नता ही होगी, उन्होंने हर समय इस अनुवाद-कार्य में मेरी समस्याओं का समाधान किया तथा निराशा के क्षणों में मेरे उत्साह का वर्द्धन किया। अल्प समय में इस गुरुतर ग्रंथ के अनुवाद का कार्य आपके दिशा-निर्देश एवं सहयोग के बिना शायद ही सम्भव हो पाता।
साधु-साध्वियों के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध हेतु पूर्ण समर्पित डॉ. सागरमलजी जैन द्वारा स्थापित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर द्वारा प्रदत्त आवास, निवास और ग्रन्थागार की पूरी सुविधाएँ भी इस कार्य की पूर्णता में सहायक रही हैं। श्री रिखबचन्द जी झाडझूड़ मुम्बई, उपाध्यक्ष अ.भा. खरतरगच्छ महासंघ भी धन्यवाद के पात्र हैं, जिनके अर्थ-सहयोग से ग्रन्थ का प्रकाशन-कार्य संभव हो सका है।
अन्त में उन सभी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोगियों के प्रति मैं आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इस कार्य में अपना सहयोग प्रदान किया। भाई अमित ने इसका कम्प्यूटर-कम्पोजिंग एवं आकृति आफसेट ने इसका मुद्रणकार्य किया, एतदर्थ उन्हें भी साधुवाद।
मुझे विश्वास है, इस अनुवाद में अज्ञानतावश जो अशुद्धियाँ रह गईं हैं, उन्हें सुधीजन संशोधित करेंगे।
शाजापुर,
विचक्षणहर्षचरणरज
मोक्षरत्नाश्री
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!! भूमिका !!
किसी भी धर्म या साधना पद्धति के दो पक्ष होते है - १. विचार पक्ष और २. आचार पक्ष। जैन धर्म भी एक साधना पद्धति है। अतः उसमें भी इन दोनों पक्षों का समायोजन पाया जाता है। जैन धर्म मूलतः भारतीय श्रमण परम्परा का धर्म है। भारतीय श्रमण परंपरा अध्यात्मपरक रही हैं और यही कारण हैं कि उसने प्रारम्भ में वैदिक कर्मकाण्डीय परम्परा की आलोचना भी की थी, किन्तु कालान्तर में वैदिक परम्परा के कर्मकाण्डों का प्रभाव उस पर भी आया। यद्यपि प्राचीन काल में जो जैन आगम ग्रन्थ निर्मित हुए, उनमें आध्यात्मिक
और नैतिक शिक्षाएँ ही प्रधान रही हैं, किन्तु कालान्तर में जो जैन ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें वैदिक परम्परा के प्रभाव से कर्मकाण्ड का प्रवेश भी हुआ। पहले गौण रूप में और फिर प्रकट रूप में कर्मकाण्ड परक ग्रन्थ जैन परम्परा में भी लिखे गए। भारतीय वैदिक परम्परा में यज्ञ-याग आदि के साथ-साथ गृही जीवन के संस्कारों का भी अपना स्थान रहा हैं और प्रत्येक संस्कार के लिए यज्ञ-याग एवं तत्सम्बन्धी कर्मकाण्ड एवं उसके मंत्र भी प्रचलित रहे हैं। मेरी यह सुस्पष्ट अवधारणा हैं, कि जैन परम्परा में षोडश संस्कारों का और उनके विधि-विधान का जो प्रवेश हुआ है, वह मूलतः हिन्दू परम्परा के प्रभाव से ही आया हैं। यद्यपि परम्परागत अवधारणा यही है, कि गृहस्थों के षोडश संस्कार और उनके विधि-विधान भगवान ऋषभदेव के द्वारा प्रवर्तित किए गए थे। आचारदिनकर में भी वर्धमानसूरि ने इसी परम्परागत मान्यता का उल्लेख किया है। जहाँ तक जैन आगमों का प्रश्न है, उसमें कथापरक आगमों में गर्भाधान संस्कार का तो कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु उनमें तीर्थंकरों के जीव के गर्भ में प्रवेश के समय माता द्वारा स्वप्न दर्शन के उल्लेख मिलते है। इसके अतिरिक्त जातकर्म संस्कार, सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार, षष्ठी संस्कार, नामकरण संस्कार, विद्याध्ययन संस्कार आदि कुछ संस्कारों के उल्लेख भी उनमें
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मिलते है, किन्तु वहाँ तत्सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख नहीं मिलता है। फिर भी इससे इतना तो सिद्ध होता है कि उस काल में जैन परम्परा में भी संस्कार सम्बन्धी कुछ विधान किए जाते थे। यद्यपि मेरी अवधारणा यही है कि जैन समाज के बृहद् हिन्दू समाज का ही एक अंग होने के कारण जन सामान्य में प्रचलित जो संस्कार आदि की सामाजिक क्रियाएँ थी, वे जैनों द्वारा भी मान्य थी। किन्तु ये संस्कार जैन धर्म की निवृत्तिपरक साधना विधि का अंग रहे होंगे, यह कहना कठिन हैं।
जहाँ तक संस्कार सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथों की रचना का प्रश्न है, वे आगमिकव्याख्याकाल के पश्चात् निर्मित होने लगे थे। किन्तु उन ग्रंथों में भी गृहस्थ जीवन सम्बन्धी षोडश संस्कारों का कोई उल्लेख हमें नहीं मिलता हैं। मात्र दिगम्बर परम्परा में भी जो पुराणग्रन्थ हैं, उनमें इन संस्कारों के विधि-विधान के मात्र संसूचनात्मक कुछ निर्देश ही मिलते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र (लगभग आठवीं शती) के ग्रन्थ जैसे अष्टकप्रकरण, पंचाशक प्रकरण, पंचवस्तु आदि में भी विधि-विधान सम्बन्धी कुछ उल्लेख तो मिलते है, किन्तु उनमें जो विधि-विधान सम्बन्धी उल्लेख हैं वे प्रथमतः तो अत्यन्त संक्षिप्त हैं
और दूसरे उनमें या तो जिनपूजा, जिनभवन निर्माण, जिनयात्रा, मुनिदीक्षा आदि से सम्बन्धित ही कुछ विधि-विधान मिलते है या फिर मुनि आचार सम्बन्धी कुछ विधि-विधानों का उल्लेख उनमें हुआ है। गृहस्थ के षोडश संस्कारों का सुव्यवस्थित विवरण हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को नहीं मिलता हैं। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् नवमीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक मुनि आचार सम्बन्धी अनेक ग्रंथो की रचना हुई। जैसे - पादलिप्तसूरिकृत निर्वाणकलिका, जिनवल्लभसूरि विरचित संघपट्टक, चन्द्रसूरि की सुबोधासमाचारी, तिलकाचार्यकृत समाचारी, हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र, समयसुन्दर का समाचारीशतक आदि कुछ ग्रन्थ है। किन्तु ये सभी ग्रन्थ भी साधना परक और मुनिजीवन से सम्बन्धित आचार-विचार का ही उल्लेख
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करते है। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी से विधि-विधान सम्बन्धी जिन ग्रन्थों की रचना हुई उसमें 'विधिमार्गप्रपा' को एक प्रमुख ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जा सकता हैं। किन्तु इस में भी जो विधि-विधान वर्णित है, उनका सम्बन्ध मुख्यतः मुनि आचार से ही हैं या फिर किसी सीमा तक जिनभवन, जिनप्रतिमा, प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित उल्लेख हैं। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में पं. आशाधर के सागरधर्मामृत एवं अणगारधर्मामृत में तथा प्रतिष्ठाकल्प में कुछ विधि-विधानों का उल्लेख हुआ हैं। सागारधर्मामृत में गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित कुछ विधि-विधान चर्चित अवश्य हैं, किन्तु उसमें भी गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, षष्ठीपूजा, अन्नप्राशन, कर्णवेध आदि का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता हैं। गृहस्थ जीवन, मुनिजीवन और सामान्य विधि-विधान से सम्बन्धित मेरी जानकारी में यदि कोई प्रथम ग्रन्थ हैं तो वह वर्धमानसूरीकृत आचारदिनकर (वि.सं. १४६८) ही हैं। ग्रन्थ के रचियता और रचनाकाल -
जहाँ तक इस ग्रन्थ के रचियता एवं रचना काल का प्रश्न हैं, इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया गया है कि वि.स. १४६८ में जालंधर नगर (पंजाब) में इस ग्रन्थ की रचना हुई। ग्रन्थ प्रशस्ति से यह भी स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि द्वारा रचित हैं। अभयदेवसूरि और वर्धमानसूरि जैसे प्रसिद्ध नामों को देखकर सामान्यतयाः चन्द्रकुल के वर्धमानसूरि, नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि का स्मरण हो आता हैं, किन्तु आचारदिनकर के कर्ता वर्धमानसूरि इनसे भिन्न हैं। अपनी सम्पूर्ण वंश परम्परा का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने को खरतरगच्छ की रूद्रपल्ली शाखा के अभयदेवसूरी (तृतीय) का शिष्य बताया है। ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने जो अपनी गुरु परम्परा सूचित की है, वह इस प्रकार है :
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आचार्य हरिभद्र देवचन्द्रसूरि नेमीचन्द्रसूरि उद्योतनसूरि वर्धमानसूरि जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (प्रथम)
जिनवल्लभसूरि इसके पश्चात् जिनवल्लभ के शिष्य जिनशेखर से रुद्रपल्ली शाखा की स्थापना को बताते हुए, उसकी आचार्य परम्परा निम्न प्रकार से दी है :
जिनशेखरसूरि
पद्मचंद्रसूरि
विजयचंद्रसूरि अभयदेवसूरि (द्वितीय) (१२वीं से १३वीं शती)
देवभद्रसूरि प्रभानंदसूरि (वि.सं. १३११) श्रीचंद्रसूरि (वि.सं. १३२७)
जिनभद्रसूरि
जगततिलकसूरि गुणचन्द्रसूरि (१४१५-२१)
अभदेवसूरि (तृतीय)
जयानंदसूरि
वर्धमानसूरि (१५वीं शती)
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प्रस्तुत कृति में वर्धमानसूरि ने जो अपनी गुरु परम्परा दी है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे खरतरगच्छ की रूद्रपल्ली शाखा से सम्बन्धित थे। ज्ञातव्य हैं कि जिनवल्लभसूरि के गुरु भ्राता जिनशेखरसूरि ने जिनदत्तसूरि द्वारा जिनचंद्रसूरि को अपने पट्ट पर स्थापित करने से रूष्ट होकर उनसे पृथक् हो गए और उन्होंने रूद्रपल्ली शाखा की स्थापना की। ऐसा लगता हैं कि जहाँ जिनदत्तसूरि की परम्परा ने उत्तर-पश्चिम भारत को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया, वही जिनशेखर सूरि ने पूर्वोत्तर क्षेत्र को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाकर विचरण किया। रूद्रपल्ली शाखा का उद्भव लखनऊ और अयोध्या के मध्यवर्ती रूद्रपल्ली नामक नगर में हुआ और इसीलिए इसका नाम रूद्रपल्ली शाखा पड़ा। वर्तमान में भी यह स्थान रूदौली के नाम से प्रसिद्ध हैं इस शाखा का प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब तक रहा। प्रस्तुत आचारदिनकर की प्रशस्ति से भी यह स्पष्ट हो जाता हैं कि इस ग्रन्थ की रचना पंजाब के जालंधर नगर के नंदनवन में हुई, जो रूद्रपल्ली शाखा का प्रभाव क्षेत्र रहा होगा । यह स्पष्ट है कि रूद्रपल्ली स्वतंत्र गच्छ न होकर खरतरगच्छ का ही एक विभाग था । साहित्यिक दृष्टि से रूद्रपल्ली शाखा के आचार्यों द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना हुई। अभयदेवसूरि (द्वितीय) द्वारा जयन्तविजय महाकाव्य वि.स. १२७८ में रचा गया। अभयदेवसूरि (द्वितीय) के पट्टधर देवभद्रसूरि के शिष्य तिलकसूरि ने गौतमपृच्छावृत्ति की रचना की है। उनके पश्चात् प्रभानंदसूरि ने ऋषभपंचाशिकावृत्ति और वीतरागवृत्ति की रचना की । इसी क्रम में आगे संघतिलकसूरि हुए जिन्होंने सम्यक्त्वसप्ततिटीका, वर्धमानविद्याकल्प, षट्दर्शनसमुच्चयवृत्ति की रचना की। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में वीरकल्प, कुमारपालचरित्र, शीलतरंगिनीवृत्ति, कन्यानयनमहावीरप्रतिमाकल्प (प्रदीप ) आदि कृतियाँ भी मिलती है। कन्यानयनमहावीरप्रतिमाकल्प की रचना से भी यह स्पष्ट हो जाता हैं, कि इस शाखा का प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी उत्तरप्रदेश था, क्योंकि यह कल्प वर्तमान कन्नौज के भगवान महावीर के
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जिनालय के सम्बन्ध में लिखा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्धमानसूरि जिस रूद्रपल्ली शाखा में हुए वह शाखा विद्वत मुनिजनों और आचार्यों से समृद्ध रही हैं और यही कारण हैं कि उन्होंने आचारदिनकर जैसे विधि-विधान सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की। आचारदिनकर के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता हैं कि उस पर श्वेताम्बर परम्परा के साथ ही दिगम्बर परम्परा का भी प्रभाव रहा हैं। यह स्पष्ट है कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश और उससे लगे हुए बुन्देलखण्ड तथा पूर्वी हरियाणा में दिगम्बर परम्परा का भी प्रभाव था। अतः यह स्वाभाविक था कि आचारदिनकर पर दिगम्बर परम्परा का भी प्रभाव आये। स्वयं वर्धमानसूरि ने भी यह स्वीकार किया है, कि मैंने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों तथा उनमें प्रचलित इन विधानों की जीवित परम्परा को देखकर ही इस ग्रंथ की रचना की है। ग्रन्थ प्रशस्तियों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्रपल्ली शाखा लगभग बारहवीं शताब्दी में अस्तित्व में आई और उन्नीसवीं शताब्दी तक अस्तित्व में बनी रही। यद्यपि यह सत्य हैं कि सोलहवीं शती के पश्चात् इस शाखा में कोई प्रभावशाली विद्वान आचार्य नहीं हुआ, किन्तु यति परम्परा और उसके पश्चात् कुलगुरु (मथेण) के रूप में यह शाखा लगभग उन्नीसवीं शताब्दी तक जीवित रही। ग्रन्थकार वर्धमानसूरि का परिचय -
जहाँ तक प्रस्तुत कृति के रचियता वर्धमानसूरि का प्रश्न हैं, उनके गृही जीवन के सम्बन्ध में हमें न तो इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से
और न किसी अन्य साधन से कोई सूचना प्राप्त होती है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इनका जन्म रुद्रपल्ली शाखा के प्रभाव क्षेत्र में ही कही हुआ होगा। जालन्धर (पंजाब) में ग्रन्थ रचना करने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका विचरण और स्थिरता का क्षेत्र पंजाब और हरियाणा रहा होगा। इनके गुरु अभयदेवसूरि (तृतीय) द्वारा फाल्गुन सुद तीज, शुक्रवार वि.स. १४३२ में अंजनशलाका की हुई शान्तिनाथ भगवान की धातु की प्रतिमा,
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आदिनाथ जिनालय पूना में उपलब्ध हैं। इससे यह सुनिश्चित हैं कि वर्धमानसूरि विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में हुए। इनके गुरु अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित होने के सम्बन्ध में भी किसी प्रकार की कोई शंका नहीं की जा सकती । किन्तु इनकी दीक्षा कब और कहाँ हुई इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है ।
ग्रंथकर्त्ता और उसकी परम्परा की इस चर्चा के पश्चात् हम ग्रंथ के सम्बन्ध में कुछ विचार करेंगे। ग्रन्थ की विषयवस्तु -
वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर नामक यह ग्रंथ संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचित है । भाषा की दृष्टि से इसकी संस्कृत भाषा अधिक प्रांजल नहीं हैं और न अलंकार आदि के घटाटोप से क्लिष्ट हैं । ग्रन्थ सामान्यतयाः सरल संस्कृत में ही रचित है । यद्यपि जहाँ-जहाँ आगम और प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रश्न उपस्थित हुआ है, वहाँ-वहाँ इसमें प्राकृत पद्य और गद्य अवतरित भी किए गए है। कहीं कहीं तो यह भी देखने में आया है कि प्राकृत का पूरा का पूरा ग्रन्थ ही अवतरित कर दिया गया है, जैसे प्रायश्चित्त विधान के सम्बन्ध में जीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प आदि ग्रन्थ उद्धृत हुए। ग्रन्थ की जो प्रति प्रथमतः प्रकाशित हुई है, उसमें संस्कृत भाषा सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ देखने में आती हैं इन अशुद्धियों के कारण का यदि हम विचार करे तो दो संभावनाएँ प्रतीत होती हैं प्रथमतः यह हो सकता हैं कि जिस हस्तप्रत के आधार पर यह ग्रन्थ छपाया गया हो वहीं अशुद्ध रही हो, दूसरे यह भी सम्भावना हो सकती हैं कि प्रस्तुत ग्रंथ का प्रुफ रीडिंग सम्यक् प्रकार से नहीं किया गया हो। चूँकि इस ग्रंथ का अन्य कोई संस्करण भी प्रकाशित नहीं हुआ है और न कोई हस्तप्रत ही सहज उपलब्ध है - ऐसी स्थिति में पूज्या साध्वी जी ने इस अशुद्ध प्रत के आधार पर ही यह अनुवाद करने का प्रयत्न किया हैं, अतः अनुवाद में यत्र-तत्र स्खलन की कुछ सम्भावनाएँ हो सकती है। क्योंकि अशुद्ध पाठों के आधार पर सम्यक्
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अर्थ का निर्धारण करना एक कठिन कार्य होता हैं। फिर भी इस दिशा में जो यह प्रयत्न हुआ हैं, वह सराहनीय ही कहा जाएगा।
यद्यपि जैन परम्परा में विधि-विधान से सम्बन्धित अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचवस्तु प्रकरण से लेकर आचारदिनकर तक विधि-विधान सम्बन्धी ग्रंथों की समृद्ध परम्परा रही हैं, किन्तु आचारदिनकर के पूर्व जो विधि-विधान सम्बन्धी ग्रंथ लिखे गए उन ग्रंथों में दो ही पक्ष प्रबल रहे - १. मुनि आचार सम्बन्धी ग्रंथ और २. पूजापाठ एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी ग्रन्थ। निर्वाणकलिका, विधिमार्गप्रपा, समाचारी, सुबोधासमाचारी आदि ग्रंथों में हमें या तो दीक्षा आदि मुनि जीवन से सम्बन्धित विधि-विधान का उल्लेख मिलता हैं या फिर मन्दिर एवं मूर्ति निर्माण, मूर्तिप्रतिष्ठा, मूर्ति पूजा आदि से सम्बन्धित विधि-विधानों का उल्लेख मिलता हैं। इन पूर्ववर्ती ग्रन्थों में श्रावक से सम्बन्धित जो विधि-विधान मिलते हैं, उनमें से मुख्य रूप से सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण एवं उपधान से सम्बन्धित ही विधि-विधान मिलते है। सामान्यतः गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित संस्कारों के विधि-विधानों का उनमें प्रायः अभाव ही देखा जाता हैं। यद्यपि आगम युग से ही जन्म, नामकरण आदि सम्बन्धी कुछ क्रियाओं (संस्कारों) के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु तत्संबन्धी जैन परम्परा के अनुकूल विधि-विधान क्या थे ? इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती है।
___ दिगम्बर परम्परा के पुराण साहित्य में भी इन संस्कारों के उल्लेख तथा उनके करने सम्बन्धी कुछ निर्देश तो मिलते हैं, किन्तु वहाँ भी एक सुव्यवस्थित समग्र विधि-विधान का प्रायः अभाव ही देखा जाता हैं। वर्धमानसूरि का आचारदिनकर जैन परम्परा का ऐसा प्रथम ग्रंथ हैं, जिसमें गृहस्थ के षोडश संस्कारों सम्बधी विधि-विधानों का सुस्पष्ट विवेचन हुआ है।
___आचारदिनकर नामक यह ग्रंथ चालीस उदयों में विभाजित हैं। आचार्य वर्धमानसूरि ने स्वयं ही इन चालीस उदयों को तीन भागों में वर्गीकृत किया हैं। प्रथम विभाग में गृहस्थ सम्बन्धी षोडश संस्कारों का
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विवेचन हैं, दूसरे विभाग में मुनि जीवन से सम्बन्धित षोडश संस्कारों का विवेचन हैं और अन्तिम तृतीय विभाग के आठ उदयों में गृहस्थ और मुनि दोनों द्वारा सामान्य रूप से आचरणीय आठ विधि-विधानों का उल्लेख हैं। इस ग्रन्थ में वर्णित चालीस विधि-विधानों को निम्न सूची द्वारा जाना जा सकता हैं :
। (अ) गृहस्थ सम्बन्धी । (ब) मुनि सम्बन्धी (स) मुनि एवं गृहस्थ
सम्बन्धी | १ गर्भाधान संस्कार १ ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण संस्कार | १ प्रतिष्ठा विधि | २ पुंसवन संस्कार २ क्षुल्लक विधि
२ शान्तिक-कर्म विधि | ३ जातकर्म संस्कार | ३ प्रव्रज्या विधि
३ पौष्टिक-कर्म विधि ४ सूर्य-चन्द्र दर्शन ४ उपस्थापना विधि
४ बलि विधान संस्कार ५ क्षीराशन संस्कार ५ योगोद्वहन विधि
५ प्रायश्चित्त विधि |६ षष्ठी संस्कार ६ वाचनाग्रहण विधि
६ आवश्यक विधि ७ शुचि संस्कार ७ वाचनानुज्ञा विधि ७ तप विधि ८ नामकरण संस्कार उपाध्यायपद स्थापना विधि | ८ पदारोपण विधि ६ अन्न प्राशन संस्कार आचार्यपद स्थापना विधि | १० कर्णवेध संस्कार १० प्रतिमाउद्वहन विधि ११ चूडाकरण संस्कार | ११ व्रतिनी व्रतदान विधि
| १२ प्रवर्तिनीपद स्थापना विधि १३ विद्यारम्भ संस्कार १३ महत्तरापद स्थापना विधि १४ विवाह संस्कार १४ अहोरात्र चर्या विधि १५ व्रतारोपण संस्कार | १५ ऋतुचर्या विधि | १६ अन्त्य संस्कार १६ अन्तसंलेखना विधि
१२ उप
तुलनात्मक विवचेन -
___ जहाँ तक प्रस्तुत कृति में वर्णित गृहस्थ जीवन सम्बन्धी षोडश संस्कारों का प्रश्न हैं, ये संस्कार सम्पूर्ण भारतीय समाज में प्रचलित रहे हैं, सत्य यह है कि ये संस्कार धार्मिक संस्कार न होकर सामाजिक संस्कार रहे हैं और यही कारण है कि भारतीय समाज के
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श्रमण धर्मों में भी इनका उल्लेख मिलता हैं । जैन परम्परा के आगमों जैसे ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, राजप्रश्नीय, कल्पसूत्र आदि में इनमें से कुछ संस्कारों का जैसे जातकर्म या जन्म संस्कार, सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार, षष्ठी संस्कार, नामकरण संस्कार, विद्यारम्भ संस्कार आदि का उल्लेख मिलता हैं, फिर भी जहाँ तक जैन आगमों का प्रश्न हैं उनमें मात्र इनके नामोल्लेख ही है । तत्सम्बन्धी विधि-विधानों का विस्तृत विवेचन नहीं है। जैन आगमों में गर्भाधान संस्कार का उल्लेख न होकर शिशु के गर्भ में आने पर माता द्वारा स्वप्नदर्शन का ही उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार विवाह के भी कुछ उल्लेख है, किन्तु उनमें व्यक्ति के लिए विवाह की अनिवार्यता का प्रतिपादन नहीं है और न तत्सम्बन्धी किसी विधि विधान का उल्लेख हैं । दिगम्बर परम्परा के पुराण ग्रंथों में भी इनमें से अधिकांश संस्कारों का उल्लेख हुआ हैं, किन्तु उपनयन आदि संस्कार जो मूलतः हिन्दू परम्परा से ही सम्बन्धित रहे हैं, उनके उल्लेख विरल है । दिगम्बर परम्परा में मात्र यह निर्देश मिलता हैं कि भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने व्रती श्रावकों को स्वर्ण का उपनयन सूत्र प्रदान किया था । वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा में उपनयन (जनेउ ) धारण की परम्परा है। इस प्रकार जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही प्रमुख परम्पराओं में एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में इन संस्कारों के निर्देश तो हैं, किन्तु मूलभूत ग्रन्थों में तत्सम्बन्धी किसी भी विधि-विधान का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । वर्धमानसूरि की प्रस्तुत कृति का यह वैशिष्ट्य है, कि उसमें सर्वप्रथम इन षोडश संस्कारों का विधि-विधान पूर्वक उल्लेख किया गया है। जहाँ तक मेरी जानकारी हैं, वर्धमानसूरिकृत इस आचारदिनकर नामक ग्रन्थ से पूर्ववर्ती किसी भी जैन ग्रन्थ में इन षोडश संस्कारों का विधि-विधान पूर्वक उल्लेख नहीं हुआ। मात्र यहीं नहीं परवर्ती ग्रन्थों में भी ऐसा सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा में षोडश संस्कार विधि, जैन विवाहविधि आदि के विधि-विधान से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थ हिन्दी भाषा में प्रकाशित
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हैं, किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, श्वेताम्बर परम्परा में वर्धमानसूरि के पूर्व और उनके पश्चात् भी इन षोडश संस्कारों से सम्बन्धित कोई ग्रन्थ नही लिख गया । इस प्रकार जैन परम्परा में षोडश संस्कारों का विधिपूर्वक उल्लेख करने वाला यही एकमात्र अद्वितीय ग्रन्थ हैं। वर्धमानसूरि की यह विशेषता हैं, कि उन्होंने गर्भाधान संस्कार को हिन्दू परम्परा के सीमान्त संस्कार के पूर्व रूप में स्वीकार किया हैं और यह माना हैं कि गर्भ के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने पर ही यह संस्कार किया जाना चाहिए। इस प्रकार उनके द्वारा प्रस्तुत गर्भाधान संस्कार वस्तुतः गर्भाधान संस्कार न होकर सीमान्त संस्कार का ही पूर्व रूप हैं। वर्धमानसूरि ने गृहस्थ सम्बन्धी जिन षोडश संस्कारों का विधान किया हैं, उनमें से व्रतारोपण को छोड़कर शेष सभी संस्कार हिन्दू परम्परा के समरूप ही प्रस्तुत किए गए हैं, यद्यपि संस्कार सम्बन्धी विधि-विधान में जैनत्व को प्रधानता दी गई हैं और तत्सम्बन्धी मंत्र भी जैन परम्परा के अनुरूप ही प्रस्तुत किए गए
हैं।
वर्धमानसूरि द्वारा विरचित षोडश संस्कारों और हिन्दू परम्परा में प्रचलित षोडश संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि इस ग्रन्थ में हिन्दू परम्परा के षोडश संस्कारों का मात्र जैनीकरण किया गया हैं। किन्तु जहाँ हिन्दू परम्परा में विवाह संस्कार के पश्चात् वानप्रस्थ संस्कार का उल्लेख होता है, वहाँ वर्धमानसूरि ने विवाह संस्कार के पश्चात् व्रतारोपण संस्कार का उल्लेख किया है। व्रतारोपण संस्कार वानप्रस्थ संस्कार से भिन्न है, क्योंकि यह गृहस्थ जीवन में ही स्वीकार किया जाता हैं। पुनः वह ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण और क्षुल्लक दीक्षा से भी भिन्न हैं, क्योंकि दोनों में मौलिक दृष्टि से यह भेद है कि ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण तथा क्षुल्लक दीक्षा दोनों में ही स्त्री का त्याग अपेक्षित होता हैं, जबकि वानप्रस्थाश्रम स्त्री के साथ ही स्वीकार किया जाता हैं। यद्यपि उसकी क्षुल्लक दीक्षा से इस अर्थ में समानता हैं कि दोनों ही संन्यास की पूर्व अवस्था एवं गृह त्याग रूप हैं।
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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के दूसरे खण्ड में मुनि जीवन से सम्बन्धित षोडश संस्कारों का उल्लेख हैं। इन संस्कारों में जहाँ एक ओर मुनि जीवन की साधना एवं शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विधि-विधान हैं, वही दूसरी ओर साधु-साध्वी के संघ संचालन सम्बन्धी विविध पद एवं उन पदों पर स्थापन की विधि दी गई है। मुनि जीवन से सम्बन्धित ये विधि-विधान वस्तुतः जैन संघ की अपनी व्यवस्था है। अतः अन्य परम्पराओं में तत्सम्बन्धी विधि-विधानों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। वर्धमानसूरि के आचारदिनकर नामक ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में यह विशेषता हैं कि वह मुनि की प्रव्रज्या विधि के पूर्व, ब्रह्मचर्य व्रत संस्कार और क्षुल्लक दीक्षा विधि को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा के उनसे पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में इस प्रकार विधि-विधान का कहीं भी उल्लेख नहीं है, यद्यपि प्राचीन आगम ग्रंथों जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में क्षुल्लकाचार नामक अध्ययन मिलते हैं, किन्तु वे मूलतः नवदीक्षित मुनि के आचार का ही विवेचन प्रस्तुत करते है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मचर्य प्रतिमा
और क्षुल्लक दीक्षा के निर्देश मिलते हैं और श्वेताम्बर परम्परा में भी गृहस्थों द्वारा ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार किया जाता है और तत्सम्बन्धी प्रतिज्ञा के आलापक भी है, किन्तु क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी कोई विधि-विधान मूल आगम साहित्य में नहीं है मात्र तत्सम्बन्धी आचार का उल्लेख हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सामायिक चारित्र ग्रहण रूप जिस छोटी दीक्षा और छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण रूप बड़ी दीक्षा के जो उल्लेख हैं, वे प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रव्रज्याविधि और उपस्थापनाविधि के नाम से विवेचित है।
वर्धमानसूरि की यह विशेषता हैं कि वे ब्रह्मचर्य व्रत से . संस्कारित या क्षुल्लक दीक्षा गृहीत व्यक्ति को गृहस्थों के व्रतारोपण को छोड़कर शेष पन्द्रह संस्कारों को करवाने की अनुमति प्रदान करते है। यही नहीं यह भी माना गया है कि मुनि की अनुपस्थिति में क्षुल्लक भी गृहस्थ को व्रतारोपण करवा सकता है। उन्होंने क्षुल्लक का जो
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स्वरूप वर्णित किया है, वह भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा की क्षुल्लक दीक्षा से भिन्न ही हैं। क्योंकि दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक दीक्षा आजीवन के लिए होती है। साथ ही क्षुल्लक को गृहस्थ के संस्कार करवाने का अधिकार भी नहीं है। यद्यपि क्षुल्लक के जो कार्य वर्धमानसूरि ने बताए हैं, वे कार्य दिगम्बर परम्परा में भट्टारकों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। गृहस्थ के विधि-विधानों की चर्चा करते हुए, उन्होंने जैन ब्राह्मण एवं क्षुल्लक का बार-बार उल्लेख किया है, इससे ऐसा लगता हैं कि प्रस्तुत कृति के निर्माण में दिगम्बर परम्परा का भी प्रभाव रहा है। स्वयं उन्होंने अपने उपोद्घात में भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मैंने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित जीवन्त परम्परा को और उनके ग्रन्थों को देखकर इस ग्रन्थ की रचना की है। वर्धमानसूरि गृहस्थ सम्बन्धी संस्कार हेतु जैन ब्राह्मण की बात करते है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में जैन ब्राह्मण की कोई व्यवस्था रही है, ऐसा उस परम्परा के ग्रन्थों से ज्ञात नहीं होता है। संभावना यही है श्वेताम्बर परम्परा शिथिल यतियों के द्वारा वैवाहिक जीवन स्वीकार करने पर मत्थेण, गौरजी महात्मा आदि की जो परम्परा प्रचलित हुई थी और जो गृहस्थों के कुलगुरु का कार्य भी करते थे, वर्धमानसूरि का जैन ब्राह्मण से आशय उन्हीं से होगा। लगभग ५० वर्ष पूर्व तक ये लोग यह कार्य सम्पन्न करवाते थे।
इस कृति के तृतीय एवं चतुर्थ खण्ड में मुनि एवं गृहस्थ दोनों से सम्बन्धित आठ संस्कारों का उल्लेख किया हैं, किन्तु यदि हम गंभीरता से विचार करें तो प्रतिष्ठा विधि, शान्तिक कर्म, पौष्टिक कर्म एवं बलिविधान इन चार का सम्बन्ध मुख्यतः गृहस्थों से है, क्योंकि ये संस्कार गृहस्थों द्वारा और उनके लिए ही सम्पन्न किये जाते है। यद्यपि प्रतिष्ठा विधि की अवश्य कुछ ऐसी क्रियाएँ है, जिन्हें आचार्य या मुनिजन भी सम्पन्न करते हैं। जहाँ तक प्रायश्चित्त विधान का प्रश्न है, हम देखते हैं कि जैन आगमों में और विशेष रूप से छेदसूत्रों यथा व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र, जीतकल्प आदि में और उनकी
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नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि में सामान्यतः मुनि की ही प्रायश्चित्त विधि का उल्लेख हैं। गृहस्थ की प्रायश्चित्त विधि का सर्वप्रथम उल्लेख हमें श्राद्धजीतकल्प में मिलता है। दिगम्बर परम्परा के छेदपिण्ड शास्त्र में भी मुनि के साथ-साथ गृहस्थ के प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान का उल्लेख है। आचारदिनकर में प्रायश्चित्त विधि को प्रस्तुत करते हुए वर्धमानसूरि ने अपनी तरफ से कोई बात न कह कर जीतकल्प, श्रावक जीतकल्प आदि प्राचीन ग्रंथों को ही पूर्णतः उद्धृत कर दिया है। आवश्यक विधि मूलतः श्रावक प्रतिक्रमण विधि और साधु प्रतिक्रमण विधि को ही प्रस्तुत करती है। जहाँ तक तप विधि का सम्बन्ध है, इसमें वर्धमानसूरि ने छ: बाह्य एवं छः आभ्यन्तर तपों के उल्लेख के साथ-साथ आगम युग से लेकर अपने काल तक प्रचलित विभिन्न तपों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया हैं। जहाँ तक पदारोपण विधि का प्रश्न हैं, यह विधि मूलतः सामाजिक जीवन और राज्य प्रशासन में प्रचलित पदों पर आरोपण की विधि को ही प्रस्तुत करती है। इस विधि में यह विशेषता है कि इसमें राज्य-हस्ती, राज्य-अश्व आदि के भी पदारोपण का उल्लेख मिलता हैं। ऐसा लगता है कि वर्धमानसूरि ने उस युग में प्रचलित व्यवस्था से ही इन विधियों का ग्रहण किया है। जहाँ तक प्रतिष्ठा विधि, शान्तिक कर्म, पौष्टिक कर्म एवं बलि विधान का प्रश्न है। ये चारों ही विधियाँ मेरी दृष्टि में जैनाचार्यों ने हिन्दू परम्परा से ग्रहीत करके उनका जैनीकरण मात्र किया गया है। क्योंकि प्रतिष्ठा विधि में तीर्थंकर परमात्मा को छोड़कर जिन अन्य देवी देवताओं जैसे - दिग्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, यक्ष-यक्षिणी आदि के जो उल्लेख है, वे हिन्दू परम्परा से प्रभावित लगते है या उनके समरूप भी कहे जा सकते है। ये सभी देवता हिन्दू देव मण्डल से जैन देव मण्डल में समाहित किये गये है। इसी प्रकार कूप, तडाग, भवन आदि की प्रतिष्ठा विधि भी उन्होंने हिन्दू परम्परा से ही ग्रहण की है।
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__ इस प्रकार हम देखते है कि वर्धमानसूरि ने एक व्यापक दृष्टि को समक्ष रखकर जैन परम्परा और तत्कालीन समाज व्यवस्था में प्रचलित विविध-विधानों का इस ग्रन्थ में विधिवत् और व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत किया है । जैन धर्म में उनसे पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों ने साधु जीवन से सम्बन्धित विधि-विधानों का एवं जिनबिंब की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित विधि-विधान पर तो ग्रन्थ लिखे थे, किन्तु सामाजिक जीवन से सम्बन्धित संस्कारों के विधि-विधानों पर इतना अधिक व्यापक और प्रामाणिक ग्रन्थ लिखने का प्रयत्न सम्भवतः वर्धमानसूरि ने ही किया है। वस्तुतः जहाँ तक मेरी जानकारी है। समग्र जैन परम्परा में विधि-विधानों को लेकर आचारदिनकर ही एक ऐसा आकर ग्रन्थ हैं जो व्यापक दृष्टि से एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर विधि-विधानों का उल्लेख करता है।
आचारदिनकर विक्रमसंवत् १४६८ तद्नुसार ई. सन् १४१२ में रचित हैं। यह ग्रन्थ मूलतः संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में होने के कारण आधुनिक युग में न तो विद्वत ग्राह्य था और न जनग्राह्य । यद्यपि यह ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित भी हुआ, किन्तु अनुवाद के अभाव में लोकप्रिय नहीं बन सका। दूसरे ग्रन्थ की भाषा संस्कृत एवं प्राकृत होने के कारण तथा उनमें प्रतिपादित विषयों के दुरूह होने के कारण इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का हिन्दी या गुजराती में आज तक कोई अनुवाद नहीं हो सका था। ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का पुरानी हिन्दी में रूपान्तरण का एक प्रयत्न तो अवश्य हुआ, जो जैन तत्त्व प्रसाद में छपा भी था, किन्तु समग्र ग्रन्थ अनुदित होकर आज तक प्रकाश में नहीं आ पाया। साध्वी मोक्षरत्ना श्रीजी ने ऐसे दुरूह और विशालकाय ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में रूपान्तरण का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया हैं, उसके लिए वे निश्चित ही बधाई की पात्र है। इस ग्रन्थ के अनुवाद के लिए न केवल भाषाओं के ज्ञान की ही अपेक्षा थी, अपितु उसके साथ-साथ ज्योतिष एवं परम्परा के ज्ञान की भी अपेक्षा थी। साथ ही हमारे सामने एक कठिनाई यह भी थी, कि जो मूलग्रन्थ प्रकाशित हुआ था, वह इतना अशुद्ध छपा था कि अर्थ बोध में अनेकशः
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कठिनाईयाँ उपस्थित होती रही, अनेक बार साध्वी जी और मैं उन समस्याओं के निराकरण में निराश भी हुए फिर भी इस महाकाय ग्रन्थ का अनुवाद कार्य पूर्ण हो सका यह अति संतोष का विषय है। इस ग्रन्थ के प्रथम एवं द्वितीय खण्ड प्रकाशित होकर पाठकों के समक्ष आ चुके हैं। पूर्व में इस ग्रन्थ को मूलग्रन्थ के खण्डों के अनुसार तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना थी, किन्तु तृतीय खण्ड अतिविशाल होने के कारण इसे भी दो भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार अब यह ग्रन्थ चार खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। इसके तृतीय खण्ड में प्रतिष्ठा विधि, शान्तिक-कर्म, पौष्टिक-कर्म एवं बलि-विधान - इन चार विभागों को समाहित किया गया हैं तथा चतुर्थ खण्ड में प्रायश्चित्त-विधि, आवश्यक-विधि, तप-विधि एवं राजकीय पदारोपण-विधि - इन चार विधियों का समावेश किया गया है। जहाँ तक तृतीय खण्ड में उल्लेखित प्रतिष्ठाविधि, शान्तिककर्म, पौष्टिककर्म एवं बलिविधान का प्रश्न है इनका उल्लेख प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में प्रायः नहीं मिलता है, यहाँ तक कि आठवीं शती में हुए आचार्य हरिभद्र के काल तक भी कुछ संकेतों को छोड़कर प्रायः इनका अभाव ही है। इसके बाद परवर्ती कालीन जिन ग्रन्थों में इनके उल्लेख है, वे उल्लेख मूलतः वैदिक परम्परा से कुछ संशोधनों के साथ ग्रहीत प्रतीत होते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में ये विधि-विधान लगभग तेरहवीं शती से देखने को मिलते है। सम्भवतः दसवीं शती में सोमदेव के इस उल्लेख के बाद से कि जिससे सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रत दूषित न हो, वे सभी लौकिक विधि-विधान प्रमाण है - इस प्रवृत्ति को प्रश्रय मिला और वैदिक एवं ब्राह्मण धारा में प्रचलित अनेक विधि-विधान क्वचित् संशोधनों के साथ यथावत् स्वीकार कर लिए गये। वर्धमानसूरि की प्रस्तुत कृति में वर्णित विधि-विधान भी इसी तथ्य के द्योतक है।
___ जहाँ तक चतुर्थ खण्ड में उल्लेखित प्रायश्चित्त-विधि, आवश्यक-विधि और तप-विधि का प्रश्न है ये तीनों विधियाँ आगम साहित्य में भी उल्लेखित है, यद्यपि प्रस्तुत कृति में उल्लेखित ये तीनों विधियाँ आगमों की अपेक्षा अधिक विकसित रूप में उल्लेखित हैं,
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इनमें तप-विधि में अनेक ऐसे तपों का उल्लेख भी है, जो परवर्ती काल में विकसित हुए है और किसी सीमा तक हिन्दू परम्परा से प्रभावित भी लगते है। आचार्य वर्धमानसूरि ने इस ग्रन्थ के अन्त में प्रशासकीय दृष्टि से राजा, मन्त्री, सेनापति, राजकीय हस्ति, अश्व आदि की पदारोपण विधि दी है जो पूर्णतः लोकाचार से सम्बन्धित है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति पर हिन्दू परम्परा और लोकाचार का भी पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है।
जिस प्रकार द्वितीय विभाग के कुछ अंशों के स्पष्टीकरण एवं परिमार्जन में हमें पूज्य मुनि प्रवरजम्बूविजयजी और पूज्य मुनि यशोविजयजी से सहयोग प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार इसके तृतीय खण्ड की प्रतिष्ठा विधि एवं चतुर्थ खण्ड की प्रायश्चित्त एवं आवश्यक विधि के सम्बन्ध में भी पूज्य मुनि प्रवर जम्बूविजयजी म.सा. का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार नक्षत्रशान्ति विधान एवं पदारोपण विधि के कुछ अंशों के स्पष्टीकरण में आदरणीय डॉ. मोहनजी गुप्त उज्जैन, उज्जैन के सुश्रावक बसंत जी सुराणा के माध्यम से उज्जैन के ज्योतिषाचार्य सर्वेश जी शर्मा एवं सुश्रावक रमेशजी लुणावत के माध्यम से महिदपुर के एक पण्डित जी का सहयोग प्राप्त हुआ है। यद्यपि जैन परम्परा के अनुरक्षण हेतु उनके सुझावों को पूर्णतया आत्मसात् कर पाना संभव नहीं था।
मूलप्रति की अशुद्धता तथा वर्तमान में इसके अनेक विधि-विधानों के प्रचलन में न होने से या उनकी विधियों से परिचित न होने के कारण उन स्थलों का यथासंभव मैंने और पूज्या साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने अपनी बुद्धि के अनुसार भावानुवाद करने का प्रयत्न किया है, हो सकता है कि इसमें कुछ स्खलनाएँ भी हुई हो। विद्वत् पाठकवृन्द से यह अपेक्षा है कि यदि उन्हें इसमें किसी प्रकार की अशुद्धि ज्ञात हो तो मुझे या पूज्या साध्वी जी को सूचित करे। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत कृति में पूज्य वर्धमानसूरि ने कुछ अंश लौकिक परम्परा से यथावत् लिये है, जो जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है। ऐसे अंशों का अनुवाद आवश्यक नहीं होने से छोड़ दिया
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गया है। किन्तु इसमें पूज्या साध्वी जी की जिनशासन के प्रति पूर्ण निष्ठा ही एक मात्र कारण है ।
मेरे लिए यह अतिसंतोष का विषय है कि विद्वतजन जिस कार्य को चाहकर भी अभी तक नहीं कर सके थे, उसे मेरे सान्निध्य एवं सहयोग से पूज्या साध्वी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी ने दिन-रात अथक परिश्रम करके अल्प समय में पूर्ण किया हैं । यह मेरे साथ-साथ उनके लिए भी आत्मतोष का ही विषय है। इस हेतु उन्होंने अनेक ग्रंथों का विलोडन करके न केवल यह अनुवाद कार्य सम्पन्न किया है, अपितु अपना शोधमहानिबन्ध भी पूर्ण किया है । यद्यपि मैंने इस ग्रन्थ का नाम उनके शोधकार्य के हेतु ही सुझाया था, किन्तु मूलग्रन्थ के अनुवाद के बिना यह शोधकार्य भी शक्य नहीं था । इसका अनुवाद उपलब्ध हो इस हेतु पर्याप्त प्रयास करने पर भी जब हमें सफलता नहीं मिली तो शोधकार्य के पूर्व प्रथमतः ग्रन्थ के अनुवाद की योजना बनाई गई । उसी योजना का यह सुफल है कि आज आचारदिनकर के ये चारों खण्ड हिन्दी भाषा में अनुवादित होकर प्रकाशित हो रहे हैं । मेरे लिए यह भी अति संतोष का विषय है कि लगभग तीन वर्ष की इस अल्प अवधि में न केवल आचारदिनकर जैसे महाकाय ग्रन्थ का चार खण्डों में अनुवाद ही पूर्ण हुआ अपितु पूज्या साध्वीजी ने अपना शोधकार्य भी पूर्ण किया, जिस पर उन्हें जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय, लाडनू से पी-एच. डी. की उपाधि भी प्राप्त हुई । वस्तुतः यह उनके अनवरत श्रम और विद्यानुराग का ही सुफल है, इस हेतु वे बधाई की पात्र हैं। विद्वत् वर्ग से मेरी यही अपेक्षा है कि इन चार खण्डों का समुचित मूल्यांकन कर साध्वीजी का उत्साहवर्धन करे। साथ ही साध्वी श्री मोक्षरत्ना श्रीजी से भी यही अपेक्षा है कि वे इसी प्रकार जिनवाणी के अध्ययन, अनुशीलन एवं प्रकाशन में रूचि लेती रहे और जिन - भारती का भण्डार समृद्ध करती रहे । माघ पूर्णिमा
वि.सं. २०६३
०२ जनवरी २००७
प्रो. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़ शाजापुर
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विषय-अनुक्रमणिका
तृतीय खण्ड
उदय
क्रम
पृष्ठ संख्या
३४
१८७
प्रतिष्ठा-विधि शान्तिक-कर्म पौष्टिक-कर्म बलि-विधान
२२२
३६
२२६
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
1 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान तेंतीसवाँ उदय प्रतिष्ठा-विधि
किसी व्यक्ति और वस्तु को प्रधानता या पूज्यता प्रदान करने के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे प्रतिष्ठा कहते हैं। यथा - मुनि आचार्यपद या अन्य योग्य पद से, ब्राह्मण वेदसंस्कार से, क्षत्रिय राज्य में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर अभिसिक्त होने से, वैश्य श्रेष्ठिपद से, शूद्र राज्य-सम्मान से एवं शिल्पी शिल्प के सम्मान से प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं। इनको तिलक, अभिषेक, मंत्रक्रिया आदि द्वारा पूज्यता प्रदान की जाती है। तिलकादि द्वारा या पदाभिषेक द्वारा उनकी देह की पुष्टि नहीं होती, किन्तु उक्त क्रियाओं द्वारा दिव्यशक्ति का संचरण करने के लिए इस प्रकार की विधि की जाती है। इसी प्रकार पाषाण से निर्मित या किसी वस्तु से निर्मित जिनेश्वर परमात्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, चण्डी, क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमाओं को भी प्रतिष्ठा-विधि द्वारा उनको विशिष्ट नाम देकर पूज्यता प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है कि भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकदेव उनके अधिष्ठायक होने के कारण उनकी मूर्ति को प्रभावक शक्ति प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लोग गृह, कुएँ, बावड़ी आदि की प्रतिष्ठा-विधि से उनकी प्रभावकता में वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार सिद्ध तथा अरिहंत परमात्मा की प्रतिष्ठा-विधि से भी उनकी प्रतिमा के प्रभाव में अभिवृद्धि होती है। उस प्रतिष्ठा-विधि से उन प्रतिमाओं में मोक्ष में स्थित परमात्मा का अवतरण तो नहीं होता, किन्तु प्रतिष्ठा-विधि से सम्यग्दृष्टि देव तथा अधिष्ठायक देव मूर्ति के प्रभाव में अभिवृद्धि करते हैं और इसी कारण अर्हत्-प्रतिमापूजा प्रतिष्ठा के विशेष योग्य बनती है।
यहाँ १. जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा २. चैत्य-प्रतिष्ठा ३. कलशप्रतिष्ठा ४. ध्वज-प्रतिष्ठा ५. बिम्बपरिकर-प्रतिष्ठा ६. देवी-प्रतिष्ठा ७. क्षेत्रपाल-प्रतिष्ठा ८. गणेश आदि देवों की प्रतिष्ठा ६. सिद्धमूर्ति-प्रतिष्ठा १०. देवतावसर-समवशरण-प्रतिष्ठा ११. मंत्रपट
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 2 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान प्रतिष्ठा १२. पितृमूर्ति-प्रतिष्ठा १३. यति (मुनि) मूर्ति-प्रतिष्ठा १४. ग्रह-प्रतिष्ठा १५. चतुर्निकाय देव-प्रतिष्ठा १६. गृह-प्रतिष्ठा १७. वापी आदि जलाशयों की प्रतिष्ठा १८. वृक्ष-प्रतिष्ठा १६. अट्टालिकादि भवन-प्रतिष्ठा २०. दुर्ग-प्रतिष्ठा एवं २१. भूमि आदि की अधिवासना-विधि को क्रमशः कहा गया है।
जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा में पाषाण, काष्ठ, हाथीदाँत, धातु एवं लेप्य निर्मित (अर्थात् मिट्टी, चूने आदि का घोल तैयार कर उससे निर्मित) प्रतिमाओं, चाहे वे गृहचैत्य में तथा सामान्य चैत्य में प्रतिष्ठित करने हेतु बनाई गई हों, उन बिम्बों की प्रतिष्ठा-विधि को सम्मिलित किया गया है। चैत्य-प्रतिष्ठा में महाचैत्य, देवकुलिका, मण्डप, मण्डपिका, कोष्ठ आदि की प्रतिष्ठा अन्तर्निहित है। कलश-प्रतिष्ठा में सोने एवं मिट्टी के कलशों की प्रतिष्ठा अन्तर्निहित है। ध्वजप्रतिष्ठा-विधि में महाध्वजराज, ध्वजा, पताका आदि की प्रतिष्ठा भी सम्मिलित है। बिम्बपरिकरप्रतिष्ठा-विधि में जल, पट्टासन, तोरण आदि की प्रतिष्ठा अन्तर्निहित है। देवीप्रतिष्ठा-विधि में अम्बिका आदि सर्वदेवियों, गच्छदेवता, शासनदेवता, कुलदेवता आदि की प्रतिष्ठा-विधि सम्मिलित है। क्षेत्रपाल की प्रतिष्ठा-विधि में नगर में पूजे जाने वाले एवं देश में पूजे जाने वाले बटुकनाथ, हनुमान, नृसिंह आदि की प्रतिष्ठा-विधि अन्तर्निहित है। गणेश आदि देवों की प्रतिष्ठा में मानू धनादि की प्रतिष्ठा भी समाहित है। सिद्धमूर्ति-प्रतिष्ठा में पुण्डरीक, गणधर, गौतमस्वामी आदि जो भी सिद्ध पूर्व में हो गए हैं, उनकी प्रतिष्ठा की जाती है। देवतावसर-समवशरण की प्रतिष्ठा में अक्ष (कोड़ी) वलय के स्थापनाचार्य, पंचपरमेष्ठी एवं समवशरण की प्रतिष्ठा भी अन्तर्निहित है। मंत्रपट्ट-प्रतिष्ठा में धातु उत्कीर्ण वस्त्र से निर्मित पट्ट की प्रतिष्ठा की जाती है। पितृमूर्ति-प्रतिष्ठा में (जिन) प्रासाद का निर्माण कराने या करने वाले, (चैत्य) गृह बनवाने वाले, फलक को स्थापित करने वाले एवं छोटा घड़ा जिसे (शिवादि) की मूर्ति पर टाँग देते हैं और जिसकी पेंदी के छेद से बराबर जल टपकता रहे - ऐसे उस गलछिब्बरिका से युक्त देवमूर्ति को स्थापित करने वाले पितृ की प्रतिष्ठा की जाती है। यतिमूर्ति-प्रतिष्ठा में आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि की मूर्ति की या
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 3 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान स्तूप की प्रतिष्ठा की जाती है। गृह-प्रतिष्ठा में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारा, नक्षत्र आदि की प्रतिष्ठा की जाती है। चतुर्निकाय देव-प्रतिष्ठा में दिक्पाल, इन्द्र आदि सर्व देव, शासन-देवता, यक्ष आदि की प्रतिष्ठा की जाती है। गृहप्रतिष्ठा-विधि में भित्ति, स्तम्भ, देहली, द्वार, श्री हट्टतृण गृहादि की प्रतिष्ठा भी अन्तर्निहित है। वापी आदि जलाशयों की प्रतिष्ठा में बावड़ी, कुंआ, तालाब, झरना, तड़ागिका, विवरिका आदि धर्म के कार्यों में काम लगने वाले जलाशय की प्रतिष्ठा-विधि को सम्मिलित किया गया है। वृक्ष-प्रतिष्ठा में वाटिका (उद्यान), वनदेवता आदि की प्रतिष्ठा की जाती है। अट्टालिकादि भवन-प्रतिष्ठा में मृत्यु के पश्चात् शरीर के दाह-संस्कार आदि की भूमि पर चरण-प्रतिष्ठा आदि भी समाहित है। दुर्ग-प्रतिष्ठा में दुर्ग, मुख्यमार्ग, यंत्रादि की प्रतिष्ठा की जाती है। भूमि आदि की अधिवासना प्रतिष्ठा-विधि में पूजाभूमि, संवेशभूमि, आसनभूमि, विहारभूमि, निधि (संचय) भूमि, क्षेत्रभूमि आदि भूमियों एवं जल, अग्नि, चूल्हा (चुल्ली), बैलगाड़ी (शकटी), वस्त्र, आभूषण, माला, गंध, तांबूल, चन्द्रोदय, शय्या, गज, अश्व आदि की अंबाड़ी, पादत्राण, सर्वपात्र, सर्वोषधि, मणि, दीप, भोजन, भाण्डागार, कोष्ठागार, पुस्तक, जपमाला, वाहन, शस्त्र, कवच, प्रक्खर, ढाल आदि, गृहोपकरण, क्रय, विक्रय, सर्व भोग्य-उपकरण, चमर, सर्ववांदित्र - इन सर्व वस्तुओं की स्थापना-विधि समाहित है।
अब यहाँ सर्वप्रथम बिम्ब-प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं -
चैत्य में विषम अंगुल या हस्त परिमाण वाले बिम्ब को ही स्थापित करे, सम अंगुल परिमाण वाले बिम्ब को स्थापित न करे, बारह अंगुल से कम परिमाण वाले बिम्ब को चैत्य में स्थापित न करे। सुख की इच्छा रखने वाले व्यक्ति गृहचैत्य में ग्यारह अंगुल से अधिक परिमाण वाले बिम्ब को एवं लोह, अश्म, काष्ठ, मिट्टी, हाथीदाँत, गोबर से निर्मित प्रतिमा को भी न पूजे। कुशल की आकांक्षा रखने वाले खण्डित अंग वाली प्रतिमा, वक्र प्रतिमा एवं जिन्होंने कौमार्यकाल में ही घर-परिवार का त्याग किया है, अर्थात् जिन्होंने विवाह नहीं किया है, ऐसे मल्लीनाथ एवं अरिष्टनेमि भगवान् की प्रतिमा को भी कभी घर में प्रतिष्ठित करवाकर न पूजें। परिमाण से अधिक या कम
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 4 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान परिमाण वाली तथा विषम अंगवाली प्रतिमा, अप्रतिष्ठित, दुष्ट और मलिन होती है। ऐसी प्रतिमाओं को बुद्धिमान् जन चैत्य में एवं घर में न रखें। धातु की या लेप्य से निर्मित प्रतिमा यदि खण्डित अंगवाली हो जाए, तो उस प्रतिमा को दूसरी बार पुनः खण्डित अंग ठीक कर बना सकते हैं, किन्तु काष्ट या पाषाण की प्रतिमा खण्डित हो जाए, तो उस मूर्ति के खण्डित अंगों को पुनः सुधारा नहीं जा सकता है। प्रतिष्ठित होने के बाद किसी भी मूर्ति का संस्कार नहीं किया जा सकता है। कदाचित् कारणवशात् संस्कार करने की आवश्यकता हो, तो उस मूर्ति की पुनः पूर्ववत् प्रतिष्ठा करानी चाहिए। कहा गया है - प्रतिष्ठित होने के बाद मूर्ति का संस्कार करना पड़े, तौलनी पड़े, परीक्षा करनी पड़े या चोर चोरी करके ले जाए या दुष्ट व्यक्ति से स्पर्शित हो जाए, इत्यादि कारणों में से कोई भी स्थिति निर्मित हो, तो मूर्ति की पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए। इसके साथ ही शास्त्रों में यह भी कहा गया है - जो प्रतिमा एक सौ वर्ष पहले उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित की गई हो, ऐसी प्रतिमा विकलांग हो, तो भी पूज्य होती है। उस प्रतिमा का पूजाफल निष्फल नहीं होता है। मूर्ति का नख, अंगुली, भुजा, नासिका का अग्रभाग खंडित हो, तो वह अनुक्रम से शत्रु द्वारा देश का, धन का, बन्धु का एवं कुल का क्षय करने वाली होती है। यदि मूर्ति की पादपीठ, चिह्न और परिकर भग्न हों, तो वह अनुक्रम से स्वजन, वाहन एवं सेवक की निश्चित रूप से हानि करता है। गृहचैत्य में एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल परिमाण की प्रतिमा की पूजा करें तथा इससे अधिक, अर्थात् ग्यारह अंगुल से अधिक परिमाण वाली प्रतिमा की पूजा सर्वसाधारण हेतु निर्मित चैत्य में करें।
जो प्रतिमा पाषाण की, लेप की, लोहे की, काष्ट की, हाथीदाँत की तथा चित्रकारी की हो, परिकररहित हो तथा ग्यारह अंगुल से अधिक ऊँची हो, तो उस प्रतिमा को गृह-चैत्य में रखकर पूजा करना उचित नहीं है। रौद्ररूप वाली प्रतिमा - कर्त्ता का, अर्थात् स्थापना करने वाले का नाश करती है, हीन अंग वाली प्रतिमा - द्रव्य का नाश करने वाली होती है, कृश उदर वाली प्रतिमा - दुर्भिक्षकारक और वक्र नासिका वाली प्रतिमा - अत्यन्त दुःखदायी होती है। इसी
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5 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान प्रकार ह्रस्व अंग वाली प्रतिमा द्रव्यादि का नाश करने वाली, नेत्ररहित हो, तो नेत्र का नाश करने वाली और संकुचित मुख वाली हो, तो भोगों का नाश करने वाली होती है। यदि प्रतिमा की कमर हीन हो, तो वह आचार्य का नाश करती है, हीन जंघा वाली प्रतिमा भाई, पुत्र एंव मित्र का विनाश करती है तथा हीन हाथ-पैर वाली प्रतिमा धन का नाश करती है। जो प्रतिमा चिरकाल तक अपूज्य रहे, वह पुनः प्रतिष्ठा के बिना पूजनीय नहीं होती है ।
ऊर्ध्वमुखी प्रतिमा धन का नाश करती है, अधोमुख वाली प्रतिमा चिन्ता उत्पन्न कराने वाली होती है। यदि दृष्टितिर्यक प्रतिमा हो, तो वह व्याधिकारक होती हैं और यदि प्रतिमा की दृष्टि ऊँची-नीची हो, तो वह विदेश गमन कराने वाली होती है । अन्याय से प्राप्त द्रव्य से बनाई गई प्रतिमा दुष्काल उत्पन्न करने वाली होती है तथा कम या अधिक अंगवाली हो, तो वह स्वपक्ष (प्रतिष्ठा करने वाले को) एवं परपक्ष (पूजा करने वाले को) कष्ट देने वाली होती है।
जिनप्रासाद के गर्भगृह की ऊँचाई के चतुर्थ भाग जितनी ऊँचाई की प्रतिमा स्थापित करना उत्तम लाभकारक है, किन्तु उसे चौथाई भाग से एक अंगुल कम या अधिक रखना चाहिए, अथवा चौथाई भाग की ऊँचाई में भी उसका दसवाँ भाग कम या अधिक करके उतने माप की मूर्ति शिल्पकार बनाए, किन्तु सोना-चाँदी आदि सभी धातुओं की तथा रत्न, स्फटिक और प्रवाल की मूर्ति चैत्य के मापानुसार या स्वयं की इच्छा के अनुसार भी बना सकते हैं।
प्रासाद के गर्भ की भित्ति की लम्बाई के पाँच भाग करें, उसके प्रथम भाग में यक्ष की प्रतिमा को, द्वितीय भाग में देवियों की प्रतिमा को, तृतीय भाग में जिन, स्कन्दक, कृष्ण या सूर्य की प्रतिमा को, चौथे भाग में ब्रह्मा की प्रतिमा को और पाँचवें भाग में शिवलिंग को स्थापित करें। यदि प्रतिमा की दृष्टि ऊँची हो, तो वह द्रव्य का नाश करती है, दृष्टितिर्यक प्रतिमा हो, तो वह भोग की हानि करती है, स्तब्धदृष्टि प्रतिमा हो, तो वह दुःखदायी होती है और यदि प्रतिमा की दृष्टि अधोमुखी हो, तो वह कुल का नाश करती है । गृहचैत्य में स्नातक
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
6 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
द्वारा नवीन बिम्ब की प्रतिष्ठा कराएं। अपने नाम के आधार पर आगे बताई गई सात प्रकार की शुद्धिपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराएं। अब गृह - बिंब के लक्षण बताए जा रहे हैं
एक अंगुल की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है। दो अंगुल की प्रतिमा धन का नाश करने वाली होती है। तीन अंगुल की प्रतिमा सिद्धि देने वाली होती है । पाँच अंगुल वाली प्रतिमा वृद्धिकारक होती है । छः अंगुलवाली प्रतिमा उद्वेगकारक होती है। सात अंगुल वाली प्रतिमा पशुधन की वृद्धिकारक होती है। आठ अंगुल वाली प्रतिमा हानिकारक होती है। नौ अंगुल वाली प्रतिमा पुत्र की वृद्धि करने वाली होती है । दस अंगुल वाली प्रतिमा धन का नाश करने वाली होती है एवं ग्यारह अंगुल वाली प्रतिमा सर्वकामनाओं की पूर्ति करने वाली होती है। इस तरह बताए परिमाणानुसार ही गृहचैत्य में विषम अंगुल का बिम्ब स्थापित करें। इससे अधिक परिमाण वाले बिम्ब को गृह में स्थापित न करे यह गृहबिम्ब के लक्षण हैं ।
सात प्रकार की विशुद्धि इस प्रकार है १. नाडी - अविरोध २. षटाष्टकादि - परिहार ३. योनिअविरोध ४. वर्गादि- अविरोध ५. गण - अविरोध ६. लभ्यालभ्यसम्बन्ध ७. राशि-अधिपति-अविरोध ।
इसके लिए परमात्मा के जन्म नक्षत्रों एवं राशियों को बताते । वे इस प्रकार हैं- १. उत्तराषाढ़ा २. रोहिणी ३. मृगशीर्ष ४. पुनर्वसु ५. मघा ६. चित्रा ७. विशाखा ८. अनुराधा ६. मूल १०. पूर्वाषाढ़ा ११. श्रवण १२. शतभिषा १३. उत्तरभाद्रपद १४. रेवती १५. पुष्य १६. भरणी १७. कृत्तिका १८. रेवती १६. अश्विनी २०. श्रवण २१. अश्विनी २२. चित्रा २३. विशाखा एवं २४. उत्तराफाल्गुनी - ये अनुक्रम से चौबीस तीर्थंकरों के जन्म-नक्षत्र हैं ।
इसी प्रकार १. धनु २. वृषभ ३. मिथुन ४. सिंह ५. कन्या ६. तुला ७. तुला ८. वृश्चिक ८. धनु १०. धनु
कुंभ
१५. कर्क
१३. मीन १४. कर्क १८. मीन १८. मेष २०. मकर
२१. मेष
११. मकर
१२. १६. मेष १७. वृषभ
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान २२. कन्या २३. तुला एवं २४. कन्या - ये अनुक्रम से चौबीस तीर्थंकरों की मुनिजनों द्वारा बताई गई जन्म-राशि है।
इन राशियों के अनुसार जिनकी नाम राशि जिस तीर्थंकर के समान हो, उसे उन्हीं तीर्थंकरों की प्रतिमा बनवानी चाहिए। चंद्रकांत और सूर्यकांत आदि सभी जाति के रत्नों की प्रतिमा सर्वगुण वाली समझनी चाहिए। स्वर्ण, चाँदी और तांबा - इन धातुओं की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है, किन्तु कांसा, सीसा एवं कलाई (रांगा) - इन धातुओं की प्रतिमा कभी भी नहीं बनवानी चाहिए। कुछ आचार्य धातुओं में पीतल की प्रतिमाएँ भी बनवाने के लिए कहते हैं, किन्तु मिश्रधातु (कांसा आदि) की प्रतिमा बनवाने का निषेध है, अतः कितने ही आचार्य पीतल की प्रतिमा बनवाने का निषेध करते हैं। चैत्यालय में काष्ठ की प्रतिमा बनवानी हो, तो श्रीपर्णी, चंदन, बिल्व, कदंब, लालचंदन, पियाल, उदुम्बर और क्वचित् शीशम - इन वृक्षों की लकड़ी की प्रतिमा बनाना उत्तम है, शेष वृक्षों की लकड़ी की प्रतिमा बनवाना वर्जित है। अपवित्र स्थान में उत्पन्न, चीरा, मसा, अथवा गाँठ आदि दोष वाले पत्थर का अथवा काष्ठ का प्रतिमा बनवाने में उपयोग नहीं करें, परन्तु दोषरहित, मजबूत, सफेद, पीला, लाल, कृष्ण
और हरे वर्ण का पत्थर प्रतिमा बनवाने में लें। लेप्य से निर्मित बिम्बकार्य में शुद्ध भूमि पर पड़ा हुआ गोबर, शुद्ध भूमि से निकली हुई सुगंधित एवं नानाविध वर्णों वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। ऊपर बताए गए वृक्षों में भी, जो प्रतिमा बनवाने के योग्य शाखा हो, दोष से रहित हो और उत्तम भूमि में रही हुई हो, उसे ही लें, अन्यथा न लें।
इस प्रकार निर्मित बिम्ब की प्रतिष्ठा चैत्यगृह में गुण एवं शील-सम्पन्न गुरुओं से कराएं। आचार्यों, उपाध्यायों, प्रतिष्ठा-विधि के सम्यक् ज्ञाता हों - ऐसे मुनियों, जैन ब्राह्मणों एवं क्षुल्लकों द्वारा ही अर्हत्-प्रतिमा की प्रतिष्ठा-विधि करवानी चाहिए। दीक्षा और प्रतिष्ठा-विधि के लिए मूल, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, रेवती, रोहिणी और उत्तरात्रय नक्षत्र श्रेष्ठ कहे गए हैं। धनिष्ठा, पुष्य और मघा नक्षत्र भी प्रतिष्ठा के लिए सौम्य हैं।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 8 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
उक्त सात दोषों का त्याग करके इन नक्षत्रों में प्रतिष्ठा-विधि करना प्रशंसनीय माना गया है। सिंहस्थ गुरु के वर्ष को छोड़कर तथा मंगलवार को छोड़कर शेष शुभ वर्ष, मास, नक्षत्र, वार (दिन) इन सभी की शुद्धि जिस प्रकार विवाह-कार्य में देखी जाती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा-कार्य में भी देखनी चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के जन्म-नक्षत्र में तथा मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र में प्रतिष्ठा न करें तथा दूसरे ग्रहों से ग्रसित ग्रह, उदित एवं अस्तगत ग्रह एवं क्रूर तथा अग्र आक्रान्त नक्षत्रों का त्याग करें। प्रतिष्ठा कराने वाले का और दीक्षार्थी का गोचर का गुरु शुद्ध हो तथा चन्द्रबल से युक्त हो, उस समय ही प्रतिष्ठा एवं दीक्षा-कार्य करें, प्रतिष्ठा एवं दीक्षा में जन्म का चन्द्र ग्राह्य होता है, अर्थात् जन्म के समय चन्द्र की जो स्थिति थी, उस स्थिति में चन्द्र हो, तो वह भी ग्रहण करने योग्य है।
लग्न की शुद्धि इस प्रकार है - प्रतिष्ठा के समय सूर्य, शनि एवं मंगल तीसरे और छठवें स्थान में, चन्द्रमा दूसरे या तीसरे स्थान में, बुध पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें या दसवें स्थान में हो, तो शुभ होते हैं। गुरु केन्द्र (१, ४, ७, १०) दूसरें, नवें और पाँचवें स्थान में, शुक्र १, ४, ५, ६, १० वें स्थान में और राहु-केतु सहित सर्वग्रह ग्यारहवें स्थान में हों, तो वह लग्न उत्तम माना जाता हैं। यह उत्तम लग्न की स्थिति है।
मध्यम लग्न की स्थिति इस प्रकार है - सूर्य दसवें स्थान में, चन्द्रमा केन्द्र में अर्थात् पहले, चौथे, सातवें या दसवें स्थान में, अथवा छठवें और नवें स्थान में हो, बुध छठवें, सातवें और नवें स्थान में हो, गुरु छठवें स्थान में हो, शुक्र दूसरे या तीसरे स्थान में हो, तो वह प्रतिष्ठा मध्यम फलदायी होती है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, पाँचवें स्थान में, गुरु तीसरे स्थान में, शुक्र छठवे, सातवें या बारहवें स्थान में हो
और शनि पाँचवें और दसवें स्थान में हो - इस प्रकार की ग्रह-स्थिति को विद्वानों ने प्रतिष्ठा में विमध्य कही है, शेष सभी स्थानों में ग्रहों की स्थिति वर्ण्य मानी गई है। प्रथम तथा सप्तम भवन में चंद्रयुक्त केतु हो, तो वह लग्न भी प्रतिष्ठा हेतु वर्जित माना गया हैं। तीसरे
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9 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
आचारदिनकर (खण्ड- 3)
एवं छठवें स्थान में केतु हो, तो वह शुभ माना जाता है, अन्य स्थान में हो, तो मध्यम माना जाता है । यही स्थिति राहू के सम्बन्ध में भी
है ।
प्रतिष्ठा - लग्न में यदि चन्द्र मंगल एवं सूर्य से युक्त हो, अथवा चन्द्र पर उक्त ग्रहों की दृष्टि हो, तो अग्नि का भय रहता है, शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो मरण-भय कारक होता है, बुध से युक्त या दृष्ट हो, तो समृद्धि को प्रदान करता है । चन्द्रमा की उत्तम युति इस प्रकार है -
प्रतिष्ठा-लग्न में यदि चन्द्र गुरु से युक्त या दृष्ट हो, तो अधिष्ठायक देव सहित प्रतिमा की पूजा का फल अवश्य मिलता है । शुक्र से युक्त या दृष्ट हो, तो लक्ष्मी, अर्थात् समृद्धि की प्राप्ति होती है । प्रतिष्ठा - लग्न में विनाश - युति इस प्रकार है प्रतिष्ठा - लग्न में सूर्य बलहीन हो, तो प्रतिष्ठा करने वाले का, चन्द्र बलहीन हो, तो उसकी पत्नी का, शुक्र बलहीन हो, तो धन का एवं गुरु बलहीन हो, तो निश्चित रूप से सुख का नाश करते हैं । प्रतिष्ठा लग्न के पहले, दसवें, चौथे, सातवें एवं त्रिकोण (पाँचवें और नवें) स्थान में सूर्य और वक्री शनि हो, तो प्रासाद का विनाश करते हैं । मंगल, शनि, राहू, रवि, केतु, शुक्र- यें कुंडली के सातवें स्थान में हों, तो प्रतिष्ठा करने वाले का, प्रतिष्ठा करवाने वाले का तथा प्रतिमा का शीघ्र विनाश होता
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है । प्रतिष्ठा के समय में ग्रह सप्तम स्थान में हों, तो प्रयत्नपूर्वक उस प्रतिष्ठा - लग्न का त्याग करें। शनि निर्बल होकर केन्द्र में हो एवं त्रिकोण में स्थित हो, अर्थात् पाँचवें या नवें स्थान पर हो, अथवा उस पर दृष्टि पड़ती हो, तो बुद्धिमानों को उस मुहूर्त में प्रतिष्ठा का शुभारम्भ नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार पहले, दूसरे, चौथे, सातवें, नवें, दसवें या बारहवें स्थान में मंगल हो या इन स्थानों पर मंगल की दृष्टि पड़ती हो, तो वह भी हजारों सुखों का नाश करता हैं । प्रतिष्ठा लग्न में चंद्र क्रूर ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, सूर्य सातवें स्थान पर हो या शनिवार के दिन प्रतिष्ठा की गई हो, तो प्रतिष्ठा करने वाले की मृत्यु होती हैं ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 10 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
शुभयोग की युति इस प्रकार है - शनि बलवान् हो, मंगल और बुध बलहीन हो तथा मेष और वृषभ राशि में सूर्य और चन्द्र हो, तो उस समय अरिहंत-प्रतिमा की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। शुभ तिथि, नक्षत्र, वार और चन्द्रबल की अपेक्षा भी यदि तीसरे, छटवें एवं ग्यारहवें स्थान में सूर्य रहा हुआ हो, तो वह लग्न प्रशंसनीय है। प्रतिष्ठा-लग्न में पहले, चौथे, पाँचवें, नवें, दसवें स्थान में चन्द्र या गुरु हो, तो वह प्रतिष्ठा-लग्न के लघु दोषों को उसी प्रकार से नष्ट कर देते हैं, जैसे छोटे-छोटे पौधे निम्न आवेगों से तट की रक्षा करते
सूर्य के साथ नहीं रहा हुआ बुध केन्द्रस्थान में हो, अर्थात् पहले, चौथे, सातवें या दसवें स्थान में हो, तो वह लग्न के एक सौ दोषों का नाश करता है। सूर्य के साथ नहीं रहा हुआ शुक्र वपुलग्न, अर्थात् प्रथम लग्न में स्थित हो, तो वह हजार दोषों का नाश करता है और सूर्य के साथ नहीं रहा हुआ गुरु लग्न में स्थित हो, तो लाख दोषों का नाश करता है। लग्न, नवमांश और क्रूर दृष्टि से उत्पन्न होने वाले दोषों को लग्न में रहा हुआ गुरु नाश करता है, जैसे अरीठा जल को निर्मल (स्वच्छ) कर देता है। पंचम, चतुर्थ, दशम, प्रथम एवं नवम स्थान में गुरु अथवा शुक्र हो, तो लग्न में यदि कोई दोष हो, तो भी वह शुभत्व की प्राप्ति कराता हैं और यदि लग्न शुभ हो, तो उसके प्रभाव से शुभत्व में वृद्धि होती हैं। इस प्रकार उक्त निर्देश एवं नवांश के अनुसार की गई षड्वर्ग की शुद्धि स्थापना एवं दीक्षा हेतु शुभ होती है। यदि कार्य बहुत ही जरूरी हो, तो बहुगुणों से अन्वित अल्पदोष वाले लग्न में भी कर लेना चाहिए, अर्थात् उस लग्न को भी स्वीकार किया जा सकता है।
इस प्रकार के शुभलग्न में ही प्रतिष्ठा-विधि करें। प्रतिष्ठा के समय उत्कृष्ट रूप से सौ धनुष प्रमाण क्षेत्र की शुद्धि करें, मध्यम रूप से पचास धनुष एवं जघन्यतः पच्चीस धनुष प्रमाण क्षेत्र की शुद्धि करें। क्षेत्र-शुद्धि की विधि इस प्रकार है - शुद्ध मिट्टी निकलने तक भूमि खोदें। तत्पश्चात् उसमें निकले हुए काष्ठ, अस्थि, चर्म, केश, नख, दन्त और तृण को जलाकर उनकी राख को वहाँ से हटाकर दूर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) । प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान . करें और उस पर श्वेत सुगंधित मिट्टी डालें। फिर उसके ऊपर गौमूत्र एवं गोबर स्थापित करें, अर्थात् उनसे लीपकर उसे शुद्ध करें। फिर उस देश, नगर या ग्राम में सात दिन तक अमारि, अर्थात् किसी प्राणी की कोई हिंसा न करें - ऐसी राजाज्ञा की घोषणा करवाएं। राजा, अर्थात् देश या नगर के अधिपति को बहुत भेंट देकर प्रतिष्ठा-कार्य की अनुज्ञा प्राप्त करें। सोमपुरा, अर्थात् मन्दिर या मूर्ति के निर्माता को वस्त्र, मुद्रिका आदि स्वर्णाभूषण का दान करें।
अब अर्हत्-प्रतिमा की प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं -
अपने स्थान से पचास योजन की परिधि में रहे हुए आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं को आमन्त्रित करें। केसरी सूत्र (डोरा), केसरी रंग से रंगे हुए वस्त्र संगृहीत करें एवं कुँवारी कन्याओं द्वारा काते गए सूत्र को बटकर डोरा बनाएँ। पवित्र स्थानों से, अर्थात् समस्त कुएँ, बावड़ी, तालाब, झरनों, नदियों, वृक्षों को पानी देने के लिए बनाई गई छोटी-छोटी नहरों का पानी एवं गंगाजल लाएं। उन जल के कलशों से वेदिका की रचना करें। दिक्पालों की पूजा के उपकरण स्थापित करें। स्नान कराने के लिए चार पुरुष जिनके दोनों कुल विशुद्ध हों, जो अखण्डित अंगवाले हों, निरोगी हों, शान्त प्रकृति वाले प्रवीण हों, स्नात्रविधि के ज्ञाता हों तथा उपवास किए हुए हों, उन्हें आमंत्रित करें। इसी प्रकार औषध का . .. प्रेषण करने, अर्थात् पीसने के लिए चार स्त्रियाँ, जिनके दोनों कुल . विशुद्ध हों, जिनके पुत्र और पति हों, जो सती, अर्थात् शीलवती हों, अखण्डित अंगों वाली हों, कार्य में निपुण हों, पवित्र हों एवं जिनकी मानसिक स्थिति सम्यक् हो, उन्हें भी आमंत्रित करें। दिशाओं में बलि देने के लिए नाना प्रकार के अन्नों के पकवान बनाकर अखण्डित पात्र में रखें। सूप से भग्न तंदुलों को झटककर निकाल दें। चारों दिशाओं में बलि दिए जाने हेतु निम्न सप्त धान्य एकत्रित करे -
१. सणबीज २. लाज ३. कुलत्थ (एक प्रकार की दाल) ४. यव (जौ) ५. कंगु ६. माष (उड़द) ७. सर्षप (सरसों) - इन सात धानों को मिलाएं। अन्य कुछ आचार्य निम्न सप्त धान्य मानते हैं - १. धान्य (शाली या धान की खील) २. मुद्ग (मूंग) ३. माष
विशुद्ध हों, जिनके पुत्र हाँ, कार्य में निपुण न करें। दिशाओं में
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 12 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान (उड़द) ४. चणक (चना) ५. जौ ६. गेहूँ ७. तिल। कुछ आचार्य सप्त धान्य में १. सण (सन) २. कुलत्थ ३. मसूर ४. बल्ल (रा) ५. चणक ६. ब्रीही (चावल) ७. चवलक (चवलें) - ये सात धान बताते है। कर्पूर, कस्तूरी, चन्दन, अगरु, कुंकुम, गुग्गुल, कुष्टमांसी, मुरा आदि सुगंधित पदार्थ तथा कालाअगरु, दशांगधूप, पंचांगधूप, द्वादशांगधूप, द्वात्रिंशदांगधूप, गुग्गुल, सर्जरस, कुन्दरूक आदि धूपद्रव्य संगृहीत करें। कर्पूर, कस्तूरी, पुष्प, सुगन्ध से वासित चन्दन की लकड़ी का चूर्ण एवं सुगन्धित पाँच प्रकार के वर्ण (रंग) एवं जाति वाले पुष्प लाएं। स्वर्ण, चाँदी, प्रवाल, राजावर्त (हीरा), मोती - इन पाँच रत्नों की आठ पोटली बनाएं। बीस केसरीसूत्र का कंकण बनाएं। श्वेत सरसों लाकर, सरसों की आठ पोट्टलिका बनाएं। श्वेत सरसों, दूध, दही, घी, अखण्डित चावल, दूर्वा, चन्दन एवं जल रूप लकड़ी लाएं। चतुष्कोण वेदी बनाएं। जौ बोने के लिए दस सकोरे लाकर उनमें जौ बोएं। एक सौ छत्तीस मिट्टी के कलश बनाएं, एक चाँदी की तगारी, एक सोने की शलाका तथा श्रीपर्णीवृक्ष की लकड़ी का एक नंद्यावर्त पट्ट बनाएं। उसको सुशोभित करने एवं ढकने के लिए बारह हाथ परिमाण के छ: वस्त्र और एक दस हाथ की मातृशाटिका लाएं। मूंग, जौ, गेहूँ, चने और तिल - इन पाँचों धान के पाँच-पाँच मोदक, अर्थात् कुल पच्चीस मोदक (कर्करिका) बनाएं। लड्डू, बाट (लपसी), खीर, करम्ब, कसार, भोजन, घी, शक्कर एवं आटा मिलाकर बनाई गई मीठी पूरी एवं मालपुए बनाएं। इन सभी वस्तुओं को सकोरों में रखें तथा नारियल, सुपारी, द्राक्षा, खारक, शर्करा, वषौपल, वाताम (बादाम), जामफल, वीरष्टक, दाडिम, बिजौरा, आम्रफल, इक्षु, केला, नारंगी, करूण राजादन (खिरनी), बदर (बेर), अखरोट, दार, चारोली, निमज्जक, पिस्ता आदि सूखे एवं गीले फल लाएं। वेष्टन (लपेटने) के लिए लाल डोरा, कंकण में बांधने हेतु लाल डोरा लाएं। जिनके चारों कुल कुलीन हों तथा जो पुत्र एवं पतिसहित, अर्थात् सधवा हों, कंकण बधाने के लिए ऐसी पाँच स्त्रियाँ, चार कंचुलिका बनाएं, दीप से गर्भित-ऐसे दस सकोरे लाएं या बनाएं तथा घी, गुड़ सहित चार मंगलदीपक और तीन सौ छत्तीस प्रकार का क्रियाणा एकत्रित करें।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 13 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान हस्तलेप के लिए केसर, कर्पूर, गोरोचन आदि लाएं। घी से पूर्ण एक बर्तन, अंजन-शलाका के लिए नेत्रांजन रूप सुरमा (एक खनिज पदार्थ), घी, मधु एवं शर्करा का संग्रह करें। भंभा, बुक्का, ताल, कांस्यताल, मृदंग, पट्टह, भेरी, झल्लरी द्रगण, दुर्दुर, वीणा, पणव, श्रृंग, मुखहुडुक्क, लघुपटह, त्रंबक, धूमला, प्रियवादिका, तिमिला, शंख आदि वांदित्र लाएं। भोजन का एक पूर्ण थाल, मालपुओं से युक्त ढंके हुए पाँच सकोरे, गाय का गोबर, गोमूत्र, घी, दही, दूध, दर्भरूप गव्यांग, दर्भ से युक्त जल, स्नान कराने के लिए पंचगव्य लाएं। हाथी के दांतों से या बैल की सींगों से खोदकर निकाली गई मिट्टी, वाल्मिक की मिट्टी, राजद्वार की मिट्टी, पर्वत की मिट्टी, नदी के दोनों तटों की एवं नदी का जहाँ संगम होता हो, वहाँ की मिट्टी, पद्मसरोवर की मिट्टी - इन सब मिट्टियों का मिश्रण, पाँच सोने के कलश, उसके अभाव में चाँदी, तांबे या मिट्टी के कलश, तीन सौ छत्तीस क्रियाणक से बद्ध पोटलियाँ लाएं। प्रतिष्ठा में उपयोगी तीन सौ छत्तीस क्रियाणकों (किराने की वस्तुओं) के नाम इस प्रकार बताए गए हैं -
मदनादिगण - १. मदनफल २. मधुयष्टी ३. तुम्बी ४. निम्ब ५. महानिम्ब ६. बिम्बी ७. इन्द्रवारुणी ८. स्थूलेन्द्रवारुणी ६. कर्कटी १०. कुटज ११. इन्द्रयव १२. देवदाली १३. विडंगफल १४. वेतस १५. निचुल १६. चित्रक १७. दती १८. उन्दरकर्णी १६. कोशातकी २०. राजकोशातकी २१. करंज २२. चिरबिल्ल २३. पिप्पली २४. पिप्पलीमूल २५. सैन्धव २६. सौवर्चल २७. चिरबिल्ली २८. कृष्ण सौवर्चल २६. बिडलवण ३०. पाक्यलवण ३१. समुद्रलवण ३२. रोमक ३३. स्वर्जिका ३४. वचा ३५. एलाक्षुद्रेला ३७. बृहदेला ३८. त्रुटि ३६. यवक्षार ४०. महात्रुटि ४१. सर्षप ४२. आसुरी ४३. कृष्णसर्षप ।
टी १०.
निचुल १६
की २१
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
२.१
कुम्भादिगण १. कुम्भ ३. त्रिबीज ४. मालविनी ५. त्रिफला ६. स्नुही ७. शंखपुष्पी ८. नीलिनी ६. रोध्र १०. बृहद्रोध ११. कृतमाल १२. कम्पिल्लक १३. स्वर्णक्षीरी कुष्ठादिगण १. कुष्ट २. बिल्ब ३. काश्मरी ४. अरणी ५. अरणिका ६. पाटला ७. ७. कुबेराक्षी कण्टकारिका १०. क्षुद्रकण्टकारिका ११. शालिपर्णी १३. गोक्षारू - १४. देवदारू १५. रास्ना १६. यव १८. कुलत्थ १६. माक्षिक २० पौक्षिक २१. क्षौद्र २३. शर्करा ।
८. सेनाक
६.
१२. पृश्निपर्णी १७. शतपुष्पी २२. सित्थुक
1
-
वेल्लादिगण - १ अपामर्ग ४. त्रिकुट ५. नागकेशर ६. त्वक् ७. पत्र ८. हरिद्रा ६. दारूहरिद्रा १०. श्रीखण्ड ११. शोभांजन १२. रक्तशोभांजन १३. मधुशोभांजन १४. मधूक १५. रसांजन १६. हिंगुपत्री १७. राल ।
भद्रदार्वादिगण १. तगर २. बला ३. अतिबला । दूर्वादिगण - १. दूर्वा २. श्वेतदूर्वा ३. गण्डदूर्वा ४. जवासक ५. दुरालभा ६. वासा ७. कपिकच्छू ८. क्षूद्रा ६. शतावरी १०. गुंजा ११. श्वेतगुंजा १२. प्रियंगु १३. पद्म १४. पुष्कर १५. नीलोत्पल १६. सौगन्धिक
१७. कुमुद १८. शालूक १६.
वितुन्नक ।
नागबला हंसपदी ।
जीवन्त्यादिगण - १. जीवन्ती २. काकोली ३. क्षीरकाकोली ४. मेद ५. महामेद ६. मुद्गपर्णी ७. माषपर्णी ८. ऋषभक ६. जीवक... १०. मधुयष्टी ।
14
-विदार्यादिगण १. विंदारी - २. क्षीर विदारी ३. एरण्ड ४. रक्तैरण्ड ५. वृश्चिकाली ६. पुनर्नवा ७ श्वेतपुनर्नवा १०. सहदेवी ११. कृष्ण सारिवा
८.
६. गांगेरुकी
१२.
१
ww
मूलग्रन्थ में एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में यह नाम नहीं मिलता है । प्रथम औषधि के नाम के बाद सीधे तीसरी औषधि से ही औषधियों का नाम दिया गया है।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 15 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
दाादिगण - १. उशीर २. लामज्जक ३. चन्दन ४. रक्तचन्दन ५. कालेयक ६. परूषक।
पद्मादिगण - १... पद्मक २. पुण्डरीक ३. वृद्धि : ४. तुकाक्षीरी ५. सिद्धि. ६. कर्कटाश्रृंगी ७. गुडूची।
परूषादिगण - १. द्राक्षा २. कटुफल ३. कतक ... ४. राजादन ५. दाडिम ६. शाक
अंजनादिगण - १ अंजन २. सौवीर ३. मांसी ४. गन्धमांसी पटोल्यादिगण - १. कडका २. पाठा • गुडूच्यादिगण - १. धान्यक
आरग्वधादिगण - १. काकमाची २. ग्रन्थिल ३. किराततिक्त ४. शैलेय ५. सहचर ६. सप्तपर्ण ७. कारवेल्ली ८. बदरी ।
अशनादिगण - १. बीजक २. तिनस ३. भूर्ज ४. अर्जुन ५. खदिर ६. कदर ७. मेषशृंगी ८. धव ६. सिंसिपा १०. ताल ११. अगर १२. पलाश १३. क्रमुक १४. अजकर्ण १५. अश्वकर्ण। - वरूणादिगण - १. वरूण २. मोराट ३. अजश्रृंगी : ४. अरूष्कर
.रूषकादिगण - १. रूषक - २. तुत्थ ३. हिंग ४. कासीस ५. पुष्पकासीस ६. शिलाजीत। - वेल्लंतरादिगण - १. वेल्लंतर २. बूकस्थल ३. पाषाणभेद ४. इकटा ५. कास ६. इक्षु ७. नल ८. दर्भ ६. शितबार १०. मर्क ११, पिप्पली १२. सुवर्चला १५ इन्दीवर।
रोघ्रादिगण - १. जिंगिणी २. सरल ३. कदली ४. अशोक ५. एलवालुक ६. सल्लकी।
अर्कादिगण - १. अर्क २. अलर्क ३. विशल्या ४. भारंगी ५. ज्योतिष्मती ६. कटभी ७. श्वेतकटभी ८. इगुंदी।
- सुरसादिगण - १. सुरसा २. श्वेतसुरसा . ३. फणिज्जक ४. कुबेर ५. कृष्णकुबेर ६. महवक ७. अजकर्णी ८. क्षुवक
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आचारदिनकर (खण्ड- -3)
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६. कपित्थपत्री १०. नंदीकान्त १३. केशमुष्टि १४. भूतृण १५. निर्गुडी
मुष्कादिगण
9. मुष्कक
वत्सकादिगण १. अतिविषा २. जीकर ३. उपकुंचिता प्रियंग्वादिगण - १. पुष्करपत्री २. मंजिष्ठा ३. शाल्मलि ४. मोचरस ५. सुनन्दा ६. धातकी ।
अंबष्ठादिगण १. अंबष्ठा २ नंदी ३. कच्छुरा । मुस्तादिगण - १ भल्लातक न्यग्रोधादिगण
१. वट
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
११. काकमाची १२. आवसु
२ विप्पल
३. उदुम्बर ४. जंबू
८. थोयेयक
५. राजजंबू ६. काकजंबू ७. आम्र ८. पियाल ६. तिंदुक । एलादिगण १. तुरष्क २. वालक ३. नेत्रवालक ४. अधःपुष्पी ५. क्षेमक ६ . त्वचा ७. तमालपत्र ६. नख १०. श्रीवेष्ट ११. कुन्दुरूक १२. कुंकुम श्यामादिगण १. सातला २. वृषगंधा ३. १. त्रायमाण २. खटी ३. सोमराजी ४. श्रावणी ६. मंडूकपत्री ७. हपुषा ८. काकनाशा ६. काकजंघा ११. विषचारि १२. राजहंस १५. कोविदार १६. रोहितक २०. कौडिन्य २१. फल्गु २४. अम्लवेतस
२५. कपित्थ २६. केशाम्र
२८. शमी २६. सचलिंद ३०. बीजपूर ३१. नारंगी ३२. जंभीर ३३. निंबुक ३४. आम्रतक ३५. पालेवत ३६. खर्जूर ३७. मदनफल ३८. आरूक ३६. वीर ४०. कुरंटक ४१. अक्षोट ४२ . चांगीरी ४३. अम्लिका ४४. करीर ४५. काकंडी ४६. वास्तुक ४७. कुसुंभ ४८. लाक्षा ४६. लांगली ५०. मिश्रेया ५१. गंडरीक ५२. काकसी ५३. वरूणा ५४. मूलक ५५. तंदुलीयक ५६. द्रोणपुष्पी ५७. तामलकी ५८. ब्राह्मी ५६. ब्रह्मजीरी ६०. अरिष्ट ६१. पुत्रजीव ६२. सहदेवी ६३. कूष्मांडक ६४ महातुंबी ६५. चिर्भटी ६६. कटुचिर्भटी ६७. शुनिकर्ण ६८. अहिमार ६६. विष्णुक्रान्ता ७०. क्षीरिणी ७१. सर्पाक्षी ७२. नकुली ७३. गृद्धनखी ७४.
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-
१३. गुग्गुल । पीलू ।
५. महाश्रावणी
१०. पर्पटक
१३. पुष्करमूल
१४. अश्मन्तक
१७. वंश १८. वेणु १६. अंकोल्ल २२. श्लेष्मातक
२३. तिंतिडीक
२७. नालिकेर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 17 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान अहिंनी ७५. कर्दमपुष्पी ७६. करवीर ७७. रक्तकरवीर ७८. धत्तूरक ७६. यवानी ८०. शतपुष्पा ८१. लशुन ८२. पलांडु ८३. वराही ८४. मांसरोहिणी ८५. कुलत्थिका ८६. जतुका ८७. पुष्पांजन ८८. वृद्धदारू ८६. वालमुट ६०. वंध्याककौटकी ६१. त्रिपत्रिका ६२. शंखपुष्पी ६३. अश्वखुर ६४. बंधन ६५. पिंडीतक ६६. स्वर्णक्षीरी ६७. सिंदुबार ६८. अश्वगंधा ६६. मदयंती १००. शृंगराज १०१. शिरीष १०२. अगस्ति १०३. नली १०४. मन्दारक १०५. हिंताली १०६. मोहिनी १०७. गोधापदी १०८. महाश्यामा १०६. देवगंधा ११०. विटिका १११. दुर्गधिलिका ११२. आघाटक ११३. स्वर्णपुष्पी ११४. लक्ष्मणा ११५. वज्रशूल ११६. पलंकषा ११७. दधिपुष्पी ११८. कुर्कटपाद ११६. गोजिला १२०. तुनहिका १२१. कस्तूरी १२२. कर्पूर १२३. जातिपत्री १२४. जातीफल १२५. कक्कोलक १२६. लवंग १२७. नटी १२८. दमनक १२६. मुरा १३०. कर्नूर १३१. तुंबरु १३२. मालती १३३. मल्लिका १३४. यूथिका १३५. सुवर्णयूथिका १३६. वासंती १३७. चंपक १३८. बकुल १३६. तिलक १४०. अतिमुक्तक १४१. कुमारी १४२. तरणी १४३. कुंद १४४. अट्टहास १४५. अतसी १४६. कोरंटक १४७. सुबंधा १४८. हिंगुल १४६. मनःशिला १५०. गंधक १५१. गैरिक १५२. खटिका १५३. हरिताल १५४. पारद १५५. सौराष्ट्री १५६. गोरोचन १५७. तुबरी १५८. विटमाक्षिक १५६. अभ्रक १६०. वाताम १६१. दांति १६२. कारवेल्ल १६३. कौशी १६४. मुंडी १६५. महामुंडी १६६. पुपुनाड (प्रपुन्नाड) १६७. बोल १६८. सिंदूर १६६. शंखप्रस्तरी १७०. शृंगाटक १७१. रोध्र १७२. कांपिल्ल १७३. हंसपदी १७४. करमंद १७५. छुनीरा १७६. घुनीरा १७८. सेसकी १७६. चोअ।
पृथ्वी पर रोगों का हरण करने वाली जो भी अप्रसिद्ध औषधियाँ हैं, वे सब क्रियाणकों में समाविष्ट हैं - शेष सब वस्तु कही जाती हैं। क्रियाणकों का बाहुल्य हैं, इसलिए यहाँ उनके नामों का उल्लेख किया गया है, लाभालाभ की अपेक्षा से उनमें से कुछ ग्राह्य
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 18 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान और कुछ त्याज्य हो सकते हैं। चारों प्रकार के अन्न, वस्त्र, मणिरत्न, अश्व, गाय आदि एवं घृत, तेल, गुड़ तथा स्वर्ण आदि धातुएँ - ये सब रत्न और वस्तुएँ क्रियाणकों में सम्मिलित नहीं है, किन्तु कुछ आचार्य सभी को क्रियाणक मानते हैं। (जिसका भी क्रय-विक्रय हो सकता है, वह सब क्रियाणक है - इस अपेक्षा से कुछ आचार्यों की उपर्युक्त मान्यता है।) १. प्लक्ष २. उदुम्बर ३. पिप्पल ४. शिरीष ५. न्यग्रोध ६. अर्जुन ७. अशोक ८. आमलक ६. जंघ्राम १०. . . . ११. श्रीपर्णी १२. खदिर १३. वेतस - इन वृक्षों की छाल समान मात्रा में लाएं।
१. सहदेवी २. बला ३. शतमूलिका ४. शतावरी ५. कुमारी ६. गुहा ७. सिंही ८. व्याघ्री - इस प्रकार प्रथम सदौषधि वर्ग की औषधि लाएं।
१. मयूरशिखा २. विरहक ३. अंकोल्ल ४. लक्ष्मणा ५. शंखपुष्पी ६. विष्णुक्रान्ता ७. चक्रांका ८. सर्पाक्षी ६. महानीली - इस प्रकार द्वितीय पवित्र मूलिकावर्ग की मूलिकाएँ लाएं।
१. कुष्ट २. प्रियंगु ३. वचा ४. लोध्र ५. उशीर ६. देवदारु ७. मूर्वा ८. मधुयष्टिका ६. ऋद्धि १०. वृद्धि - इस प्रकार प्रथम अष्टकवर्ग की यह सामग्री लाएं।
१. मेद २. महामेद ३. कंकोल ४. क्षीरकंकोल ५. जीवक ६. ऋषभक ७. नखी ८. महानखी - इस प्रकार द्वितीय अष्टकवर्ग की यह सामग्री लाएं।
१. हरिद्रा २. वचा ३. शेफा ४. वालक ५. मोथ ६. ग्रंथिपर्णक ७. प्रियंगु ८. मुरा ६. वास १०. कचूर ११. कुष्ट १२. एला १३. तज १४. तमालपत्र १५. नागकेसर १६. लवंग १७. कक्कोल १८. जायफल १६. जातिपत्रिका २०. नख २१. चंदन २२. सिल्हक २३. वीरण २४. शोभांजनमूल २५. ब्राह्मी २६. शैलेय २७. चंपकफल - इस प्रकार सर्वौषधि प्रथमवर्ग की यह सामग्री लाएं।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 19 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान ..
१. सहदेवी २. बला ३. कुष्ट ४. प्रियंगु ५. स्त्वक् ६. गालव ७. दर्भमूलं ८. दूर्वा - इस प्रकार द्वितीय सर्वौषधिवर्ग की यह सामग्री लाएं।
१. विष्णुकान्ता २. शंखपुष्पी ३. वचा ४. चव्यं ५. यवासकम् ६. भर्भरी ७. शृंगराज ८. वासा ६. दुरालभा १०. भाही ११. प्रियंग १२. रास्ना १३. राठा १४. पाठा १५. महौषध १६. वत्सक १७. सहदेवी १८. स्थिरा १६. नागबला २०. वरी २१. दूर्वा २२. वीरण २३. मुंजौ २४. लामज्जक २५. जलम् २६. जीवन्ती २७ रूदती २८ ब्राह्मी २६. चतुःपत्री ३०. तथांबुज ३१. जीवक ३२. र्षभको ३३. मेद ३४. महापर ३५. वासन्ती ३६. मागधी ३७. मूलं ३८. जपा ३६. भुंगी ४०. सल्लकी ४१. नकुली ४२. मद्गपर्णी ४३. माषपर्णी ४४. तिंतिडी ४५. श्रीपर्णी ४६. कृष्णपर्णी ४७. मंडूकपर्णिका ४८. राजहंस ४६. महाहंस ५०. मुस्ता ५१. श्रीफल ५२. मकरंदक ५३. शोभांजन ५४. जुन ५५. कर्पास ५६. वट ५७. फल्गु ५८. प्लक्ष ५६. सिंदुबार ६०. करवीर ६१. वेतस ६२. कदंब ६३. कंटशैल ६४. कल्हार ६५. पिप्पल ६६. वरूण ६७. बीजपूर ६८. मेषशृंगी ६६. पुनर्नवा ७०. वज्रकंदो ७१. विदारी ७२. शृगाली ७३. रजनीद्वय ७४. चित्रक ७५. राट ७६. नलमूल ७७. कोरण्ट ७८. शतपत्रिका ७६. कुमारी ८०. नागदमनी ८१. गौरी ८२. निंब ८३. शाल्मलि ८४. कृतमाल ८५. मदार ८६. इंगुदी ८७. शाल ८८. शरपुंखा . ८६. अश्वगन्धा ६०. मयूरक ६१. वज्रशूल ६२. भूतकेशी ६३. रूद्रजटा ६४. रक्ता ६५. गिरिकर्णिका ६६. पातालतुंव्य ६७. तिविषा ६८. वज्रवृक्ष ६६. शाबर १००. चुक्षुष्या १०१. लज्जिरिका १०२. लक्ष्मणा १०३. लिंगलांछना १०४. काकजंघा १०५. पटोल १०६. मुरा १०७. तेजोवती १०८. कनकदु १०६. भूनिंब - ये सब उत्तम मूलिकाएँ हैं। शास्त्रज्ञों द्वारा इन सब मूलिकाओं के मिश्रण को शतमूल की संज्ञा दी गई है। - यह शतमूल वर्ग बताया गया है।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 20 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
१. शतावरी २. सहदेवी ३. शिरा ४. जीवा ५. पुनर्नवा ६. मयूरक ७. कुष्ट ८. वच - इनकों सहस्रमूल कहते हैं। कुछ लोग हजारों वृक्षों के मूलों को संगृहीत कर बनाए जाने वाले मिश्रण को सहनमूल कहते हैं। - इस प्रकार यह सहनमूल वर्ग बताया गया
आर्हत् मत में निम्न पंचामृत बताए गए हैं - १. दही २. दूध ३. घी ४. इक्षुरस एवं ५. जल ।
वेदिका हेतु घट लाने के समय, तीर्थजल लाने के समय, वेदिका की स्थापना के समय एवं औषधियों को तैयार करते समय सभी स्थानों पर गीत, नृत्य, वादिंत्र के साथ-साथ महोत्सव करें - यह प्रतिष्ठा-विधि सम्बन्धी सामग्री बताई गई है।
पूर्व में श्रीचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठा-विधि बताई गई है, वह संक्षिप्त है। उसे विस्तीर्ण रूप से जानने के लिए यहाँ उसका विस्तारपूर्वक कथन किया गया है। प्रतिष्ठा करवाने वाले के घर में सर्वप्रथम शान्तिक एवं पौष्टिक-कर्म करना चाहिए। श्रीचन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत प्रतिष्ठा-युक्ति (विधि) महाप्रतिष्ठाकल्प की अपेक्षा लघुतर है, इसलिए यहाँ आर्यनन्दि, क्षपकचन्द्र नन्दि, इन्द्रनन्दि, वज्रस्वामी द्वारा प्रणीत प्रतिष्ठाकल्प के आधार पर इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है।
पूजा हेतु लाए जाने वाले लघुबिम्ब को ऊपर कहे गए अनुसार शुद्धि-संस्कार करके चैत्यगृह में लाएं। तत्पश्चात् स्थिरबिम्ब को पंचरत्न तथा कुम्भकार के चक्र की मृत्तिकासहित स्थापित करें। चलबिम्ब के नीचे पवित्र नदी की बालू एवं मूलसहित एक बालिश्त (फैलाए हुए हाथ के अंगूठे के सिरे से कनिष्ठिका तक की दूरी) मात्र दर्भ रखकर स्थापित करें। पूर्व में जिन-जिन जलाशयों से महोत्सवपूर्वक जल लाने के लिए कहा गया है। उन-उन जलाशयों की गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य एवं बलि के साथ मंत्रपूर्वक पूजन करें, तत्पश्चात् वहां से जल लाएं। जलाशयों के पूजन का मंत्र यह है -
“ॐ वं वं वं नमो वरुणाय पाशहस्ताय सकलयादोधीशाय सकलजलाध्यक्षाय समुद्रनिलयाय सकलसमुद्रनदीसरोवरपर्वतनिझर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 21 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कूपवापीस्वामिने अमृतांगकाय देवाय अमृतं देहि-देहि अमृतं झर-झर, अमृतं स्रावय-स्रावय नमस्ते स्वाहा गन्धं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, बलिं गृहाण-गृहाण, जलं देहि-देहि स्वाहा।"
तत्पश्चात् मण्डप के मध्य में वेदिका की रचना करें। वेदीस्थापन एवं वेदीप्रतिष्ठा की विधि विवाह-अधिकार में बताई गई है। वेदी के मध्य में चलबिम्ब की स्थापना करें और उसी प्रकार स्थिरबिम्ब को भी जलपट्ट (फलक) के ऊपर स्थापित करें। वेदिका के मध्य अन्य चल जिनबिम्ब को देववन्दन एवं प्रथमपूजा करने के लिए स्थापित करें। उसके पार्श्व में, अर्थात् चारों दिशाओं में श्वेत कलश के ऊपर बोए गए जौ के सकोरे रखें तथा घी, गुड़ सहित गेहूँ के आटे से निर्मित तथा केसरीसूत्र से लिपटे हुए मंगलदीपक चारों दिशाओं में एवं वेदिका के मध्यभाग में स्थापित करें वेदिका की स्थापना चैत्य के चौकोर मण्डपगृह में करें। वेदिका की आठ दिशाओं में दिक्पालों की स्थापना करें। दिक्पालों की स्थापना वेदिका के बाहर के भाग में करें। तत्पश्चात् लघुस्नात्र विधि के अनुसार संक्षिप्त पूजा
करें। पूर्व में बताए गए गुणों से युक्त स्नात्र करने वाले चार पुरुषों · को वहाँ बुलाएं। पूर्व में बताए गए गुणों से तथा कंकण से युक्त चार स्त्रियाँ कषायमांगल्यमूली, अष्टकवर्ग, शतमूली एवं सहस्रमूली आदि सर्व
औषधियों को पीसने का कार्य शुद्ध विधि से उत्सवसहित करें। पंचरत्न मूलिकादि को पीसकर पृथक् सकोरों में रखकर और उनके ऊपर दूसरे सकोरे को रखकर कौसुंभसूत्र से लपेटकर एवं उस पर नाम लिखकर रख दें। जिसके दोनों कुल विशुद्ध हों, जिसने स्नान किया हुआ हो तथा आभूषण एवं कंकण से युक्त हो, ऐसी कुंवारी कन्या से सुरमा, घृत, मधु, शर्करा (मधु से तैयार की हुई शक्कर) सहित नेत्रांजन को पिसवाएं और उसे चाँदी की कटोरी में रखकर शरावसंपुट में रखें तथा उस पर कौशेय-कंचुलिका रखें। तत्पश्चात् स्नात्रकर्ता अपने वर्ण के अनुसार जिनउपवीत, उत्तरीय या उत्तरासंग को धारण करके, जूड़ा बांधकर, शुद्ध वस्त्र धारण कर, उपवास का प्रत्याख्यान कर, कंकण और मुद्रिका से युक्त होकर (बिम्ब के) समीप ही रहे।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 22 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान प्रतिष्ठाकारक, जो कृत उपवासी हो, बिना सिले हुए इसिओं से युक्त श्वेतवस्त्र पहने हुए हो, कंकण आदि अलंकारों से सुशोभित हो, स्वर्ण सावित्रीक मुद्रिका को धारण किए हुए हो, तथा चारों स्नात्रकार चतुर्विध संघ की उपस्थिति में सभी दिशाओं में भूतबलि देते हैं अर्थात् बाकुले एवं पूए आदि सभी वस्तुएँ चारों दिशाओं में डालते हैं। भूतबलि का मंत्र निम्न है -
___“ऊँ सर्वेपि सर्वपूजाव्यतिरिक्ता भूतप्रेतपिशाचगणगंधर्वयक्षराक्षसकिन्नरवेतालाः स्वस्थानस्था अमुं बलिं गृह्णन्तु, सावधानाः सुप्रसन्नाः विघ्न हरन्तु मंगलं कुर्वन्तु।"
इस मंत्र से भूतबलि देकर प्रतिष्ठाकारक गुरु स्नात्रकारों को देह की रक्षा कवच-मंत्र से करवाते हैं। वह कवचमंत्र इस प्रकार है -
“ॐ नमो अरिहंताणं शिरसि, ऊँ नमो सिद्धाणं मुखे, ऊँ नमो आयरियाणंसर्वांगे, ऊँ नमो उवज्झायाणं आयुधम्, ऊँ नमो लोए सव्वसाहूणं वज्रमयं पंजरम् ।
इस प्रकार चंदन से लिप्त दाएँ हाथ से कवच बनाएं, अर्थात् रक्षा करें। फिर स्नात्र करने वाले पूर्व में स्थापित किए गए अन्य प्रतिष्ठित बिम्ब की पूजा करते हैं तथा पूर्व वर्णित लघुस्नात्रविधि से स्नात्र एवं आरती करते हैं। तत्पश्चात् स्नात्रकारसहित प्रतिष्ठाकारक चतुर्विध संघ के साथ जिनस्तुति से गर्भित चैत्यवंदन करते हैं। फिर शान्तिनाथ भगवान् की आराधना के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करके निम्न स्तुति बोलते हैं - - “श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्ति विधायिने।
त्रैलोक्यस्यामराधीश मुकुटाभ्यर्चितांघ्रये ।।" श्रुतदेवता आदि सभी के कायोत्सर्ग में नमस्कार-मंत्र का चिन्तन करते हैं। श्रुत देवता का कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर निम्न स्तुति बोलते हैं -
“यस्याः प्रसाद परिवर्धित शुद्धबोधाः पारं व्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः।।
__ सानुग्रहामयि समीहितसिद्धयेऽस्तु संर्वज्ञशासनरता श्रुतदेवतासौ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) । 23 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान ..
फिर भुवनदेवता का कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - "ज्ञानादिगुणयुतानां नित्यं स्वाध्याय संयम रतानाम् ।
___ विदधातु भुवनदेवी शिवं सदा सर्वभूतानाम् । क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - “यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य साधुभिः साध्यते क्रिया।
सा क्षेत्र देवता नित्यं भूयान्नः सुखदायिनी।।" शांतिदेवता का कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - "उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगति दुःस्वप्न दुर्निमित्तादि।
संपादितहितसंपन्नामग्रहणं जयति शान्तेः ।। शासनदेवता का कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - “या पाति शासनं जैनं सद्यः प्रत्यूहनाशिनी ।
साभिप्रेतसमृद्धयर्थं भूयाच्छासन देवता ।।" अम्बिकादेवी की आराधना के लिए कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं -
"अम्बा बालांकितांकासौ सौख्यस्यान्तं दधातु नः
__माणिक्य रत्नालंकार चित्र सिंहासन स्थिता।।"
अच्छुप्तादेवी की आराधना के लिए कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - ___“रसितमुच्चतुरंगमनायकं विशतु कांचनकांतिरिहाच्युता।
घृत धनुः फल कासिशरैः करैरसितमुच्चतुरंगमनायकम् ।।
___ समस्त वैयावृत्यकर देवताओं की आराधना के लिए कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलते हैं - “सर्वे यक्षाम्बिकाद्या ये वैयावृत्यकरा जिनेः।
रौद्रोपद्रवसंघातं ते द्रुतं द्रावयन्तु नः।।" तत्पश्चात् संपूर्ण नमस्कारमंत्र बोलकर क्रमशः शक्रस्तव, अर्हणादिस्तोत्र एवं जयवीयरायसूत्र बोलें। फिर विधिकारक गुरु स्वयं के सम्पूर्ण देह की रक्षा करते हैं। उसकी विधि यह है -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 24 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
__“ऊँ नमो अरिहंताणं हृदयं रक्ष-रक्ष, ऊँ नमो सिद्धाणं ललाटं रक्ष-रक्ष, ऊँ नमो आयरियाणं शिखां रक्ष-रक्ष, ऊँ नमो उवज्झायाणं कवचं सर्वशरीरं रक्ष-रक्ष, ऊँ नमो सव्वसाहूणं अस्त्रम् ।"
इस प्रकार सब जगह तीन-तीन बार इस मंत्र का न्यास करते हैं। तत्पश्चात् सात बार शुचिविद्या का आरोपण करते हैं। शुचिविद्या का मंत्र इस प्रकार है -
“ॐ नमो अरिहंताणं, ऊँ नमो सिद्धाणं, ऊँ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ऊँ नमो लोए सव्वसाहूणं, ऊँ नमो आगासगामीणं, ऊँ नमो चारणलद्धीणं, ऊँ हः क्षः नमः ऊँ अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा।
इस मंत्र से सर्वांग की शुद्धि करते हैं। कुछ आचार्य स्नात्रकारों के अंगों की रक्षा भी इसी मंत्र से करने के लिए कहते हैं। इसके बाद संक्षिप्त रूप से दिक्पाल की पूजा करें। गुरु बलिमंत्र से बलि को अभिमंत्रित करते हैं। बलि का मंत्र इस प्रकार है -
“ॐ ह्रीं क्ष्वी सर्वोपद्रवं बिम्बस्य रक्ष-रक्ष स्वाहा। __इस मंत्र से बलि को इक्कीस बार अभिमंत्रित करते हैं। तत्पश्चात् स्नात्रपूजा करने वाले पुरुष अभिमंत्रित बलि को जलदान एवं धूपदानपूर्वक चारों दिशाओं में निक्षिप्त करते हैं। फिर स्नात्र करने वाले पुरुष नवीन बिम्ब पर पुष्पांजलि अर्पण करते हैं। इसका वृत्त (छन्द) यह है - “अभिनवसुगंधिवासितपुष्पौघभृता सुधूपगंधाढ्या,
बिम्बोपरि निपतन्ती सुखानि पुष्पांजलिः कुरुताम् ।।" तत्पश्चात् गुरु नवीन बिम्ब के आगे दोनों हाथ की मध्य अंगुली को खड़ा करके रौद्रदृष्टि से तर्जनीमुद्रा बताते हैं। फिर बाएँ हाथ से जल लेकर रौद्रदृष्टि से बिम्ब के ऊपर छींटते हैं। कुछ अन्य मतों में स्नात्र करने वाले पुरुष भी बाएँ हाथ में जल लेकर प्रतिमा को सिंचित करते हैं। तत्पश्चात् प्रतिष्ठाकारक गुरु स्नात्र करने वाले पुरुषों के हाथों से बिम्ब को तिलक एवं पूजा करवाते हैं। फिर गुरु बिम्ब को मुद्गरमुद्रा दिखाते हैं। तत्पश्चात् बिम्ब के समक्ष अखंड चावलों से भरा हुआ थाल रखते हैं। वज्रमुद्रा और गरुड़मुद्रा से बिम्ब
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
के नेत्रों की रक्षा करते हैं । फिर बलिमंत्रपूर्वक हाथों के स्पर्श से बिम्ब के सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करते हैं । बलिमंत्र इस प्रकार है . "ॐ ह्रीं क्ष्वीं सर्वोपद्रवं बिम्बस्य रक्ष रक्ष स्वाहा । "
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फिर दसों दिशाओं में भी तीन-तीन बार यह मन्त्र पढ़कर एवं पुष्प - अक्षत फैंक कर दिग्बन्ध करते हैं । फिर श्रावकजन या स्नात्र करने वाले पुरुष बिम्ब के ऊपर १. सण २. लाज ३. कुलत्थ ४. यव ५. कंगु ६. मार्ष और ७. सर्षप ऐसे सातों धान्य डालते हैं । सप्त धान्य डालने का मन्त्र निम्न है
“सर्वौषधीबहुलमंगलयुक्तिरूपं संप्रीणनाकरमपारशरीरिणां च। आदौ प्रभोः प्रतिनिधेरधिवासनायां सप्तान्नमस्तु निहितं
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दुरितापहारि ।।"
तत्पश्चात् गुरु जिनमुद्रा से कलश को अभिमंत्रित करते हैं। कलश मंत्रित करने का मंत्र यह है
“ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते महाभूते आगच्छ-आगच्छ जलं गृहाणं गृहाणं स्वाहा । "
इसके बाद सर्व औषधि एवं चंदन आदि को निम्न मंत्र से अभिमंत्रित करते हैं
“ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते महाभूते आगच्छ - आगच्छ सर्वौषधिचंदनसमालंभनं गृहाण - गृहाण स्वाहा ।"
समालंभन को सुगन्धित लेप भी कहते हैं। तत्पश्चात् पुष्प एवं धूप को निम्न मंत्र से अभिमंत्रित करते हैं -
“ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते महाभूते आगच्छ-आगच्छ सर्वतो मेदिनी पुष्पं गृहाण स्वाहा ।
ॐ नमो यः बलिं दह दह महाभूते तेजोधिपते धुधु धूपं गृह - गृह स्वाहा ।"
इसके बाद इन्हीं मंत्रों द्वारा बिम्ब की क्रमशः जल, सर्वऔषधि, चंदन, पुष्प एवं धूप से पूजा करें। फिर निम्न छंद बोलकर बिम्ब की अंगुली में पाँच रत्न बाँधे
“स्वर्णमौक्तिकसविद्रुमरूप्यै राजपट्टशकलेन समेतम् । पंचरत्नमिह मंगलकार्ये देव दोषनिचयं विनिहन्तु । । "
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 26 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् पूर्व में बताए गए गुणों से युक्त स्नात्र कराने वाले चार पुरुष. चार-चार कलशों से गीत आदि मधुर ध्वनियों के मध्य स्नात्र करते हैं। चारों ही पुरुष उन चार-चार कलशों का जल जिनबिम्ब के ऊपर प्रक्षिप्त करते हैं। कलशजल प्रक्षिप्त करने के बाद बिम्ब को चंदन का तिलक लगाते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं और धूप उत्क्षेपण करते हैं। बिम्ब पर कलशजल प्रक्षिप्त करते समय नमस्कार-मंत्र का पाठ करें। फिर सर्वप्रथम हिरण्योदक से निम्न छंद बोलकर स्नान कराएं -
“सुपवित्रतीर्थनीरेण संयुतं गन्धपुष्पसंमिश्रम् ।
__पततु जले बिम्बोपरि सहिरण्यं मंत्रपरिपूतम् ।।"
दूसरी बार पंचरत्नों के जल से स्नात्र कराएं। ये पंचरत्न प्रवाल, मोती, स्वर्ण, चाँदी एवं तांबा रूप हैं। पंचरत्न-स्नात्र का छन्द निम्नांकित है - "नानारत्नौघयुतं सुगंधि पुष्पाधिवासितं नीरम्।
पतताद्विचित्र वर्ण मंत्राढ्यं स्थापनाबिम्बे।।' - तीसरा अभिषेक वटवृक्ष, पीपल, सिरस, गूलर आदि उदुम्बरवर्ग के वृक्ष की छाल से वासित जल से कराएं। इसका छन्द निम्न है - "प्लक्षाश्वत्थोदुम्बरशिरीषवल्कादिकल्कसंसृष्टम्।
बिम्बे कषायनीरं पततादधिवासितं जैने।।" - चौथा अभिषेक पर्वत, पद्मसरोवर, नदियों के संगम-स्थल और नदी के दोनों तटों की मिट्टी, गाय के सींग से खोदी गई मिट्टी एवं वल्मीक आदि की मिट्टी से वासित जल से कराएं। इसका छंद निम्न
“पर्वत सरोनदी संगमादिमृद्भिश्च मंत्र पूतानि।
___ उद्वर्त्य जैन बिम्बं स्नपयाम्यधिवासना समये ।।"
पाँचवां अभिषेक पंचगव्य एवं दर्भ से युक्त जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - "दधिदुग्धघृतछगणप्रसवणैः पंचभिर्गवांगभवैः।
दर्भोदकसंमित्रैः स्नपयामि जिनेश्वरप्रतिमाम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 27 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान ।
छठवां अभिषेक सहदेवी, बलाशतमूली, शतावरी, कुमारी, गुहसिंही, व्याघ्री आदि औषधियों से युक्त जल से निम्न छन्द बोलकर कराएं - “सहदेव्यादिसदौषधिवर्गेणोद्वर्तितस्य बिम्बस्य ।
संमिश्रं बिम्बोपरि पतज्जलं हरतु दुरितानि ।। सातवाँ अभिषेक मयूरशिखा, विहरक, अंकोल्ल, लक्ष्मणा आदि पवित्र मूलिकाओं से वासित जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - “स्वपवित्रमूलिकावर्गमर्दिते तदुदकस्य शुभधारा ।
बिम्बेधिवाससमये यच्छतु सौख्यानि निपतन्ती।। आठवाँ अभिषेक कुष्टादि प्रथम अष्टकवर्ग की औषधियों से युक्त जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - "नानाकुष्टाद्यौषधिसंमिश्रे तद्युतं पतन्नीरम् ।।
बिम्बे कृतसन्मंत्रं कर्मोघं हन्तु भव्यानाम् ।।" नवां अभिषेक मेद आदि द्वितीय अष्टकवर्ग औषधियों से वासित जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - "मेदाद्यौषधिभेदोपरोष्टवर्गः स्वमंत्रपरिपूतः ।
जिनबिम्बोपरि निपतत् सिद्धिं विदधातु भव्यजने ।।" - यह नौ अभिषेक हुए। इसके बाद सूरि (आचार्य भगवंत) उठकर गरुड़मुद्रा, मुक्तासुक्तिमुद्रा या परमेष्ठीमुद्रा से प्रतिष्ठा कर देवताओं का आह्वान करते हैं। तत्पश्चात् बिम्ब के आगे खड़े होकर पूजा करते हैं। इसका मंत्र यह है -
__“ऊँ नमोऽर्हत्परमेश्वराय चतुर्मुखपरमेष्ठीने त्रैलोक्यगताय अष्टदिग्भागकुमारीपरिपूजिताय . देवाधिदेवाय दिव्यशरीराय त्रैलोक्यमहिताय आगच्छ-आगच्छ स्वाहा।"
तत्पश्चात् संक्षिप्त रूप में इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरूण, वायु, कुबेर, ईशान, नाग एवं ब्रह्मा - इन दसों दिक्पालों का मंत्रपूर्वक आह्वान करते हैं। आह्वान का मंत्र निम्न है -
___ऊँ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय इह जिनेन्द्रस्थापने आगच्छ-आगच्छ स्वाहा।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 28 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इस प्रकार उपर्युक्त मंत्रपूर्वक अग्नि आदि दसों दिक्पालों का आह्वान करें। तत्पश्चात् निम्न छंदपूर्वक बिम्ब पर पुष्पांजलि चढ़ाएं।
“सर्वस्थिताय विबुधासुरपूजिताय सर्वात्मकाय विदुदीरितविष्टपाय स्थाप्याय लोकनयनप्रमदप्रदाय पुष्पांजलिः भवतु सर्वसमृद्धि हेतुः ।।"
फिर दसवां अभिषेक हरिद्रा आदि सर्व औषधियों से वासित जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - “सकलौषधिसंयुक्तया सुगन्धया घर्षितं सुगतिहेतोः ।
स्नपयामि जैनबिम्बं मंत्रिततन्नीरनिवहेन ।। उसके बाद ग्यारहवाँ अभिषेक सहदेवी आदि सर्व औषधियों से युक्त जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - “सर्वामयदोषहरं सर्वप्रियकारकं च सर्वविदः।
पूजाभिषेककाले निपततु सर्वोषधीवृन्दम् ।।" बारहवाँ अभिषेक विष्णुक्रान्ता आदि शतमूलों से युक्त जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - “अंनतसुख संघातकन्दकादम्बिनीसमम् ।
शतमूलमिदं बिम्बस्नात्रे यच्छतु वांच्छितम् ।।" तेरहवाँ अभिषेक शतावरी आदि सहनमूलों से युक्त जल से निम्न छंद बोलकर कराएं - “सहस्रमूलसर्वर्द्धिसिद्धिमूलमिहार्हतः ।
स्नात्रे करोतु सर्वाणि वांछितानि महात्मनाम् ।।" फिर गुरु दृष्टिदोष के निवारणार्थ दाएँ हाथ से जिन-प्रतिमा का स्पर्श करके बिम्ब में निम्न सिद्धिजिनमंत्र का न्यास करें -
"इहागच्छन्तु जिनाः सिद्धा भगवन्तः स्वसमयेनेहानुग्रहाय भव्यानां स्वाहा अथवा हुँ हुँ ह्रीं क्ष्वी ऊँ भः स्वाहा।"
तत्पश्चात् आचार्य द्वारा अभिमंत्रित लाल कपड़े में बंधी हुई सरसों की पोट्टलिका को स्नात्रकारक (स्नात्र कराने वाले) बिम्ब के दाएँ हाथ में बांधे। रक्षापोट्टलिका अभिमंत्रित करने का मंत्र निम्नांकित है -
"ऊँ क्षाँ क्षी क्ष्वी स्वीं स्वाहा।' बिम्ब को चंदन-तिलक करें। फिर गुरु परमात्मा के आगे अंजली करके इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 29 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
___“अनुग्रहकारक सिद्ध परमात्मा का स्वागत है, सिद्ध परमात्मा ज्ञान के भण्डार हैं, आनंद देने वाले हैं एवं दूसरों पर अनुग्रह करने वाले हैं।"
___तत्पश्चात् गुरु अंजलिमुद्रा से मंत्रपूर्वक पूर्व में संचित सुवर्ण-भाजन में से अर्घ देते हैं तथा पूर्व में कहे गए अनुसार बिम्ब के समक्ष निवेदन करते हैं। अर्घ देने का मंत्र निम्न है -
"ऊँ भः अर्घ प्रतिच्छन्तु पूजां गृह्णन्तु जिनेन्द्राः स्वाहा।"
उसके बाद पुनः दिक्पालों का आह्वान करें और प्रत्येक को निम्न मंत्र से अर्घ दें -
"ॐ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं गृहाण-गृहाण स्वाहा।
इस प्रकार “सायुधाय सवाहनाय" मंत्रपूर्वक अर्घ दें। इसके बाद पुष्प से वासित जल से निम्न छंदपूर्वक चौदहवाँ अभिषेक कराएं“अधिवासितं सुमंत्रैः सुमनः किंजल्कराजितं तोयम् ।
तीर्थजलादिसुयुक्तं कलशोन्मुक्तं पततु बिम्बे।।" गुग्गुल, कुष्टमांसी, मुरा, चन्दन, अगरु, कर्पूर आदि सुगन्धित जल से निम्न छंद पूर्वक पन्द्रहवाँ अभिषेक कराएं - "गन्धांगस्नानिकया सन्मृष्टं तदुदकस्य धाराभिः ।
स्नपयामि जैनबिम्बं कर्मोघोच्छित्तये शिवदम् ।।" तत्पश्चात् वासयुक्त जल से निम्न छंदपूर्वक सोलहवाँ स्नान कराएं। वास दो प्रकार की होती है - तीव्र गंध से युक्त वास को शुक्लगंध एवं अल्प गंध से युक्त वास. को कृष्णगंध कहते हैं। सोलहवें अभिषेक का छंद इस प्रकार है - "हृद्यैराह्लादकरैः स्पृहणीयैर्मत्रसंस्कृतैर्जेनम्।
स्नपयामि सुगतिहेतोः प्रतिमामधिवासितैर्वासैः।।" सत्रहवाँ अभिषेक चंदन के जल से निम्न छंदपूर्वक कराएं - "शीतलसरससुगन्धिर्मनोमतश्चंदनद्रुमसमुत्थः।
___ चन्दनकल्कः सजलो मंत्रयुतः पततु जिन बिम्बे ।।"
तत्पश्चात् निम्न छंदपूर्वक कुंकुम से वासित जल से अठारहवाँ अभिषेक कराएं -
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
"काश्मीरजलसुविलिप्तं बिम्बं तन्नीरधारयाभिनवम् ।
सन्मंत्रयुक्तया शुचि जैन स्नपयामि सिद्ध्यर्थम् ।।" इन सभी वस्तुओं से जिनबिम्ब को आलेपित करें तथा इन्हीं वस्तुओं से वासित जल से स्नान कराएं। प्रत्येक अभिषेक के पश्चात् और अग्रिम अभिषेक के पूर्व बीच-बीच में चंदनपूजा, पुष्पपूजा एवं धूपपूजा करे। तत्पश्चात् दर्पण में बिम्ब के आदर्श को निम्न मंत्र से देखें
कराएं
-
कराएं
30 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
"आत्मावलोकनकृते कृतिनां यो वहति सच्चिदानन्दम् ।
भवति स आदर्शोयं गृह्णातु जिनेश्वरप्रतिच्छन्दम् ।।" तत्पश्चात् तीर्थोदक से निम्न छंदपूर्वक उन्नीसवाँ अभिषेक
जलधिनदीद्रहकुण्डेषु यानि सलिलानि तीर्थशुद्धानि ।
तैर्मंत्रसंस्कृतैरिह बिम्ब स्नपयामि सिद्ध्यर्थम् ।। " फिर निम्न छंदपूर्वक कर्पूरमिश्रित जल से बीसवां स्नान
"शशिकरतुषारधवला निर्मलगन्धा सुतीर्थजलमिश्रा | कर्पूरोदकधारा सुमंत्रपूता पततु बिम्बे ।। " तत्पश्चात् निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पण करें - “नानासुगन्धपुष्पौघरंजिता चिंचिरीक कृतनादा । धूपामोदविमिश्रा पततात्पुष्पांजलिर्बिम्बे । ।" फिर उसके बाद निम्न छंदपूर्वक एक सौ आठ मिट्टी के कलशों के शुद्ध जल से इक्कीसवाँ अभिषेक कराएं
“चक्रे देवेन्द्रराजैः सुरगिरिशिखरे योभिषेकः पयोभिर्नृत्यन्तीभिः सुरीभिर्ललितपदगमं तूर्यनादैः सुदीपैः ।
कर्तुं तस्यानुकारं शिवसुखजनकं मंत्रपूतैः सुकुम्भैर्बिम्बं जैनं प्रतिष्ठाविधिवचनपरः पूजयाम्यत्र काले ।।"
तत्पश्चात् गुरु बाएँ हाथ में अभिमंत्रित चन्दन लेकर दाएँ हाथ से प्रतिमा के सर्व अंगों पर आलेपन करें। चंदन को सूरिमंत्र या अधिवासनामंत्र से अभिमंत्रित करें। अधिवासनामंत्र इस प्रकार है “ॐ नमः शान्तये हूँ हूँ हूँ सः । “
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान .
“ॐ नमो पयाणुसारीणं से कविलपर्यंत सूरिमंत्र बोलें। तत्पश्चात् पुष्प चढ़ाएं। धूप उत्क्षेप करें और वासक्षेप डालें। फिर गुरु बिम्ब पर केसर, कपूर, गोरोचन से हस्तलेप करे और मदनफलसहित कंकण-बन्धन करें। कंकण-बन्धन का मंत्र यह है -
“ऊँ नमो खीरासवलद्धीणं, ऊँ नमोमहुयासवलद्धीणं ऊँ नमो संभिन्नसोईणं ऊँ नमो पयाणुसारीणं ऊँ नमो कुट्ठबुद्धीणं जंमियं विज्ज पउंजामि सामे विज्जा पसिब्भओ ऊँ अवतर-अवतर सोमे-सोमे कुरु-कुरु वग्गु-वग्गु निवग्गु-निवग्गु सुमणे सोमणसे महुमहुरे कविल ऊँ कक्षः स्वाहा।"
कौसुम्भसूत्र (केसरीसूत्र), मदनफल एवं अरिष्ट से निर्मित कंकण का बन्धन कण्ठ, बाहु, भुजा एवं चरणों में करें। फिर गुरु अधिवासनामंत्र एवं मुक्तासुक्ति मुद्रा से मस्तक, दोनों स्कन्ध (कंधे) एवं दोनों जानु (पैर) रूप पाँच अंगों को सात बार स्पर्श करते हैं। अधिवासना का मंत्र निम्नांकित है -
“ॐ नमः शान्ते हूँ यूँ हूँ सः।" इसके बाद धूप-उत्क्षेपण करें। फिर गुरु पुनः परमेष्ठीमुद्रा से परमात्मा का आह्वान करते हैं। आह्वान मंत्र निम्न है -
“ॐ नमोर्हत्परमेश्वराय चतुर्मुखपरमेष्ठीने त्रैलोक्यगताय अष्टदिग्भागकुमारीपरिपूजिताय देवाधिदेवाय दिव्यशरीराय त्रैलोक्यमहिताय आगच्छ-आगच्छ स्वाहा।
फिर नंद्यावर्त्त की पूजा करें। चलबिम्ब पर नंद्यावर्त्त-विधि करते हैं। इसके लिए नंद्यावर्त्त के ऊपर प्रतिमा को स्थापित करें। बिम्ब यदि स्थिर हो, तो फिर निश्चलबिम्ब के आगे और वेदी के मध्यभाग में, अर्थात् स्थिरबिम्ब एवं वेदी के बीच की जगह में नंद्यावर्त्त-पूजा करें। उसकी विधि यह है - गुरु आसन पर बैठकर नंद्यावर्त की पूजा करते हैं।
___ नंद्यावर्त्त-आलेखन की विधि - कर्पूरमिश्रित चन्दन आदि सात लेपों से लिप्त श्रीपर्णी के पट्ट पर कपूर, कस्तूरी, गोरोचन मिश्रित कुंकुमरस से सर्वप्रथम प्रदक्षिणाकार नवकोणयुक्त नंद्यावर्त्त का आलेखन
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 32 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान करते हैं। नंद्यावर्त्त मांडले के आलेखन में मध्य में नंद्यावर्त बनाकर उसके बाहर क्रमशः दस वलय बनाए जाते हैं। नंद्यावर्त के दाईं ओर सौधर्मेन्द्र की, बाईं ओर ईशानेन्द्र की तथा नीचे की तरफ श्रुतदेवता की स्थापना करें।
सौधर्मेन्द्र के शरीर का वर्ण पीत है, वह चार भुजा वाला, गज की सवारी करने वाला, पाँच वर्ण के वस्त्र पहनने वाला है। उसके दो हाथ अंजलिबद्ध हैं, एक हाथ अभयमुद्रा में तथा दूसरा हाथ वज्र से युक्त है।
ईशानेन्द्र श्वेत वर्ण वाला, बैल की सवारी करने वाला, नीले और लाल रंग के वस्त्र को धारण करने वाला एवं चार भुजा वाला है। उसके एक हाथ में जय (पताका) और दूसरे हाथ में धनुष है तथा शेष दो हाथ अंजलिबद्ध हैं।
श्रुतदेवी श्वेत वर्ण वाली, श्वेतवस्त्र धारण करने वाली, हंस की सवारी करने वाली, श्वेत सिंहासन पर बैठने वाली (आसीन), . भामण्डल से सुशोभित एवं चार भुजा वाली हैं। उसके बाएँ हाथ में श्वेत कमल एवं वीणा है तथा दाएँ दो हाथों में पुस्तक एवं मोतियों की माला है।
नंद्यावर्त्त की परिधि को वलय से वेष्टित करें। परिधि से बाहर आठ गृह बनाएं तथा उन आठ दलों में निम्नांकित मंत्रपूर्वक क्रमशः पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय की स्थापना करें -
“नमोऽर्हद्भ्यः स्वाहा, ॐ नमः सिद्धेभ्यः स्वाहा, ॐ नमः आचार्येभ्यः स्वाहा, ॐ नमः उपाध्यायेभ्यः स्वाहा, ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा, ऊँ नमो ज्ञानाय स्वाहा, ऊँ नमो दर्शनाय स्वाहा, ऊँ नमः चारित्राय स्वाहा।"
तत्पश्चात् वृत्त में एक वलयाकार परिधि बनाएं। उसके बाहर चारों दिशाओं में चौबीस पंखुड़ियों की स्थापना करें। उन पंखुड़ियों में क्रमशः निम्न मंत्रपूर्वक चौबीस तीर्थंकरों की माताओं की स्थापना करें
१. ऊँ नमो मरुदेव्यै स्वाहा २. ऊँ नमो विजयायै स्वाहा ३. ऊँ नमः सेनायै स्वाहा ४. ऊँ नमः सिद्धार्थायै स्वाहा ५. ऊँ नमो मंगलायै स्वाहा ६. ऊँ नमः सुसीमायै स्वाहा ७. ॐ नमः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 33 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान पृथ्व्यै स्वाहा ८. ऊँ नमो लक्ष्मणायै स्वाहा ६. ऊँ नमो रामायै स्वाहा १०. ऊँ नमो नन्दायै स्वाहा ११. ऊँ नमो विष्णवे स्वाहा १२. ऊँ नमो जयायै स्वाहा १३. ऊँ नमः श्यामायै स्वाहा १४. ऊँ नमः सुयशसे स्वाहा १५. ऊँ नमः सुव्रतायै स्वाहा १६. ऊँ नमोऽचिरायै स्वाहा १७. ऊँ नमः श्रियै स्वाहा १८. ऊँ नमो देव्यै स्वाहा १६. ऊँ नमः प्रभावत्यै स्वाहा २०. ऊँ नमः पद्मावत्यै स्वाहा २१. ऊँ नमो वप्रायै स्वाहा २२. ऊँ नमः शिवायै स्वाहा २३. ऊँ नमो वामायै स्वाहा २४. ॐ नमः त्रिशलयै स्वाहा।
तत्पश्चात् पुनः एक परिधि मण्डलाकार बनाएं। उसमें सोलह पंखुड़ियों की रचना करें तथा उसमें निम्न मंत्रपूर्वक सोलह विद्यादेवियों की स्थापना करें -
१. ऊँ नमो रोहिण्यै स्वाहा २. ऊँ नमः प्रज्ञप्त्यै स्वाहा ३. ऊँ नमो वज्रश्रृंखलायै स्वाहा ४. ऊँ नमो वज्रांकुश्यै स्वाहा ५. ऊँ नमोऽप्रतिचक्रायै स्वाहा ६. ऊँ नमः पुरुषदत्तायै स्वाहा ७. ऊँ नमः काल्यै स्वाहा ८. ऊँ नमो महाकाल्यै स्वाहा ६. ऊँ नमो गौर्यै स्वाहा १०. ऊँ नमो गन्धायै स्वाहा ११. ऊँ नमो महाज्वालायै स्वाहा १२. ऊँ नमो मानव्यै स्वाहा १३. ऊँ नमोऽछुप्तायै स्वाहा १४. ऊँ नमो वैरोट्यायै स्वाहा १५. ऊँ नमो मानस्यै स्वाहा १६. ॐ नमो महामानस्यै स्वाहा।
उसके बाद पुनः बाहर की तरफ परिधि बनाकर चौबीस पंखुडियाँ बनाएं, उन पंखुड़ियों में निम्न मंत्रानुसार क्रमशः चौबीस भवनवासी लोकान्तिकादि देवों की स्थापना करें -
१. ऊँ नमः सारस्वतेभ्यः स्वाहा २. ऊँ नमः आदित्येभ्यः स्वाहा ३. ॐ नमः वह्निभ्यः स्वाहा . ४. ऊँ नमः वरुणेभ्यः स्वाहा ५. ऊँ नमः गईतोयेभ्यः स्वाहा ६. ऊँ नमस्तुषितेभ्यः स्वाहा ७. ॐ नमोऽव्याबाधितेभ्यः स्वाहा ८. ऊँ नमोरिष्टेभ्यः स्वाहा ६. ऊँ नमोग्न्यायेभ्यः स्वाहा १०. ऊँ नमः सूर्यायेभ्यः स्वाहा ११. ॐ नमश्चन्द्रायेभ्यः स्वाहा १२. ऊँ नमः सत्यायेभ्यः स्वाहा १३. ऊँ नमः श्रेयस्करेभ्यः स्वाहा १४. ऊँ नमः क्षेमंकरेभ्यः स्वाहा १५. ऊँ नमः वृषभेभ्यः स्वाहा १६. ॐ नमः कामचारेभ्यः स्वाहा १७. ऊँ नमः
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आचारदिनकर (खण्ड- ३)
निर्वाणेभ्यः स्वाहा १८. ॐ नमः दिशान्तरक्षितेभ्यः स्वाहा नमः आत्मरक्षितेभ्यः स्वाहा २०. ॐ नमः सर्वरक्षितेभ्यः स्वाहा ॐ नमः मारुतेभ्यः स्वाहा २२. ॐ नमः वसुभ्यः स्वाहा नमोऽश्वेभ्यः स्वाहा २४. ॐ नमः विश्वेभ्यः स्वाहा ।
पुनः बाहर की तरफ एक परिधि बनाएं और उसमें चौसठ पंखुड़ी बनाकर अनुक्रम से निम्न मंत्रपूर्वक चौसठ इन्द्रों की स्थापना करें
-
34
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
१६. ऊँ
२१. २३. ॐ
११. ऊँ
ॐ नमः
१५. ऊँ
१७. ॐ
१. ॐ नमः चमराय स्वाहा २. ॐ नमः बलये स्वाहा ३. ॐ नमः धरणाय स्वाहा ४. ॐ नमः भूतानन्दाय स्वाहा ५. ऊँ नमः वेणुदेवाय स्वाहा ६. ऊँ नमः वेणुदारिणे स्वाहा ७. ऊँ नमः हरिकान्ताय स्वाहा ऊँ नमः हरिसहाय ८. स्वाहा ६. ऊँ नमोऽग्निशिखाय स्वाहा १०. ॐ नमोऽग्निमानवाय स्वाहा नमः पुण्याय स्वाहा १२. ऊँ नमः वशिष्ठाय स्वाहा १३. जलकान्ताय स्वाहा १४. ॐ नमः जलप्रभाय स्वाहा नमोऽतिगतये स्वाहा १६. ॐ नमो मितवाहनाय स्वाहा नमो वेलंबाय स्वाहा १८. ॐ नमो प्रभंजनाय स्वाहा १६. ऊँ नमः घोषाय स्वाहा २०. ॐ नमः महाघोषाय स्वाहा २१. ॐ नमः कालाय स्वाहा २२. ॐ नमः महाकालाय स्वाहा २३. ऊँ नमः सुरूपाय स्वाहा २४. ॐ नमः प्रतिरूपाय स्वाहा २५. ॐ नमः पूर्णभद्राय स्वाहा २६. ऊँ नमः मणिभद्राय स्वाहा २७. ऊँ नमो भीमाय स्वाहा २८. ॐ नमो महाभीमाय स्वाहा २६. ॐ नमः किंनराय स्वाहा नमः किंषुरुषाय स्वाहा ३१. ॐ नमः सत्पुरुषाय स्वाहा नमः महापुरुषाय स्वाहा ३३. ॐ नमोऽहिकायाय स्वाहा नमः महाकायाय स्वाहा ३५. ॐ नमः गीतरतये स्वाहा गीतयशसे स्वाहा ३७. ॐ नमः संनिहिताय स्वाहा ३८. ॐ नमः महाकायाय स्वाहा ३६. ऊँ नमः धात्रे स्वाहा ४०. ॐ नमः विधात्रे स्वाहा ४१. ॐ नमः ऋषये स्वाहा ४२. ॐ नमः ऋषिपालाय स्वाहा ४३. ऊँ नमः ईश्वराय स्वाहा ४४. ॐ नमो महेश्वराय स्वाहा ४५. ॐ नमः सुवक्षसे स्वाहा ४६. ॐ नमो विशालाय स्वाहा ४७. ॐ नमो हासाय स्वाहा ४८. ॐ नमो हासरतये स्वाहा ४६. ॐ नमः
३०. ॐ
३२. ॐ ३४. ॐ ३६. ॐ नमः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 35 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान श्वेताय स्वाहा ५०. ऊँ नमो महाश्वेताय स्वाहा ५१. ऊँ नमः पतंगाय स्वाहा ५२. ऊँ नमः पतंगरतये स्वाहा ५३. ऊँ नमः सूर्याय स्वाहा ५४. ॐ नमश्चन्द्राय स्वाहा ५५. ऊँ नमः सौधर्मेन्द्राय स्वाहा ५६. ऊँ नमः ईशानेन्द्राय स्वाहा ५७. ऊँ नमः सनत्कुमारेन्द्राय स्वाहा ५८. ऊँ नमो माहेन्द्राय स्वाहा ५६. ऊँ नमो ब्रह्मेन्द्राय स्वाहा ६०. ऊँ नमो लान्तकेन्द्राय स्वाहा ६१. ॐ नमः शुक्रेन्द्राय स्वाहा ६२. ऊँ नमः सहस्त्रारेन्द्राय स्वाहा ६३. ऊँ नमः आनतप्राणतेन्द्राय स्वाहा ६४. ऊँ नमः आरणाच्युतेन्द्राय स्वाहा।
पुनः बाहर की तरफ एक परिधि बनाएं और उसमें चौसठ पंखुड़ी बनाकर अनुक्रम से निम्न मंत्रपूर्वक चौसठ इन्द्राणियों की स्थापना करें -
१. ॐ नमश्चमरदेवीभ्यः स्वाहा २. ऊँ नमः बलिदेवीभ्यः स्वाहा ३. ऊँ नमः धरणदेवीभ्यः स्वाहा ४. ऊँ नमः भूतानन्ददेवीभ्यः स्वाहा ५. ऊँ नमः वेणुदेवदेवीभ्यः स्वाहा ६. ऊँ नमः वेणुदारिदेवीभ्यः स्वाहा ७. ऊँ नमः हरिकान्तदेवीभ्यः स्वाहा ८. ऊँ नमः हरिसहदेवीभ्यः स्वाहा ६. ऊँ नमोऽग्निशिखदेवीभ्यः स्वाहा १०. ऊँ नमोऽग्निमानवदेवीभ्यः स्वाहा ११. ॐ नमः पूर्णदेवीभ्यः स्वाहा १२. ऊँ नमो वशिष्ठदेवीभ्यः स्वाहा १३. ऊँ नमो जलकान्तदेवीभ्यः स्वाहा १४. ऊँ नमः जलप्रभदेवीभ्यः स्वाहा १५. ॐ नमोऽमितगतिदेवीभ्यः स्वाहा १६. ऊँ नमोऽमितवाहनदेवीभ्यः स्वाहा १७. ऊँ नमो वेलम्बदेवीभ्यः स्वाहा १८. ऊँ नमो प्रभंजनदेवीभ्यः स्वाहा १६. ऊँ नमो घोषदेवीभ्यः स्वाहा । २०. ऊँ नमः महाघोषदेवीभ्यः स्वाहा २१. ऊँ नमः कालदेवीभ्यः स्वाहा २२. ॐ नमः महाकालदेवीभ्यः स्वाहा २३. ऊँ नमः सुरूपदेवीभ्यः स्वाहा २४. ऊँ नमः प्रतिरूपदेवीभ्यः स्वाहा २५. ऊँ नमः पूर्णभद्रदेवीभ्यः स्वाहा २६. ऊँ नमः मणिभद्रदेवीभ्यः स्वाहा २७. ॐ नमो भीमदेवीभ्यः स्वाहा २८. ऊँ नमो महाभीमदेवीभ्यः स्वाहा २६. ऊँ नमः किंनरदेवीभ्यः स्वाहा ३०. ऊँ नमः किंपुरुषदेवीभ्यः स्वाहा ३१. ॐ नमः सत्पुरुषदेवीभ्यः स्वाहा ३२. ऊँ नमः महापुरुषदेवीभ्यः स्वाहा ३३. ऊँ नमोऽहिकायदेवीभ्यः स्वाहा ३४. ऊँ नमः महाकायदेवीभ्यः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 36 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान स्वाहा ३५. ऊँ नमः गीतरतिदेवीभ्यः स्वाहा ३६. ऊँ नमः गीतयशोदेवीभ्यः स्वाहा ३७. ऊँ नमः संनिहितदेवीभ्यः स्वाहा ३८. ऊँ नमः सन्मानदेवीभ्यः स्वाहा ३६. ॐ नमः धातृदेवीभ्यः स्वाहा ४०. ऊँ नमः विधातृदेवीभ्यः स्वाहा ४१. ऊँ नमः ऋषिदेवीभ्यः स्वाहा ४२. ऊँ नमः ऋषिपालदेवीभ्यः स्वाहा ४३. ऊँ नमः ईश्वरदेवीभ्यः स्वाहा ४४. ऊँ नमो महेश्वरदेवीभ्यः स्वाहा ४५. ॐ नमः सुवक्षोदेवीभ्यः स्वाहा '४६. ऊँ नमो विशालदेवीभ्यः स्वाहा ४७. ॐ नमो हासदेवीभ्यः स्वाहा ४८. ऊँ नमो हासरतिदेवीभ्यः स्वाहा ४६. ऊँ नमः श्वेतदेवीभ्यः स्वाहा ५०. ॐ नमो महाश्वेतदेवीभ्यः स्वाहा ५१. ऊँ नमः पतंगदेवीभ्यः स्वाहा ५२. ऊँ नमः पतंगरतिदेवीभ्यः स्वाहा ५३. ऊँ नमः सूर्यदेवीभ्यः स्वाहा ५४. ॐ नमश्चन्द्रदेवीभ्यः स्वाहा ५५. ऊँ नमः सौधर्मेन्द्रदेवीभ्यः स्वाहा ५६. ऊँ नमः ईशानेन्द्रदेवीभ्यः स्वाहा ५७. ऊँ नमः सनत्कुमारेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ५८. ऊँ नमो माहेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ५६. ॐ नमो ब्रह्मेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ६०. ॐ नमो लान्तकेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ६१. ऊँ नमः शुक्रेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ६२. ऊँ नमः सहस्त्रारेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ६३. ऊँ नमः आनतप्राणतेन्द्रपरिजनाय स्वाहा ६४. ऊँ नमः आरणाच्युतेन्द्रपरिजनाय स्वाहा।
पुनः बाहर की तरफ एक परिधि बनाएं और उसमें चौबीस पंखुड़ी बनाकर अनुक्रम से निम्न मंत्रपूर्वक वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के यक्षों की स्थापना करें -
१. ऊँ नमो गोमुखाय स्वाहा २. ऊँ नमो महायक्षाय स्वाहा ३. ऊँ नमस्त्रिमुखाय स्वाहा ४. ऊँ नमो यक्षनायकाय स्वाहा ५. ॐ नमस्तुम्बरवे स्वाहा ६. ऊँ नमः कुसुमाय स्वाहा ७. ऊँ नमो मातंगाय स्वाहा ८. ऊँ नमो विजयाय स्वाहा ६. ऊँ नमोऽजिताय स्वाहा १०. ऊँ नमो ब्रह्मणे स्वाहा ११. ऊँ नमो यक्षाय स्वाहा १२. ॐ नमः कुमाराय स्वाहा १३. ॐ नमः षण्मुखाय स्वाहा १४. ऊँ नमः पातालाय स्वाहा १५. ॐ नमो किन्नराय स्वाहा १६. ऊँ नमो गरुडाय स्वाहा १७. ऊँ नमो गन्धर्वाय स्वाहा १८. ॐ नमो यक्षेशाय स्वाहा १६ ॐ नमः कुबेराय स्वाहा २०. ऊँ नमो वरुणाय स्वाहा २१. ॐ
आरणाच्युतः बाहर की तरफनम्न मंत्रपूर्वक वत'
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 37 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान नमो भृकुटये स्वाहा २२. ॐ नमो गोमेधाय स्वाहा २३. ऊँ नमः पार्वाय स्वाहा २४. ऊँ नमो मातंगाय स्वाहा।
पुनः बाहर की तरफ एक परिधि बनाएं और उसमें चौबीस पंखुड़ी बनाकर अनुक्रम से निम्न मंत्रपूर्वक वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों की यक्षिणियों की स्थापना करें -
१. ॐ नमश्चक्रेश्वर्यै स्वाहा २. ऊँ नमोऽजितबलायै स्वाहा ३. ऊँ नमो दुरितारये स्वाहा ४. ऊँ नमः कालिकायै स्वाहा ५. ऊँ नमो महाकालिकायै स्वाहा ६. ऊँ नमः श्यामायै स्वाहा ७. ऊँ नमः शान्तायै स्वाहा ८. ऊँ नमो भृकुटये स्वाहा ६. ऊँ नमः सुतारिकायै स्वाहा १०. ॐ नमोऽशोकायै स्वाहा ११. ॐ नमो मानव्यै स्वाहा १२. ॐ नमः नमश्चण्डायै स्वाहा १३. ऊँ नमो विदितायै स्वाहा १४. ऊँ नमः अंकुशायै स्वाहा १५. ऊँ नमो कन्दर्पायै स्वाहा १६. ॐ नमो निर्वाण्यै स्वाहा १७. ऊँ नमो बलायै स्वाहा १८. ऊँ नमो धारिण्यै स्वाहा १६. ऊँ नमो धरणप्रियायै स्वाहा २०. ऊँ नमो नरदत्तायै स्वाहा २१. ऊँ नमो गान्धायै स्वाहा २२. ऊँ नमोम्बिकायै स्वाहा २३. ऊँ नमः पद्मावत्यै स्वाहा २४. ऊँ नमः सिद्धायिकायै स्वाहा।
तत्पश्चात् बाहर की तरफ परिधि बनाएं। उसमें दस पंखुड़ियाँ बनाकर निम्न मंत्रपूर्वक क्रमशः दस दिक्पालों की स्थापना करें -
१. ॐ नमः इन्द्राय स्वाहा २. ऊँ नमः अग्नये स्वाहा ३. ऊँ नमो नागेभ्य स्वाहा ४. ऊँ नमः यमाय स्वाहा ५. ऊँ नमः नैर्ऋतये स्वाहा ६. ऊँ नमो वरुणाय स्वाहा ७. ऊँ नमो वायवे स्वाहा ८. ऊँ नमः कुबेराय स्वाहा ६. ऊँ नमः ईशानाय स्वाहा १०. ऊँ नमो ब्रह्मणे स्वाहा।
पुनः उसके ऊपर परिधि बनाएं। उसमें दस पंखुड़ियाँ बनाकर निम्न मंत्रपूर्वक क्रमशः नवग्रहसहित क्षेत्रपाल की स्थापना करें -
१. ऊँ नमः सूर्याय स्वाहा २. ॐ नमश्चन्द्राय स्वाहा ३. ॐ नमो भौमाय स्वाहा ४. ऊँ नमो बुधाय स्वाहा ५. ऊँ नमो गुरवे स्वाहा ६. ॐ नमः शुक्राय स्वाहा ७. ॐ नमः शनैश्चराय स्वाहा
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
38 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
८. ॐ नमो राहवे स्वाहा ६. ॐ नमः केतवे स्वाहा १०. ऊँ नमः
क्षेत्रपालाय स्वाहा ।
उसके बाद एक परिधि बनाएं, फिर बाहर की तरफ चतुः कोण से युक्त भूमिपुर बनाएं और उसके चारों कोणों पर लाल रंग के चार-चार वज्र के आकार बनाएं और उनके मध्य में निम्न मंत्रपूर्वक चार विदिशाओं में चार प्रकार के देवों की स्थापना करें
ॐ नमो वैमानिकेभ्यः स्वाहा
ईशानकोण में आग्नेयकोण में नैर्ऋत्यकोण में
ऊँ नमो भुवनपतिभ्यः स्वाहा
ॐ नमो व्यन्तरेभ्यः स्वाहा ॐ नमो ज्योतिष्केभ्यः स्वाहा
वायव्यकोण में
इस प्रकार नंद्यावर्त्तमण्डल की स्थापना की जाती है। अब इसकी पूजा-विधि बताते हैं -
सर्वप्रथम निम्न छंदपूर्वक नंद्यावर्त्त के ऊपर कुसुमांजलि अर्पण
करें
“कल्याणवल्लीकन्दाय कृतानन्दाय साधुषु ।
-
निम्न छंद बोलें
इसी प्रकार निम्न मंत्रपूर्वक क्रमशः अर्घ देकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत एवं नैवेद्य अर्पित करें -
"ॐ नमः सर्वतीर्थकरेभ्यः सर्वगतेभ्यः सर्वविद्भ्यः सर्वदर्शिभ्यः सर्वहितेभ्यः सर्वदेभ्यः इह नंद्यावर्त स्थापनायां स्थिताः सातिशयाः साप्रतिहार्याः सवचनगुणाः सज्ञानाः ससंघाः सदेवासुरनराः प्रसीदन्तु इदमर्घ्य गृहूणन्तु - गृहूणन्तु गन्धं गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, पुष्पं गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, धूपं गृह्णन्तु - गृहूणन्तु, दीपं गृहूणन्तु - गृहूणन्तु, अक्षतान् गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, नैवेद्यं गृहूणन्तु - गृहूणन्तु स्वाहा । "
निम्न छंद से सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र एवं वाग्देवता ( श्रुतदेवता ) पर पुष्पांजलि चढ़ाएं
"सौधर्माधिप शक्र प्रधान चेशाननाथ जनवरद ।
-
सदाशुभविवर्त्ताय नंद्यावर्ताय ते नमः ।। "
भगवति वाग्देवि शिवं यूयं रचयध्वमासन्नम्।।“ तत्पश्चात् नंद्यावर्त्त के दाईं ओर स्थित सौधर्मेन्द्र की स्तुति हेतु
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 39 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“उद्वृत्तासुरकोटिकूटघटनासंघट्टसंहारणः स्फारः स्फूर्जितवज्रसज्जिकरः शच्यंगसंगातिमुत्।।
__ क्लृप्तानेकवितानसंततिपराभूताघविस्फूर्जित श्रीतीर्थंकरपूजनेत्र भवतु श्रीमान् हरिः सिद्धये।।"
तथा निम्न मंत्रपूर्वक सौधर्मेन्द्रदेव का आह्वान करें, उनकी स्थापना करें एवं उन्हें जल, गन्ध, पुष्प, अक्षत, फल, धूप, दीप, नैवेद्य अर्पण करें और अर्घ दें -
___“ॐ नमः सौधर्मेन्द्राय तप्तकांचनवर्णाय सहस्राक्षाय पाकपुलोमजम्भविध्वंसनाय शचीकान्ताय वज्रहस्ताय द्वात्रिंशल्लक्षविमानाधिपतये पूर्वदिगधीशाय सामानिकपार्षद्यत्रयस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकलौकान्तिकाभियोगिककैल्बिषिकयुतः स्वदेवीतद्देवीयुतः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चरूं गृहाण-गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा। तत्पश्चात् बोलें “जल गृहाण-गृहाण स्वाहा, गन्धं गृहाण-गृहाण स्वाहा, पुष्पं गृहाण-गृहाण स्वाहा, अक्षतान् गृहाण-गृहाण स्वाहा, फलानि गृहाण-गृहाण स्वाहा, धूपं गृहाण-गृहाण स्वाहा, दीपं गृहाण-गृहाण स्वाहा, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण स्वाहा, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण स्वाहा ।
तत्पश्चात् इसी प्रकार क्रमशः निम्न छंद एवं मंत्रपूर्वक ईशानेन्द्रदेव एवं सरस्वती देवी का आह्वान करें, उनकी स्थापना करें एवं जल, गन्ध, पुष्प, अक्षत, फल, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करें और अर्घ दें -
ईशानेन्द्र की पूजा के लिए -
छंद - "शूलालकृतहस्तशस्तकरणश्रीभूषितप्रोल्लसदेवरातिसमूहसंहृतिपरः त्विनिर्जितागेश्वरः ।।
ईशानेन्द्रजिनाभिषेकसमये धर्मार्थसंपूजितः प्रीतिं यच्छ समस्तपातकहरां विध्नौघविच्छेदनात्।।"
___ मंत्र - “ॐ नमः ईशानेन्द्राय स्फटिकोज्वलाय शूलहस्ताय यज्ञविध्वंसनाय अष्टाविंशतिलक्षविमानाधिनाथाय सामानिकपार्षद्यत्रयस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकलौकान्तिकाभियोगिककैल्बिषिकयुतः स्वदेवीतद्देवीयुतः ...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
सरस्वतीदेवी की पूजा के लिए
संधिवर्षण छंद समुच्चये ।
40 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
‘“जनतान्धकारहरणार्कसंनिभे गुणसंतति प्रथनवाक्
श्रुतदेवतेऽत्र जिनराजपूजने कुमतिर्विनाशय कुरुष्व वांछितम् ।।“ मंत्र - "ॐ ह्रीं श्रीं भगवती वाग्देवते वीणापुस्तकमौक्तिकाक्षवलयश्वेताब्जमण्डितकरे शशधरनिकरगौरि हंसवाहने इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ - आगच्छ...... शेष पूर्ववत् बोलें ।"
-
तत्पश्चात् प्रथम वलय में स्थित अरिहंत आदि पर निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि चढ़ाएं
“ अर्हन्त ईशाः सकलाश्च सिद्धा आचार्यवर्या अपि पाठकेन्द्राः । मुनीश्वराः सर्वसमीहितानि कुर्वन्तु रत्नत्रययुक्ति
भाजः ।। "
इसके बाद निम्न छंद एवं मंत्रपूर्वक क्रमशः अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र - पदों का आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें
अरिहंतपद की पूजा हेतु
छंद “विश्वाग्रस्थितिशालिनः समुदया संयुक्तसन्मानसा नानारूपविचित्रचित्रचरिताः संत्रासितांतर्द्विषः ।
सर्वाध्वप्रतिभासनैककुशलाः सर्वैर्नताः सर्वदाः सर्वदाः श्री
गृहूणन्तु - गृहूणन्तु गृहूणन्तु - गृहूणन्तु गृहूणन्तु - गृहूणन्तु स्वाहा, गृहूणन्तु - गृह्णन्तु स्वाहा,
—
-
मत्तीर्थकरा भवन्तु भविनां व्यामोहविच्छित्तये।" मंत्र – “ ॐ नमो भगवद्भयोर्हद्भ्यः सुरासुरनरपूजितेभ्यस्त्रिलोकनायकेभ्योऽष्टकर्मनिर्मुक्तेभ्योऽष्टादशदोषरहितेभ्यः चतुस्त्रिंशदतिशययुक्तेभ्यः पंचत्रिंशद्वचनगुणसहितेभ्यः भगवन्तोर्हन्तः सर्वविदः सर्वगा इहप्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ आगच्छ इदमर्थ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहूणन्तु - गृहूणन्तु संनिहिता भवन्तु स्वाहा, जलं गृहूणन्तु - गृहूणन्तु स्वाहा, गन्धं गृह्णन्तु - गृहूणन्तु स्वाहा, फलानि गृहूणन्तु गृहूणन्तु स्वाहा, धूपं गृहूणन्तु- गृहूणन्तु स्वाहा, नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृह्णन्तु - गृह्णन्तु स्वाहा, शान्तिं
स्वाहा, अक्षतान् स्वाहा, मुद्रां
दीपं
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 41 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु स्वाहा, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितं कुर्वन्तु स्वाहा।"
सिद्धपद की पूजा के लिए - छंद - “यद्दीर्घकालसुनिकाचितबन्धबद्धमष्टात्मकं विषमचारमभेद्यकर्म ।
तत्संनिहत्य परमं पदमापि यैस्ते सिद्धा दिशन्तु महतीमिह कार्यसिद्धिम् ।। मंत्र - “ॐ नमः सिद्धेभ्योऽशरीरेभ्योव्यगतकर्मबन्धनेभ्यश्चिदानन्दमयेभ्योऽनन्तवीर्येभ्यो भगवन्तः सिद्धाः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं .... शेष पूर्ववत् बोलें।"
आचार्यपद की पूजा के लिए - छंद - “विश्वस्मिन्नपि विष्टपे दिनकरीभूतं महातेजसा पैरर्हद्भिरितेषु तेषु नियतं मोहान्धकारं महत्।
जातं तत्र च दीपतामविकलां प्रापुः प्रकाशोद्गमादाचार्याः प्रथयन्तु ते तनुभृतामात्मप्रबोधोदयम् ।। मंत्र - “ॐ नमः आचार्येभ्यो विश्वप्रकाशकेभ्यो द्वादशांगगणिपिटकधारिभ्यः पंचाचाररतेभ्यो भगवन्त आचार्याः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमर्थ्य ..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
उपाध्यायपद की पूजा के लिए - छंद - “पाषाणतुल्योपि नरो यदीयप्रसादलेशाल्लभते सपर्याम् ।
जगद्धितः पाठकसंचयः सकल्याणमालां वितनोत्वभीक्ष्णम् ।। मंत्र - “ॐ नमः उपाध्यायेभ्यो निरन्तरद्वादशांगपठनपाठनरतेभ्यः सर्वजन्तुहितेभ्यः दयामयेभ्यो भगवन्त उपाध्याया इह प्रतिष्ठा महोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं.... शेष पूर्ववत् बोलें।"
साधुपद की पूजा के लिए - छंद - “संसारनीरधिमवेत्य दुरन्तमेव यैः संयमाख्यवहनं प्रतिपन्नमाशु।
ते साधकाः शिवपदस्य जिनाभिषेके साधुव्रजा विरचयन्तु महाप्रबोधम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः सर्वसाधुभ्यो मोक्षमार्गसाधकेभ्यः शान्तेभ्योऽष्टादशसहनशीलांगधारिभ्यः पंचमहाव्रतनिष्ठितेभ्यः परमहितेभ्यो भगवन्तः साधवः इह प्रतिष्ठा.... शेष पूर्ववत् बोलें।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 42 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
ज्ञानपद की पूजा के लिए - छंद - “कृत्याकृत्ये भवशिवपदे पापपुण्ये यदीयप्राप्त्या जीवाः सुषमविषमा विन्दते सर्वथैव । तत्पंचांग प्रकृतिनिचयैरप्यसंख्यैर्विभिन्नं ज्ञानं भूयात् परमतिमिरव्रातविध्वंसनाय । मंत्र - “ॐ नमो ज्ञानायानन्ताय लोकालोकप्रकाशकाय निर्मलायाप्रतिपातिने सप्ततत्त्वनिरूपणाय भगवन् ज्ञान इह प्रतिष्ठा महोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृहाण-गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा जलं गृहाण-गृहाण गंधं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, अक्षतान् गृहाण-गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुरु-कुरु, तुष्टिं कुरु-कुरु, पुष्टिं कुरु-कुरु, ऋद्धिं कुरु-कुरु, वृद्धिं कुरु-कुरु, सर्वसमीहितानि कुरु-कुरु स्वाहा।'
दर्शनपद की पूजा के लिए - छंद - "अविरतिविरतिभ्यां जातखेदस्य जन्तोर्भवति यदि विनष्टं मोक्षमार्गप्रदायि।
___ भवतु विमलरूपं दर्शनं तन्निरस्ताखिलकुमतविषादं देहिनां बोधिभाजाम् ।। मंत्र - “ॐ नमो दर्शनाय मुक्तिमार्गप्रापणाय निष्पापाय निर्बन्धनाय निरंजनाय निलेपाय भगवद्दर्शन इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
चारित्रपद की पूजा के लिए - छंद - “गुणपरिचयं कीर्ति शुभ्रां प्रतापमखण्डितं दिशति यदिहामुत्र स्वर्गं शिवं च सुदुर्लभम्।
तदममलं कुर्याच्चित्तं सतां चरणं सदा जिनपरिवृद्वैरप्याचीर्णं जगत्स्थितिहेतवे।। मंत्र - ऊँ नमः चारित्राय विश्वत्रयपवित्राय निर्मलाय स्वर्गमोक्षप्रदाय वांछितार्थप्रदाय भगवंश्चारित्र इह प्रतिष्ठा....... शेष पूर्ववत् बोलें।"
___ अब दूसरे वलय में निम्न छंदपूर्वक चौबीस तीर्थंकरों की माताओं को पुष्पांजलि अर्पित करें।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 43 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - “महादयामयहृदः श्रीतीर्थंकरमातरः।
प्रसन्नाः सर्वसंघस्य वांछितं ददतां परम् ।।" तत्पश्चात् द्वितीय वलय में स्थित चौबीस तीर्थंकरों की माताओं का क्रमशः निम्न छंद एवं मंत्र से आह्वान, संनिधान एवं द्रव्य-पूजन करें -
मरूदेवीमाता के लिए - छंद - "इक्ष्वाकुभूमिसंभूता नाभिवामांगसंस्थिता।
जननी जगदीशस्य मरुदेवास्तु नः श्रिये ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीमरुदैव्यै नाभिपत्नयै श्रीमदादिदेवजनन्यै विश्वहितायै करुणात्मिकायै आदिसिद्धायै भगवति श्रीमरुदेवि इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चरूं गृहाण-गृहाण संनिहिता भव स्वाहा, जलं गृहाण-गृहाण, गन्धं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, अक्षतान् गृहाण-गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुरु-कुरु, तुष्टिं कुरु-कुरु, पुष्टिं कुरु-कुरु, ऋद्धिं कुरु-कुरु, वृद्धिं कुरु-कुरु, सर्वसमीहितानि कुरु-कुरु स्वाहा ।।"
विजयामाता की पूजा के लिए - छंद - “अयोध्यापुरसंसक्ता जिनशत्रनृपप्रिया।
विजया विजयं दद्याज्जिनपूजामहोत्सवे।।' मंत्र - “ॐ नमः श्री विजयायै श्री अजित स्वामिजनन्यै भगवति श्री विजये इह प्रति...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
सेनामाता की पूजा के लिए - छंद - "श्रावस्तीरचितावास जितारिहृदयप्रिया।
सेना सेनां परां हन्यात्सदा दुष्टाष्टकर्मणाम् ।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्री सेनायै श्री संभवस्वामिजनन्यै भगवति श्री सेने इह प्रति.... शेष पूर्ववत् बोलें।
सिद्धार्थामाता की पूजा के लिए - छंद - “विनीताकृतवासायै प्रियायै संवरस्य च।
नमः सर्वार्थसिद्ध्यर्थं सिद्धार्थायै निरन्तरम् ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड- ३)
44 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मंत्र
“ॐ नमः श्री सिद्धार्थायै श्रीमदभिनन्दनस्वामिजनन्यै
भगवति श्री सिद्धार्थे इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् बोलें ।" सुमंगलामाता की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
"कोशला कुशलं धात्री मेघप्रमददायिनी । सुमंगला मंगलानि कुरुताज्जिनपूजने । । " “ॐ नमः श्रीसुमंगलायै सुमतिस्वामिजनन्यै भगवति श्रीसुमंगले इह प्रति.... शेष पूर्ववत् बोलें।" सुसीमामाता की पूजा के लिए -
छंद
मंत्र
सुसीमे इह प्रति
छंद
पृथ्वीमाता की पूजा के लिए
" धरधाराधरे विद्युत्कोशाम्बीकुशलप्रदा । सुसीमा गतसीमानं प्रसादं यच्छतु ध्रुवम् ।। " “ॐ नमः श्री सुसीमायै श्रीपद्मप्रभस्वामिजनन्यै भगवति शेष पूर्ववत् बोलें।"
-
“वाणारसीरसाधात्रीप्रतिष्ठे सुप्रतिष्ठिता ।
मंत्र
पृथ्वी पृथ्वीं मतिं कुर्यात् प्रतिष्ठादिषु कर्मसु ।। " “ॐ नमः श्री पृथ्व्यै श्री सुपार्श्वस्वामिजनन्यै भगवति श्री पृथ्वि इह प्रति..... शेष पूर्ववत् बोलें । " लक्ष्मणमाता की पूजा के लिए “देविचन्द्रपुरीवासे महसेननृपप्रिये ।
छंद
लक्ष्मणे लक्ष्मनिर्मुक्तं सज्ज्ञानं यच्छ साधुषु ।।" मंत्र “ॐ नमः श्री लक्ष्मणायै श्रीचन्द्रप्रभस्वामिजनन्यै भगवति लक्ष्मणे इह..... शेष पूर्ववत् बोलें।" रामामाता की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
रामे इह प्रति..... शेष पूर्ववत् बोलें ।" नन्दामाता की पूजा के लिए
छंद
"काकन्दीसुन्दरावासे सुग्रीव श्रीबलप्रदे । रामेऽभिरामां मे बुद्धिं चिदानन्दे प्रदीयताम् ।। " “ॐ नमः श्री रामायै श्री सुविधिस्वामिजनन्यै भगवति
“भद्रिलाभद्रशमने श्रीमद्दढरथप्रिये । नन्दे मे परमानन्दं प्रयच्छ जिनपूजने । । "
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आचारदिनकर (खण्ड- -3)
45 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मंत्र
ॐ नमः श्रीनन्दायै शीतल स्वामिजनन्यै भगवति श्री नन्दे इह प्रतिष्ठा....... शेष पूर्ववत बोलें ।" विष्णुमाता की पूजा के लिए -
छंद
मंत्र
"कृतसिंहपुरावासा विष्णुर्विष्णुहृदि स्थिता । वेवेष्टु भविनां चित्तमहानन्दाध्वसिद्धये ।।" "ॐ नमः श्री विष्णवे श्री श्रेयांसस्वामिजनन्यै भगवति श्रीविष्णो इह प्रतिष्टा.... शेष पूर्ववत बोलें । " जयामाता की पूजा के लिए “चंपानिष्कम्पताकृत्ये वसुपूज्यप्रमोददे । जये जयं षडंगस्यारिषड्वर्गस्य दीयताम् ।। "
छंद
मंत्र
“ॐ नमः श्री जयायै वासुपूज्यस्वामिजनन्यै भगवति जये इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें ।" श्यामामाता की पूजा के लिए “कांपीलपुरसंवासा कृतवर्मकृतादरा ।
छंद
मंत्र
श्यामा क्षामां विदध्यान्मे मतिं दुष्टत्वशालिनीम्।।“ “ॐ नमः श्री श्यामायै श्रीविमलस्वामिजनन्यै भगवति श्री श्यामे इह प्रतिष्ठा... शेष पूर्ववत् बोलें।" सुयशामाता की पूजा के लिए -
छंद
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“सिंहसेनेशितुः कान्तायोध्याबोधप्रदायिनी । सुयशा यशसे भूयाद्विमलायाचलाय च।।" मंत्र “ॐ नमः श्री सुयशसे श्रीमदनन्तस्वामिजनन्यै भगवति श्री सुयशः इह प्रतिष्ठा.. शेष पूर्ववत् बोलें।" सुव्रतामाता की पूजा के लिए
छंद
" श्री मद्रत्नपुरावासा भानुदेवहृदि प्रिया । सुव्रता सुव्रते बुद्धिं करोतु परमेश्वरी ।।"
मंत्र
"ॐ नमः श्री सुव्रतायै श्रीधर्मस्वामिजनन्यै भगवति सुव्रते इह प्रतिष्ठा... शेष पूर्ववत् बोलें।" अचिरामाता की पूजा के लिए -
छंद
" हस्तिनापुरसंस्थायै दयामयपरमात्मने ।
प्रियायै विश्वसेनस्य अचिरायै चिरं नमः ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 46 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्री अचिरायै शान्तिस्वामिजनन्यै भगवति श्री अचिरे इह प्रतिष्ठा शेष पूर्ववत् बोलें।
श्रियामाता की पूजा के लिए - छंद - "हस्तिनापुरवासिन्यै प्रियायै शूरभूपतेः।
नमः श्रियै श्रियां वृद्धिकारिण्यै करुणावताम् ।।" मंत्र - “ऊँ नमः श्री श्रिये श्री कुंथुनाथजनन्यै भगवति श्रीः इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें।
श्रीदेवीमाता की पूजा के लिए - छंद - "सुदर्शनस्य कान्तायै नमो हस्तिपुरस्थिते।
तुभ्यं देविमहादेवि भृत्यकल्पद्रुमप्रभे ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्री देव्यै अरनाथजनन्यै भगवति श्री देवि इह प्रतिष्ठा....... शेष पूर्ववत् बोलें।"
प्रभावतीमाता की पूजा के लिए - छंद - "मिथिलाकृतसंस्थाना कुम्भभूपालवल्लभा।
प्रभावती प्रभावत्यै देह स्थित्यै सदास्तु नः ।।" मंत्र - “ॐ नमो भगवत्यै श्री प्रभावत्यै श्री मल्लिनाथजनन्यै भगवति श्री प्रभावति इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
पद्मामाता की पूजा के लिए - छंद - "श्री मद्राजगृहावासा सुमित्रक्ष्मापतिप्रिया।
पद्मा पद्मावबोधं नः करोतु कुलवर्द्धिनी।।" मंत्र - “ॐ नमः श्री पद्मायै श्री सुव्रतस्वामिजनन्यै भगवति श्री पद्मे इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।
वप्रामाता की पूजा के लिए - छंद - "मिथिलाकृतसंस्थाने विजयक्ष्मापवल्लभे।
वप्रे त्वं वप्रतां गच्छ क्रोधादि द्विड्भयादिषु ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्री वप्रायै नमिनाथजनन्यै भगवति श्री वप्रे इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।" ।
शिवामाता की पूजा के लिए - छंद - "श्री सौर्यपुरसंसक्ता समुद्रविजयप्रिया।
शिवा शिवं जिनार्चायां प्रददातु दयामयी।।"
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आचारदिनकर (खण्ड - ३)
47 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मंत्र
“ऊँ नमः श्री शिवायै नेमिनाथजनन्यै भगवति श्री शिवे इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।" वामामाता की पूजा के लिए
छंद
--
“वाणारसीकृतस्थाने ऽश्वसेनांगपरिष्ठिते । वामे सर्वाणि वामानि निकृन्तय जिनार्चने । ।"
मंत्र
“ॐ नमः श्री वामायै श्री पार्श्वनाथजनन्यै भगवति श्री वामे इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।" त्रिशलामाता की पूजा के लिए - 'श्रीमत्कुण्डपुरावासे सिद्धार्थनृपवल्लभे । त्रिशले कलयाजस्रं संघे सर्वत्र मंगलम् || "
छंद
"ॐ नमः श्री त्रिशलायै श्रीवर्द्धमानस्वामिजनन्यै
मंत्र भगवति श्री त्रिशले इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें । “
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक चौबीस तीर्थंकरों की माताओं की सामूहिक पूजा करें
“ॐ नमः भगवतीभ्यः सर्वजिनजननीभ्यो विश्वमातृभ्यो
((
विश्वहिताभ्यः करुणात्मिकाभ्यः सर्वदुरितनिवारणीभ्यः समस्तसंतापविच्छेदिनीभ्यः सर्ववांछितप्रदाभ्यः सर्वाशापरिपूरणीभ्यः भगवत्यो जिनजनन्यः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ आगच्छ इदमर्थ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहूणन्तु संनिहिता भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु - गृहूणन्तु, गन्धं गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, पुष्पं गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, अक्षतान् गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, फलानि गृहूणन्तु - गृहूणन्तु, मुद्रां गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृहूणन्तु, दीपं गृहूणन्तु - गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु - गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृहूणन्तु-गृहूणन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु - कुर्वन्तु सर्व समीहितानि यच्छन्तु यच्छन्तु स्वाहा । " अब तीसरे वलय में निम्न छंदपूर्वक सोलह विद्यादेवियों को पुष्पांजलि अर्पित करें -
" यासां कुलाध्वसंश्रितधियः क्षेमात्क्षणात् कुर्वते ।
षट्कर्माणि
मंत्रपदैर्विशिष्टमहिमप्रोद्भूतभूत्युत्करैः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 48 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
____ता विद्याधरवृन्दवन्दितपदा विद्यावलीसाधने विद्यादेव्य उरुप्रभावविभवं यच्छन्तु भक्तिस्पृशाम् ।।"
तत्पश्चात् क्रमशः सोलह विद्यादेवियों का निम्न छंद एवं मंत्र से आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें -
रोहिणीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "शखाक्षमालाशरचापशालिचतुःकरा कुन्दतुषारगौरा।
गोगामिनी गीतवरप्रभावा श्रीरोहिणी सिद्धिमिमां ददातु।।" मंत्र - “ऊँ ह्रीं नमः श्रीरोहिण्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीरोहिणि इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चक्रं गृहाण संनिहिता भवन्तु स्वाहा, जलं गृहाण-गृहाण, गन्धं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, अक्षतान् गृहाण-गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण,, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्व साहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा।'
प्रज्ञप्तिदेवी की पूजा के लिए - छंद - “शक्तिसरोरुहहस्ता मयूरकृतयानलीलया कलिता।
प्रज्ञप्तिर्विज्ञप्तिं श्रृणोतु नः कमलपत्राभा।।" मंत्र - “ऊँ हँसँक्लीं नमः श्रीप्रज्ञत्प्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीग्रज्ञप्ति इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें।" . वज्रश्रृंखलादेवी की पूजा के लिए - छंद - “सश्रृंखलगदाहस्ता कनकप्रभविग्रहा।
पद्मासनस्था श्रीवजश्रृंखला हन्तु न खलान् ।।" मंत्र ___- "ॐ नमः श्रीवज्रश्रृंखलायै विद्यादेव्यै भगवति श्री वज्रश्रृंखले इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
वज्राकुंशीदेवी की पूजा के लिए - छंद - “निस्त्रिंशवज्रफलकोत्तमकुन्तयुक्तहस्ता सुतप्तविलसत्कलधौतकान्तिः।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 49 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
उन्मत्तदन्तिगमना भुवनस्य विघ्नं वज्रांकुशी हरतु वज्रसमानशक्तिः ।। मंत्र ___ - "ॐ लँ लँ लँ नमः श्रीवज्रांकुशायै विद्यादेव्यै भगवति श्रीवज्रांकुशे इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
अप्रतिचक्रादेवी की पूजा के लिए - छंद - "गरुत्मत्पृष्ठ आसीना कार्तस्वरसमच्छविः।
भूयादप्रतिचक्रा नः सिद्धये चक्रधारिणी।।" मंत्र - "ॐ नमः श्रीअप्रतिचक्रायै विद्यादेव्यै भगवति श्री अप्रतिचक्रे इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें।'
पुरुषदत्तादेवी की पूजा के लिए - छंद - "खगस्फरांकितकरद्वयशासमाना मेघाभसैरिभपटुस्थितिभासमाना।
- जात्यार्जुनप्रभतनुः पुरुषाग्रदत्ता भद्रं प्रयच्छतु सतां
पुरुषाग्रदत्ता।।" मंत्र - “ॐ हं सः नमः श्रीपुरुषदत्तायै विद्यादेव्यै भगवति श्रीपुरुषदत्ते इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।" - कालीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "शरदम्बुधरप्रमुक्तचंचद्गगनतलाभतनुश्रुतिर्दयाढ्या।
विकचकमलवाहना गदाभृत् कुशलमलंकुरुतात्सदैव काली। मंत्र - “ऊँ ह्रीं नमः श्रीकालिकायै विद्यादेव्यै भगवति श्रीकालिके इह प्रतिष्ठा.... शेष पूर्ववत् बोलें।"
महाकालीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "नरवाहना शशधरोपलोज्वला रुचिराक्षसूत्रफलविस्फुरत्करा।
शुभघंटिकापविवरेण्यधारिणी भुवि कालिका शुभकरा महापरा।। मंत्र - “ऊँ हैं ये नमो महाकाल्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीमहाकालिके इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें ।'
गौरीदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 50 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद ___- “गोधासनसमासीना कुन्दकर्पूरनिर्मला।
- सहस्त्रपत्रसंयुक्तापाणिर्गौरी श्रियेस्तु नः।।" मंत्र - ॐ एँ नमः श्रीगौर्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीगौरि इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें ।'
गान्धारीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "शतपत्रस्थितचरणामुसलं वज्रं च हस्तयोर्दधती।
कमनीयांजनकान्तिर्गान्धारी गां शुभां दद्यात् ।।" मंत्र - "ॐ गं गां नमः श्रीगान्धारि विद्यादेव्यै भगवति इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें ।"
महाज्वालादेवी की पूजा के लिए - छंद - “मार्जारवाहना नित्यं ज्वालोद्भासिकरद्वया।
शशांकधवला ज्वाला देवी भद्रं ददातु नः।।" मंत्र - “ॐ क्लीं नमः श्रीमहाज्वालायै वृषवाहना विद्यादेव्यै भगवति श्रीमहाज्वाले इह प्रतिष्ठा शेष पूर्ववत् बोलें।"
मानवीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "नीलाङ्गीनीलसरोजवाहना वृक्षभासमानकरा।
मानवगणस्य सर्वस्य मंगलं मानवी दद्यात् ।।" मंत्र - "ॐ वचनमः श्रीमानव्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीमानवि इह प्रतिष्ठा...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
वैरोट्यादेवी की पूजा के लिए - छंद - “खगस्फुरत्स्फुरितवीर्यवदूर्ध्वहस्ता सद्दन्दशूकवरदापरहस्तयुग्मा।
सिंहासनाब्जमुदतारतुषारगौरा वैरोट्ययाप्यभिधयास्तु शिवाय देवी।।" मंत्र - “ऊँ जं जः नमः श्रीवैरोट्यायै विद्यादेव्यै भगवति श्रीवैरोट्ये इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
अछुप्तादेवी की पूजा के लिए - छंद - “सव्यपाणिधृतकार्मुकस्फरान्यस्फुरद्विशिखखगधारिणी।
विद्युदाभतनुरश्ववाहनाऽच्छुप्तिका भगवती ददातु शम् ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 51 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
___- "ॐ अं ऐं नमः श्रीअच्छुप्तायै विद्यादेव्यै भगवति श्रीअच्छुप्ते इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
मानसीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "हंसासनसमासीना वरदेन्द्रायुधान्विता।।
मानसी मानसीं पीडां हन्तु जाम्बूनदच्छविः ।। मंत्र - “ॐ ह्रीं अहँ नमः श्रीमानस्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीमानसि इह प्रतिष्ठा.... शेष पूर्ववत् बोलें।"
महामानसीदेवी की पूजा के लिए - छंद - "करखड्गरत्नवरदाढ्यपाणिभृच्छशिनिभा मकरगमना।
संघस्य रक्षणकरी जयति महामानसी देवी।। मंत्र - “ॐ हं हं हं सं नमः श्रीमहामानस्यै विद्यादेव्यै भगवति श्रीमहामानसि इह प्रतिष्ठा..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
उसके बाद निम्न मंत्र से सर्व विद्यादेवियों की सामूहिक पूजा करें -
“ॐ ह्यौं नमः षोडश विद्यादेवीभ्यः सायुधाभ्यः सवाहनाभ्यः सपरिकराभ्यः विघ्नहरीभ्यः शिवंकरीभ्यः भगवत्यः विद्यादेव्यः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमर्थ्य पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रा गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितानि यच्छन्तु स्वाहा।"
___अब चौथे वलय में निम्न छंदपूर्वक लोकांतिक देवों को पुष्पांजलि अर्पित करें -
“सम्यग्दृशः सुमनसो भवसप्तकान्तः संप्राप्तनिवृत्तिपथाः प्रथित प्रभावाः।
लौकान्तिका रुचिरकान्तिभृतः प्रतिष्ठाकार्ये भवन्तु विनिवारितसर्वविघ्नाः ।।
तत्पश्चात् क्रमशः चौबीस लोकान्तिक देवों का निम्न छंद एवं मंत्र से आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें -
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
सारस्वतदेव की पूजा के लिए -
छंद
मंत्र
“शुभ्रामरालगमनाः प्रियंगुपुष्पाभवसनकृतशोभाः । सारस्वता अनिमिषा जयन्ति वीणानिनादभृतः । ।“ “ऊँ नमः सारस्वतेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो सारस्वता सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छत इदमर्घ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहूणीत संनिहिता भवत - भवत स्वाहा जलं गृहूणीत गन्धं गृहूणीत पुष्पं गृह्णीत अक्षतान् गृहूणीत फलानि गृहूणीत मुद्रां गृह्णीत धूपं गृहूणीत दीपं गृहणीत नैवेद्य गृहूणीत सर्वोपचारान् गृहूणीत शांन्तिं कुरूत तुष्टिं कुरुत पुष्टिं कुरुत ऋद्धिं कुरूत वृद्धिं कुरूत सर्वसमीहिताति यच्छन्तु - यच्छन्तु स्वाहा ।
आदित्यदेव की पूजा के लिए -
छंद
मंत्र सायुधाः सवाहनाः..
छंद
मंत्र
सवाहनाः..
छंद
मंत्र
सवाहनाः
52 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“आदित्यसमशरीरकान्तयोरुणसमानवरवसनाः
वह्निदेव की पूजा के लिए
“नीलाम्बराः कपिलकान्तिधारिणश्छागवाहनासीनाः । शकटीकरा वरेण्या दहन्तु जड़तां च वह्निसुराः । ।" ॐ नमो वह्निभ्यो लौकान्तिकेभ्यो वह्नयः सायुधाः शेष पूर्ववत् । वरुणदेव की पूजा के लिए
“घनवर्णा झषगमनाः पीतसुसिचयाः स्वहस्तघृतपाशाः । वरुणा वरेण्यबुद्धिं विदधतु सर्वस्य संघस्य । । " “ॐ नमो वरुणेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो वरुणाः सायुधाः शेष पूर्ववत् बोलें ।" गर्दतोयदेव की पूजा के लिए
आदित्याः श्वेततुरंगवाहनाः कमलहस्ताश्च ।।" "ॐ नमो आदित्येभ्यो लौकान्तिकेभ्यः आदित्याः शेष पूर्ववत् बोलें।"
छंद
मंत्र शेष पूर्ववत् बोलें।"
--
-
"नीला मयूरपत्राः सुपीतवसनाश्च धान्ययुतहस्ताः । रचयन्तु गर्दतोयाः सर्वं वांछितफलं सुहृदः । । " “ॐ नमो गर्दतोयेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो गर्दतोयाः सायुधा
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 53 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
तुषितदेव की पूजा के लिए - छंद - “शशधरकरसमवर्णा हरहारसमानवसनकृतशोभाः।
हंसासनाः करयुगे सरोजसहिताः सदा तुषिताः।।" मंत्र - “ॐ नमस्तुषितेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो तुषिताः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें ।"
अव्याबाधदेव की पूजा के लिए - छंद - “नरयानस्था घृतपंचवर्णवसनाः प्रियंगुतुल्यरुचः।
अव्याबाधा वीणासनाथहस्ताः शुभं ददताम् ।।" ___ - “ॐ नमोऽव्याबाधेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो अव्याबाधाः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
अरिष्टदेव की पूजा के लिए - छंद - “श्यामाश्च शोणवसनाः कुरङ्गयानाः कुठारहस्ताश्च ।
मङ्गलकरा अरिष्टा अरिष्टघातं विरचयन्तु।।" मंत्र - “ॐ नमोऽरिष्टेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो अरिष्टाः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें।
अग्निदेव की पूजा के लिए - छंद - "अरुणा अरुणनिवसनाः पाशाङ्कुशधारिणः ससम्यक्त्वाः।
अग्न्याभाः शूकरगा निघ्नन्तु समस्तदुरितसंघातम् ।।" मंत्र - “ॐ नमोऽग्न्यायेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो अग्न्याभाः सायुधाः सवाहनाः...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
सूर्याभदेव की पूजा के लिए - छंद - "कुलिशांकितनिजहस्ताः सूर्यनिभाः शुभनिवसनकृतशोभाः ।
रचिताः स्वरथविमानाः सूर्याभा ददतु वः शौर्यम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः सूर्यायेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो सूर्याभाः सायुधाः सवाहनाः शेष पूर्ववत् बोलें।"
चन्द्राशदेव की पूजा के लिए - छंद - "चन्द्राभाश्चन्द्ररुचः क्षमाशुभाप्त्यै शुभैर्युता वसनैः।
कलशस्थाः कुमुदभृतो हरन्तु दुरितानि सर्वलोकानाम् ।।
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मंत्र
सवाहनाः.
छंद
तगमनाः ।
छंद
गजगाः ।
शुभ्राभ्रसूत्रमालां दधतो हस्तद्वये नित्यम् ।। " “ॐ नमः सत्याभेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो सत्याभाः सायुधा शेष पूर्ववत् बोलें।" श्रेयस्करदेव की पूजा के लिए
“भविषु सदा
श्रेयस्करधवलाः
शुचिनीलनिवसना
कुर्वन्तु शिवं श्रेयस्करा वरदाभयोर्जिकरद्वयाः । ।“
“ॐ नमः श्रेयस्करेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो श्रेयस्कराः सायुधाः सवाहनाः. शेष पूर्ववत् बोलें ।" क्षेमंकरदेव की पूजा के लिए -
छंद .. "पीताम्बरकायरुचः कमलधराः
धवलाढ्याः ।
मंत्र
सवाहनाः...
(खंधा)
मंत्र
सत्याभदेव की पूजा के लिए
|ण्ड-३)
54
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“ॐ नमश्चन्द्रायेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो चद्राशाः सायुधाः शेष पूर्ववत् बोलें ।
छंद
छंद
मंत्र
सवाहनाः.
“शुक्लाः शुक्लनिवसनाः सत्याभाः सत्यवृषभकृ
सुमनोमुख्याः ।। " ( खंधा)
मंत्र
सवाहनाः...
क्षेमंकरा जिनार्चनभाजः
वृषभदेव की पूजा के लिए -
क्षेमंकराः सदा
“ॐ नमः क्षेमंकरेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो क्षेमंकराः सायुधाः शेष पूर्ववत् बोलें ।"
कामचारदेव की पूजा के लिए
कमलवाहना
" दूर्वाङ्कुशांकिताभ्यां हस्ताभ्यां लक्षिताश्च मांजिष्ठाः । हरितसिगुदयरुचिरितिवृषगतिवरचरणयुगवृषभाः ।। " "ॐ नमो वृषभेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो वृषभाः सायुधाः शेष पूर्ववत् बोलें ।"
“संध्यारुचिवसना गरुडवाहनाः पंचवर्णकायरुचः । रचयन्तु कामचाराश्चक्रकरा निर्मलं चरिताम् ।। "
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 55 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः कामचारेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो कामचाराः सायुधाः सवाहनाः...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
निवार्णदेव की पूजा के लिए - छंद - "श्वेता हंसासीनाः श्वेतैर्वस्त्रैः शुभावयवपुष्टाः।
निर्वाणा निर्वाणं यच्छन्तु प्रौढशक्त्यकाः ।।" मंत्र - “ॐ नमो निर्वाणेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो निर्वाणाः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
दिगन्तरक्षितदेव की पूजा के लिए - छंद - "नीला अरुणनिवसनाः पाशच्छुरिकाकरा गरुड़गमनाः।
नित्या दिगन्तरक्षितदेवा विजयं प्रयच्छन्तु।।" मंत्र - “ॐ नमो दिगन्तरक्षितेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो दिगन्तरक्षिताः सायुधाः सवाहनाः.... शेष पूर्ववत् बोलें।'
आत्मरक्षितदेव की पूजा के लिए - छंद - “तरणीसंस्थाः कदलीदलाभवस्त्राः कपोतकायरुचः ।
वरदांभयहस्ता आत्मरक्षिताः कुशलमादधताम्।।" मंत्र - ऊँ नमः आत्मरक्षितेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो आत्मरक्षिताः सायुधाः सवाहनाः.... शेष पूर्ववत् बोलें।"
सर्वरक्षितदेव की पूजा के लिए - छंद - "कुर्कुटरथाश्च हरिताः पीताम्बरधारिणः कुलिशहस्ताः।
जिनपूजनपर्वणि सर्वरक्षिताः सन्तु संनिहिताः ।। मंत्र - "ऊँ नमः सर्वरक्षितेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो सर्वरक्षिताः सायुधाः सवाहनाः...... शेष पूर्ववत् बोलें।"
मरुतदेव की पूजा के लिए - छंद - "हरिणगमनहरिततरकरणशुकमुखनिभवसनरुचिरमरुतः।
केतूच्छ्राया नित्यं देयासुमंगलं देवाः।। (वैश्या आर्या) मंत्र - “ॐ नमो मरुतेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो मरुतः सायुधा सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें।
वुसदेव की पूजा के लिए - छंद - "विशिखधनुरुदितकरयुगलिततरसुधवलकरणवसनभृतः।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 56 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
____ कमठगतिरचितपदरचनविततिभुवनवरवस्तुनिवहम् ।। (सर्वलघुरार्या) मंत्र - “ॐ नमो वसुभ्यो लौकान्तिकेभ्यो वसवः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् बोलें।"
अश्वदेव की पूजा के लिए - छंद - “अश्वमुखाः कपिलरुचः श्वेताम्बरधारिणः सरोजकराः ।
अश्वा महिषारूढ़ा विस्त्रोतसिकां विघटयन्तु ।।" मंत्र - “ऊँ नमोऽश्वेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो अश्वाः सायुधाः सवाहनाः....... शेष पूर्ववत् बोलें।'
विश्वदेव की पूजा के लिए - छंद - “कुशदूर्वाकितहस्ताः कांचनरुचयः सिताम्बरच्छन्नाः ।
___ गजगा विश्वेदेवा लोकस्य समीहितं ददताम् ।।" मंत्र - “ॐ नमो विश्वेदेवेभ्यो लौकान्तिकेभ्यो विश्वेदेवाः सायुधा सवाहनाः....... शेष पूर्ववत् बोलें।"
___ तत्पश्चात् निम्न मंत्र से सर्व लौकान्तिक देवों की सामूहिक पूजा करें - - “ॐ नमः सर्वेभ्यो लौकान्तिकेभ्यः सम्यग्दृष्टिभ्योर्हद्भक्तेभ्यो भवाष्टकान्तः प्राप्य मुक्तिपदेभ्यः सर्वे लौकान्तिकाः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तुगृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु- कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु- कुर्वन्तु, सर्वसमीहितानि यच्छन्तु स्वाहा।
अब पाँचवें वलय में निम्न छंदपूर्वक चौसठ इन्द्रों को पुष्पांजलि अर्पित करें -
“ये तीर्थेश्वरजन्मपर्वणि समं देवाप्सरः संचयैः श्रृंगे मेरुमहीधरस्य मिमिलुः सर्वर्द्धिवृद्धिष्णवः। ते वैमानिकनागलोकगगनावासाः सुराधीश्वराः प्रत्यूहप्रतिघातकर्मणि चतुःषष्टिः समयान्त्विह ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
57 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् क्रमशः चौसठ इन्द्रों का निम्न छंद एवं मंत्र से आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें - चमरेन्द्र की पूजा के लिए -
→
छंद
मंत्र
"मेघाभो रक्तवसनश्चूडामणिविराजितः । असुराधीश्वरः क्षेमं चमरोत्र प्रयच्छतु ।। " "ॐ नमः श्रीचमराय असुरभवनपतीन्द्राय श्रीचमरेन्द्रः सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः अङ्गरक्षकसामानिकपार्षदत्रयस्त्रिंशल्लोकपालानकप्रकीर्णकाभियोगिककैल्बिषिकयुतः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छआगच्छ इदमर्थ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहाण - गृहाण संनिहितो भव स्वाहा, जलं गृहाण-गृहाण गन्धं गृहाण- गृहाण पुष्पं गृहाण-गृहाण अक्षतान् गृहाण - गृहाण फलं गृहाण - गृहाण मुद्रां गृहाण- गृहाण धूपं गृहाण - गृहाण दीपं गृहाण - गृहाण नैवेद्यं गृहाण - गृहाण सर्वोपचार गृहाण - गृहाण शान्तिं कुरू कुरू, तुष्टिं कुरू कुरू पुष्टिं कुरू कुरू ऋद्धिं कुरू कुरू वृद्धिं कुरू कुरू सर्वसमीहितानि देहि देहि स्वाहा । "
बलेन्द्र की पूजा के लिए -
छंद
“पयोदतुल्यदेहरुग् जपासुमाभवस्त्रभृत्। परिस्फुरच्छिरोमणिर्बलिः करोतु मंङ्गलम् ।।" (प्रमाणिका) "ॐ नमः श्रीबलये असुरभवनपतीन्द्राय श्रीबलीन्द्रः शेष पूर्ववत् । धरणेन्द्र की पूजा के लिए
मंत्र
सायुधः सवाहनः..
छंद
मंत्र
“स्फटिकोज्चलचारुच्छविर्नीलाम्बरभृत्फणत्रयाङ्कशिराः । नानायुधधारी धरणनागराटू पातु भव्यजनान् ।। " ( आर्या) "ॐ नमः श्रीधरणाय नागभवनपतीन्द्राय श्रीधरणेन्द्र सायुधः सवाहनः....... शेष पूर्ववत् । " भूतानन्देन्द्र की पूजा के लिए
छंद
“काशश्वेतः शौर्योपेतो नीलाच्छायो विद्युन्नादः ।
दृक्कर्णाद्यं चिह्नं
विभ्रभूतानन्दो
(विद्युन्माला) मंत्र
"ॐ नमः श्रीभूतानन्देन्द्र सायुधः सवाहनः .
श्रीभूतानन्दाय शेष पूर्ववत् ।
भूयाद्भूत्यै । ।“
नागभवनपतीन्द्राय
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 58 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
वेणुदेवेन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "हेमकान्तिर्विशुद्धिवस्त्रस्तार्क्षकेतुः प्रधानशस्त्रः।
शुद्धिचेताः सुदृष्टिरत्नं वेणुदेवः श्रियं करोतु।। (लघुमुखीछन्द) मंत्र - "ऊँ नमः श्रीवेणुदेवाय सुपर्णभवनपतीन्द्राय श्रीवेणुदेवेन्द्र सायुधः सवाहनः...... शेषं पूर्ववत्।
वेणुदारीन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “तामंधारी चामीकरप्रभः श्वेतवासा विद्रावयन्द्विषः।
देवभक्तोपि विस्फारयन् मनो वेणुदारी लक्ष्मी करोत्वलम् ।।“ (पंक्तिजाति) मंत्र - "ऊँ नमः . श्रीवेणुदारिणे सुवर्णभवनपतीन्द्राय श्रीवेणुदारीन्द्र सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
हरिकान्तेन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "रक्ताङ्गरुग् नीलवरेण्यवस्त्रः सुरेशशस्त्रध्वजराजमानः ।
___इह प्रतिष्ठासमये करोतु समीहितं श्रीहरिकान्तदेवः ।।" मंत्र - ___ “ऊँ नमः श्रीहरिकान्ताय विद्युद्भवनपतीन्द्राय श्रीहरिकान्त सायुधः सवाहनः.... शेष पूर्ववत्।
हरिसंज्ञ इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "रक्तप्रभाधः कृतपद्मरागो वज्रध्वजोत्पादितशकभीतिः ।
रम्भादलाभाद्भुतनक्तकश्रीः सहानुवादो हरिसंज्ञ इन्द्रः ।। (उपजाति) मंत्र - "ॐ नमः श्रीहरिसंज्ञाय सायुधः सवाहनः....... शेष पूर्ववत्।
____ अग्निशिखा इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “कुम्भध्वजश्चारुतरारुणश्रीः सुचङ्गदेहो हरितान्तरीयः।
भक्त्या विनम्रोऽग्निशिखो महेन्द्रो दारिद्यमुद्रां श्लथतां करोतु।।" (उपजाति) मंत्र - “ॐ नमः श्रीअग्निशिखाय अग्निभवनपतीन्द्राय श्रीअग्निशिख सायुधः सवाहनः....... शेष पूर्ववत् ।
अग्निमानव इन्द्र की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 59 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान . छंद - “अग्निमानवविभुर्घटध्वजः पद्मरागसमदेहदीधितिः।
इन्द्रनीलसमवर्णवस्त्रभो मङ्गलानि तनुताज्जिनार्चने।।" (रथोद्धता) मंत्र - “ॐ नमः श्री अग्निमानवाय अग्निभवनपतीन्द्राय श्री
अग्निमानव सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।" ... पुण्य इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “विद्रुमद्रुमजपल्लवकान्तिः क्षेमपुष्पसमचीरपरीतः।
सिंघलांछनधरः कृतपुण्योऽगण्यसद्गुणगणोस्तु स पुण्यः।।" (स्वागता) मंत्र - “ॐ नमः श्रीपुण्याय द्वीपभवनपतीन्द्राय श्रीपुण्य सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् । - वशिष्ठ इन्द्र की पूजा के लिए - . छंद - “सान्ध्यदिवाकरसमदेहः शारदगगनसमावृतवस्त्रः ।
. हरिणमृगारियुतोद्धतकेतुर्भद्रकरः प्रभुरस्तु वशिष्ठः ।। (उपचित्रा) मंत्र - “ॐ नमः श्रीवशिष्ठाय द्वीपभवनपतीन्द्राय श्रीवशिष्ठ सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
जलकान्त इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “पयोदनिर्मुक्तशशाङ्कसत्करः प्रभाभिरामधुतिरश्वकेतनः।
कलिन्दकन्याजलधौतकालिमा सुवर्णवस्त्रो जलकान्त उत्तमः।। (वंशस्थ) मंत्र - “ॐ नमः श्रीजलकान्ताय उदधिभवनपतीन्द्राय श्रीजलकांत सायुधः सवाहनः...शेष पूर्ववत्।"
. जलप्रभ इन्द्र की पूजा के लिए - छंद . - "कैलासलास्योद्यतयज्ञसूदनप्रख्याङ्गकान्तिः कलिताश्वलांछनः।
भग्नेन्द्रनीलाभशिवातिरोचनः श्रेयःप्रबोधाय जलप्रभोस्तु नः।। (इन्द्रवं.) मंत्र - “ॐ नमः श्रीजलप्रभाय उदधिभवनपतीन्द्राय श्रीजलप्रभ सायुधः सवाहनः....... शेष पूर्ववत्।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 60 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
अमितगति इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "कनककलितकान्तिरम्यदेहः कुमुदविततिवर्णवसुधारी।
धवलकरटिकेतु राजमानोप्यमितगतिरिहास्तु विघ्नहर्ता ।। (जगत्याम्) मंत्र - “ॐ नमः श्रीअमितगतये दिग्भवनपतीन्द्राय श्रीअमितगते सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।
मितवाहन इन्द्र की पूजा के लिए - .छंद - "कृतमालसमद्युतिदेहधरः कलधौतदलोपमवस्त्रधरः ।
सुरवारणकेतुवरिष्ठरथो मितवाहनराट् कुरुतात् कुशलम् ।। (जगत्याम्) मंत्र - “ॐ नमः श्रीमितवाहनाय दिग्भवनपतीन्द्राय श्रीमितवाहन सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।
वेलम्ब इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "लसच्चारुवैराटकोदंचिकायः प्रवालाभशिग् युग्ममिष्टं दधानः।
__ मरुद्वाहिनीवाहनप्रष्ठकेतुः स वेलम्बदेवेश्वरः स्तान्मुदे नः।।" (भुजङ्गप्रयातं) मंत्र - “ॐ नमः श्रीवेलम्बाय वायुभवनपतीन्द्राय श्रीवेलम्ब सायुधः सवाहनः शेष पूर्ववत्।"
प्रभंजन इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "नवार्कसंस्पृष्टतमालकायरुक् सुपक्वबिम्बोपमवर्णकर्पटः।
सुतीक्ष्णदंष्ट्रं मकरं ध्वजे वहन् प्रभंजनोऽस्त्वामयभंजनाय नः।। (वंशस्थ) मंत्र - "ॐ नमः श्रीप्रभंजनाय वायुभवनपतीन्द्राय श्रीप्रभंजन सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
घोष इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - __“तप्तकलधौतगात्रद्युतिभ्राजितश्चन्द्रकिरणाभवस्त्रैराजितः।
वर्द्धमानध्वजः शक्रविभाजितो घोषनामा शिवे लोचनभ्राजितः।।" (चन्द्रानन)
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
मंत्र
सायुधः सवाहनः. शेष पूर्ववत् । " महाघोष इन्द्र की पूजा के लिए “ज्वलद्वह्नितप्तार्जुनप्रख्यकायः
शरावध्वजालिङ्गितश्रीविलासो
छंद
तवासाः ।
मंत्र
श्रीमहाघोषाय
श्रियेस्तु ।। " ( भुजङ्गप्रयात) "ऊँ नमः श्रीमहाघोष सायुधः सवाहनः. शेष पूर्ववत् ।" श्रीकाल इन्द्र की पूजा के लिए -
छंद
61 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“ॐ नमः श्रीघोषाय स्तनितभवनपतीन्द्राय श्रीघोष
प्रभुः ।। " ( संधिवर्षिणी)
मंत्र
छंद
“विलसत्तमालदलजालदीधितिर्दिवसादिसूर्यसदृशान्तरीयकः । धृतपुष्पनीपकलितध्वजोदयो जयतात् स कालकृतसंज्ञकः
“ॐ नमः श्रीकालाय पिशाचव्यन्तरेन्द्राय श्रीकालः सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः अङ्गरक्षकसामानिकपार्षद्यानीकप्रकीर्णकाऽऽभियोगिककैल्बिषिकयुतः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे शेष पूर्ववत् । "
महाकाल इन्द्र की पूजा के लिए
भुतश्रीः ।। " ( वृत्तम् )
मंत्र
छंद
पमवासाः ।
श्रीमहाकालाय शेष पूर्ववत् । "
श्रीमहाकाल सायुधः सवाहनः.. सुरूप इन्द्र की पूजा के लिए - “भुगजश्रेणीयामुनवेणीसमवर्णो
‘‘गगनतलबलवद्वरिष्ठवर्णः कपिलतराम्बरवर्धमानशोभः । कुसुमयुतकदम्बकेतुधारी स
महाकालसुराधिपाऽद्
पिशाचव्यन्तरेन्द्राय
.
"ऊँ नमः
पशुस्वामिहासद्युतिव्यू
महाघोषदेवाधिराजः
स्तनितभवनपतीन्द्राय
सुरूपः ।। " ( मत्तमयूर )
मंत्र सवाहनः..... शेष पूर्ववत् । "
हेमच्छेदारग्वधपुष्पो
केतुस्थानस्फूर्जन्निर्गुण्डीवरवक्षाः सर्वैर्मान्यो भूयाद्भूत्यै स
“ॐ नमः श्रीसुरूपाय भूतव्यन्तरेन्द्राय श्रीसुरूप सायुधः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 62 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
प्रतिरूप इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "नन्दीश्वरोऽजनगिरीश्वरश्रृङ्गतेजाः सच्चम्पकद्रुकुसुमप्रतिरूपवस्त्रः।
शेफालिकाविरचितोन्नतभावकेतुः सेतुर्विपज्जलनिधौ प्रतिरूप इष्टः ।। (वसन्ततिलका) मंत्र - "ॐ नमः श्रीप्रतिरूपाय भूतव्यन्तरेन्द्राय श्रीप्रतिरूप सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।'
पूर्णभद्र इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “विरचितबहुकामश्यामदेहप्रभाढ्यो लसदरुणपटाभान्यकृतोरुप्रवालः।
प्रकटवटवरिष्ठं केतुमुच्चैर्दधानः परमरिपुविघातं पूर्णभद्रः करोतु।।" (मालिनी) मंत्र - "ॐ नमः श्रीपूर्णभद्राय श्रीपूर्णभद्र सायुधः सवाहनः... ... शेष पूर्ववत्।
माणिभद्र इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "कुवलयदलकान्तिप्राप्तसौभाग्यशोभः प्रसृमरवरजावारक्तसुव्यक्तवासाः।
अनुपमबहुपादक्ष्मारुहत्केतुमिच्छन् जयति जिनमतस्यानन्दको माणिभद्रः।। (मालिनी) मंत्र - “ॐ नमः श्रीमाणिभद्राय यक्षव्यन्तरेन्द्राय श्रीमाणिभद्र सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।'
भीम इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "स्फटिकनिभैः शरीरभवरोचिषां समूहैर्गगनतलाद्भुतावगमनाम्बराभिषक्तैः।
___ शयनपदाधिरूढ़चिरध्वजाभियोगैः पटुतरभूरिलक्ष्मकलितः स भीमदेवः।। (अष्टौजाति) मंत्र - “ॐ नमः श्रीभीमदेवाय राक्षसव्यन्तरेन्द्राय श्रीभीम सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
महाभीम इन्द्र की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 63 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "शरच्चन्द्रज्योतिर्निचयरचिताशां धवलयन् स्फुरद्राजावर्तप्रभवसनशोभाप्रकटनः।
स्वकेतौ खट्वाङ्ग दधदविकलं कल्मषहरो महाभीमः श्रीमान् विदलयतु विघ्नं तनुभृताम्।।" (शिखरिणी) मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहाभीमाय राक्षसव्यन्तरेन्द्राय श्रीमहाभीम सायुधः सवाहनः.... शेष पूर्ववत्।।
किंनर इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “नीलाश्माभच्छविमविकलामङ्गसङ्गे दधानो वासः पीतं परिणतरसालाभमाभासयंश्च।
___रक्ताशोकं कुवलयनयनापादसंस्पर्शयोग्यं बिभ्रत्केतौ प्रभुरभिभवं किंनरोन्यक्करोतु।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकिंनराय किंनरव्यन्तरेन्द्राय श्रीकिंनर सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।।
किंपुरुष इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "रम्येन्दीवरचंचरीकविकसद्वर्धिष्णुदेहधुतिः सज्जाम्बूनदपुष्पवर्णवसनप्रोद्भूतशोभाभरः।
रक्ताशोकपिशङ्गितध्वजपटः प्रस्फोटितारिव्रजः स्वामी किंपुरुषः करोतु करुणां कल्पद्रुकल्पं स्पृशन् ।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्रीकिंपुरुषाय किंनरव्यन्तरेन्द्राय किंपुरुष सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।"
सत्पुरुष इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - शरदुद्गतचन्द्रदेहरूक् फलिनी लवरेण्यवस्त्रभाक् ।
कृतचम्पकभूरुहो ध्वजे विपदं सत्पुरुषो निहन्तु नः।।" (तिष्टव्रजातौ) मंत्र - “ऊँ नमः श्रीसत्पुरुषाय किंपुरुषव्यन्तरेन्द्राय श्रीसत्पुरुष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
महापुरुष इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "शशाकमणिसंकुलद्युतिविराजिताङ्गः तमालदलनिर्मलप्रवरवाससां धारणः ।
सदा
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 64 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
सुवर्णकुसुमक्षमारुहविलासिकेतूद्गमो महापुरुषदेवराड्र भवतु सुप्रसन्नोऽधुना।।" (पृथ्वी) मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहापुरुषाय किंपुरुषव्यन्तरेन्द्राय श्रीमहापुरुष सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।"
अहिकाय इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “अम्भोदश्रेणिमुक्तत्रिदशपतिमणिस्पष्टरूपान्तरीक्ष छायापायप्रदायिस्वचरणमहसा भूषितारक्तवस्त्रः।
नागाख्यक्ष्मारुहोद्यद्ध्वजपटलपरिच्छन्नकाष्टान्तरालः कल्याणं वो विदध्यादविकलकलया देवराजोहिकायः।। (स्रग्धरा) मंत्र - “ऊँ नमः श्रीअहिकायाय महोरगव्यन्तरेन्द्राय श्रीअहिकाय सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।। - महाकाय इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “ईषन्त्रीलाभदेहोऽस्तशिखरिशिखरासीनपीनप्रभाठ्यप्रादुर्भूतार्कवर्णप्रकटसमुदयस्तैन्यकृतद्वस्त्रलक्ष्मीः।
नागद्रुस्फारधाराधरपथगमनोद्यत्पताकाविनोदः श्रीवृद्धिं देहभाजां वितरतु सुरराट् श्रीमहाकायनामा । (स्रग्धरा) मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहाकायाय महोरगव्यन्तरेन्द्राय श्रीमहाकाय सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।
गीतरती इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "क्षीरोदसलिलस्नातलक्ष्मीकान्तवर्णविराजितः संध्याभवस्त्रवितानविस्तृतचेष्टितैरपराजितः।
केतुधृततुम्बरुवृक्षलक्षितसर्वदारिपुनिर्जयः श्रीगीतरते नु कृतोद्यमखण्डितोरूविपद्रयः ।।" (गीता) मंत्र - "ऊँ नमः श्रीगीतरतये गन्धर्वव्यन्तरेन्द्राय श्रीगीतरते सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।।
गीतयशः इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "श्यामलकोमलाभकरुणार्जितबहुसौभाग्यसंहतिः कुङ्कुमवर्णवर्णनीयधुतिमत्सिचसनिवारिताहसिः ।
कुसुमोद्भासचारुतरतरुवरतुम्बरुकेतुधारणो रचयतु सर्वमिष्टमतिगुणगण- गीतयशाः सुदारुणः ।।" (द्विपदी)
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 65 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान . मंत्र - “ॐ नमः श्रीगीतयशसे गन्धर्वव्यन्तरेन्द्राय श्रीगीतयशः सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।'
संनिहित इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “विशदशरदिन्दुकरकुन्दसमदेहरुग् नीलमणिवर्णवसनप्रभाजालयुक्।
विश्वरूपोल्लसद्यानकेतूच्छ्रितः संनिहितदेवराडस्तु निकटस्थितः।। (चन्द्रानन) मंत्र - “ॐ नमः श्रीसंनिहिताय अणपत्रिव्यन्तरेन्द्राय श्रीसंनिहित सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।"
सन्मान इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "स्फटिकोज्चलप्रचलदंशुसंवरो विलसत्तमालदलसंनिभाम्बरः।
सन्माननायकहरिर्गरुत्मता ध्वजसंस्थितेन कलितः श्रियेस्तु नः।। (उपजाति) । मंत्र - “ॐ नमः श्रीसन्मानाय अणपन्निव्यन्तरेन्द्राय श्रीसन्मान सायुधः सवाहनः....... शेष पूर्ववत्।"
धात्रे इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "जम्बूनदाभवपुरूत्थदीधितिः प्रस्फारितोरुफलिनीसमाम्बरः।
फलहस्तवानरवरिष्ठकेतुभाग् धाता दधातु विभुतामनिन्दिताम् ।। (उपजाति) मंत्र - "ॐ नमः श्रीधात्रे पणपत्रिव्यन्तरेन्द्राय श्रीधातः सायुधः सवाहनः... शेष पूर्ववत्।
विधाते इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “आरगवंधाङ्गकुसुमोपमकायकान्तिर्मोचादलप्रतिमवस्त्रविराजमानः।
केतुप्रदृप्तवरवानरचित्तहारी . विश्वं विशेषसुखितं कुरुताद्विधाता।" (वसन्ततिलका) मंत्र - “ॐ नमः श्रीविधात्रे पणन्निव्यन्तरेन्द्राय श्रीविधातः सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।'
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
66
ऋषि इन्द्र की पूजा के लिए “चन्द्रकान्तकमनीयविग्रहः सांध्यरागसममम्बरं वहन् । कुम्भविस्फुरितशालिकेतनो भूरिमङ्गलमृषिः प्रयच्छतु ।।“
छंद
( रथोद्धता)
मंत्र
छंद
हृत्संवरः ।
"ॐ नमः श्रीऋषये ऋषिपातव्यन्तरेन्द्राय श्रीऋषे सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् । " ऋषिपाल इन्द्र की पूजा के लिए -
“कृतकलधौतशङ्खाब्धिफेनेश्वरस्मितसमश्लोकगुणवृन्द
ऋषिपालदेवेश्वरः ।। " ( श्रीचन्द्रानन) “ऊँ नमः
छंद
( स्वागता)
मंत्र
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
-
-
मंत्र
श्रीऋषिपाल सायुधः सवाहनः .. ईश्वर इन्द्र की पूजा के लिए -
साधुबन्धूकबन्धुप्रकृष्टाम्बरः
कुम्भकेतुः स
श्रीऋषिपालाय ऋषिपातिव्यन्तरेन्द्राय शेष पूर्ववत् । "
“ॐ नमः श्रीईश्वराय भूतवादिव्यन्तरेन्द्राय श्रीईश्वर सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् । "
महेश्वर इन्द्र की पूजा के लिए -
-
छंद
- ददातु।।“ (उपजाति)
मंत्र
“शङ्खकुन्दकलिकाभतनुश्रीः क्षीरनीरनिधिनिर्मलवासाः। उक्षरक्षितमहाध्वजमाली संप्रयच्छतु स ईश्वर ईशः । । "
“महेश्वरः शक्तुरशोभमानः पताकयाविष्कृतवैरिघातः । शुक्लाङ्गकान्त्यम्बरपूरितश्रीः श्रेयांसि संघस्य सदा
"ॐ नमः श्रीमहेश्वराय भूतवादिव्यन्तरेन्द्राय श्रीमहेश्वर सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् । "
सुवक्ष इन्द्र की पूजा के लिए -
छंद
लमनोज्ञवासाः ।
संक्षिप्तपापकरणः शरणं भयार्त्ती वक्षः समाश्रयतु शुद्धहृदां सुवक्षाः।।“ (वसन्ततिलका)
“विक्षिप्तदानवचयः कलधौतकान्तिः श्रीवत्सकेतुरतिनी
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 67 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्रीसुवक्षसे क्रन्दिव्यन्तरेन्द्राय श्रीसुवक्षः सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
विशाल इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "सुहेमपुष्पिकाविकाशसप्रकाशविग्रहः प्रियङ्गुनीलशीलिताम्बरावलीकृतग्रहः।
मुकुन्दहृद्यलक्ष्मकेतुरेनसां विघातनो विशालनामकः सुरः सुरेश्वरः सनातनः।।" (नाराच) मंत्र - “ॐ नमः श्रीविशालाय क्रन्दिव्यन्तरेन्द्राय श्रीविशाल सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
___ हास इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "क्षमापुष्पस्फूर्जत्तनुविरचनावर्णललितः सुवर्णाभैर्वस्त्रैः समणिवलयैश्चापि कलितः।
निजे चोच्चैः केतौ मृगपतियुवानं परिवहन् यशोहासं हासः प्रदिशतु जिनार्चाधृतधियाम् ।।" (शिखरिणी) मंत्र - “ॐ नमः श्रीहासाय महाक्रन्दिव्यन्तरेन्द्राय श्रीहास सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।" - हास्यरति इन्द्र की पूजा के लिए -
छंद - "फलिनीदलाभभाविमलांगरुचिः कृतमालपुष्पकृत वस्त्ररुचिः।
हरिकेतु रुल्लसितहास्यरतिः कुशलं करोतु . विभुहास्यरतिः।" (जगत्या) मंत्र - ऊँ नमः श्रीहास्यरतये महाक्रन्दितव्यन्तरेन्द्राय श्रीहास्यरते सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।'
श्वेत इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - "क्षीराम्भोधिप्रचलसलिलापूर्णकम्बुप्रणालीनिर्यद्वाराधवलवसनक्षेत्रवित्रस्तपापः।
चक्र केतौ दशशतविशिष्टारयुक्तं दधानः श्वेतः श्वेतं गुणगणमलंकाररूपं करोतु।।" (मन्दाक्रान्ता) मंत्र - “ॐ नमः श्रीश्वेताय कूष्माण्डव्यन्तरेन्द्राय श्रीश्वेत सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) , 68 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
महाश्वेत इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “वलक्षं स्वदेहं वसनमपि बिभ्रद्ध्वजपटप्रतिक्रीडच्चक्रोन्मथितरिपुसंघातपृतनः।
. लसल्लीलाहेलादलितभविकापायनिचयो महाश्वेतस्त्राता भवतु जिनपूजोत्सुकधियाम् ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहाश्वेताय कूष्माण्डव्यन्तरेन्द्राय श्रीमहाश्वेत सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।।
पतंग इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “विमलविद्रुमविभ्रमभृत्तनुर्धवलवस्त्रसमर्पितमङ्गलः।
वरमरालमनोहरकेतनः पतंगराट् परिरक्षतु सेवकान् ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीपतंगाय पतंगव्यन्तरेन्द्राय श्रीपतंग सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
पतंगरति इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “पतंगरतिरवाप्तपद्मरागच्छविरतिशुभ्रसिचाविचार्यशोभः।
प्रगुणितजनसंसहंसकेतुः किसलयतां कुशलानि सर्वकालम् ।।' (पुष्पिताग्रा) मंत्र - “ॐ नमः श्रीपतंगरतये पतंगव्यन्तरेन्द्राय श्रीपतंगरते सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
सूर्य इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “सप्ताश्वप्रचलरथप्रतिष्ठताङ्ग धृतहरिकेतन इष्टपद्मचक्रः।
सकलवृषविधानकर्मसाक्षी दिवसपतिर्दिशतात्तमोविनाशम्।। (उपच्छन्दसिक) मंत्र - “ॐ नमः श्रीसूर्याय ज्योतिष्केन्द्राय श्रीसूर्य सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
चन्द्र इन्द्र की पूजा के लिए - छंद - “अमृतमयशरीरविश्वपुष्टिप्रदकुमुदाकरदत्तबोधनित्यम्।
परिकरितसमस्तधिष्ण्यचक्रैः शशधर धारय मानसप्रसादम्।।“ (पुष्पिताग्रा)
।
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आचारदिनकर (खण्ड-३ )
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“ॐ नमः श्रीचन्द्राय ज्योतिष्केन्द्राय श्रीचन्द्र सायुधः
मंत्र
सवाहनः ... शेष पूर्ववत् ।" शक्र इन्द्र की पूजा के लिए
छंद
छंद
69
पाणिप्रापितवज्रखण्डितमहादैत्यप्रकाण्डस्थितिः ।
पौलोमीकुचकुम्भसंभ्रमधृतध्यानोद्यदक्षावलिः
श्रीशक्रः
क्रतुभुक्पतिर्वितनुतादानन्दभूतिं जने । । “ ( शार्दूलविक्रीडितं )
मंत्र
"ॐ नमः श्रीशक्राय सौधर्मकल्पेन्द्राय श्रीशक्र सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः सामानिकाङ्गरक्षत्रयस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णिकाभियोगिककैल्बिषिकयुतः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे शेष पूर्ववत् ।"
ईशान इन्द्र की पूजा के लिए "ईशानाधिपते श्रीतीर्थंकरपादपङ्कजसदासेवैकपुष्पव्रतः ।
ककुद्मदयनश्वेताङ्गशूलायुधः
छंद
सम्यक्त्वव्यतिरेकतर्जितमहामिथ्यात्वविस्फूर्जितः
—
.......
यज्ञध्वंसवरिष्ठविक्रमचमत्कारक्रियामन्दिर
समस्तविघ्ननिवहं द्रागेव दूरीकुरु ।। "
मंत्र
"ॐ नमः श्रीईशानाय ईशानकल्पेन्द्राय श्रीईशान इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् ।
सनत्कुमार इन्द्र की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
“किरीटकोटिप्रतिकूटचंचच्चामीकरासीनमणिप्रकर्षः । सनत्कुमाराधिपतिर्जिनार्चाकाले कलिच्छेदनमातनोतु । " "ऊँ नमः श्रीसनत्कुमाराय सनत्कुमारकल्पेन्द्राय श्रीसनत्कुमार इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् । महेन्द्र इन्द्र की पूजा के लिए
“महैश्वर्यो वर्यार्यमकिरणजालप्रतिनिधिप्रतापप्रागल्भ्या
द्भुतभवनविस्तारितयशाः।
चमत्काराधायिध्वजविधुततोरासमुदयः ध्वजिन्या दैत्यान् घ्नन् सपदि स महेन्द्रो विजयते । ।"
मंत्र
“ॐ नमः श्रीमहेन्द्राय माहेन्द्रकल्पेन्द्राय श्रीमहेन्द्र इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् । ब्रह्मन् इन्द्र की पूजा के लिए
-
श्रीसंघस्य
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
छंद
तदेवमार्गः ।
छंद
प्रकटोऽस्तु नित्यम् ।“
मंत्र
“ॐ नमः श्रीब्रह्मणे ब्रह्मकल्पेन्द्राय श्रीब्रह्मन् इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् । लान्तक इन्द्र की पूजा के लिए
“षड्विधाविधुतदैत्यमण्डली मण्डितोत्तमयशश्चयाचिरम् । विपुलभक्तिभासिनी
अर्हतां
लान्तकेश्वरचमूर्वि -
राजताम् ।।“
मंत्र
"ॐ नमः श्रीलान्तकाय लान्तककल्पेन्द्राय श्रीलान्तक इह प्रतिष्ठामहोत्सवे .... शेष पूर्ववत् ।
शुक्र इन्द्र की पूजा के लिए -
छंद
70 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
"हंसावियोजनवियोजितवातसाम्यभ्राम्यद्विमानरुचिरीकृ
मंत्र
छंद
सनार्थी ।
ब्रह्मा हिरण्यसमगण्यशरीरकान्तिः कान्तो जिनार्चन इह
“दिनेशकान्ताश्ममयं विमानमधिश्रितः श्रीधनरूपदृष्टिः । शुक्रः परिक्रान्तदनूद्भवालिर्लालित्यमर्हद्रवने करोतु ।। " “ॐ नमः श्रीशुक्राय शुक्रकल्पेन्द्राय श्रीशुक्र इह प्रतिष्ठामहोत्सवे..... शेष पूर्ववत् । सहस्त्रार इन्द्र की पूजा के लिए
“सहस्त्रग्भिरुल्लासितोद्यत्किरीटः सहस्त्रासुराधीश्वरोद्वा
सहस्त्रारकल्पेऽद्भुतश्चक्रवर्ती
सहस्त्रारराजोऽस्तु
"ॐ नमः श्रीसहस्त्राराय सहस्त्रारकल्पेन्द्राय श्रीसहस्त्रार
राज्यप्रदाता ।। "
मंत्र
इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ... शेष पूर्ववत् ।
छंद
-
आनत इन्द्र की पूजा के लिए -
मंत्र
“सैन्यसंहतिविनाशितासुराधीशपूः समुदयो दयानिधिः । आनतो विनतिमंजसा दधत्तीर्थनायकगणस्य नन्दतु । ।" "ॐ नमः श्रीआनतेन्द्राय आनतप्राणतकल्पेन्द्राय श्रीआनत इह प्रतिष्ठामहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत् । अच्युत इन्द्र की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 71 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "जिनपतिजिनस्नात्रे पूर्व कृताधिकगौरवे विपुलविमलां सम्यग्दृष्टिं हृदि प्रचुरां दधत्।।
त्रिदशनिवहे कल्पोद्भूते सुकर्ममतिं ददत् जगति जयति श्रीमानिन्द्रो गुणानतिरच्युतः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअच्युताय आरणाच्युतकल्पेन्द्राय श्रीअच्युत इह प्रतिष्ठामहोत्सवे.. शेष पूर्ववत्।।
इसके बाद निम्न मंत्र से सर्वइन्द्रों की सामूहिक पूजा करें -
"ॐ नमः चतुःषष्टि सुरासुरेन्द्रेभ्यः सम्यग्दृष्टिभ्यः जिनच्यवनजन्मदीक्षाज्ञाननिर्वाणनिर्मितमहिमभ्यः सर्वे चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्रा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाधिपत्यभाजो निजनिजविमानवाहनरूढ़ा निजनिजायुधधारिणः निजनिजपरिवारपरिवृताः अंगरक्षकसामानिकपार्षद्यस्त्रायत्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोगिककैल्बिविषकजुष इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छत-आगच्छत इदमयं पाद्य बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृहणन्तु, संनिहिता भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, सर्व समीहितानि कुर्वन्तु-कुर्वन्तु स्वाहा।'
तत्पश्चात् छठवें वलय में स्थित चौसठ इन्द्राणि को निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें -
"स्वं स्वं पतिं नित्यमनुव्रजन्त्यः सम्यक्त्वकाम्यं तु हदं वहन्त्यः। परिच्छदैः स्वैरनुयातमार्गाः सुरेन्द्रदेव्योऽत्र भवन्तु तुष्टाः ।।"
फिर निम्न छंद एवं मंत्र से क्रमशः चौसठ इन्द्राणियों का आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें -
चमरेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “कौसुम्भवस्त्राभरणाः श्यामाङ्गयोऽद्भुततेजसः।
देव्यः श्रीचमरेन्द्रस्य कृतयत्ना भवन्त्विह।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
72 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मंत्र
सवाहनाः
“ॐ नमः श्रीचमरेन्द्रदेवीभ्यः श्रीचमरेन्द्रदेव्यः सायुधाः सपरिच्छदाः ससखीकाः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छत- आगच्छत इदमर्घ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहूणीत- गृहणीत, संनिहिता भवत - भवत स्वाहा, जलं गृहूणीत-गृहूणीत, गन्धं गृहूणीत-गृहूणीत, पुष्पं गृहूणीत-गृहूणीत, अक्षतं गृहूणीत-गृहूणीत, फलानि गृहूणीत-गृहूणीत, मुद्रां गृहूणीत-गृहणीत, धूपं गृह्णीत-गृहूणीत, दीपं गृहूणीत-गृहूणीत, नैवेद्यं गृहूणीत-गृहूणीत, सर्वोपचारान् गृहूणीत-गृहूणीत, शान्तिं कुरू कुरू तुष्टिं कुरू कुरू पुष्टिं कुरू कुरू ऋद्धिं कुरू कुरू वृद्धिं कुरू कुरू सर्वसमीहितं यच्छत स्वाहा ।
छंद
बलीन्द्रदेवी की पूजा के लिए
मंत्र
सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।“
“प्रियंगुश्यामकरणाः शरणं भयभागिनाम् । बलिदेव्यः प्रभातार्कसमवासोधराः स्फुटम् ।। " “ॐ नमः श्रीबलीन्द्रदेवीभ्यः श्रीबलिदेव्यः सायुधाः
-
धरणेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
छंद
मंत्र
सवाहनाः.... शेष पूर्ववत् ।"
"नीलाम्बरपरिच्छन्नाः पुण्डरीकसमप्रभाः । धरणेन्द्रप्रियाः सन्तु जिनस्नात्रे समाहिताः । । " “ॐ नमः श्रीधरणेन्द्रदेवीभ्यः श्रीधरणेन्द्रदेव्यः सायुधाः
भूतानन्ददेवी की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः...... शेष पूर्ववत् । " वेणुदेवेन्द्रदेवी की पूजा के लिए
छंद
“तुषारहारगौराङ्गयः प्रियंगुसमवाससः । आयान्तु जिनपूजायां भूतानन्दवधूव्रजाः ।। " “ॐ नमः श्रीभूतानन्ददेवीभ्यः श्रीभूतानन्देन्द्रदेव्यः
“तप्तचामीकरच्छेदतुल्यनिःशल्यविग्रहाः । लूताजालसमाच्छादा वेणुदेवस्त्रियः श्रिये ।। " “ॐ नमः श्रीवेणुदेवेन्द्रदेवीभ्यः श्रीवेणुदेवेन्द्रदेव्यः
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् । " वेणुदारीन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 73 प्रतिष्टाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - “आरग्वधसुमश्रेणीसमसंवरतेजसः।
श्वेताम्बरा वेणुदारिदेव्यः सन्तु समाहिताः ।। मंत्र - “ऊँ नमः श्रीवेणुदारीन्द्रदेवीभ्यः श्रीवेणुदारीन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।" ..
हरिकान्तेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद -
“पद्मरागारुणरुचो हरिकान्तमृगेक्षणाः।
विष्णुक्रान्तापुष्पसमवाससः सन्तु सिद्धये।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीहरिकान्तेन्द्रदेवीभ्यः श्रीहरिकान्तेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।।
हरिसहेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “कृतविद्रुमसंकाशकायकान्तिविराजिताः।
प्रियंगुवर्णवसना श्रिये हरिसहस्त्रियः ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीहरिसहेन्द्रदेवीभ्यः श्रीहरिसहेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
अग्निशिखेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - ___ - “बन्धूककलिकातुल्यां बिभ्रत्यो वपुषि श्रियम्।
अतसीपुष्पसंकाशवस्त्रा अग्निशिखस्त्रियः।।" मंत्र - “ऊँ नमः श्रीअग्निशिखेन्द्रदेवीभ्यः श्रीअग्निशिखेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
अग्निमानवदेवेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "रक्ताशोकलसत्पुष्पवर्णनीलतमाम्बराः।
अग्निमानवदेवेन्द्ररमण्यः सन्तु भद्रदाः ।। मंत्र - "ॐ नमः श्रीअग्निमानवदेवेन्द्रदेवीभ्यः श्रीअग्निमानवदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
पूर्णेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "नवोदितार्ककिरणकरणा अरुणाधराः ।
नीलाम्बराः पुण्यराजकान्ताः कान्तिं ददत्वरम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीपूर्णेन्द्रदेवीभ्यः श्रीपूर्णेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
वशिष्ठेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
छंद
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 74 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - “लसत्कोकनदच्छायां दधत्योनिजवर्मणि।
फलिनीवर्णवस्त्राढ्या वशिष्ठमहिलाः श्रिये।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीवशिष्ठेन्द्रदेवीभ्यः श्रीवशिष्ठेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।
जलकान्तेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "स्फटिकच्छायसत्कायनीलवर्णाढ्यवाससः।
कुर्वन्तु सर्वकार्याणि जलकान्तमृगेक्षणाः।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीजलकान्तेन्द्रदेवीभ्यः जलकान्तेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
जलप्रभेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “भागीरथीप्रवाहाभदेहधुतिमनोहराः।
नीलाम्बराः श्रिये सन्तु जलप्रभमृगीदृशः।।' मंत्र - “ॐ नमः श्रीजलप्रभेन्द्रदेवीभ्यः श्रीजलप्रभेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
अमितगतीन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "हेमपुष्पीपुष्पसमं बिभ्रत्यो धाम विग्रहे।
श्रीमदमितगतीन्द्रप्रियाः शुभ्राम्बराः श्रिये।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअमितगतीन्द्रदेवीभ्यः श्रीअमितगतीन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
मितवाहनेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "खर्जूरतर्जनाकारिविलसद्वह्मतेजसः।
श्वेतवस्त्रा धिये सन्तु मितवाहनवल्लभाः।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीमितवाहनेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमितवाहनेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
वेलम्बेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "प्रियङ्गुचङ्गिमौत्तुङ्गभङ्गदाय्यङ्गतेजसः।
वेलम्बवल्लभाः सांध्यरागारुणसिचः श्रिये ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीवेलम्बेन्द्रदेवीभ्यः श्रीवेलम्बेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
प्रभंजनदेवेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 75 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
"कदलीदललालित्यविलम्बिवपुषः श्रिया।
प्रभंजनप्रियाः प्रीताः सन्तु मंजिष्टवाससः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीप्रभंजनदेवेन्द्रदेवीभ्यः श्रीप्रभन्जनेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।"
घोषेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "सच्चम्पकोल्लसत्कोरकाभकायाः सिताम्बराः।
घोषप्रियतमाः प्रेम पुष्णन्तु पुरुषस्त्रियः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीघोषेन्द्रदेवीभ्यः श्रीघोषेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः.... शेष पूर्ववत् ।।
महाघोषेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “महाघोषमहिष्यस्तु धृतचन्द्राभवाससः ।
हारिद्रहारिकरणाः कुर्वन्तु करुणां सताम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहाघोषेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहाघोषेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
कालेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “कज्जलश्यामलरुचो घृतपीततराम्बराः।
कालकान्ताः शुभं कालं कलयन्तु महात्मनाम् ।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्रीकालेन्द्रदेवीभ्यः श्रीकालेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः... शेष पूर्ववत् ।।
महाकालेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "भ्रमभ्रमरविभ्राजिशरीरोग्रमनोहराः।
वर्षाविद्युत्समसिचो महाकालप्रियाः श्रिये ।। मंत्र - "ॐ नमः श्रीमहाकालेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहाकालेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
सुरूपेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “भाद्रवारिधरश्यामकामप्रदतनुत्विषः ।
सुरूपकान्ता रात्रीशकान्तवस्त्रा समाहिताः ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीसुरूपेन्द्रदेवीभ्यः श्रीसुरूपेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः.... शेष पूर्ववत्।"
__ प्रतिरूपेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 76 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पीष्टिककर्म विधान छंद - "कालिन्दीजलकल्लोलविलोलवपुरिङ्गिताः।
स्फटिकोज्जवलचीराश्च प्रतिरूपस्त्रियः श्रिये।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीप्रतिरूपेन्द्रदेवीभ्यः श्रीप्रतिरूपेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
पूर्णभद्रेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "शातकुम्भनिभैर्वस्त्रैः कलिताः श्यामलत्विषः ।
पूर्णभद्रस्त्रियः पूर्णभद्रं कुर्वन्तु सर्वतः ।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्रीपूर्णभद्रेन्द्रदेवीभ्यः श्रीपूर्णभद्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
माणिभद्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "नवार्ककरसंस्पृष्टतमालोत्तममूर्तयः।
कर्पूरोपमवस्त्राश्च माणिभद्राङ्गनाः श्रिये।।" मंत्र - "ॐ नमः श्रीमाणिभद्रदेवीभ्यः श्रीमाणिभद्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः... शेष पूर्ववत्।
भीमेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "चन्द्रकान्तप्रतीकाशसप्रकाशवपुर्धराः।
नीलाम्बरा भीमनार्यः सन्तु सर्वार्थसिद्धये।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीभीमेन्द्रदेवीभ्यः श्रीभीमेन्द्रदेव्य सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
महाभीमेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "क्षीरोदधिक्षीरधौतमुक्ताहारसमप्रभाः।
इन्द्रनीलोपमसिचो महाभीमस्त्रियोऽद्भुताः ।।" मंत्र - "ॐ नमः श्रीमहाभीमेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहाभीमेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
किंनरेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "प्रियङ्गुरङ्गाङ्गरुचः स्फटिकोज्ज्वलवाससः ।
प्राणेश्वर्यः किंनरस्य कुर्वन्तु कुशलं सताम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकिंनरेन्द्रदेवीभ्यः श्रीकिंनरेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
किंपुरुषेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 77 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान . छंद - "नीलकायरुचः कान्ताः कान्ताः किंपुरुषस्य च।।
चन्द्रोज्ज्जवलाच्छादधराः सन्तु विघ्नभिदाकृतः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकिंपुरुषेन्द्रदेवीभ्यः श्रीकिंपुरुषेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
सत्पुरुषेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “सत्कुन्दकलिकाजालवलक्षतनुतेजसः।
नीलवस्त्राः सत्पुरुषवशा वांछितदायिकाः ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीसत्पुरुषेन्द्रदेवीभ्यः श्रीसत्पुरुषेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
महापुरुषेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “महापुरुषदेव्यस्तु शखोज्ज्वलतनूधराः ।
प्रियंगुप्रियवर्णाभवस्त्राः सन्त्वत्र संस्थिताः ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहापुरुषेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहापुरुषेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
अहिकायेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - .. छंद - “अन्तरिक्षप्रख्यरुचो घृतपीताम्बरमजः ।
अहिकायमहिष्यस्तु जन्तु विघ्नं जिनार्चने।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअहिकायेन्द्रदेवीभ्यः श्रीअहिकायेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।।
महाकायेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “महाकायस्त्रियः श्यामकमनीयाङ्गराजिताः।
पीताम्बराश्च संघस्य कुर्वन्तु कुलवर्द्धनम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीमहाकायेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहाकायेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
गीतरतीन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "वीणाकराः श्यामरुचः कौसुम्भवसनावृताः।
सन्तु गीतरतर्देव्यः ससंगीता जिनार्चने ।। मंत्र - "ॐ नमः श्रीगीतरतीन्द्रदेवीभ्यः श्रीगीतरतीन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
गीतयशेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 78 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - श्रीमद्गीतयशोदेव्यः श्यामाः संगीतसंगताः ।
कुरुविन्दारुणसिचः सन्तु संतापशान्तये ।।"
“ॐ नमः श्रीगीतयशइन्द्रदेवीभ्यः श्रीगीतयशइन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
संनिहितेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “मौक्तिकप्रख्यवपुषो नीलाम्बरमनोहराः।
देव्यः संनिहितेन्द्रस्य सन्तु संनिहिता इह।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीसंनिहितेन्द्रदेवीभ्यः श्रीसंनिहितेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
सन्मानेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "नवोद्यत्पारदरुचो राजावर्ताभवाससः।
सन्मानकान्ताः कीर्तिं नः कुर्वन्तु कुशलप्रदाः ।।" मंत्र ___ - "ॐ नमः श्रीसन्मानेन्द्रदेवीभ्यः श्रीसन्मानेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
धात्रिन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “कृतमालपुष्पमालावर्णा हरितवाससः।
__ धातुर्विदधतां कान्ताः कमनीयार्चनामतिम् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीधात्रिन्द्रदेवीभ्यः श्रीधात्रिन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
विधात्रिन्ददेवी की पूजा के लिए - छंद ___- “संतप्तकांचनरुचः प्रियगुप्रभनक्तकाः।
जिनार्चनेषु दद्यासुर्विधातुर्वल्लभा बलम् ।। ___- “ॐ नमः श्रीविधात्रिन्द्रदेवीभ्यः श्रीविधात्रिन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
ऋषीन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - "चन्द्रकान्ताभकायाढ्या मंजिष्ठासिचयाद्रुताः।
ऋषिपत्नय ऋषीन्द्राणां सन्तु व्रतमतिप्रदाः ।।" मंत्र "ॐ नमः श्रीऋषीन्द्रदेवीभ्यः श्रीऋषीन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।
ऋषिपालेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
मंत्र
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79 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“ऋषिपालाम्बुजदृशः शशाङ्ककिरणोज्ज्वलाः । रक्ताम्बरा वरं सर्वसङ्घस्य ददतां सदा । । " "ॐ नमः श्रीऋषिपालेन्द्रदेवीभ्यः श्रीऋषिपालेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् । " ईश्वरेन्द्रदेवी की पूजा के लिए
मंत्र
छंद
“शखोज्ज्वलमनोज्ञाङ्गयः स्नातशेषाभवाससः । ईश्वरस्य प्रियतमाः सङ्घे कुर्वन्तु मङ्गलम् ।। " “ॐ नमः ईश्वरेन्द्रदेवीभ्यः श्रीईश्वरेन्द्रदेव्यः सायुधाः
आचारदिनकर (खण्ड-३)
छंद
मंत्र
सवाहनाः... शेष पूर्ववत् ।"
छंद
-
महेश्वरेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
“क्षीराब्धिगौराः काशाभवाससो वारिजाननाः । महेश्वरस्य दयिता दयां कुर्वन्तु देहिषु । । "
"ॐ नमः श्रीमहेश्वरेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहेश्वरेन्द्रदेव्यः
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।" सुवक्षइन्द्रदेवी की पूजा के लिए "सुवर्णवर्णनीयाङ्ग्यो मेचकाम्बरडम्बराः । सुवक्षसः सुवक्षोजाः कान्ता यच्छन्तु वांछितम् । । " “ऊँ नमः श्रीसुवक्षइन्द्रदेवीभ्यः श्रीसुवक्षइन्द्रदेव्यः
छंद
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।" विशालेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
छंद
-
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः .. शेष पूर्ववत् । " हासेन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
छंद
“विशालहारिद्ररुचः सुनीलसिचया अपि । विशालदेव्यः कुर्वन्तु सर्वापत्क्षणनं क्षणात् ।।" "ॐ नमः श्रीविशालेन्द्रदेवीभ्यः
मंत्र
सवाहनाः ... शेष पूर्ववत् ।" हास्यरतीन्द्रदेवी की पूजा के लिए
“अतसीपुष्पसंकाशैरङ्गैः शूच्यः शुभेङ्गिताः । पीताम्बरधरा हासविलासिन्यः समाहिताः । ।"
"ॐ नमः श्रीहासेन्द्रदेवीभ्यः श्रीहासेन्द्रदेव्यः सायुधाः
श्रीविशालेन्द्रदेव्यः
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आचारदिनकर (खण्ड - ३ )
छंद
80 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
“नीलाङ्गकान्तिकलिताः शातकुम्भाभवाससः । श्रीहास्यरतिकामिन्यः कामितं पूरयन्तु नः ।। " “ॐ नमः श्रीहास्यरतीन्द्रदेवीभ्यः श्रीहास्यरतीन्द्रदेव्यः
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।" श्वेतेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - “क्षीराम्भोनिधिनिर्गच्छच्छेषाभतनुवाससः । श्वेताम्बुजेक्षणाः शत्रून् क्षपयन्तु मनीषिणाम् ।। " "ॐ नमः श्रीश्वेतेन्द्रदेवीभ्यः श्रीश्वेतेन्द्रदेव्यः सायुधाः
छंद
मंत्र
सवाहनाः .. शेष पूर्ववत् ।“ महाश्वेतेन्द्रदेवी की पूजा के लिए “शेषाहिदशनज्योतिर्व्यूतवासोविभूषिताः । शरत्तारकदेहाश्च महाश्वेतस्त्रियो मुदे ।।"
छंद
मंत्र
“ॐ नमः श्रीमहाश्वेतेन्द्रदेवीभ्यः श्रीमहाश्वेतेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् । " पतंगेन्द्रदेवी की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
सवाहनाः..
मंत्र
सवाहनाः. शेष पूर्ववत् । " पतंगरतीन्द्रदेवी की पूजा के लिए
छंद
मंत्र
सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् । " सूर्येन्द्रदेवी की पूजा के लिए -
छंद
“अशोकनवपुष्पालीरक्तदेहरुचो ऽधिकम् । कुन्देन्दुधवलाच्छाद्या जयन्ति पतंगस्त्रियः ।। "
“ॐ नमः श्रीपतंगेन्द्रदेवीभ्यः श्रीपतंगेन्द्रदेव्यः सायुधाः
-
शेष पूर्ववत् । " चन्द्रेन्द्रदेवी की पूजा के लिए
“कामिन्यः पतंगरतेः स्फुटविद्रुमतेजसः । विशुद्धवसनाः सन्तु सर्वसंघमनोमुदे ।।"
"ॐ नमः श्रीपतंगरतीन्द्रदेवीभ्यः श्रीपतंगरतीन्द्रदेव्यः
-
"प्रदीप्तदेह रुग्ध्वस्तध्वान्तसंहतयः सिताः । रक्ताभवसनाः सूर्यचकोराक्ष्यो महामुने ।। " “ॐ नमः श्रीसूर्येन्द्रदेवीभ्यः श्रीसूर्येन्द्रदेव्यः सायुधाः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) । प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "सुधागिरः सुधाधाराः सुधादेहाः सुधाहृदः।
सुधाकरस्त्रियः सन्तु स्नात्रेस्मिन् प्रकिरत्सुधाः।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीचन्द्रेन्द्रदेवीभ्यः श्रीचन्द्रेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः.. शेष पूर्ववत्।"
सौधर्मशक्रेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - 'छंद - "पौलोमीप्रमुखाः शक्रमहिष्यः कांचनत्विषः।
पीताम्बरा जिनार्चायां सन्तु संदृप्तकल्पनाः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीसौधर्मशक्रेन्द्रदेवीभ्यः श्रीसौधर्मशक्रेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।"
ईशानेन्द्रदेवी की पूजा के लिए - छंद - “गौरीप्रभृतयो गौरकान्तयः कान्तसंगताः।
देव्य ईशाननाथस्य सन्तु सन्तापहानये।। मंत्र - “ऊँ नमः श्रीईशानेन्द्रदेवीभ्यः श्रीईशानेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत्।"
सनत्कुमार आदि इन्द्रों के देवियाँ नहीं होती हैं। देवियों की उत्पत्ति प्रथम एवं द्वितीय देवलोक में ही है, उसके पश्चात् तीसरे देवलोक से लेकर सहस्रार देवलोक तक देवियों का गमनागमन है, उसके आगे आणत, प्राणत, आरण और अच्युत - इन चार देवलोकों में उनका गमनागमन भी नहीं है, अतः सनत्कुमार आदि इन्द्रों के परिजनों की पूजा इन्द्र पूजा की सहचारिणी ही है। व्यंतर और ज्योतिष्क इन्द्रों के परिवार में त्रायत्रिंश एवं लोकपालदेव नहीं होते हैं। शुक्र आदि कल्पों के इन्द्रों के परिवार में किल्विषकदेव नहीं होते हैं। देवों में किल्विषक परम अधार्मिक होने के कारण पूजनीय नहीं हैं। इन्द्र के साथ उनके परिवार का साहचर्य होने से अखण्डित सूत्र पाठ में कोई दोष नहीं है, अन्य, अर्थात् ग्रैवेयक, अनुत्तरविमान के देव एवं जृम्भकदेव पार्श्वनाथ भगवान् की पूजा में पूजे जाते हैं।
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक सर्व इन्द्राणियों की सामूहिक पूजा करें -
“ऊँ ह्रीं नमः चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्रदेवीभ्यः सम्यग्दर्शनवासिताभ्योऽनन्तशक्तिभ्यः श्री चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्रदेव्यः सायुधाः सवाहनाः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 82 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान सपरिच्छदाः साभियोगिकदेव्यः इहप्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु- आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, संनिहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा ।
अब सातवें वलय में स्थित शासनयक्षों को निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें -
"ये केवले सुरगणे मिलिते जिनाग्रे श्रीसंघरक्षणविचक्षणतां विदध्युः ।
यक्षास्त एवं परमर्द्धिविवृद्धिभाज आयान्तु शान्तहृदया जिनपूजनेऽत्र ।।"
तत्पश्चात् क्रमशः चौर्वास शासनयक्षों का निम्न छंद एवं मंत्र से आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें -
गोमुखयक्ष की पूजा के लिए - छंद - “स्वर्णाभो वृषवाहनो द्विरदगोयुक्तश्चतुर्बाहुभिः विभ्रदक्षिणहस्तयोश्च वरदं मुक्ताक्षमालामपि।
पाशं चापि हि मातुलिङ्गसहितं पाण्योर्वहन् वामयोः संघं रक्षतु दाक्ष्यलक्षितमतिर्यक्षोत्तमो गोमुखः ।।" मंत्र - “ऊँ नमो गोमुखयक्षाय श्रीयुगादिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीगोमुखयक्ष सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चक्रं गृहाण-गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा, जलं गृहाण-गृहाण, गन्धं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, अक्षतान् गृहाण-गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुरु-कुरू, तुष्टिं कुरू-कुरू, पुष्टिं कुरू-कुरू, ऋद्धिं कुरु-कुरू, वृद्धिं कुरु-कुरू, सर्वसमीहितानि देहि-देहि स्वाहा।"
महायक्ष की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 83 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "द्विरदगमनकृच्छितिश्चाष्टबाहुश्चतुर्वक्त्राभाग्मुद्गरं वरदमपि च पाशमक्षावलिं दक्षिणे हस्तवृन्दे वहन्।
__ अभयमविकलं तथा मातुलिङ्गं सृणिशक्तिमाभासयत् सततमतुलं वामहस्तेषु यक्षोत्तमोसौ महायक्षकः ।।" (इच्छादण्डक) मंत्र - “ॐ नमो महायक्षाय श्री अजितस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीमहायक्ष सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत्।"
त्रिमुखयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "त्रयास्यः श्यामो नवाक्षः शिखिगमनरतः षड्भुजो वामहस्तः प्रस्तारे मातुलिङ्गाक्षवलयभुजगान् दक्षिणे पाणिवृन्दे ।
बिभ्राणो दीर्घजिह्वद्विषदभयगदासादिताशेषदुष्टः कष्टं संघस्य हन्यात्रिमुखसुरवरः शुद्धसम्यक्त्वधारी ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीत्रिमुखयक्षाय श्रीसंभवस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीत्रिमुखयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
यक्षनायक की पूजा के लिए - छंद - "श्यामः सिन्धुरवाहनो युगभुजो हस्तद्वये दक्षिणे मुक्ताक्षावलिमुत्तमा परिणतं सन्मातुलिङ्गं वहन्।
वामेऽप्यकुशमुत्तमं च नकुलं कल्याणमालाकरः श्रीयक्षेश्वर उज्ज्वलां जिनपतेर्दद्यान्मतिं शासने ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीयक्षेश्वरयक्षाय श्रीअभिनन्दनस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीयक्षेश्वरयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
तुम्बठ्यक्ष की पूजा के लिए - छंद - "वर्णश्वेतो गरुडगमनो वेदबाहुश्च वामे हस्तद्वन्द्वे सुललितगदां नागपाशं च विभ्रत् ।
शक्तिं चंचद्वरदमतुलं दक्षिणे तुम्बकं स प्रस्फीतां नो दिशतु कमलां संघकार्ये ऽव्ययां च।।" मंत्र - ऊँ नमः श्रीतुम्बरवे सुमतिवामिजिनशानरक्षाकारकाय श्रीतुम्बरो सायुधः सवाहनः...... शेष पूर्ववत् ।"
कुसुमयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "नीलस्तुरङ्गगमनश्च चतुर्भुजाढ्यः स्फूर्जत्फलाभयसुदक्षिणपाणियुग्मः।
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आचारदिनकर (खण्ड
पुनातु ।। "
मंत्र
छंद
"ॐ नमः श्रीकुसुमाय श्रीपद्मप्रभस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीकुसुम सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।" मातंगयक्ष की पूजा के लिए "नीलो
बिल्वाहिपाशयुतदक्षिणपाणियुग्मः ।
षतो निहन्तु ।।"
मंत्र
छंद
करोतु । ।" मंत्र
84 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
बभ्रक्षसूत्रयुतवामकरद्वयश्च संघं जिनार्चनरतं कुसुमः
-३)
छंद
“ऊँ नमः श्रीमातङ्गयक्षाय श्रीसुपार्श्वजिनशासनशेष पूर्ववत् ।"
.....
रक्षाकारकाय श्रीमातङ्गयक्ष सायुधः सवाहनः .. विजययक्ष की पूजा के लिए “श्यामानिभो हंसगतिस्त्रिनेत्रो द्विबाहुधारी कर एव वामे । सन्मुद्गरं दक्षिण एव चक्रं वहन् जयं श्रीविजयः
-
-
गजेन्द्रगमनश्च
चतुर्भुजोपि
वज्राङ्कुशप्रगुणितीकृतवामपाणिर्मातङ्गराड् जिनमतेर्द्वि
“ॐ नमः श्रीविजययक्षाय श्रीचन्द्रप्रभस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीविजययक्ष सायुधः सवाहनः शेष पूर्ववत् ।" अजितयक्ष की पूजा के लिए
छंद “कूर्मारूढ़ो धवलकरणो वेदबाहुश्च वामे हस्तद्वन्द्वे नकुलमतुलं रत्नमुत्तंसयंश्च ।
मुक्तामालां परिमलयुतं दक्षिणेबीजपूरं सम्यग्दृष्टिप्रसृमरधियां सोऽजितः सिद्धिदाता । । "
मंत्र
“ॐ नमः श्रीअजितयक्षाय श्रीसुविधिस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीअजितयक्ष सायुधः सवाहनः... शेष पूर्ववत् ।" ब्रह्माक्ष की पूजा के लिए -
“वसुमितभुजयुक् चतुर्वक्त्रभाग् द्वादशाक्षो रुचा
सरसिजविहितासनो
मातुलिङ्गाभये पाशयुग्मुद्गरं दधदति गुणमेव हस्तोत्करे दक्षिणे चापि वामे गदां सृणिनकुलसरोद्रवाक्षावलीर्ब्रह्मनामा सुपर्वोत्तमः । । "
(इच्छादण्डक)
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 85 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्रीब्रह्मणे श्रीशीतलस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीब्रह्मन् सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
यक्षराज की पूजा के लिए - छंद - "त्रयक्षो महोक्षगमनो धवलश्चतुर्दोर्वामेऽथ हस्तयुगले नकुलाक्षसूत्रे।
संस्थापयंस्तदनु दक्षिणपाणियुग्मे सन्मातुलिङ्गकगदेऽवतु यक्षराजः।। मंत्र - "ऊँ नमः श्रीयक्षराज श्रीश्रेयांसस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीयक्षराज सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
कुमारयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "श्वेतश्चतुर्भुजधरो गतिकृच्च हंसे कोदण्डपिङ्गलसुलक्षितवामहस्तः।
सद्बीजपूरशरपूरितदक्षिणान्यहस्तद्वयः शिवमलंकुरुतात्कुमारः।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकुमारयक्षाय श्रीवासुपूज्यस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीकुमारयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
षण्मुखयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "शशधरकरदेहरुग् द्वादशाक्षस्तथा द्वादशोद्यद्भुजो बर्हिगामी परं षण्मुखः फलशरकरवालपाशाक्षमालां महाचक्रवस्तूनि पाण्युत्करे दक्षिणे धारयन् तदनु च ननु वामके चापचक्रस्फरान् पिङ्गलां चाभयं साकुशं सज्जनानन्दनो विरचयतु सुखं सदा षण्मुखः सर्वसंघस्य सर्वासु दिक्षु प्रतिस्फुरितोद्यद्यशाः ।।" (इच्छादण्डक) मंत्र - “ॐ नमः श्रीषण्मुखयक्षाय श्रीविमलस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीषण्मुखयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
पातालयक्ष की पूजा के लिए - छंद - “खट्वाङ्गस्त्रिमुखः षडम्बकधरो वादोर्गतिर्लोहितः पञ पाशमसिं च दक्षिणकरव्यूहे वहन्नंजसा।
___ मुक्ताक्षावलिखेटकोरगरिपू वामेषु हस्तेष्वपि श्रीविस्तारमलंकरोतु भविनां पातालनामा सुरः ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 86 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्रीपातालाय श्रीअनन्तस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीपातालयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।।
किन्नरयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "त्रयास्यः षण्नयनोरुणः कमठगः षड्बाहुयुक्तोभयं विस्पष्टं फलपूरकं गुरुगदां चावामहस्तावलौ।
बिभ्रद्वामकरोच्चये च कमलं मुक्ताक्षमालां तथा बिभ्रत्किंनरनिर्जरो जनजरारोगादिकं कृन्ततु।। मंत्र ___ - “ॐ नमः श्रीकिंनरयक्षाय श्रीधर्मस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीकिंनरयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
. गरुड़यक्ष की पूजा के लिए - छंद - "श्यामो वराहगमनश्च वराहवक्त्रश्चंचच्चतुर्भुजधरो गरुडश्च पाण्योः।
सव्याक्षसूत्रनकुलोप्यथ दक्षिणे च पाणिद्वये धृत सरोरुहमातुलिङ्गः ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीगरुड़यक्षाय श्रीशान्तिनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीगरुड़यक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
गन्धर्वयक्ष की पूजा के लिए - छंद - "श्यामश्चतुर्भुजधरः सितपत्रगामी बिभ्रच्च दक्षिणकरद्वितयेपि पाशम्।
___ विस्फूर्जितं च वरदं किल वामपाण्योर्गन्धर्वराट् परिधृताङ्कुशवीजपूरः ।। मंत्र - “ऊँ नमः श्रीगन्धर्वयक्षाय श्रीकुन्थनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीगन्धर्वयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
यक्षराज की पूजा के लिए - छंद - “वसुशशिनयनः षडास्यः सदा कम्बुगामी धृतद्वादशोद्यद्भुजः श्यामलः तदनु च शरपाशसद्बीजपूराभयासिस्फुरन्मुद्गरान् दक्षिणे स्फारयन् करपरिचरणे पुनर्वामके बभ्रुशूलाकुशानक्षसूत्रं स्फरं कार्मुकं दधदवितथवाक् स यक्षेश्वराभिख्यया लक्षितः पातु सर्वत्र भक्तं जनम् ।।" (इच्छादण्डक)
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 87 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्रीयक्षेश्वराय श्रीअरनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीयक्षेश्वर सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
कुबेरयक्ष की पूजा के लिए - छंद - “अष्टाक्षाष्टभुजश्चतुर्मुखधरो नीलो गजोद्यद्गतिः शूलं पशुमथाभयं च वरदं पाण्युच्चये दक्षिणे।
वामे मुद्गरमक्षसूत्रममलं सद्बीजपूरं दधत् शक्तिं चापि कुबेरकूबरधृताभिख्यः सुरः पातु वः।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकुबेराय श्रीमल्लिनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीकुबेरयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।
वरुणयक्ष की पूजा के लिए - छंद - “श्वेतो द्वादशलोचनोवृषगतिर्वेदाननः शुभ्ररुक् सज्जात्यष्टभुजोऽथ दक्षिणकरवाते गदां सायकान्।
शक्तिं सत्फलपूरकं दधदथो वामे धनुः पङ्कजं परशुं बभ्रुमपाकरोतु वरुणः प्रत्यूहविस्फूर्जितम् ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीवरुणयक्षाय श्रीमुनिसुव्रतस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीवरुणयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
भृकुटियक्ष की पूजा के लिए - छंद - “स्वर्णाभो वृषवाहनोष्टभुजभाग वेदाननो द्वादशाक्षो वामे करमण्डलेऽभयमथो शक्तिं ततो मुद्गरम्।
बिभ्रद्वै फलपूरकं तदपरे वामे च बधं पविं परशुं मौक्तिकमालिकां भृकुटिराड्विस्फोटयेत्संकटम् ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीभृकुटियक्षाय श्रीनेमिस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीभृकुटियक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
गोमेधयक्ष की पूजा के लिए - छंद - ‘षड्बाहूबम्बकभाक् शितिस्त्रिवदनो बाह्यं नरं धारयन् परशूद्यत्फलपूरचक्रकलितो हस्तोत्करे दक्षिणे।
वामे पिङ्गलशूलशक्तिललितो गोमेधनामा सुरः सङ्घस्यापि हि सप्तभीतिहरणो भूयात्प्रकृष्टो हितः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीगोमेधयक्षाय श्रीनेमिनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीगोमेधयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
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मंत्र
आचारदिनकर (खण्ड-३) 88 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
पार्श्वयक्ष की पूजा के लिए - छंद - “खर्वः शीर्षफणः शितिः कमठगो दन्त्याननः पार्श्वकः स्थामोद्भासिचतुर्भुजः सुगदया सन्मातुलिङ्गेन च।
स्फूर्जद्दक्षिणहस्तकोऽहिनकुलभ्रांजिष्णु वामस्फुरत्पाणिर्यच्छतु विजकारि भविनां विच्छित्तिमुच्छेकयुक् ।। " मंत्र - “ॐ नमः श्रीपार्श्वयक्षाय श्रीपार्श्वनाथजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीपार्श्वयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत्।"
ब्रह्मशान्तियक्ष की पूजा के लिए - छंद - "श्यामो महाहस्तिगतिर्द्विबाहुः सद्बीजपूराङ्कितवामपाणिः।
द्विजिह्वशत्रूद्यदवामहस्तो मातङ्गयक्षो वितनोतु रक्षाम् ।।
__ - “ऊँ नमः श्रीमातङ्गयक्षाय श्रीवर्द्धमानस्वामिजिनशासनरक्षाकारकाय श्रीमातङ्गयक्ष सायुधः सवाहनः..... शेष पूर्ववत् ।'
इसके बाद निम्न मंत्रपूर्वक सर्वशासन यक्षों की सामूहिक पूजा करें -
“ॐ नमः चतुर्विंशतिशासनयक्षेभ्यः चतुर्विशतिजिनशासनरक्षकेभ्यः सर्वे शासनयक्षा इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु संनिहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्व समीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा।"
अब आठवें वलय में स्थित शासन यक्षिणियों को निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें -
“यासां संस्मरणाद्भवन्ति सकलाः संपद्गणा देहिनां दिक्पूजाकरणैकशुद्ध मनसां स्युर्वाछिता लब्धयः। याः सर्वाश्रम
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 89 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान वन्दितास्त्रिजगतामाधारभूताश्च या वन्दे शासन देवताः परिकरैर्युक्ता सशस्त्रात्मनः ।।"
तत्पश्चात् क्रमशः चौबीस शासन यक्षिणियों का निम्न छंद एवं मंत्रपूर्वक आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें -
चक्रेश्वरी यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "स्वर्णाभा गरुड़ासनाष्टभुजयुग वामे च हस्तोच्चये वज्रं चापमथाङ्कुशं गुरुधनुः सौम्याशया बिभ्रती।
तस्मिंश्चापि हि दक्षिणेऽथ वरदं चक्रं च पाशं शरान् सच्चक्रापरचक्रभंजनरता चक्रेश्वरी पातु नः।" मंत्र - ऊँ नमः श्रीचक्रेश्वर्यं ऋषभनाथशासनदेव्यै श्रीचक्रेश्वरि सायुधा सवाहना सपरिकरा इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चक्रं गृहाण-गृहाण संनिहिता भव-भव स्वाहा, जलं गृहाण-गृहाण, गन्धं गृहाण-गृहाण, पुष्पं गृहाण-गृहाण, अक्षतान् गृहाण-गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण-गृहाण, धूपं गृहाण-गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण-गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुरु-कुरू, तुष्टिं कुरू-कुरू, पुष्टिं कुरू कुरू, ऋद्धिं कुरु-कुरू, वृद्धिं कुरु-कुरू, सर्वसमीहितानि देहि-देहि स्वाहा।
अजितबला यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “गोगामिनी धवलरुक्च चतुर्भुजाढ्या वामेतरं वरदपाशविभासमाना।
___ वामं च पाणियुगलं सृणिमातुलिङ्गयुक्तं सदाजितबला दधती पुनातु।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्रीअजितबलायै श्रीअजितनाथशासनदेव्यै श्रीअजितबले सायुधाः सवाहनाः..... शेष पूर्ववत् ।'
दुरितारि यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "मेषारूढ़ा . विशदकरणा दोश्चतुष्केण युक्ता मुक्तामालावरदकलितं दक्षिणं पाणियुग्मम्।
वामं तच्चाभयफलशुभं बिभ्रती पुण्यभाजां दद्याद्भद्रं सपदि दुरितारातिदेवी जनानाम् ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
मंत्र
"ॐ
नमः
श्रीदुरितारये
श्रीसंभवनाथशासनदेव्यै
श्रीदुरितो सायुधा सवाहना शेष पूर्ववत् । " काली यक्षिणी की पूजा के लिए
छंद
-
“श्यामाभा पद्मसंस्था वलयवलिचतुर्बाहुविभ्राजमाना पाशं विस्फूर्जमूर्जस्वलमपि वरदं दक्षिणे हस्तयुग्मे ।
बिभ्राणा चापि वामेऽङ्कुशमपि कविषं भोगिनं च प्रकृष्टा देवीनामस्तु काली कलिकलितकलिस्फूर्तितद्भूतये नः । । " मंत्र
सायुधा सवाहना
"ॐ नमः श्रीकाल्यै अभिनन्दननाथशासनदेव्यै श्रीकालि शेष पूर्ववत् । " महाकाली यक्षिणी की पूजा के लिए
छंद
“स्वर्णाभाम्भोरुहकृतपदा स्फारबाहाचतुष्का सारं पाशं वरदममलं दक्षिणे हस्तयुग्मे ।
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वामे रम्याङ्कुशमतिगुणं मातुलिंग वहन्ती सद्भक्तानां दुरितहरणी श्रीमहाकालिकास्तु ।।"
मंत्र
“ॐ नमः श्रीमहाकालिकायै श्रीसुमतिनाथशासनदेव्यै श्रीमहाकालिके सायुधा सवाहना शेष पूर्ववत् । " श्यामा यक्षिणी की पूजा के लिए
“श्यामा चतुर्भुजधरा नरवाहनस्था पाशं तथा च वरदं
वामान्ययोस्तदनु सुन्दरबीजपूरं तीक्ष्णाङ्कुशं च परयोः
“ॐ नमः श्री अच्युतायै श्रीपद्मप्रभस्वामिजिनशासनदेव्यै श्री अच्युते सायुधा सवाहना ...... शेष पूर्ववत् ।" शान्ता यक्षिणी की पूजा के लिए
“गजारूढ़ा पीता द्विगुणभुजयुग्मेन
छंद करयोर्दधाना ।
प्रमुदे ऽच्युतास्तु ।।"
मंत्र
-
छंद
लसन्मुक्तामालां वरदमपि सव्यान्यकरयोः ।
वहन्ती शूलं चाभयमपि च सा वामकरयोर्निशान्तं भद्राणां प्रतिदिशतु शान्ता सदुदयम् ।।" मंत्र
“ॐ नमः श्रीशान्तायै श्रीसुपार्श्वनाथजिनशासनदेव्यै श्रीशान्ते सायुधा सवाहना शेष पूर्ववत् ।"
.....
सहिता
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 91 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
भृकुटि यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “पीता बिडालगमना भृकुटिश्चतुर्दोर्वामे च हस्तयुगले फलकं सुपरशुम्।
तत्रैव दक्षिणकरेऽप्यसिमुद्गरौ च बिभ्रत्यनन्यहृदयान् परिपातु देवी।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीभृकुटये श्रीचंद्रप्रभस्वामिशासनदेव्यै श्रीभृकुटे सायुधा सवाहना ....शेष पूर्ववत्।"
सुतारका यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "वृषभगतिरथोद्यच्चारुबाहाचतुष्का शशधरकिरणाभा दक्षिणे हस्तयुग्मे।
वरदरसजमाले बिभ्रती चैव वामे सृणिकलशमनोज्ञा स्तात् सुतारा महद्धर्यै ।।" मंत्र - "ऊँ नमः श्रीसुतारायै श्रीसुविधिजिनशासनदेव्यै श्रीसुतारे सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।'
अशोका यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “नीला पद्मकृतासना वरभुजैर्वेदप्रमाणैर्युता पाशं सद्वरदं च दक्षिणकरे हस्तद्वये बिभ्रती।
वामे चाकुशवह्मणी बहुगुणाऽशोका विशोका जनं कुर्यादप्सरसां गणैः परिवृता नृत्यद्विरानन्दितैः।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअशोकायै श्रीशीतलनाथशासनदेव्यै श्रीअशोके सायुधा सवाहना .....शेष पूर्ववत्।"
मानवी यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद . - "श्रीवत्साप्यथ मानवी शशिनिभा मातङ्गजिद्वाहना वामं हस्तयुगं तटाङ्कुशयुतं तस्मात्परं दक्षिणम्।
गाढ़ स्फूर्जितमुद्गरेण वरदेनालंकृतं बिभ्रती पूजायां सकलं निहन्तु कलुषं विश्वत्रयस्वामिनः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीमानव्यै श्रीश्रेयांसजिनशासनदेव्यै श्रीमानवि सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।
चण्डा यक्षिणी की पूजा के लिए -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 92 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "श्यामा तुरंगासना चतुर्दोः करयोदक्षिणयोर्वरं च शक्तिम्।
दधती किल वामयोः प्रसून सुगदा सा प्रवरावताच्च चण्डा ।।" मंत्र - "ॐ नमः श्रीचण्डायै श्रीवासुपूज्यजिनशासनदेव्यै श्रीचण्डे सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।'
विदिता यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "विजयाम्बुजगा च वेदबाहुः कनकाभा किल दक्षिणद्विपाण्योः।
शरपाशधरा च वामपाण्योर्विदिता नागधनुर्धराऽवताद्वः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीविदितायै श्रीविमलजिनशासनदेव्यै श्रीविदिते सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।'
अंकुशा यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “पद्मासनोज्ज्वलतनुश्चतुराढ्यबाहुः पाशासिलक्षितसुदक्षिणहस्तयुग्मा।
वामे च हस्तयुगलेऽङ्कुशखेटकाभ्यां रम्याङ्कुशा दलयतु प्रतिपक्षवृन्दम् ।। मंत्र - “ॐ नमः श्रीअकुशायै श्रीअनन्तजिनशासनदेव्यै श्रीअकुशे सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।'
कन्दर्पा यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "कन्दर्पा धृतपरपन्नगाभिधाना गौराभा झषगमना चतुर्भुजा च।
सत्पद्माभययुतवामपाणियुग्मा कल्हाराङ्कुशभृतदक्षिणद्विपाणिः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकन्दर्पायै श्रीधर्मजिनशासनदेव्यै श्रीकन्दर्प सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।
निर्वाणी यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “पद्मस्था कनकरुचिश्चतुर्भुजाभूत्कल्हारोत्पलकलिताऽपसव्यपाण्योः।
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मंत्र
आचारदिनकर (खण्ड-३) 93 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
करकाम्बुजसव्यपाणियुग्मा निर्वाणा प्रदिशतु निर्वृतिं जनानाम् ।।"
__- “ॐ नमः श्रीनिर्वाणायै श्रीशान्तिजिनशासनदेव्यै श्रीनिर्वाणे सायुधा सवाहना .....शेष पूर्ववत्।"
बला यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “शिखिगा सुचतुर्भुजाऽतिपीता फलपूरं दधती त्रिशूलयुक्तम्।
करयोरपसव्ययोश्च सव्ये करयुग्मे तु भुशुंडिभृबलाऽव्यात्।। मंत्र - "ॐ नमः श्रीबलायै अच्युतायै श्रीकुन्थजिनशासनदेव्यै श्रीबले सायुधा सवाहना ...... शेष पूर्ववत्।"
धारणी यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "नीलाभाब्जपरिष्ठिता भुजचतुष्काढ्यापसव्ये करद्वन्द्वे कैरवमातुलिङ्गकलिता वामे च पाणिद्वये।
पद्माक्षावलिधारिणी भगवती देवार्चिता धारिणी सङ्घस्याप्यखिलस्य दस्युनिवहं दूरीकरोतु क्षणात्।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीधारिण्यै श्रीअरजिनशासनदेव्यै श्रीधारिणि सायुधा सवाहना ...... शेष पूर्ववत् ।'
___ धरणप्रिया यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “कृष्णा पद्मकृतासना शुभमयप्रोद्यच्चतुर्बाहुभृत् मुक्ताक्षावलिमद्भुतं च वरदं संपूर्णमुद्बिभ्रती।
चंचद्दक्षिणपाणियुग्ममितरस्मिन्वामपाणिद्वये सच्छक्तिं फलपूरकं प्रियतमा नागाधिपास्यावतु।।" मंत्र - ऊँ नमः श्रीवैराट्यायै श्रीमल्लिजिनशासनदेव्यै श्रीवैरोट्ये सायुधा सवाहना .....शेष पूर्ववत्।"
नरदत्ता यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "भद्रासना कनकरुक्तनुरुच्चबाहुरक्षावलीवरददक्षिणपाणियुग्मा।
सन्मातुलिङ्गयुतशूलितदन्यपाणिरच्छुप्तिका भगवती जयतान्नृदत्ता ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 94 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - “ॐ नमः श्रीनरदत्तायै श्रीमुनिसुव्रतस्वामिजिनशासनदेव्यै श्रीनरदत्ते सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत्।"
गान्धारी यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "हंसासना शशिसितोरुचतुर्भुजाढ्या खङ्गं वरं सदपसव्यकरद्वये च।
सव्ये च पाणियुगले दधती शकुन्तं गांधारिका बहुगुणा फलपूरमव्यात् ।। मंत्र - - “ऊँ नमः श्रीगान्धायै श्रीनेमिजिनशासनदेव्यै श्रीगान्धारि सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत्।"
__अम्बिका यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "सिंहारूढ़ा कनकतनुरुम् वेदबाहुश्च वामे हस्तद्वन्द्वे कुशतनुभुवौ बिभ्रती दक्षिणेऽत्र।
पाशाम्रालीं सकलजगतां रक्षणैकार्द्रचित्ता देव्यम्बा नः प्रदिशतु समस्ताघविध्वंसमाशु।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअम्बायै श्रीनेमिजिनशासनदेव्यै श्रीअम्बे सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत् ।'
पद्मावती यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - "स्वर्णाभोत्तमकुर्कुटाहिगमना सौम्या चतुर्बाहुभृद् वामे हस्तयुगेऽङ्कुशं दधिफलं तत्रापि वै दक्षिणे।
पद्मं पाशमुदंचयन्त्यविरतं पद्मावती देवता किंनर्यर्चितनित्यपादयुगला संघस्य विघ्नं हियात् ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीपद्मावत्यै श्रीपार्श्वजिनशासनदेव्यै श्रीपद्मावति सायुधा सवाहना .....शेष पूर्ववत् ।
सिद्धायिका यक्षिणी की पूजा के लिए - छंद - “सिंहस्था हरिताङ्गरुग् भुजचतुष्केण प्रभावोर्जिता नित्यं धारितपुस्तकाभयलसद्वामान्यपाणिद्वया।
पाशाम्भोरुहराजिवामकरभाग सिद्वायिका सिद्धिदा श्रीसङ्घस्य करोतु विघ्नहरणं देवार्चने संस्मृता।।" मंत्र - "ॐ नमः श्रीसिद्धायिकायै श्रीवर्धमानजिनशासनदेव्यै श्रीसिद्धायिके सायुधा सवाहना ..... शेष पूर्ववत्।"
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आचारदिनकर (खण्ड- -३)
95 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
फिर निम्न मंत्रपूर्वक सर्वयक्षिणियों की सामूहिक पूजा करें - "ऊँ नमः श्रीजिनशासनचतुर्विंशतिजिनशासनदेवीभ्यो विघ्नहारिणीभ्यः सर्ववांछितदायिनीभ्यः समस्तशासनदेव्यः प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छन्तु - आच्छन्तु पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु-गृहूणन्तु . ( शेष सामूहिक पूजा के मंत्रानुसार करना है।)"
इह ..
अब नवें वलय में स्थित दस दिक्पालों को निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें
" दिक्पालाः सकला अपि प्रतिदिशं स्वं स्वं बलं वाहनं शस्त्रं हस्तगतं विधाय भगवत्स्नाने जगदुर्लभे ।
आनन्दोल्बणमानसा बहुगुणं पूजोपचारोच्चयं संध्याय प्रगुणं भवन्तु पुरतो देवस्य लब्धासनाः।।“
तत्पश्चात् क्रमशः दस दिक्पालों का निम्न छंद एवं मंत्रपूर्वक आहूवान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें
इन्द्र की पूजा के लिए
छंद
“सम्यक्त्वस्थिरचित्तचित्रितककुप्कोटीरकोटीपटत् सङ्घ
स्योत्कटराजपट्टपटुतासौभाग्यभाग्याधिकः ।
दुर्लक्षप्रतिपक्षकक्षदहनज्वालावलीसंनिभो
निभालयेन्द्र भगवत्स्नात्राभिषेकोत्सवम् ।।"
मंत्र "ॐ वषट् नमः श्रीइन्द्राय तप्तकांचनवर्णाय पीताम्बराय ऐरावणवाहनाय वज्रहस्ताय द्वात्रिंशल्लक्षविमानाधिपतये अनन्तकोटिसुरसुराङ्गनासेवितचरणाय सप्तानीकेश्वराय पूर्वदिगधीशाय श्रीइन्द्र सायुध सवाहन सपरिच्छद इह प्रतिष्ठामहोत्सवे आगच्छ - आगच्छ इदमर्थ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहाण - गृहाण, संनिहितो भव-भव स्वाहा, जलं गृहाण - गृहाण, गन्धं गृहाण - गृहाण, पुष्पं गृहाण- गृहाण, अक्षतान् गृहाण- गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण- गृहाण, धूपं नैवेद्यं गृहाण - गृहाण, दीपं गृहाण - गृहाण, सर्वोपचारान् कुरू कुरू, तुष्टिं कुरू कुरू, पुष्टिं कुरू कुरू, कुरू कुरू, सर्वसमीहितं देहि देहि स्वाहा ।"
गृहाण - गृहाण, गृहाण - गृहाण ऋद्धिं कुरू कुरू, वृद्धिं
शान्तिं
अग्नि की पूजा के लिए
-
भास्वाद्भाल
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 96 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "नीलाभाच्छादलीलाललितविलुलितालङ्कृ तालंभविष्णुस्फूर्जद्रोचिष्णुरोचिर्निचयचतुरतावंचितोदंचिदेहः।
नव्याम्भोदप्रमोदप्रमुदितसमदाकर्णविद्वेषिधूमध्वान्तध्वंसिध्वजश्रीरधि कतरधियं हव्यवाहो धिनोतु।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीअग्नये सर्वदेवमुखाय प्रभूततेजोमयाय आग्नेयाय दिगधीश्वराय कपिलवर्णाय छागवाहनाय नीलाम्बराय धनुर्बाणहस्ताय श्रीअग्ने सायुध सवाहन ..... शेष पूर्ववत् ।
नाग की पूजा के लिए - छंद -
“मणिकिरणकदम्बाडम्बरालम्बितुंगोत्तमकरणशरण्यागण्यनित्यार्हदा ज्ञाः।
बलिभुवनविभावैः स्वैरगन्धा सुधान्ता गुरुवरभुवि लात्वा यान्तु ते दन्दशूकाः ।। मंत्र - ऊँ ह्रीं फँ नमः श्रीनागेभ्यः पातालस्वामिभ्यः श्रीनागमण्डल सायुध सवाहन ...... शेष पूर्ववत् ।
यम की पूजा के लिए - छंद -
"दैत्यालीमुण्डखण्डीकरणसुडमरोद्दण्डशुण्डप्रचण्डदोर्दण्डाडम्बरेण प्रतिहरिदनुगं भापयन् विघ्नजातम् ।
कालिन्दीनीलमीलत्सलिलविलुनितालङ्कृतोद्यल्लुलायन्यस्ताङ्घिर्धर्मराजो जिनवरभुवने धर्मबुद्धिं ददातु।।" मंत्र - “ऊँ घं घं नमो यमाय धर्मराजाय दक्षिणदिगधीशाय समवर्तिने धर्माधर्मविचारकरणाय कृष्णवर्णाय चर्मावरणाय महिषवाहनाय दण्डहस्ताय श्रीयम सायुध सवाहन ..... शेष पूर्ववत्।"
नैर्ऋते की पूजा के लिए - छंद - "प्रेतान्तप्रोतगण्डप्रतिकडितलुडन्मुण्डितामुण्डधारी दुर्वारीभूतवीर्याध्यवसितलसितापायनिर्घातनार्थी।
___ कार्यामर्शप्रदीप्यत्कुणथकृतबदो नैऋतैया॑प्तपार्श्वस्तीर्थेशस्नात्रकाले रचयतु निर्ऋतिर्दुष्टसंघातघातम् ।।"
नडिअर्धर्मराजो जिनवराय नमो यमाय बचावरणाय
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 97 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - ॐ हसकलही नमः ह्रीं श्रीं निर्ऋतये नैर्ऋतदिगधीशाय धूम्रवर्णाय व्याघ्रचर्मवृताय मुद्गरहस्ताय प्रेतवाहनाय श्रीनिर्ऋते सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत् ।
वरुण की पूजा के लिए - छंद - "कल्लोलोल्बणलोललालितचलत्पालम्बमुक्तावलीलीलालम्भिततारकाढ्यगगनः सानन्दसन्मानसः ।
स्फूर्जन्मागधसुस्थितादिविबुधैः संसेव्यपादद्वयो बुद्धिं श्रीवरुणो ददातु विशदां नीतिप्रतानाद्भुतः ।। मंत्र - “ॐ वं नमः श्रीवरुणाय पश्चिमदिगधीशाय समुद्रवासाय मेघवर्णाय पीताम्बराय पाशहस्ताय मत्स्यवाहनाय श्रीवरुण सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।"
वायु की पूजा के लिए - छंद - "ध्वस्तध्वान्तध्वजपटलटल्लंपटाटंकशंकः पङ्कव्रातश्लथनमथनः पार्श्वसंस्थायिदेवः।
अर्हत्सेवाविदलितसमस्ताघसंघो बाह्यान्तस्थप्रचुररजसां नाशनं श्रीनभस्वान् ।।" मंत्र - “ॐ यं नमः श्रीवायवे वायव्यदिगधीशाय धूसराङ्गाय रक्ताम्बराय हरिणवाहनाय ध्वजप्रहरणाय श्रीवायो सायुधः सवाहनः शेष पूर्ववत् ।
धनद की पूजा के लिए - छंद - "दिननाथलक्षसमदीप्तिदीपिताखिलदिग्विभागमणिरम्यपाणियुक्।
सदगण्यपुण्यजनसेवितक्रमो धनदो दधातु जिनपूजने धियम्।।" मंत्र - श्री यं-यं-यं नमः श्रीधनदाय उत्तरदिगधीशाय सर्वयक्षेश्वराय कैलासस्थाय अलकापुरीप्रतिष्ठाय शक्रकोशाध्यक्षाय कनकाङ्गाय श्वेतवस्त्राय नरवाहनाय रत्नहस्ताय श्रीधनद सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।।
ब्रह्मन् की पूजा के लिए -
विदध्यात्
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 98 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान छंद - "उद्यत्पुस्तकसस्तहस्तनिवहः संन्यस्तपापोद्भवः शुद्धध्यानविधूतकर्मविमलो लालित्यलीलानिधिः ।
वेदोच्चारविशारिचारुवदनोन्माद: सदा सौम्यदृग् ब्रह्मा ब्रह्मणि निष्ठितं वितनुताद्रव्यं समस्तं जनम् ।। मंत्र - "ऊँ नमो ब्रह्मणे ऊर्ध्वलोकाधीश्वराय सर्वसुरप्रतिपन्नपितामहाय स्थविराय नाभिसंभवाय कांचनवर्णाय चतुर्मुखाय श्वेतवस्त्राय हंसवाहनाय कमलसंस्थाय पुस्तककमलहस्ताय श्रीब्रह्मन् सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।"
ईशान की पूजा के लिए - छंद - "क्षुभ्यत्क्षीराब्धिगर्भाम्बुनिवहसततक्षालिताम्भोजवर्णः स्वं सिद्धर्द्धिप्रगल्भीकरणविरचितात्यन्तसम्पातिनृत्यः।
तार्तीयाक्षिप्रतिष्ठस्फुटदहनवनज्वालया लालिताङ्गः शम्भुः शं भासमानं रचयतु भविनां क्षीणमिथ्यात्वमोहः ।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीईशानाय ईशानदिगधीशाय सुरासुरनरवन्दिताय सर्वभुवनप्रतिष्ठिताय श्वेतवर्णाय गजाजिनवृताय वृषभवाहनाय पिनाकशूलधराय श्रीईशान सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत् ।
इसके बाद निम्न मंत्रपूर्वक सर्व दिक्पालों की सामूहिक पूजा करें -
“ऊँ नमः सर्वेभ्यो दिक्पालेभ्यः शुद्धसम्यग्दृष्टिभ्यः सर्वजिनपूजितेभ्यः सर्वेपि दिक्पालाः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः इह नंद्यावर्तपूजने आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं ..... (शेष सामूहिक पूजा पूर्ववत्)।"
___ अब दसवें वलय में स्थित नवग्रह एवं क्षेत्रपाल को निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें -
___ “सर्वे ग्रहा दिनकरप्रमुखाः स्वकर्मपूर्वोपनीतफलदानकरा जनानाम्।
पूजोपचारनिकरं स्वकरेषु लात्वा सन्त्वागताः सपदि तीर्थकरार्चनेऽत्र ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् क्रमशः नवग्रह एवं क्षेत्रपाल का निम्न छंद एवं मंत्रपूर्वक आह्वान, संनिधान एवं द्रव्यपूजन करें सूर्यग्रह की पूजा के लिए
छंद
“विकसितकमलावलीविनिर्यत्यपरिमललालितपूतपादवृन्दः । दशशतकिरणः करोतु नित्यं भुवनगुरोः परमार्चने शुभौघूम ।। "
मंत्र "ॐ घृणि घृणि नमः श्रीसूर्याय सहस्त्रकिरणाय रत्नादेवीकान्ताय वेदगर्भाय यमयमुनाजनकाय जगत्कर्मसाक्षिणे पुण्यकर्मप्रभावकाय पूर्वदिगधीशाय स्फटिकोज्वलाय रक्तवस्त्राय कर्मलहस्ताय सप्ताश्वरथवाहनाय श्रीसूर्य सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः इह नन्द्यावर्तपूजने आगच्छ-आगच्छ इदमर्घ्यं पाद्यं बलिं चरुं गृहाण - गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा, जलं गृहाण - गृहाण, गन्धं गृहाण- गृहाण, पुष्पं गृहाण- गृहाण, अक्षतान् गृहाण - गृहाण, फलानि गृहाण-गृहाण, मुद्रां गृहाण- गृहाण, धूपं गृहाण- गृहाण, दीपं गृहाण-गृहाण, नैवेद्यं गृहाण - गृहाण, सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण, शान्तिं कुरू कुरू, तुष्टिं कुरू कुरू, पुष्टिं कुरू कुरू, ऋद्धिं कुरू कुरू, वृद्धिं कुरू कुरू, सर्वसमीहितानि देहि देहि स्वाहा । "
चन्द्रग्रह की पूजा के लिए
छंद
ध्वान्तकान्ताकुलकलितमहामानदत्तापमानः ।
-
छंद क्रतुभोजिमान्यः ।
“प्रोद्यत्पीयूषपूरप्रसृमरजगतीपोषनिर्दोषकृत्यव्यावृत्तो
न्द्रावदातं गुणनिवहमभिव्यातनोत्वात्मभाजाम्।।“
मंत्र “ॐ चं चं चं नमश्चन्द्राय शम्भुशेखराय षोडशकलापरिपूर्णाय तारागणाधीशाय वायव्यदिगधीशाय अमृताय अमृतमयाय सर्वजगत्पोषणाय श्वेतवस्त्राय श्वेतदशवाजिवाहनांय सुधाकुम्भहस्ताय श्रीचन्द्र सायुधः सवाहनः शेष पूर्ववत् ।" मंगलग्रह की पूजा के लिए "ऋणाभिहन्ता
-
उन्माद्यत्कण्टकालीदलकलितसरोजालिनिद्राविनिद्रश्चन्द्रश्च
.....
-
सुकृताधिगन्ता
सदैववक्रः
प्रमाथकृद्विघ्नसमुच्चयानां श्रीमङ्गलो मंगलमातनोतु । ।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 100 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मंत्र - ॐ हं हं हं सः नमः श्रीमंगलाय दक्षिणदिगधीशाय विद्रुमवर्णाय रक्ताम्बराय भूमिस्थिताय कुद्दालहस्ताय श्रीमङ्गल सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।'
बुधग्रह की पूजा के लिए - छंद - "प्रियगुप्रख्याङ्गो गलदमलपीयूषनिकषस्फुरद्वाणीत्राणीकृतसकलशास्त्रोपचयधीः।
समस्तप्राप्तीनामनुपमविधानं शशिसुतः प्रभूतारातीनामुपनयतु भग स भगवान् ।।" मंत्र - “ॐ ऐं नमः श्रीबुधाय उत्तरदिगधीशाय हरितवस्त्राय कलहंसवाहनाय पुस्तकहस्ताय श्रीबुध सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।"
बृहस्पतिग्रह की पूजा के लिए - छंद - "शास्त्रप्रस्तारसारप्रततमतिवितानाभिमानातिमानप्रागल्भ्यः शम्भुजम्भक्षयकरदिनकृद्विष्णुभिः पूज्यमानः ।
निःशेषास्वप्नजातिव्यतिकरपरमाधीतिहेतुर्ब्रहत्याः कान्तः कान्तादिवृद्धिं भवभयहरणः सर्वसङ्घस्य कुर्यात् ।। मंत्र - "ऊँ जीव-जीव नमः श्रीगुरवे बृहतीपतये ईशानदिगधीशाय सर्वदेवाचार्याय सर्वग्रहबलवत्तराय कांचनवर्णाय पीतवस्त्राय पुस्तकहस्ताय श्रीहंसवाहनाय श्रीगुरो सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत् ।
शुक्रग्रह की पूजा के लिए - छंद - “दयितसंव्रतदानपराजितः प्रवरदेहि शरण्य हिरण्यदः ।
दनुजपूज्यजयोशन सर्वदा दयितसंवृतदानपराजितः।।" मंत्र - “ॐ सुं नमः श्रीशुक्राय दैत्याचार्याय आग्नेयदिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय श्वेतवस्त्राय कुम्भहस्ताय तुरगवाहनाय श्रीशुक्र सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।
__ शनिग्रह की पूजा के लिए - छंद - “माभूद्विपत्समुदयः खलु देहभाजां द्रागित्युदीरितलघिष्ठगतिर्नितान्तम्।
दनुजपूण्यपार
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 101 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
कादम्बिनीकलितकान्तिरनन्तलक्ष्मी सूर्यात्मजो वितनुताद्विनयोपगूढः ।।" मंत्र - “ॐ शः नमः शनैश्चराय पश्चिमदिगधीशाय नीलदेहाय नीलांबराय परशुहस्ताय कमठवाहनाय श्रीशनैश्चर सायुधः सवाहनः .... शेष पूर्ववत्।
राहूग्रह की पूजा के लिए - छंद - “सिंहिकासुतसुधाकरसूर्योन्मादसादनविषादविद्यातिन्।
उद्यतं झटिति शत्रुसमूहं श्राद्धदेव भुवनानि नयस्व ।।" मंत्र - “ऊँ क्षः नमः श्रीराहवे नैर्ऋतदिगधीशाय कज्जलश्यामलाय श्यामवस्त्राय परशुहस्ताय सिंहवाहनाय श्रीराहो सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।"
केतुग्रह की पूजा के लिए - छंद - "सुखोत्पातहेतो विपद्वार्धिसेतो निषद्यासमेतोत्तरीयार्धकेतो।
अभद्रानुपेतोपमाछायुकेतो जयाशंसनाहर्निशं तार्क्ष्यकेतो।।" मंत्र - “ॐ नमः श्रीकेतवे राजुप्रतिच्छन्दाय श्यामागाय श्यामवस्त्राय पन्नगवाहनाय पन्नगहस्ताय श्रीकेतो सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत्।"
क्षेत्रपाल की पूजा के लिए - छंद - "समरडमरसंगमोद्दामराडम्बराडम्बलंबोल सविंशतिप्रौढ़बाहूपमाप्राप्तसाधिपालंकृतिः। निशितकठिनखड्गखड्गाङ्गजाकुन्तविस्फोटकोदण्डकाण्डाछलीयष्टिशूलोरुचक्रक्रमभ्राजिहस्तावलिः।
अतिघनजनजीवनपूर्ण विस्तीर्णसद्वर्णदेहधुताविधुदुद्भूतिभाग भोगिहारोरुरत्नच्छटासंगतिः। मनुजदनुजकीकसोत्पन्नकेयूरताडङ्करम्योर्मिकास्फारशीर्षण्यसिंहासनोल्लासभास्वत्तमः क्षेत्रपः।।" मंत्र - “ऊँ क्षां क्षीं दूं क्षौं क्षः नमः श्रीक्षेत्रपालाय कृष्णगौरकांचनधूसरकपिलवर्णाय कालमेघमेघनादगिरिविदारणआल्हादनप्रह्लादनखंजकभीमगोमुखभूषणदुरितविदारणदुरितारिप्रियंकरप्रेतनाथप्रभृतिप्रसिद्धाभिधानाय विंशतिभुजदण्डाय बर्बरकेशाय जटाजूटमण्डिताय वासुकीकृतजिनोपवीताय तक्षककृतमेखलाय शेषकृतहाराय नानायुधहस्ताय सिंहचर्मावरणाय प्रेतासनाय कुक्कुरवाहनाय त्रिलोचनाय
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 102 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान आनन्दभैरवाद्यष्टभैरवपरिवृताय चतुःषष्टियोगिनीमध्यगताय श्रीक्षेत्रपालाय सायुधः सवाहनः ..... शेष पूर्ववत् ।'
___ फिर निम्न मंत्रपूर्वक नवग्रह एवं क्षेत्रपाल की सामूहिक पूजा करें -
. “ॐ नमः श्रीआदित्यादिग्रहेभ्यः कालप्रकाशकेभ्यः शुभाशुभकर्मफलदेभ्यः नमः कालमेघादिक्षेत्रपालेभ्यः ग्रहाः क्षेत्रपालाः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः इह नंद्यावर्तपूजने आगच्छन्तु-आगच्छन्तु ......... (शेष सामूहिक पूजा पूर्ववत्)।"
यह नंद्यावर्त्त-मण्डल के दस वलयों का पूजा क्रम है। अब चतुष्कोण वर्ग के मध्य में स्थित देवों की अलग-अलग पूजा करें, जैसे
दसों दिशाओं के देवों का आह्वान, संनिधान एवं पूजन क्रमशः निम्न मंत्र से करें -
आग्नेयकोण के देवों के पूजन के लिए -
“आग्नेये असुरनागसुपर्णविद्युदग्निद्वीपोदधिदिक्पवनस्तनितरूपा दशविधा भुवनपतयो निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः सकलत्राः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः प्रभूतभक्तय इह नन्द्यावर्तपूजने आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु संनिहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूप गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, सर्वसमीहितानि यच्छन्तु स्वाहा।'
नैर्ऋतकोण के देवों के पूजन के लिए -
"नैर्ऋते पिशाचभूतयक्षराक्षसकिंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वअणपनिपणपनिऋषिपातिभूतपातिक्रन्दिमहाक्रन्दिकूष्मांडपतगरूपा व्यन्तरा निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः सकलत्राः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः प्रभूतभक्तय इह नन्द्यावर्तपूजने आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं गृह्णन्तु संनिहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु,
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 103 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, सर्वसमीहितानि यच्छन्तु स्वाहा।"
वायव्यकोण के देवों के पूजन के लिए -
"वायव्ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकरूपा ज्योतिष्कादयो निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः शेष पूर्ववत् ।'
ईशानकोण के देवों के पूजन के लिए -
“ईशाने सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तकशुक्रसहस्त्रारानतप्राणतआरणाच्युतकल्पभवाः सुदर्शनसुप्रभमनोरमसर्वभद्रसुविशालसुमनसः सौमनसप्रियंकरादित्यग्रैवेयकभवा विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धिपंचानुत्तरभवा वैमानिकाः निज-निज वर्णवस्त्र वाहनध्वजधराः...... शेष पूर्ववत्।
पूर्वदिशा के कोण के देवों के पूजन के लिए -
“पूर्वस्यां सर्वे दशविधा जृम्भका निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः..... शेष पूर्ववत्।"
दक्षिणदिशा के कोण के देवों के पूजन के लिए -
"दक्षिणस्यां रुचकवासिन्यः षट्पंचाशद्दिक्कुमार्यः निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः..... शेष पूर्ववत् ।
पश्चिमदिशा के कोण के देवों के पूजन के लिए -
“पश्चिमायां चतुःषष्टियोगिन्यः निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः..... शेष पूर्ववत्।।
उत्तरदिशा के कोण के देवों के पूजन के लिए -
"उत्तरस्यां सर्वे वीरभूतपिशाचयक्षराक्षसवनदैवतजलदैवतस्थलदैवताकाशदैवतप्रभृतयो निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः...... शेष पूर्ववत्।"
ततश्च पातालभूलोकस्वर्गलोकवासिनोष्टनवत्युत्तरशतभेदा देवा निज-निज वर्णवस्त्रवाहनध्वजधराः..... शेषं पूर्ववत्।'
पूपा
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 104 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
यहाँ सौधर्मेन्द्र की तीन पूजा होती है - (१) नंद्यावर्त्त के समीप में (२) इन्द्रवलय के मध्य में एवं (३) दिक्पाल वलय के मध्य में। ईशानेन्द्र की तीन पूजा होती है - (१) चन्द्र-सूर्य ग्रहों के मध्य में (२) इन्द्रवलय के मध्य में तथा (३) एक अन्य स्थान पर। पूजाक्रम से पुन-पुनः पूजा करने में कोई दोष नहीं है, जैसे - शान्तिनाथ एवं कुंथुनाथ भगवान को तीर्थंकरों के बीच एवं चक्रवर्तियों के बीच पूजन में स्थापित करते हैं और दोनों स्थानों पर भी पूजते हैं, अतः पूर्व में बताए गए अनुसार इसमें कोई दोष नहीं है। जैसा कि आगम में कहा गया है -
“स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुति, दान एवं संतों के गुण-कीर्तन में पुनरूक्ति का दोष नहीं लगता है।"
इस पूजा में प्रतिष्ठाकर्म करने वाले, अर्थात् विधिकारक, ब्राह्मण एवं ब्रह्मचारी स्वयं के हाथ से नंद्यावर्त्त वलयों में स्थित देवताओं की पूजा करते हैं। उसके समीप अष्टकोण अग्निकुंड में घी, खीर, गन्ने के टुकड़ों एवं विविध फलों के टुकड़ों से परमेष्ठी एवं रत्नत्रय (अरिहंत आदि पंचपरमेष्ठी एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र) को छोड़कर शेष विद्यादेवी लोकान्तिक देव, इन्द्र, इन्द्राणी, शासनयक्ष एवं यक्षिणी, दिक्पाल, ग्रह - प्रत्येक का नाम ग्रहण करके उनके पूजा के मंत्रों से स्वाहा बोलने पर आहुति दें। प्रतिष्ठा कराने वाले क्षुल्लक
और यतिजन तो सर्व सावद्यकारी प्रवृत्तियों के त्यागी होते हैं, अतः वे केवल मंत्र पढ़कर पूजा करते हैं, आहुति तो समीप बैठे हुए गृहस्थ के हाथों से ही करणीय है। वे स्वयं आहुति नहीं देते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है -
सुव्रती वज्रऋषि द्वारा यह करवाना अनुष्ठित होने से वाचक गच्छ में इस प्रकार का गणादेश है।
साधु एवं क्षुल्लकजन आहुति का वर्जन करते हुए मंत्र में 'स्वाहा' के स्थान पर नमः कहते हैं। नंद्यावर्तपूजा में स्थापित पदों, तीर्थंकरों की माता, देव-देवियों आदि की संख्या एवं सामूहिक पूजा की संख्या के अनुसार उतनी-उतनी संख्या में - १. जलचुल्लक (चुल्लू भर जल) २. चंदनादि तिलक ३. पुष्प ४. अक्षतमुष्टि (मुट्ठी भर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 105 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान अक्षत) ५. नारियल ६. मुद्रा ७. धूपपुटिका ८. दीप ६. नैवेद्य के सकोरे आदि - इन नौ वस्तुओं को एकत्रित करें। इस प्रकार वस्तुओं की कुल संख्या निम्नांकित है -
(१) जलाचमन - २६१ (२) चन्दनादितिलक - २६१ (३) पुष्प - २६१ (४) अक्षत मुष्टि - २६१ (५) प्रत्येक जाति के नारियल - २६१ (६) चाँदी-सोने की मुद्राएँ - २६१ (७) धूपपुटिका - २६१ (८) दीप - २६१ (६) नैवेद्य के सकोरे - २६१ - इन वस्तुओं के अतिरिक्त प्रतिष्ठा कराने वाले ब्राह्मण, ब्रह्मचारी आदि द्वारा किए जाने वाले होम के लिए निम्न परिमाण में वस्तुएँ बताई गई हैं -
घी, पायस एवं खंड (इक्षुखंड) - इनके मिश्रण से युक्त शराब - २६१, सर्वजाति के फल - २६१, समिधा हेतु प्रचुर मात्रा में पीपल, आम्र, कैथ, उदुम्बर, अशोक एवं बबूल वृक्ष की लकड़ियाँ - यह नंद्यावर्त्त-पूजा की विधि है। नंद्यावर्त्त के मध्य में यदि चलबिम्ब होता है, तो वहाँ मन से नंद्यावर्त्त के मध्य में स्थिरबिम्ब को स्थापित करें। तत्पश्चात् दो सौ इक्यानवे हाथ परिमाण सदशवस्त्र से नंद्यावर्त्तपट्ट को आच्छादित करें। वस्त्र से आच्छादित नंद्यावर्त के ऊपर विविध प्रकार के सुमधुर एवं सुगन्धी फल यथा - नारियल, बिजौरा, नारंगी, पनस (कटहल), द्राक्षादि शुष्क तथा आर्द्र फल एवं विविध प्रकार की भोजन-सामग्री चढ़ाएं।
तत्पश्चात् बाहर की तरफ वेदिका के चारों कोनों में वारी कन्या द्वारा काते गए सूत्र को चौगुना करके बांधे। फिर चारों दिशाओं में उस श्वेत स्थान के ऊपर जवारारोपण के सकोरों को स्थापित करें। चारों दिशाओं में एक के ऊपर एक इस प्रकार चार-चार घड़े रखें - इस प्रकार चारों दिशाओं के कुल सोलह घड़े होते हैं। यववारा (जवारा) के सकोरे अंकुरित जौ से युक्त होते हैं। वेदी के चारों कोनों में - १. बाट (लापसी) २. खीर ३. करम्ब ४. कसार (कृसरा) ५. कूर ६. चूरमापिंड एवं ७. पुए - इन सात वस्तुओं से पूर्ण (भरे हुए) सकोरे रखें। तत्पश्चात् चन्दन से वासित, कंकण, स्वर्णमुद्रा, जल एवं वस्त्र से युक्त चार सोने या मिट्टी के कलश नंद्यावर्त्त के
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान चारों कोनों के श्वेत स्थान पर स्थापित करें। घी, गुड़ सहित प्रज्वलित मंगलदीपक नंद्यावर्त्तपट्ट की चारों दिशाओं में रखें। पुनः चारों दिशाओं में चाँदी, कौड़ी, रक्षापोटली, जल एवं धान्य सहित चार कलश स्थापित करें। उनकी पूजा और कंकण - बन्धन की क्रिया सुकुमारिकाएँ करती है । उनके ऊपर चार यववारक को स्थापित करें और उनमें से प्रत्येक को चार लड़ी वाले कौसुम्भसूत्र से वेष्टित करें। फिर शक्रस्तवपूर्वक चैत्यवंदन करें। अधिवासना ( प्राणप्रतिष्ठा) का समय एकदम नजदीक आने पर बिम्ब पर पुष्पसहित ऋद्धि-वृद्धि, मदनफल एवं अरिष्ट से निर्मित कंकण बांधें। चौबीस हाथ परिमाण चन्दन से वासित एवं पुष्पों से युक्त सदश नवीन श्वेतवस्त्र से बिम्ब को आच्छादित करें और एक मातृशाटिका से पार्श्वभाग को वेष्टित करें। फिर उस पर चंदन के छींटे दें एवं पुष्पपूजन करें। फिर गुरु बिम्ब की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। अधिवासना (प्राणप्रतिष्ठा ) का मंत्र निम्न है -
“ऊँ नमो खीरासवलद्धीणं ॐ नमो महुआसवलद्धीणं ॐ नमो संभिन्नसोईणं ॐ नमो पायाणुसारीणं ॐ नमो कुट्ठबुद्धीणं जमियं विज्जं पंउजामि सा में विज्जा पसिज्झउ ऊँ अवतर - अवतर सोमे - सोमे ॐ वज्जु- वज्जु ऊँ निवज्जु-निवज्जु सुमणसे सोमणसे महुमहुरे कविल ॐ कक्षः स्वाहा ।" अथवा
१.
“ॐ नमः शान्तये हूं क्षं हूं सः " इस मंत्र से बिम्ब के सभी अंगों पर हाथ रखकर बिम्ब की प्राणप्रतिष्ठा करें। फिर शालि (चावल) २. यव (जौ) ३. गोधूम ४. मुद्ग (मूंग) ५. वल्ल (वाल ) ६. चणक ( चना ) एवं ७. चवलक (चवला) धान्यों को पुष्पों से युक्त कर उससे भरी हुई अंजली से बिम्ब को स्नान कराएं। सप्तधान्य से स्नान कराने का छंद निम्न है
इन सात
“सर्वप्राणसमं सर्वधारणं
सर्वजीवनम् ।
-
प्रीणयतु समस्त सुरवृन्दनम् । ।“
-
-
भवत्वन्नं महार्चने । । "
सभी जगह पुष्प चढ़ाएं एवं धूप - उत्क्षेपण करें। धूप - उत्क्षेपन का छंद निम्नांकित है
-
“उर्ध्वगतिदर्शनालोकदर्शितानन्तरोर्ध्वगतिदानः । धूपो वनस्पतिरसः
अजीवजीवदानाय
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
107 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
:
पुत्रवान् चार या चार से अधिक सधवा स्त्रियाँ निरुंछन-विधि करें, अर्थात् जिनबिम्ब को बधाएं । उनको चाँदी (मुद्रा) का दान करें । पुनः बिम्ब के आगे प्रचुर मात्रा में मोदक एवं पकवान चढ़ाएं। फिर अलग से तीन सौ छत्तीस क्रयाणक की पोटली चढ़ाएं। श्रावकजन आरती करें। कुछ लोग उस समय मंगलदीपक भी करते हैं । फिर चैत्यवंदन करें । “ अधिवासनादेव की आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" ऐसा कहकर अन्नत्थ बोलकर गुरु एवं श्रावकजन कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें एवं कायोत्सर्ग पूर्ण कर, निम्न स्तुति बोलें -
“विश्वाशेषसुवस्तुषु मंत्रैर्याजनमधिवसतिवसतौ । सेमामवतरतु श्रीजिनतनुमधिवासनादेवी ।।"
या
“पातालमन्तरिक्षं भवनं वा या समाश्रिता नित्यम् । सात्रावतरतु जैनीं प्रतिमामधिवासना देवी ।।"
फिर श्रुतदेवी, शान्तिदेवता, अम्बादेवी, क्षेत्रदेवी, शासनदेवी एवं समस्त वैयावृत्तकर देवता के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व की भाँति ही करें। पुनः शक्रस्तव बोलें तथा उसके बाद गुरु बैठकर बिम्ब के आगे यह विज्ञप्ति करें
-
" अनुग्रह करने वाले सिद्ध परमात्मा का स्वागत है, ये सिद्ध भगवान् ज्ञान के भण्डार हैं, आनन्द को देने वाले हैं एवं दूसरों पर अनुग्रह करने वाले हैं।" यह प्राणप्रतिष्ठा की विधि है।
प्रायः बिम्ब की प्राणप्रतिष्ठा रात्रि में और स्थापना दिन में की जाती है। इसके विपरीत प्राणप्रतिष्ठा एवं स्थापना दोनों का लग्नसमय नजदीक ही हो, तो प्राणप्रतिष्ठा के कुछ समय बाद अन्य में प्रतिमा की प्रतिष्ठा (स्थापना) करें । उसकी विधि यह है शुभलग्न सर्वप्रथम निम्न छंद से शान्ति हेतु चारों दिशाओं में जलसहित बलि प्रदान करें। उसके बाद निम्न मंत्र बोलकर चैत्यवंदन करें
“उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगतिदुःस्वप्नर्निमित्तादि । संपादितहितसंपन्नामग्रहणं जयतिशान्तेः।।"
-
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 108 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
प्रतिष्ठादेवता के आराधनार्थ कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें। कायोत्सर्ग पूर्ण करके निम्न स्तुति बोलें -
। “यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सर्वाः सर्वास्पदेषु नंदन्ति। श्रीजिनबिम्बं प्रविशतु सदेवता सुप्रतिष्ठितमिदम् ।।"
तत्पश्चात् शासनदेवी, क्षेत्रदेवी, समस्त वैयावृत्त्यकर देवताओं के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व की भाँति ही करें। तत्पश्चात् धूप-उत्क्षेपन करें। फिर प्रतिष्ठालग्न के समय गुरु सभी लोगों को दूर करके परदा बंधवाकर बिम्ब के वस्त्र उतारे और घी से भरा हुआ पात्र बिम्ब के सामने रखे। तत्पश्चात् चाँदी की कटोरी में संचित सुरमा, घी, मधु, शर्करा की मिश्रित पिष्टी को स्वर्ण शलाका से लेकर वर्णन्यासपूर्वक प्रतिमा के नेत्रों को उद्घाटित करें तथा यह मंत्र बोले -
__"हां ललाटे। श्री नयनयोः। हृीं हृदये। रै सर्वसंधिषु। लौं प्राकारः। कुम्भकेन न्यासः।।"
- बिम्ब के सिर पर अभिमंत्रित वासक्षेप डाले। सूरिमंत्र से वासक्षेप को अभिमंत्रित करने की विधि आचार्यपद विधि के समान ही है। फिर आचार्य चन्दन एवं अक्षत से पूजित बिम्ब के दाएँ कान में सात बार मंत्र बोलें। तीन, पाँच या सात बार प्रतिष्ठामंत्रपूर्वक दाएँ हाथ से बिम्ब के चक्र को स्पर्शित करें। प्रतिष्ठामंत्र निम्न है -
“ॐ वीरे-वीरे जय वीरे सेणवीरे महावीरे जये विजये जयन्ते अपराजिते ऊँ ह्रीं स्वाहा।"
फिर दूध का पात्र चढ़ाएं, दर्पण दिखाएं और दृष्टि की रक्षा एवं सौभाग्य के स्थिरीकरण के लिए सौभाग्यमुद्रा, परमेष्ठीमुद्रा, सुरभिमुद्रा, प्रवचनमुद्रा और गरुड़मुद्रा पूर्वक निम्न मंत्र का सर्वांगों पर न्यास करें -
“ऊँ अवतर-अवतर सोमे सोमे कुरू कुरू ऊँ वग्गु-वरंगु निवग्गु-निवगु सुमणसे सोमणसे महुमहुरे ऊँ कविलकक्षः स्वाहा।।
तत्पश्चात् स्त्रियाँ बिम्ब को धान से बधाएँ। स्थिर प्रतिमा के मंत्र से (बिम्ब को) स्थिरीकरण करें। स्थिरीकरण का मंत्र निम्नांकित
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 109 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"ऊँ स्थावरे तिष्ठ-तिष्ठ स्वाहा।' चलप्रतिमा पर पुनः निम्न मंत्र का न्यास करें - "ॐ जये श्रीं ह्रीं सुभद्रे नमः।"
तत्पश्चात् पद्ममुद्रा एवं निम्न मंत्रपूर्वक रत्नासन को स्थापित करें।
"इदं रत्नमयमासनमलंकुर्वन्तु इहोपविष्टा भव्यानवलोकयन्तु हृष्टदृष्टयादिजिनाः स्वाहा।"
इसके बाद निम्न मंत्रपूर्वक गन्ध, पुष्प एवं धूप का दान करें
"ऊँ ये गन्धान् प्रतीच्छन्तु स्वाहा। ऊँ ये पुष्पाणि प्रतीच्छन्तु स्वाहा। ॐ यं धूपं भजन्तु स्वाहा ।"
तत्पश्चात् मंत्रपाठपूर्वक तीन बार पुष्पांजलि प्रक्षिप्त करें तथा निम्न मंत्र बोलें -
“ॐ ये सकलसत्वालोककर अवलोकय भगवन् अवलोकय स्वाहा।
फिर परदे को हटाकर सर्वसंघ एकत्रित होकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र एवं अलंकार द्वारा महापूजा करे। तत्पश्चात् मोरण्ड, सुकुमारिका आदि नैवेद्य चढ़ाएं, लूण (राई) एवं आरती उतारें। फिर निम्न मंत्रपूर्वक बिम्ब के आगे भूतबलि दें -
“ऊँ हों भूतबलिं जुषन्तु स्वाहा।।
इसके बाद गुरु संघसहित चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् पुनः श्रुतदेवी, शान्तिदेवी, क्षेत्रदेवता, अम्बिकादेवता एवं समस्त वैयावृत्त्यकर देवता के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व की भाँति ही करें। फिर प्रतिष्ठादेवी के आराधनार्थ कायोत्सर्ग करके निम्न स्तुति बोलें -
“यधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सर्वाः सर्वास्पदेषुनन्दन्ति। श्री जिन बिम्बं सा विशतु देवता सुप्रतिष्ठिमिदं ।।"
तत्पश्चात् नमस्कार मंत्रपूर्वक शक्रस्तव बोलकर शान्तिस्तव बोलें। फिर गुरु संघ सहित मंगल गाथापाठपूर्वक अक्षत की अंजलि से बधाएं। मंगलगाथा का पाठ निम्न है -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 10 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"जिस प्रकार त्रिलोक के चूड़ामणिरूप सिद्धस्थान पर सिद्धों की प्रतिष्ठा है, उसी तरह यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में स्वर्ग प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित
रहे।
जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में मेरु सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र समुद्रों में लवण समुद्र सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
___इन गाथाओं से पुष्पांजलि अर्पण करें। तत्पश्चात् मुखोद्धाटन करें। महापूजा-महोत्सव करें। गुरु प्रवचनमुद्रा में देशना दे। देशना इस प्रकार है -
“स्तुति दान, मंत्र, न्यास, आह्वान, जिनबिम्ब का दिशाबन्ध, प्रतिमा का नेत्रोन्मीलन और देशना - यह इस कल्प में गुरु के अधिकार हैं।"
जिस प्रकार से राजा अपने बल एवं शक्ति द्वारा धवलयश को प्राप्त करता है, वैसे ही यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित होकर उस देश में विपुल पुण्यबंध का कारण बने। जिस प्रकार से सम्यक विधि से की गई भक्ति एवं पूजा रोग, मारि और दुर्भिक्ष को दूर कर देती है, उसी प्रकार से भावपूर्वक की गई यह प्रतिष्ठा समस्त लोक के लिए कल्याणकारी हो। जो भी भक्तिपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करता है, करवाता है या उसकी अनुमोदना करता है, वह सर्वत्र सुख का भागी होता है। जिनबिम्ब के प्रतिष्ठा-कार्य में जो अपने द्रव्य का उपयोग करता है, उसका द्रव्य सार्थक होता है और उसके दुर्गति को ले जाने
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 11 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान वाले कर्म समाप्त हो जाते हैं - ऐसा जानकर सदैव जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराना चाहिए, जिससे जरा-मरण के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत स्थान की प्राप्ति हो।" - प्रतिष्ठा करने का यह लाभ है।
___ तत्पश्चात् अष्टाह्निका (महोत्सव) की महिमा बताएं। गृहस्थ गुरु को वस्त्र, पात्र, पुस्तक, वसति, कंकण, मुद्रादि प्रदान करें। सभी साधुओं को वस्त्र एवं अन्न का दान दें, संघ की पूजा करें, पंचरत्न का कार्य करने वालों को वस्त्र एवं आभूषण प्रदान करें। स्नात्र कराने वालों को स्वर्ण की मेखला या कड़ा प्रदान करें। औषधि का पेषण करने (कूटने) वाली स्त्रियों एवं अंजन पीसने वाली कन्याओं को वस्त्राभूषण एवं मातृशाटिका प्रदान करें। तत्पश्चात् देश, काल आदि की अपेक्षा से तीन, पाँच, सात या नौ दिन तक प्रतिष्ठा-देवता की स्थापना एवं नंद्यावर्त्तपट्ट की रक्षा करें। वहाँ प्रतिदिन निरन्तर स्नात्रपूजा करें। अब स्नात्रपूजा की विधि बताते है -
सर्वप्रथम पूर्व में श्रावक की दिनचर्या-विधि में बताई गई अर्हत्कल्प-विधि के अनुसार परमात्मा की पूजा एवं आरती करें। जो स्वयं स्नान किए हुए हों, शुद्ध वस्त्रों को धारण किए हुए हों, हाथ में कंकण एवं सोने की मुद्रिका धारण किए हुए हों, जिन उपवीत एवं उत्तरासन को धारण किए हुए हों तथा उत्तरासनवस्त्र से मुख को आच्छादित किए हुए हों- ऐसे श्रावक स्नात्रपीठ को धोकर चल-स्थिर प्रतिमा के समक्ष अकेले या दो, तीन, चार, पाँच श्रावकों के साथ खड़े होकर करसंपुट में कुसुमांजलि रखकर स्रग्धरा छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“लक्ष्मीरद्यानवद्यप्रतिभपरिनिगद्याद्य पुण्यप्रकर्षोत्कर्षैराकृष्यमाणा करतलमुकुलारोहमारोहति स्म। शश्वद्विश्वातिविश्वोपशमविशदतोद्भासविस्मापनीयं, स्नात्रं सुत्रामयात्राप्रणिधि जिनविभोर्यत्समारब्धमेतत्।।
कल्याणोल्लासलास्यप्रसृमरपरमानन्दकन्दायमानं मन्दामन्दप्रबोधप्रतिनिधिकरुणाकारकन्दायमानम्। स्नात्रं श्रीतीर्थभर्तुर्धनसमयमिवात्मार्थकन्दायमानं दद्याद्भक्तेषु पापप्रशमनमहिमोत्पादकं दायमानम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 112 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
देवादेवाधिनाथप्रणमननवनानन्तसानन्तचारिप्राणप्राणावयानप्रकटितविकटव्यक्तिभक्तिप्रधानम्। शुक्लं शुक्लं च किंचिच्चिदधिगमसुखं सत्सुखं स्नात्रमेतन्नन्द्यान्नन्द्याप्रकृष्टं दिशतु शमवतां संनिधानं निधानं ।।
विश्वात्संभाव्य लक्ष्मीः क्षपयति दुरितं दर्शनादेव पुंसामासन्नो नास्ति यस्य त्रिदशगुरुरपि प्राज्यराज्यप्रभावे। भावान्निर्मुच्य शोच्यानजनि जिनपतिर्यः समायोगयोगी तस्येयं स्नात्रवेला कलयतु कुशलं कालधर्मप्रणाशे।।
नालीकं यन्मुखस्याप्युपमितिमलभत्क्वापि वार्तान्तराले नालीकं यन्न किंचित्प्रवचन उदितं शिष्यपर्षत्समक्षम्। नालीकं चापशक्त्या व्यरचयत न वै यस्य सद्रोहमोहं। नालीकं तस्य पादप्रणतिविरहितं, नोऽस्तु तत्स्नात्रकाले।।
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि प्रक्षिप्त करें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें -
“फणिनिकरविवेष्टनेऽपि येनोज्झितमतिशैत्यमनारतं न किंचित्। मलयशिखरिशेखरायमाणं तदिदं चन्दनमर्हतोऽर्चनेस्तु।।"
उक्त छंदपूर्वक बिम्ब को चन्दन से वासित करें एवं शक्रस्तव का पाठ करें। फिर निम्न छंद बोलें -
“ऊर्ध्वाधोभूमिवासित्रिदशदनुसुतक्ष्मास्पृशां घ्राणहर्षप्रौढ़िप्राप्तप्रकर्षः क्षितिरुहरजसः क्षीणपापावगाहः।
धूपोऽकूपारकल्पप्रभवतिजराकष्टविस्पष्टदुष्टस्फूर्जत्संसारपाराधिग ममतिधियां विश्वभर्तुः करोतु।।
इस छंद द्वारा सर्व कुसुमांजलियों के बीच बिम्ब को धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर शार्दूलविक्रीड़ित छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
__"कल्पायुः स्थितिकुम्भकोटिविटपैःसर्वैस्तुराषागणैः कल्याणप्रतिभासनाय विततप्रव्यक्तभक्त्या नतैः ।
कल्याणप्रसरैः पयोनिधिजलैः शक्त्याभिषिक्ताश्च ये कल्याण प्रभवाय सन्तु सुधियां ते तीर्थनाथाः सदा।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 113 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“रागद्वेषजविग्रहप्रमथनः संक्लिष्टकर्मावलीविच्छेदादपविग्रहः प्रतिदिनं देवासुरश्रेणिभिः। सम्यक्चर्चितविग्रहः सुतरसा निर्धूतमिथ्यात्ववक्तेजःक्षिप्तपविग्रहः स भगवान्भूयाद्भवोच्छित्तये।।।
संक्षिप्ताश्रवविक्रियाक्रमणिकापर्युल्लसत्संवरं षण्मध्यप्रतिवासिवैरिजलधिप्रष्टम्भने संवरम्। उद्यत्कामनिकामदाहहुतभुग्विध्यापने संवरं वन्दे श्रीजिननायकं मुनिगणप्राप्तप्रशंसं वरम् ।।
श्रीतीर्थेश्वरमुत्तमैर्निजगुणैः संसारपाथोनिधेः कल्लोलप्लवमानवप्रवरतासंधानविध्यापनम्। वन्देऽनिन्द्यसदागमार्थकथनप्रौढ़प्रपंचैः सदा कल्लोलप्लवमानवप्रवरतासंधानविध्यापनम् ।।
स्नात्रं तीर्थपतेरिदं सुजनताखानिः कलालालसं जीवातुर्जगतां कृपाप्रथनकृत्क्लृप्तं सुराधीश्वरैः। अङ्गीकुर्म इदं भवाच्च बहुलस्फूर्तेः प्रभावैर्निजैः स्नात्रं तीर्थपतेरिदं सुजनताखानिः कलालालसम् ।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
“दूरीकृतो भगवतान्तरसंश्रयो यो ध्यानेन। निर्मलतरेण स एव
रागः।
मुक्त्यै सिषेविषुरमुं जगदेकनाथमंगे विभाति निवसन् घुसृणच्छलेन।।"
__इस छंद से बिम्ब को कुंकुम से वासित करें। शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वाधो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर शिखरिणी छंद के राग में निम्न छंद पढ़ें -
___“प्रभोः पादद्वन्द्वे वितरणसुधाभुक्शिखरिणीव संभूतश्रेयो हरिमुकुटमालाशिखरिणी। विभाति प्रश्लिष्टा समुदयकथा वैशिखरिणी न तेजःपुंजाढ्या सुखरसनकाङ्क्षाशिखरिणी।।
जगद्वन्द्या मूर्तिः प्रहरणविकारैश्च रहितो विशालां तां मुक्तिं सपदि सुददाना विजयते। विशालां तां मुक्तिं सपदि सुददाना विजयते दधाना संसारच्छिदुरपरामानन्दकलिता।।।
___भवाभासंसारं हृदिहरणकम्पं प्रति नयत् कलालम्बः कान्तप्रगुणगणनासादकरणः। (इसका तृतीय एवं चतुर्थ पद प्रथम एवं द्वितीय पद के समान ही जाने)
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 114 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
जयं जीवं भानुं बलिनमनिशं संगत इलाविलासः सत्कालक्षितिरलसमानो विसरणे। (चतुर्थ पद्य में भी प्रथम एवं द्वितीय पद के समान ही तृतीय एवं चतुर्थ पद को जाने)
अमाद्यद्वेषोऽर्हन्नवनमनतिक्रान्तकरणैरमाद्यद्वेषोऽर्हन्नवनमनतिक्रान्त करणैः। सदा रागत्यागी विलसदनवद्यो विमथनः सदारागत्यागी विलसदनवद्यो विमथनः।।
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
'घाणतर्पणसमर्पणापटुः क्लृप्तदेवघटनागवेषणः । यक्षकर्दम इनस्य लेपनात्कर्दमं हरतु पापसंभवम् ।।
इस छंद द्वारा बिम्ब के यक्षकर्दम (एक प्रकार का लेप जिसमें कपूर, अगर, कस्तूरी एवं कंकोलादि समान मात्रा में डाले जाते हैं) का लेप करें। पुनः शक्रस्वत का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वाधो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर मंदाक्रान्ता छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“आनन्दाय प्रभव भगवनङ्गसङ्गावसान आनन्दाय प्रभव भगवन्नङ्गसङ्गावसान। आनन्दाय प्रभव भगवनङ्गसङ्गावसान आनन्दाय प्रभव भगवन्नङ्गसगावसान।।।
भालप्राप्तप्रसृमरमहाभागनिर्मुक्तलाभं देवव्रातप्रणतचरणाम्भोज हे देवदेव। जातं ज्ञानं प्रकटभुवनत्रातसज्जन्तुजातं हंसश्रेणीधवलगुणभाक् सर्वदा ज्ञातहंसः।।
जीवन्नन्तर्विषमविषयच्छेदक्लृप्तासिवार जीवस्तुत्यप्रथितजननाम्भोनिधौ कर्णधारः। जीवप्रौढ़िप्रणयनमहासूत्रणासूत्रधार जीवस्पर्धारहितशिशिरेन्दोपमेयाब्दधार।।
पापाकाङ्क्षामथन मथनप्रौढिविध्वंसिहेतो क्षान्त्याघास्थानिलय निलयश्रान्तिसंप्राप्तत्क। साम्यक्राम्यन्नयननयनव्याप्तिजातावकाश स्वामिन्नन्दाशरणशरणप्राप्तकल्याणमाला।।
जीवाः सर्वे रचितकमल त्वां शरण्यं समेताः क्रोधाभिख्याज्वलनकमलक्रान्तविश्वारिचक्रम्। भव्यश्रेणीनयनकमलप्राग्विबोधैकभानो मोहासौख्यप्रजनकमलच्छेदमस्मासु देहि।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 115 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। फिर निम्न छंद बोलें - “निरामयत्वेन मलोज्झितेन गन्धेन सर्वप्रियताकरेण। गुणैस्त्वदीयाऽतिशयानुकारी तवागमां गच्छतु देवचंद्रः।।
इस छंद से बिम्ब पर कर्पूर लगाएं। शक्रस्तव का पाठ करें तत्पश्चात् “ऊर्ध्वाधो.“ छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। इसके बाद पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर बसंततिलका छंद के राग में निम्न छंद बोलें
“संसारवारिनिधितारण देवदेव संसारनिर्जितसमस्तसुरेन्द्रशैल। संसारबन्धुरतया जितराजहंस संसारमुक्त कुरु मे प्रकटं प्रमाणम् ।।
रोगादिमुक्तकरणप्रतिभाविभास कामप्रमोदकरणव्यतिरेकघातिन्। पापाष्टमादिकरण- प्रतपःप्रवीण मां रक्ष पातकरणश्रमकीर्णचित्तम् ।।
____ त्वां पूजयामि कृतसिद्धिरमाविलासं नम्रक्षितीश्वरसुरेश्वरसद्विलासम्। उत्पन्नकेवलकलापरिभाविलासं ध्यानाभिधानमयचंचदनाविलासम् ।।
गम्यातिरेकगुणपापभरावगम्या न व्याप्नुते विषयराजिरपारनव्या। सेवाभरेण भवतः प्रकटेरसे वा तृष्णा कुतो भवति तुष्टिव (म) तां च तृष्णा।।
वन्दे त्वदीयवृषदेशनसद्मदेवजीवातुलक्षितिमनन्तरमानिवासम् । आत्मीयमानकृतयोजनविस्तराढ्यं जीवातुलक्षितिमनन्तरमानिवासम् ।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। फिर निम्न छंद बोलें -
"नैर्मल्यशालिन इमेप्यजड़ा अपिण्डाः संप्राप्तसद्गुणगणा विपदां निरासाः।
___त्वद्ज्ञानवज्जिनपते कृतमुक्तिवासा वासाः पतन्तु भविनां भवदीय देहे।।
इस छंद से बिम्ब पर वासक्षेप करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वाधो“ छंदपूर्वक धूपउत्क्षेपण करें। इसके बाद पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर मालिनी छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
" “सुरपतिपरिक्लृप्तं त्वत्पुरो विश्वभर्तुः कलयति परमानन्दक्षणं प्रेक्षणीयम्। न पुनरधिकरागं शान्तचित्ते विधत्ते कलयति परमानन्दक्षणं प्रेक्षणीयम् ।।
"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 116 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
सदयसदयवानिर्तितामय॑हर्षा विजयविजयपूजाविस्तरे सन्निकर्षा। विहितविहितबोधादेशना ते विशाला कलयकुलयमुच्चैर्मय्यनत्याईचित्ते ।।
विरचितमहिमानं माहिमानन्दरूपं प्रतिहतकलिमानं कालिमानं क्षिपन्तम्। जिनपतिमभिवन्दे माभिवन्देतिघातं सुविशदगुणभारं गौणभारङ्गसारम् ।।
सुभवभृदनुकम्पानीर्विशेषं विशेष क्षपितकलुषसंघातिप्रतानं प्रतानम्। पदयुगमभिवन्दे ते कुलीनं कुलीनं उपगतसुरपर्षत्सद्विमानं विमानम् ।।
किरणकिरणदीप्तिर्विस्तरागोतिरागो विधुतविधुतनूजाक्षान्तिसाम्योऽतिसाम्यः। विनयविनययोग्यः संपरायो परायो जयति जयतिरोधानैकदेहः कदेहः ।।" ___इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद
बोलें
___“श्रितफणपतिभोगः क्लृप्तसर्वांगयोगः श्लथितसदृढ़रोगः श्रेष्ठनापोपभोगः।
सुरवपुषितरोगः सर्वसंपन्नभोगः स्फुटमृगमदभोगः सोऽस्तु सिद्धोपयोगः ।।"
. इस छंद को बोलते हुए जिनबिम्ब पर कस्तूरी का लेप करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वाधो' छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् हाथ में कुसुमांजलि लेकर भुजंगप्रयात छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“यशश्चारशुभ्रीकृतानेकलोकः सुसिद्वान्तसन्तर्पितच्छेकलोकः । महातत्त्वविज्ञायिसंवित्कलोकः प्रतिक्षिप्तकर्मारिवैपाकलोकः ।।
विमानाधिनाथस्तुताघ्रिद्वयश्रीविमानातिरेकाशयः काशकीर्तिः । विमानाप्रकाशैर्महोभिः परीतो विमानायिकैर्लक्षितो नैव किंचित् ।।
क्षमासाधनानन्तकल्याणमालः क्षमासज्जनानन्तवन्द्याघ्रियुग्मः । जगद्भावनानन्तविस्तारितेजा जगद्व्यापनानन्तपू:सार्थवाहः।।
वपुःसंकरं संकरं खण्डयन्ति सहासंयमं संयमं संतनोति। कलालालसं लालसं तेजसे तं सदाभावनं भावनं स्थापयामि।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
117 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
विशालं परं संयमस्थं विशालं विशेषं सुविस्तीर्णलक्ष्मीविशेषम् । नयानन्दरूपं स्वभक्तान्नयानं जिनेशं स्तुतं स्तौमि देवं जिनेशम् || " इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। फिर निम्न छंद बोलें - "देवादेवाद्यभीष्टः परमपरमहानन्ददाताददाता कालः कालप्रमाथी विशर विशरणः संगत श्रीगतश्रीः ।
जीवाजीवाभिमर्शः कलिलकलिलताखण्डनार्होडनार्हो द्रोणाद्रोणास्यलेपः कलयति लयतिग्मापवर्गंपवर्गम् ।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब पर काला अगरु का लेप करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वाधो" छंदपूर्वक धूप - उत्क्षेपण करें । तत्पश्चात् हाथ में कुसुमांजलि लेकर वंशस्थ छंद के राग में निम्न श्लोक बोलें
-
"विधूतकर्मारिबलः सनातनो विधूतहारावलितुल्यकीर्तिभाक् । प्रयोगमुक्तातिशयोर्जितस्थितिः प्रयोगशाली जिननायकः श्रिये ।।
सुपुण्यसंदानितकेशवप्रियः सदैवसंदानितपोविधानकः । सुविस्तृताशोभनवृत्तिरेन्द्रकस्तिरस्कृताशोभनपापतापनः ।।
स्थिताततिः पुण्यभृतां क्षमालया पुरोपि यस्य प्रथिताक्षमालया । तमेव देवं प्रणमामि सादरं पुरोपचीर्णेन महेन सादरं ।।
कलापमुक्तव्रतसंग्रहक्षमः कलापदेवासुरवन्दितक्रमः । कलापवादेन विवर्जितो जिनः कलापमानं वितनोतु देहिषु ।।
निदेशसंभावितसर्वविष्टपः
सदाप्पदंभावित
दस्युसंहतिः ।
पुराजनुर्भावितपोमहोदयः सनामसंभावितसर्वचेष्टितः । । “ इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें तथा निम्न छंद बोलें “विभूषणोऽप्यद्भुतकान्तविभ्रमः सुरूपशाली धुतभीरविभ्रमः । जिनेश्वरो भात्यनघो रविभ्रमः प्रसादकारी महसातिविभ्रमः ।। "
इस छंद द्वारा बिम्ब पर पुष्प - अलंकार चढ़ाएं। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें तथा “ऊर्ध्वाधो" छंदपूर्वक धूपोत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर इन्द्र वंश छंद के राग में निम्न छंद बोलें
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“प्रासंगताप्तं जिननाथचेष्टितं प्रासंगमत्यद्भुतमोक्षवर्त्मनि । प्रासंगतां त्यक्तभवाश्रयाशये प्रासंगवीराद्यभिदे नमांसि ते ।।
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विश्वान्या
आचारदिनकर (खण्ड-३) 118 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
कल्याणकल्याणकपंचकस्तुतः संभारसंभारमणीयविग्रहः । संतानसंतानवसंश्रितस्थितिः कन्दर्पकन्दर्पभराज्जयेज्जिनः ।।
विश्वान्धकारैककरापवारणः क्रोधेभविस्फोटकरापवारणः। सिद्धान्तविस्तारकरापवारणः श्रीवीतरागोऽस्तु करापवारणः।।
संभिन्नसंभिन्ननयप्रमापणः सिद्धान्तसिद्धान्तनयप्रमापणः । देवाधिदेवाधिनयप्रमापणः संजातसंजातनयप्रमापणः।।
कालापयानं कलयत्कलानिधिः कालापरश्लोकचिताखिलक्षितिः । कालापवादोज्झितसिद्धिसंगतः कालापकारी भगवान् श्रियेऽस्तु नः।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें तथा निम्न छंद बोलें - "प्रकृतिभासुरभासुरसेवितोधृतसुराचलराचलसंस्थितिः। स्नपनपेषणपेषण योग्यतां बहतु संप्रति संप्रतिविष्टरः।।"
इस छंद द्वारा स्नात्रपीठ का प्रक्षालन करें। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें तथा “ऊर्ध्वाधो" छंदपूर्वक धूपोत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर द्रुतविलम्ब छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
"निहितसत्तमसत्तमसंश्रयं ननु निरावरणं वरणं श्रियाम्। धृतमहः करणं करणं धृतेर्नमत लोकगुरुं कगुरुं सदा।।
सदभिनन्दननन्दनशेष्यको जयति जीवनजीवनशैत्यभाक् । उदितकंदलकंदलखण्डनः प्रथितभारतभारतदेशनः।।।
वृषविधापनकार्यपरम्परासुसदनं सदनं चपलं भुवि। अतिवसौस्वकुले परमे पदे दकमलंकमलंकमलंभुवि।।
तव जिनेन्द्र विभाति सरस्वती प्रवरपारमिता प्रतिभासिनी। न यदुपांतगताऽवति बुद्धगीः प्रवरपारमिताप्रतिभासिनी।।
सदनुकम्पन कंपनवर्जित क्षतविकारणकारणसौहृद। जय कृपावनपावनतीर्थकृत् विमलमानस मानससद्यशः ।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें तथा निम्न छंद बोलें - ___ “न हि मलभरो विश्वस्वामिस्त्वदीयतनौ क्वचित् विदितमिति च प्राज्ञैः पूर्वैरथाप्यधुनाभवैः। स्नपनसलिलं स्पृष्टं सद्भिर्महामलमान्तरं नयति निधनं मायं बिम्बं वृथा तव देव हिं।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 119 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
___ इस छंद द्वारा बिम्ब का प्रमार्जन करे। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें एवं “ऊर्ध्वाधो“ छंदपूर्वक धूपोत्क्षेपण करे। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर रथोद्धता छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
___ “संवरः प्रतिनियुक्तसंवरो विग्रहः प्रकमनीयविग्रहः। संयतः सकलुषैरसंयतः पड्कहृद्दिशतु शान्तिपङ्कहृतः।।
___ जम्भजित्प्रणतसूरजम्भजित्संगतः शिवपदं सुसंगतः। जीवनः सपदि सर्वजीवनो निर्वृत्तिविकदत्तनिर्वृत्तिः ।।
निर्जरप्रतिनुतश्च निर्जरः पावनः श्रितमहात्रपावनः। नायको जितदयाविनायको हंसगः सविनयोरुहंसगः ।।
धारितप्रवरसत्कृपाशयः पाशयष्टिधरदेवसंस्तुतः। संस्तुतो दमवतां सनातनो नातनः कुगतिमङ्गभृन्मृधा ।।
लोभकारिपरिमुक्तभूषणो भूषणो विगतसर्वपातकः। पातकः कुमनसां महाबलो हावलोपकरणो जिनः श्रिये।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दे तथा निम्न छंद बोलें - ___ “कार्य कारणमीश सर्वभुवने युक्तं दरीदृश्यते त्वत्पूजाविषये द्वयं तदपि न प्राप्नोति योगं क्वचित्। यस्मात्पुष्पममीभिरर्चकजनैस्त्वन्मस्तके स्थाप्यते तेषामेव पुनर्भवी शिवपदेस्फीतं फलं प्राप्नुयात् ।।
इस छंद द्वारा बिम्ब के सिर पर पुष्प चढ़ाएं। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें एवं “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर उपजाति छंद राग में निम्न छंद बोलें
“महामनोजन्मिनिषेव्यमाणो नन्याययुक्तोत्थित एव मत्र्यैः । महामनोजन्मनिकृन्तनश्च नन्याययुग्रक्षिततीर्थनाथः ।।
__कामानुयाता निधनं विमुंचन्प्रियानुलापावरणं विहाय। गतो विशेषान्निधनं पदं यः स दुष्टकर्मावरणं भिनत्तु।।
मृदुत्वसंत्यक्तमहाभिमानो भक्तिप्रणम्रोरुसहस्त्रनेत्रः। अम्भोजसंलक्ष्यतमाभिमानः कृतार्थतात्मस्मृतिघस्रनेत्रः ।।
समस्तसंभावनया वियुक्तप्रतापसंभावनयाभिनन्दन्। अलालसंभावनयानकाक्षी वरिष्ठसंभावनया न काङ्क्षी ।।
समस्तविज्ञानगुणावगन्ता गुणावगन्ता परमाभि रामः। रामाभिरामः कुशलाविसर्पः शिलाऽवसर्पो जयताज्जिनेन्द्रः ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 120 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि चढ़ाएं तथा निम्न छंद बोलें -
"रम्यैरनन्तगुणषड्रसशोभमानै सद्वर्णवर्णिततमैरमृतोपमेयैः । स्वांगैरवाद्यफलविस्तरणैर्जिना;मर्चामि वर्चसि परैः कृत्यनित्यचर्चः ।।
इस छंद द्वारा बिम्ब के समक्ष फल चढ़ाएं। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें एवं “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर संधिवर्षिणी छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
___"करवालपातरहितां जयश्रियं करवालपातरहितां जयश्रियम् । विनयन्त्रयापदसुचारिसंयमो विनययन्त्रयापदसुचारिसंयमः।।
इनमन्धतामसहरं सदासुखं प्रणमामि कामितफलप्रदायकम्। इनमन्धतामसहरं सदा सुखं विजये च तेजसि परिष्ठितं चिरम् ।।
निजभावचौरदमनं दयानिधिं दमनं च सर्वमुनिमण्डलीवृतम् । मुनिमंजसा भवलसप्तयोनिधौ निलसक्तवीर्यसहितं नमामि तम्।।
बहुलक्षणौघकमनीयविग्रहः क्षणमात्रभिन्नकमनीयविग्रहः । कमनीयविग्रहपदावतारणो भवभुक्तमुक्तकुपदावतारणः ।।
सुरनाथमानहरसंपदंचितः क्षतराजमानहरहासकीर्तिभाक् । विगतोपमानहरणोद्धृताशयो विगताभिमानहरवध्यशातनः ।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि चढ़ाएं तथा निम्न छंद बोलें -
"धाराधाराभिमुक्तोद्रसबलसबलेक्षोदकाम्यादकाम्या भिक्षाभिक्षाविचारस्वजनितजनितप्रतिमानोऽतिमानः। प्राणप्राणप्रमोदप्रणयननयनंधातहंधातहन्ता श्रीदः श्रीदप्रणोदी स्वभवनभवनः काकतुण्डाकतुण्डा।।"
इस छंद द्वारा अगरू प्रक्षिप्त करें। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें एवं “ऊर्ध्वायो' छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर जगतीजाती छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
"ज्ञानकेलिकलितं गुणनिलयं विश्वसारचरितं गुणनिलयम्। कामदाहदहनं परममृतं स्वर्गमोक्षसुखदं परममृतम् ।।
स्वावबोधरचनापरमहितं विश्वजन्तुनिकरे परमहितम् । रागसङ्गिमनसां परमहितं दुष्टचित्तसुमुचां परमहितम् ।। । भव्यभावजनतापविहननं
भव्यभावजनतापविहननम् । जीवजीवभवसारविनयनं जीवजीवभवसारविनयनम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 121 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कालपाशपरिघातबहुबलं
कालपाशकृतहारविहरणम् । नीलकण्ठसखिसन्निभनिनदं नीलकण्ठहसितोत्तमयशसम् ।।
न्यायबन्धुरविचारविलसनं लोकबन्धुरविचारिसुमहसम् । शीलसारसनवीरतनुधरं सर्वसारसनवीरमुपनये।।
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि चढ़ाएं तथा निम्न छंद बोलें - __ "विनयविनयवाक्यस्फारयुक्तोरयुक्तः पुरुषपुरुषकारात् भावनीयोवनीयः।
___ जयतु जयतुषारो दीप्रमादे प्रमादे सपदि सपदि भक्ता वासधूपः सधूपः ।।"
इस छंद द्वारा संयुक्त धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोलें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर स्वागता छंद के राग में निम्न छंद बोले -
“आततायिनिकरं परिनिघ्नन्नाततायिचरितः परमेष्ठी। एकपादरचनासुकृताशीरेकपाददयिताकमनीयः।।
वर्षदानकरभाजितलक्ष्मीश्चारुभीरुकरिभाजितवित्तः। मुक्तशुभ्रतरलालसहारो ध्वस्तभूरितरलालसकृत्यः ।। युक्तसत्यबहुमानवदान्यः
कल्पितद्रविणमानवदान्यः । देशनारचितसाधुविचारो मुक्तताविजितसाधुविचारः ।।
उक्तसंशयहरोरुकृतान्तस्तान्तसेवकपलायकृतान्तः। पावनीकृतवरिष्ठकृतान्तस्तां तथा गिरमवेत्य कृतान्तः।।
यच्छतु श्रियमनर्गलदानो दानवस्त्रिदशपुण्यनिदानः। दानवार्थकरिविभ्रमयानो यानवर्जितपदोतिदयानः।।" - इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि चढ़ाएं तथा निम्न छंद बोलें -
"अमृतविहितपोषं शैशवं यस्य पूर्वादतपथानिदेशाद्दुर्धरा कीर्तिरासीत्।
___ अमृतरचितभिक्षा यस्य व्रत्तिव्रतादोरमृतममृतसंस्थस्यार्चनायास्तु तस्य ।।
इस छंद से बिम्ब पर जल-पूजा करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर प्रहर्षिणी छंद की राग में निम्न छंद बोलें -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 122 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“विश्वेशः क्षितिलसमानमानमानः प्रोद्याती मरुदुपहारहारहारः। संत्यक्तप्रवरवितानतानतानः सामस्त्याद्विगतविगानगानगानः ।।
विस्फूर्जन्मथितविलासलासलासः संक्षेपक्षपितविकारकारकारः । सेवार्थव्रजितविकालकालकालश्चारित्रक्षरितनिदानदानदानः ।।
. पूजायां प्रभवदपुण्यपुण्यपुण्यस्तीर्थार्थ विलसदगण्यगण्यगण्यः । सद्धयानैः स्फुरदवलोकलोकलोको दीक्षायां हतभवजालजालजालः।।
स्मृत्यैव क्षतकरवीरवीरवीरः पादान्तप्रतिनतराजराजराजः। सद्विद्यायाजितशतपत्रपत्रपत्रः पार्श्वस्थप्रवरविमानमानमानः।।
नेत्रश्रीजितजलवाहवाहवाहो योगित्वामृतघनशीतशीतशीतः। वैराग्यादधृतसुवालवालवालो नामार्थोत्थितमुदधीरधीरधीरः।।
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें - "क्षणनताडनमर्दनलक्षणं किमपि कष्टमवाप्य तितिक्षितम् । त्रिभुवनस्तुतियोग्ययदक्षतैस्तव तनुष्व जने फलितं हि तत् ।।"
इस छंद से बिम्ब पर अक्षत चढ़ाएं। पुनः शक्रस्तव का पाठ . करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर मत्तमयूर छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
__ "तारंतारङ्गमलनैः स्यादवतारंसारं सारङ्गेक्षणनार्यक्षतसारम् । कामं कामं घातितवन्तं कृतकामं वामं वामं द्रुतमुज्झितगतवामम् ।।
देहं देहं त्यक्त्वा नम्रोरुविदेहं भावं भावं मुक्त्वा वेगं द्रुतभावम् । नारं नारं शुद्धभवन्तं भुवनारं मारं मारं विश्वजयं तं सुकुमारम् ।।
देवं देवं पादतलालन्नरदेवं नार्थनाथं चान्तिकदीप्यच्छुरनाथम् । पाकं पाकं संयमयन्तं कृतपाकं वृद्धं वृद्धं कुड्मलयन्तं सुरवृद्धम् ।।
कारं कारंभाविरसानामुपकारं काम्यं काम्यंभाविरसानामतिकाम्यम्। जीवं जीवंभाविरसानामुपजीवं वन्देवन्दे भाविरसानामभिवन्दे ।।
सर्वैः कार्यैः संकुलरत्नं कुलरत्नं शुद्धस्फूर्त्या भाविवितानं विवितानम्। वन्दे जातत्राससमाधिं ससमाधि तीर्थाधीशं संगतसंग गतसंङ्गम् ।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें - ___“स्वामिन् जायेताखिललोकोऽभयरक्षो नामोच्चारातीर्थकराणामनघानाम्।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 123 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
यत्तबिम्बे रक्षणकर्म व्यवसेयं तत्र प्रायः श्लाघ्यतमः स्याद्व्यवहारः।।"
इस छंद से बिम्ब के शरीर पर “हां ही हूं ह्रौं हूः रूपैः पंचशून्यैः" - पाँच अंगो की रक्षा करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें। तथा “ऊर्ध्वायो“ छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर चन्द्रानन छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“बद्धनीतासुगं बद्धनीतासुगं सानुकम्पाकरं सानुकम्पाकरम् । मुक्तसंघाश्रयं मुक्तसंघाश्रयं प्रीतिनिर्यातनं प्रीतिनिर्यातनम् ।।
सर्वदा दक्षणं पारमार्थे रतं सर्वदा दक्षणं पारमार्थेरतम् । निर्जराराधनं संवराभासनं संवराभासनं निर्जराराधनम् ।।
__ तैजसं संगतं संगतं तैजसं दैवतं बन्धुरं बन्धुरं दैवतम्। सत्तम चागमाच्चागमात्सत्तमं साहसे कारणं कारणं साहसे।।।
विश्वसाधारणं-विश्वसाधारणं वीतसंवाहनं वीतसंवाहनम् । मुक्तिचंद्रार्जनं मुक्तिचंद्रार्जनं सारसंवाहनं सारसंवाहनं ।।
कामलाभासहं पापरक्षाकरं पापरक्षाकरं कामलाभासहम् । बाणवीवर्धनं पूरकार्याधारं पूरकार्याधारं बाणवीवर्धनम्।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें - “संसार संसारसुतारणाय संतानसंतानकतारणाय। देवाय देवायतितारणाय नामोस्तु नामोस्तुतितारणाय ।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब को बधाएं। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें। तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर प्रमाणिका छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“सदातनुं दयाकरं दयाकरं सदातनुं। विभावरं विसंगरं विसंगरं विभावरम् ।।
निरंजनं निरंजनं कुपोषणं कुपोषणं। सुराजितं सुराजितं धराधरं धराधरम् ।।
जनं विधाय रंजनं कुलं वितन्य संकुलं । भवं विजित्य सद्भवं जयं प्रतोष्य वै जयम् ।।
घनं शिवं शिवं घनं चिरन्तनं तनं चिरं। कलावृतं वृतं कला भुवः समं समं भुवः।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 124 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
नमामि तं जिनेश्वरं सदाविहारिशासनं। सुराधिनाथमानसे सदाविहारिशासनम् ।।"
इन छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें -
"प्रकटमानवमानवमण्डलं प्रगुणमानवमानवसंकुलम्। नमणिमानवमानवरं चिरं जयति मानवमानवकौसुमम् ।।
इस छंद द्वारा बिम्ब पर माला चढ़ाएं। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो' छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपन करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर जगती छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
"बहुशोकहरं बहुशोकहरं कलिकालमुदं कलिकालमुदम् । हरिविक्रमणं हरिविक्रमणं सकलाभिमतं सकलाभिमतम्।।
कमलाक्षमलं विनयायतनं विनयायतनं कमलाक्षमलम् । परमातिशयं वसुसंवलभं वसुसंवलभं परमातिशयम् ।।
अतिपाटवपाटवलं जयिनं हतदानवदानवसुं सगुणम् । उपचारजवारजनाश्रयणं प्रतिमानवमानवरिष्टरुचम् ।।
सरमं कृतमुक्तिविलासरमं भयदंभयमुक्तमिलाभयदम् । परमंव्रजनेत्रमिदं परमं भगवन्तमये प्रभुताभगवम्।।
___ भवभीतनरप्रमदाशरणं शरणं कुशलस्यमुनीशरणम्। शरणं प्रणमामि जिनं सदये सदये हृदि दीप्तमहागमकम् ।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमाजंलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
"आशातना या किल देवदेव मया त्वदर्चारचनेऽनुषक्ता। क्षमस्व तां नाथ कुरु प्रसादं प्रायो नराः स्यु प्रचुरप्रमादाः।।
इस छंद द्वारा बिम्ब के (समक्ष) अंजलि बद्ध करके अपराधों की क्षमापना करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि .लेकर निम्न छंद बोलें -
"करकलितपालनीयः कमनीयगुणैकनिधिमहाकरणः। करकलितपालनीयः स जयति जिनपतिरकर्मकृतकरणः ।।
विनयनयगुणनिधानं सदारतावर्जनं विसमवायम्। वन्दे जिनेश्वरमहं सदारतावर्जनं विसमवायम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 125 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
जलतापवारणमहं नमामि सुखदं विशालवासचयम् । जलतापवारणमहं नमामि सुखदं विशालवासचयम् ।।
श्रृङ्गारसमर्यादं यादःपतिवत्सदाप्यगाधं च। श्रृङ्गारसमर्यादं यादःपतिवन्दितं प्रतिपतामि।।
भीमभवार्णवपोतं वन्दे परमेश्वरं सितश्लोकम्। उज्झितकलत्रपोतं वन्दे परमेश्वरं सितश्लोकम् ।।
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
"नीरस्य तर्षहरणं ज्वलनस्य तापं तार्क्ष्यस्य गारुड़ मनगंतनोर्विभूषाम्।
कुर्मो जिनेश्वर जगत् त्रयदीपरूप दीपोपदां तव पुरो व्यवहारहेतोः।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब के समक्ष दीपक रखें, अर्थात् दीपदान करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायों“ छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर खंधाजाति छंद की राग में निम्न छंद बोलें -
___ “वनवासं वनवासं गुणहारिणहारिवपुषं वपुषम्। विजयानं विजयानं प्रभुं प्रभुं नमत नमत बलिनं बलिनम्।।
सोमकलं सोमकलं पङ्के हितं पके हितम्। पुण्ये पुण्य बहिर्मुख बहिर्मुख महितं महितं परं परं धीरं धीरम् ।।
स्मृतिदायी स्मृतिदायी जिनो जिनोपास्तिकायः कायः। नखरायुध न खरायुध वन्द्योवन्यो यहृद्यहृत्कान्तः कान्तः।।
- कुलाकुलाहरहरहारः करणः करणः विश्वगुरुर्विश्वगुरुः । कविराट् कविराट् महामहा कामः कामः।।।
कल्याणं कल्याणं प्रथयन् प्रथयन् हितेहिते प्रख्यः प्रख्यः । परमेष्ठी परमेष्ठी लालो लालो वितर वितर सत्त्वं सत्त्वम् ।।
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
"धीराधीरावगाहः कलिलकलिलताछेदकारीछेदकारी प्राणि प्राणिप्रयोगः सरुचि सरुचिताभासमान समानः। कल्पाकल्पात्मदर्शः
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 126 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान परमपरमताछेददक्षोददक्षो देवादेवात्महृद्यः स जयति जयतिर्यत्प्रकृष्ट प्रकृष्टः ।।
__ इस छंद द्वारा बिम्ब के सम्मुख दर्पण रखें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर पृथ्वी छंद के राग में निम्न छन्द बोलें -
___ "अनारतमनारतं सगुणसंकुलं संकुलं विशालकविशालकं स्मरगजेसमंजे समम्। सुधाकरसुधाकरं निजगिरा जितं राजितं जिनेश्वरजिनेश्वरं प्रणिपतामि तं तामितम् ।।
__जरामरणबाधनं विलयसाधुतासाधनं नमामि परमेश्वरं स्तुतिनिषक्तवागीश्वरम्। जरामरणबाधनं विलयसाधुतासाधनं कुरङ्गनयनालटत्कटुकटाक्षतीव्रव्रतम् ।।
अनन्यशुभदेशनावशगतोरुदेवासुरं पुराणपुरुषार्दनप्रचलदक्षभगिश्रियम्। अशेषमुनिमण्डलीप्रणतिरंजिताखण्डलं पुराणपुरुषार्दनप्रचलदक्षभगिश्रियम् ।।
स्मरामि तव शासनं सुकृतसत्त्वसंरक्षणं महाकुमतवारणं सुकृतसत्त्वसंरक्षणम्। परिस्फुरदुपासकं मृदुतया महाचेतनं वितीर्णजननिर्वृर्तिं मृदुतया महाचेतनम्।।
__ पयोधरविहारणं जिनवरं श्रियां कारणं पयोधरविहारणं सरलदेहिनां तारणम्। अनङ्गकपरासनं नमत मक्षु तीर्थेश्वरं अनङ्गकपरासनं विधृतयोगनित्यस्मृतम् ।।
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
____ “त्वय्यज्ञाते स्तुतिपदमिहो किं त्वयि ज्ञातरूपे स्तुत्युत्कण्ठा न तदुभयथा त्वत्स्तुति थ योग्या। तस्मात्सिद्ध्युव्रजनविधिना किंचिदाख्यातिभाजो लोका भक्तिप्रगुणहृदया नापराधास्पदं स्युः।।"
यह छंद पढ़कर अधिकृतजिनस्तोत्र पढ़ें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर निम्न श्लोक बोलें
___ “कुलालतां च पर्याप्तं निर्माणे शुभकर्मणाम्। कुलालतां च पर्याप्तं वन्दे तीर्थपतिं सदा।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 127 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
जयताज्जगतामीशः कल्पवत्तापमानदः। निरस्तममतामायः कल्पवत्तापमानदः।।
__महामोहमहाशैल पविज्ञानपरायण। परायणपविज्ञान जय पारगतेश्वर।।
समाहितपरीवार परीवारसमाहित। नमोस्तु ते भवच्छ्रेयो भवच्छ्रेयो नमोस्तु ते।।
___ वराभिख्यवराभिख्य कृपाकर कृपाकर। निराधार निराधार जयानतजानत।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
“न स्वर्गाप्सरसां स्पृहा समुदयो नानारकच्छेदने नो संसार परिक्षितौ न च पुनर्निर्वाणनित्यस्थितौ।
तवत्पादद्वितयं नमामि भगवन्कित्वेककं प्रार्थये त्वद्भक्तिर्मम मानसे भवभवे भूयाद्विभो निश्चला।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब के आगे हाथ जोड़कर विज्ञप्ति करें (निवेदन करें)। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर हरिणी छंद के राग में निम्न छंद बोलें -
“अधिकविरसः शृङ्गारागः समाप्तपरिग्रहो जयति जगतां श्रेयस्कारी तवागमविग्रहः। अधिकविरसः शृङ्गाराङ्ग समाप्तपरिग्रहो न खलु कुमतव्यूहे यत्र प्रवर्तितविग्रहः ।।
विषयविषमं हन्तुं मक्षु प्रगाढ़भवभ्रमं बहुलबलिनो देवाधीशा नितान्तमुपासते। तव वृषवनं यस्मिन्कुंजान्महत्तमयोगिनो बहुलबलिनो देवाधीशा नितान्तमुपासते।।
समवसरणं साधुव्याधैर्वृषैरहिभिर्वरं जयति मधुभित्कृ ल्प्तानेकाविनश्वरनाटकम्। तव जिनपते काङ्क्षापूर्तिं प्रयच्छतु संकुलं समवसरणं साधुव्याघैर्वृषैरहिभिर्वरम् ।।
___तव चिदुदयो विश्वस्वामिन्नियर्ति विशङ्कितो जलधरपदं स्वर्गव्यूह भुजङ्गगृहं परम्। जलधरपदस्वर्गव्यूहं भुजङ्गगृहं परं त्यजति भवता कारुण्याढ्याक्षिपक्ष्मकटाक्षितः।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 128 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
विशदविशदप्राज्यप्राज्यप्रवारणवारणा हरिणहरिण श्रीद श्रीदप्रबोधनबोधना। कमलकमलव्यापव्यापदरीतिदरीतिदा गहनगहन श्रेणीश्रेणी विभाति विभाति च।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
___"जयजयजयदेवदेवाधिनाथो लसत्सेवया प्रीणितस्वान्त कान्तप्रभप्रतिघबहुलदावनिर्वापणे पावनाम्भोदवृष्टे विनष्टाखिलाद्यव्रज। मरणभयहराधिकध्यानविस्फूर्जितज्ञानदृष्टिप्रकृष्टेक्षणाशंसन त्रिभुवनपरिवेषनिःशेषविद्वज्जनश्लाघ्यकीर्तिस्थितिख्यातिताश प्रभो।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब के आगे हाथ जोड़कर क्षणभर ध्यान करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें।
इस प्रकार पच्चीस कुसुमांजलियाँ प्रक्षिप्त करें, अर्थात् दें। इसी प्रकार कुसुमांजलिविधि के अन्तर्गत आए इन पच्चीस काव्यों को छोड़कर इनकी जगह एक सौ पच्चीस स्तुतियों एवं महाकाव्य विद्वानों को बोलने चाहिए या पढ़ने चाहिए, अथवा पढ़ाने चाहिए। - इसके बाद जिस प्रकार प्रतिष्ठा के समय नंद्यावर्त की स्थापना की थी, उसी विधि से नंद्यावर्त्त में सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र, पंचपरमेष्ठी, जिनमाताओं, लोकान्तिकदेवों, विद्यादेवी, इन्द्र, इन्द्राणी, शासनयक्ष, शासनयक्षिणी, दिक्पाल, नवग्रहों, चतुर्निकायदेव आदि की स्थापना एवं पूजन करें। अन्तर मात्र इतना है कि प्रतिष्ठा के दिन जिस प्रकार मुद्रा, फल, नैवेद्य के सकोरे आदि चढ़ाते हैं, उस प्रकार की विधि न करके गन्ध, पुष्प आदि द्रव्यों से ही उनकी सामान्य पूजा करें। नंद्यावर्त्त की स्थापना हमेशा न करें, पर्व-दिनों में प्रतिमा- प्रवेश, शान्तिकर्म, पौष्टिककर्म, बृहत्स्नात्रविधि के समय नंद्यावर्त्त की स्थापना करें। इन अवसरों पर नंद्यावर्त की पूर्वोक्त वलयक्रम से स्थापना नही करें, किंतु अलग से दूसरे पीठ पर क्रमशः दिक्पाल, क्षेत्रपाल, नवग्रह एवं चतुर्निकायदेव सहित स्थापना करें। पूर्व निर्मित मूर्ति, अर्थात् धातु, काष्ठ एवं पाषाण से निर्मित प्रतिमा की स्थापना करें, अथवा विविध प्रकार की धातुओं से, कुसुम या चंदन आदि से उनकी आकृतियाँ
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 129 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान बनाकर या आलेखन करके मात्र तिलकदान पूर्वक (लगाकर) उसकी स्थापना करें। पीठ पर दिशाओं के अधिष्ठायक दिक्पालों एवं ग्रहों का प्रदक्षिणाकारपूर्वक आह्वान, स्थापना एवं पूजन करें। कुसुमांजलि देना आदि सभी क्रियाएँ नंद्यावर्त्त-विधि में बताई गई विधि के अनुसार तथा उन्हीं काव्यों से करें। दिक्पालों, गृहों आदि देवों की पूजा करें और जिनबिम्ब को पंचामृत-स्नान कराएं। उसकी विधि इस प्रकार है -
कुसुमांजलि हाथ में लेकर निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि दें - ___ “पूर्व जन्मनि मेरु भूध्रशिखरे सर्वैः सुराधीश्वरै राज्योभूतिमहे महर्द्धिसहितैः पूर्वेऽभिषिक्ता जिनाः ।। तामेवानुकृतिं विधाय हृदये भक्ति प्रकर्षान्विताः कुर्मः स्वस्व गुणानुसारवशतो बिम्बाभिषेकोत्सवम् ।।"
___ उपर्युक्त छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करें। पुनः हाथ में पुष्पांजलि लेकर निम्न छंद बोले -
"मृत्कुम्भाः कलयन्तु रत्नघटितां पीठं पुनर्मेरुतामानीतानि जलानि सप्तजलधिक्षीराज्यदध्यात्मताम् ।।
बिम्बं परागतत्वमत्र सकलः संघः सुराधीशतां येन स्यादयमुत्तमः । सुविहितं स्नात्रभिषेकोत्सवः ।।
उपर्युक्त छंदपूर्वक पुष्पांजलि प्रक्षिप्त करें। पुनः हाथ में कुसुमांजलि लेकर निम्न छंद बोलें -
“आत्मशक्ति समानीतैः सत्यं चामृतवस्तुभिः। तद्वार्धिकल्पनां कृत्वा स्नपयामि जिनेश्वरम् ।।
उपर्युक्त छंदपूर्वक पुष्पांजलि प्रक्षिप्त करें। तत्पश्चात् दूध का कलश हाथ में लेकर निम्न छंद बोलें -
"भगवन्मनोगुणयशोनुकारिदुग्धाब्धितः समानीतम्। दुग्धं विदग्धहृदयं पुनातु दत्तं जिनस्नात्रे ।।"
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का क्षीरस्नात्र करें, अर्थात् बिम्ब को दूध से स्नान कराएं। पुनः दही का कलश हाथ में लेकर निम्न छंदपूर्वक बिम्ब का दधिस्नात्र करें -
___“दधिमुखमहीध्रवर्णंदधिसागरतः समाहृतं भक्त्या। दधि विदधातु शुभविधिं दधिसारपुरस्कृतं जिनस्नात्रे ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 130 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
पुनः घृत का कलश हाथ में लेकर निम्न छंदपूर्वक बिम्ब का घृतस्नात्र करें -
"स्निग्ध मृदु पुष्टिकरं जीवनमतिशीतलं सदाभिख्यम् । जितमतवद्धृतमेतत्पुनातु लग्नं जिनस्नात्रे ।।
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का घृतस्नात्र करें। पुनः इक्षुरस का कुंभ लेकर निम्न छंद बोलें -
“मधुरिमधुरीण विधुरितसुधाधराधार आत्मगुणवृत्त्या। शिक्षयतादिक्षुरसो विचक्षणौघं जिनस्नात्रे ।।"
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का इक्षुरस से स्नात्र करें। पुनः शुद्ध जल का कलश लेकर निम्न छंद बोलें - . “जीवनममृतं प्राणदमकलुषितमदोषमस्तसर्वरुजम्। जलममलमस्तु तीर्थाधिनाथबिम्बानुगे स्नात्रे ।।
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का जल से स्नात्र करें -
इस प्रकार पंचामृत स्नात्र करें। पुनः सहन मूल मिश्रित जल का कलश लेकर निम्न छंद बोलें -
“विघ्नसहस्रोपशमं सहस्रनेत्रप्रभावसद्भावम् । दलयतु सहनमूलं शत्रुसहनं जिनस्नात्रे ।।"
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का सहनमूल मिश्रित जल से स्नात्र करें। पुनः शतमूल मिश्रित जल का कलश लेकर निम्न छंद बोलें -
“शतमर्त्यसमानीतं शतमूलं शतगुणं शताख्यं चं। शतसंख्यं वांछितमिह जिनाभिषेके सपदि कुरुताम् ।।।
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का शतमूल मिश्रित जल से स्नात्र करें। पुनः सर्वौषधिगर्भित जल का कलश लेकर निम्न छंद बोलें -
“सर्वप्रत्यूहहरं सर्वसमीहितकरं विजितसर्वम्। सर्वौषधिमण्डलमिह जिनाभिषेके शुभं ददताम् ।।"
उपर्युक्त छंदपूर्वक बिम्ब का सर्वोषधि मिश्रित जल से स्नात्र करें तथा “ऊर्ध्वायो' छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ करें। तत्पश्चात् शक्ति के अनुसार सोने, चाँदी, ताँबे या मिट्टी के कलश द्विकयोग या त्रिकयोग-विधि के अनुसार बनाएं और उन कलशों को स्थापनक (पट्ट) के ऊपर स्थापित करें। जैसी शक्ति
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 131 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान । हो, उसके अनुसार ही स्नात्र-संख्या का यथाक्रम एक सौ आठ या चौंसठ या पच्चीस या सोलह या आठ या पाँच या तीन या दो या एक का निर्णय करें, क्योंकि उसके अनुसार ही घटों की संख्या होती है। उन घटों को चंदन, अगरू, कपूर, कुंकुम से पूजते हैं एवं उनके चारों तरफ स्वस्तिक करते हैं और उनके कंठों को (कांठे को) पुष्पमाला आदि से विभूषित करते हैं। तत्पश्चात् सर्वतीर्थों के लाए गए जल से पूर्व में कहे गए अनुसार मंत्रयुक्त पवित्र जल से तथा चन्दन, अगरू, कस्तूरी, कर्पूर, कुंकुम आदि मिश्रित जल से, पाटल आदि पुष्पों से अधिवासित जल से एवं निर्मल जल से उन कलशों को भरें। पूर्वोक्त वेश धारण किए हुए अर्थात् जिन उपवीत धारण किए हुए, उत्तरासंग से युक्त, जूड़ा बांधे हुए, स्नान किए हुए एवं बारह तिलक लगाए हुए स्नात्रकार (स्नान कराने वाले) परमेष्ठीमंत्र पढ़कर उन कलशों को अपने-अपने हाथ में ग्रहण करें। फिर स्नात्र कराने वाले
और अन्य श्रावकजन अपने-अपने अभ्यास के अनुसार परमात्मा की स्तुति से गर्भित षट्पद, अर्हणादि आदि स्तोत्र और पूर्व कवियों द्वारा निर्मित जिनाभिषेक सम्बन्धी काव्य बोलते हैं। तत्पश्चात् “नमो अरिहंताणं" तथा "नमोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्य" बोलकर निम्न श्लोक बोलें -
___ “पूर्व जन्मनि विश्वभर्तुरधिकं सम्यक्त्वभक्तिस्पृशः सूतेः कर्म समीरवारिदमुखं काष्ठाकुमार्यो व्यधुः। तत्कालं तविश्वरस्य निबिडं सिंहासनं प्रोन्नतं वातोद्भूतसमुधुरध्वजपटप्रख्यां स्थितिं व्यानशे।।१।।
क्षोभात्तत्र सुरेश्वरः प्रसृमरक्रोधक्रमाक्रान्तधीः कृत्वालक्तकसिक्तकूर्मसदृशं चक्षुःसहनं दधौ। वज्रं च स्मरणागतं करगतं कुर्वन्प्रयुक्तावधिज्ञानात्तीर्थकरस्य जन्मभुवने भद्रंकरं ज्ञातवान् ।।२।।
नम नम इति शब्दं ख्यापयंस्तीर्थनाथं स झटिति नमति स्म प्रोढ़सम्यक्त्वभक्तिः। तदनु दिवि विमाने सा सुघोषाख्यघण्टा सुररिपुमदमोदाघातिशब्दं चकार ।।३।।
द्वात्रिंशल्लक्षविमानमण्डले तत्समा महाघण्टाः। ननदुः सुदुःप्रधर्षा हर्षोत्कर्ष वितन्वन्त्यः ।।४।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 132 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
तस्मानिश्चित्य विश्वाधिपतिजनुरथो निर्जरेन्द्र स्वकल्पान् कल्पेन्द्रान्व्यन्तरेन्द्रानपि भुवनपतींस्तारकेन्द्रान्समस्तान्। आह्वायाह्वाय तेषां स्वमुखभवगिराख्याय सर्व स्वरूपं श्रीमत्कार्तस्वराद्रेः शिरसि परिकरालंकृतान्प्राहिणोच्च ।।५।।
___ततः स्वयं शक्रसुराधिनाथः प्रविश्य तीर्थकरजन्मगेहम्। परिच्छदैः सार्धमथो जिनाम्बां प्रस्वापयामास वरिष्ठविद्यः।।६।।
कृत्वा पंच वपूंषि विष्टपपतिः संधारणं हस्तयोश्छत्रस्योद्वहनं च चामरयुगप्रोगासनाचालनम्। वज्रेणापि धृतेन नर्तनविधिं निर्वाणदातुः पुरो रूपैः पंचभिरेवमुत्सुकमनाः प्राचीनबर्हिर्व्यधात् ।।७।।
सामानिकाङ्गरक्षैरेवं परिवारितः सुराधीशः। बिभ्रत्रिभुवननाथं प्रापसुराद्रिं सुरगणाढ्यम् ।।८।।
__ तन्द्रास्त्रिदशाप्सरःपरिवृता विश्वेशितुः संमुखं मझ्वागत्य नमस्कृतिं व्यधुरलं स्वालङ्कृतिभ्राजिताः। आनन्दान्ननृतुस्तथा सुरगिरिस्तुट्यद्भिराभास्वरैः श्रृगैः कांचनदानकर्मनिरतो भातिस्म भक्त्या यथा।।६।।
अतिपाण्डुकम्बलाया महाशिलायाः शशाङ्कधवलायाः। पृष्ठे शशिमणिरचितं पीठमधुर्देवगणवृषभाः ।।१०।।
तत्राधायोत्सङ्गे ईशानसुरेश्वरो जिनाधीशम्। पद्मासनोपविष्टो निबिड़ां भक्तिं दधौ मनसि ।।११।।
इन्द्रादिष्टास्तत आभियोगिकाः कलशगणमथानिन्युः। वेदरसखवसु ८०६४ संख्यं मणिरजतसुवर्णमृद्रचितम् ।।१२।।।
__ कुम्भाश्च ते योजनमात्रवक्त्रा आयाम औन्नत्यमथैषु चैवम् । दशाष्टबार्हत्करयोजनानि द्वित्र्येकधातुप्रतिषङ्गगर्भाः ।।१३।।
नीरैः सर्वसरित्तडागजलधिप्रख्यान्यनीराशयाऽनीतैः सुन्दरगन्धगर्भिततरैः स्वच्छैरलं शीतलैः। भृत्यैर्देवपतेर्मणीमयमहापीठस्थिताः पूरिता कुम्भास्ते कुसुमनजां समुदयैः कण्ठेषु संभाविताः ।।१४ ।।
पूर्वमच्युतपतिर्जिनेशितुः स्नात्रकर्म विधिवत्व्यधान्महत् । तैर्महाकलशवारिभिर्घनैः प्रोल्लसन्मलयगन्धधारिभिः।।१५।।
___ चतुर्वृषभश्रृङ्गोत्थधाराष्टकमुदंचयन्। सौधर्माधिपतिः स्नात्रं विश्वभर्तुरपूरयत्।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 133 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
शेष क्रमेण तदनन्तरमिन्द्रवृन्दं कल्पासुरर्भवननाथमुखं व्यधत्त। स्नात्रं जिनस्य कलशैः कलितप्रमोद प्रावारवेषविनिवारितसर्वपापम् ।।१७।।
तस्मिन्क्षणे बहुलवादितगीतनृत्यगर्भ महं च सुमनोप्सरसो व्यधुस्तम्। येनादधे स्फुटसदाविनीविष्टयोगस्तीर्थकरोपि हृदये परमाणु चित्तम् ।।१८।।
__मेरुश्रृङ्गे च यत्स्नात्रं जगद्भर्तुः सुरैः कृतम्। बभूव तदिहास्त्वेतदस्मत्करनिषेकतः।।"
ये श्लोक बोलते हुएं सभी स्नात्र कराने वाले उसी समय जिनबिम्ब पर कलशों से अभिषेक करें और अन्तिम श्लोक पुन-पुनः बोलकर जिनस्नात्र करें - इस प्रकार स्नात्रविधि पूर्ण होने पर धूप-चूर्ण से वासित कोमल वस्त्र से जिनबिम्ब को पोंछे। तत्पश्चात् निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब पर कस्तूरी, कुंकुम, कर्पूर एवं चंदनादि का विलेपन करे -
“कस्तूरिकाकुंकुमरोहणद्रुः कर्पूरकक्कोलविशिष्टगन्धम् । विलेपनं तीर्थपतेः शरीरे करोतु संघस्य सदा विवृद्धिम् ।।१।। तुराषाट्स्नात्रपर्यन्ते विदधे यद्विलेपनम्। जिनेश्वरस्य तद्भूयादत्र बिम्बेऽस्मदादृतम् ।।२।।"
तत्पश्चात् निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब की पुष्पमाला आदि से पूजा करें -
"मालतीविचकिलोज्ज्चलमल्लीकुन्दपाटलसुवर्णसुमैश्च। केतकैर्विरचिता जिनपूजा मंगलानिसकलानि विद्ध्यात् ।।१।।
___ स्नात्रं कृत्वा सुराधीशैर्जिनाधीशस्य वर्मणि। यत्पुष्पारोपणं चक्रे तदस्त्वस्मत्करैरिह ।।"
___तत्पश्चात् निम्न दो छंदों को बोलते हुए बिम्ब को मुकुट, हार, कुंडल, आभूषण आदि पहनाएं -
_ “कैयूरहारकटकैः पटुभिः किरीटैः सत्कुण्डलैर्मणिमयीभिरथोर्मिकाभिः।
बिम्बं जगत् त्रयपतेरिह भूषयित्वा पापोच्चयं सकलमेव निकृन्तयामः।।१।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 134 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“या भूषा त्रिदशाधीशैः स्नात्रान्ते मेरुमस्तके। कृता जिनस्य सात्रास्तु भविकै भूषणार्जिता।।२।।"
फिर निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब के आगे अक्षत चढ़ाएं - “सन्नालिकेरफलपूररसालजम्बुद्राक्षापरूषकसुदाडिमनारिंगैः।
वातामपूगकदलीफलजम्भमुख्यैः श्रेष्ठैः फलैजिनपतिं परिपूजयामः ।।१।।
यत्कृतं स्नात्रपर्यन्ते सुरेन्द्रैः फलढौकनम्। तदिहास्मत्करादस्तु यथासंपत्ति निर्मितम् ।।२।।"
तत्पश्चात् निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब के सम्मुख जल कलश रखें -
"निर्झरनदीपयोनिधिवापीकूदादितः समानीतम् । सलिलं जिनपूजायामहाय निहन्तु भवदाहम् ।।१।। मेरुश्रृंगे जगभर्तुः सुरेन्द्रैर्यज्जलार्चनम् । विहितं तदिह प्रौढ़िमातनोत्वरमादृतम् ।।२।।
तदनन्तर निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब के आगे धूप-उत्क्षेपण करें
“कर्पूरागरुचन्दनादिभिरलं कस्तूरिकामिश्रितैः सिहलाद्यैः सुसुगन्धिभिर्बहुतरै रूपैः कृशानूद्गतैः। पातालक्षितिगोनिवासिमरुतां संप्रीणकैरुत्तमै—माक्रान्तनभस्तलैर्जिनपतिं संपूजयामोऽधुना।।१।।
या धूपपूजा देवेन्द्रैः स्नात्रानन्तरमादधे। जिनेन्द्रस्यास्मदुत्कर्षादस्तुस्नात्र महोत्सवे ।।२।।" फिर निम्न दो छंदों द्वारा बिम्ब के आगे प्रज्वलित दीपक
रखें
"अन्तति?तितो यस्य कायो यत्संस्मृत्या ज्योतिरुत्कर्षमेति। तस्याभ्यासे निर्मितं दीपदानं लोकाचारख्यापनाय प्रभाति।।१।। या दीपमाला देवेन्दैः सुमेरौ स्वामिनः कृता। सात्रान्तर्गतमस्माकं विनिहन्तु तमोभरम् ।।२ ।।" फिर निम्न छंद द्वारा बिम्ब के आगे नैवेद्य चढ़ाएं - "ओदनैर्विविधैः शाकैः पक्वान्नैः षड्रसान्वितैः । नैवेद्यैः सर्वसिद्ध्यर्थं जायतां जिनपूजनम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 135 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
फिर निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के आगे विविध प्रकार के धान्य रखें -
“गोधूमतन्दुलतिलैर्हरिमन्थकैश्च मुद्गाढकीयवलायमकुष्टकैश्च।
कुल्माषवल्लवरचीनकदेवधान्यैर्मत्यैः कृता जिनपुरः फलदोपदास्तु।।
तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के आगे सभी गर्म मसाले (कालीमिर्च, सौंठ, जीरा, लौंग आदि) रखें -
"शुण्ठीकणामरिचरामठजीरधान्यश्यामासुराप्रभृतिभिः पटुवेसवारैः ।
संढौकनं जिनपुरो मनुजैर्विधीयमानं मनांसि यशसा विमलीकरोतु ।।
फिर निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के सम्मुख सभी प्रकार की औषधि रखें -
___ "उशीरवाटिकाशिरोज्वलनचव्याधात्रीफलैर्बलासलिलवत्सकैर्घनविभा वरीवासकैः।
वचावरविदारिकामिशिशताह्वयाचन्दनैः प्रियंगुतगरैर्जिनेश्वरपुरोस्तु नो ढौकनम्।। । तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के सम्मुख ताम्बूल (पान, सुपारी आदि) चढ़ाएं -
“भुजंगवल्लीछदनैः सिताभ्रकस्तूरिकैलासुरपुष्पमित्रैः। सजातिकोशैः सममेव चूर्णैस्ताम्बूलमेवं तु कृतं जिनाये।।" फिर निम्न दो छंदों द्वारा जिनबिम्ब की वस्त्रपूजा करें - "सुमेरुश्रृंगे सुरलोकनाथः स्नात्रावसाने प्रविलिप्य गन्धैः। जिनेश्वरं वस्त्रचयैरनेकैराच्छादयामास निषक्त भक्तिः।।१।। ततस्तदनुकारेण सांप्रतं श्राद्धपुंगवाः। कुर्वन्ति वसनैः पूजां त्रैलोक्यस्वामिनोऽग्रतः ।।२।।"
उसके पश्चात् निम्न छंद द्वारा सोने-चाँदी से निर्मित मुद्राओं एवं मणियों से जिनबिम्ब के अंगों की पूजा करें -
“सुवर्णमुद्रामणिभिः कृतास्तु पूजा जिनस्य स्नपनावसाने। अनुष्ठिता पूर्वसुराधिनाथैः सुमेरुश्रृंगे धृतशुद्धभावैः।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 136 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् जिनबिम्ब के आगे विशाल श्रीपर्णी वृक्ष से निर्मित या अन्य उत्तम काष्ठ से निर्मित पीठ या भूमि को गोबर से लीप कर शुद्ध करें। फिर हाथ में पुष्पांजलि लेकर निम्न छंदपूर्वक पीठ के ऊपर या गोबर से लिप्त शुद्ध भूमि पर पुष्पांजलि चढ़ाएं -
‘मंगलं श्रीमदर्हन्तो मंगलं जिनशासनम्। मंगलं सकलः संघो मंगलं पूजका अमी।।"
तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के आगे चंदन या सोने-चाँदी का दर्पण रखें या अक्षत का दर्पण आलेखित करें -
“आत्मालोकविधौ जनोपि सकलस्तीव्र तपो दुश्चरं दानं ब्रह्मपरोपकराकरणं कुर्वन्परिस्फूर्जति। सोऽयं यत्र सुखेन राजति स वै तीर्थाधिपस्याग्रतो निर्मेयः परमार्थवृत्तिविदुरैः संज्ञानिभिर्दर्पणम् ।।
__ तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के आगे चन्दन या सोने-चाँदी का भद्रासन रखें या अक्षत का भद्रासन आलेखित करें -
"जिनेन्द्र पादैः परिपूज्य पृष्टैरतिप्रभावैरपि संनिकृष्टम् । भद्रासनं भद्रकरं जिनेन्द्रं पुरो लिखेन्मंगल सत्प्रयोगम् ।।''
फिर निम्न छंद द्वारा जिनबिम्ब के आगे चंदन या सोने-चाँदी का वर्धमान-संपुट रखें या अक्षत का वर्धमान-संपुट आलेखित करें -
“पुण्यं यशः समुदयः प्रभुता महत्त्वं सौभाग्यधीविनयशर्मनोरथांश्च।
वर्धन्त एव जिननायक ते प्रसादात् तद्वर्धमानयुगसंपुटमादधानः।।
तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा बिम्ब के आगे चन्दन या सोने-चाँदी का कलश रखें या अक्षत का पूर्ण कलश आलेखित करें -
“विश्वत्रये च स्वकुले जिनेशो व्याख्यायते श्रीकलशायमानः। अतोऽत्र पूर्ण कलशं लिखित्वा जिनार्चनाकर्म कृतार्थयामः ।।"
तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा बिम्ब के आगे चन्दन या सोने-चाँदी का श्रीवत्स रखें या अक्षत का श्रीवत्स आलेखित करें -
“अन्तः परमज्ञानं यद्भाति जिनाधिनाथहृदयस्य । तच्छ्रीवत्सव्याजात्प्रकटीभूतं बहिर्वन्दे ।।"
फिर निम्न छंद द्वारा बिम्ब के सम्मुख चन्दन या सोने-चाँदी का मत्स्ययुगल रखें या अक्षत का मत्स्ययुगल आलेखित करें -
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स।।
आचारदिनकर (खण्ड-३) 137 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"त्वद्वन्ध्यपंचशरकेतनभावक्लृप्तं कर्तुं मुधा भुवननाथ निजपराधम्।
सेवां तनोति पुरतस्तव मीनयुग्मं श्राद्धैः पुरो विलिखितोरुनिजांगयुक्ता।।"
___ फिर निम्न छंद द्वारा बिम्ब के आगे चन्दन या सोने-चाँदी का स्वस्तिक रखें या अक्षत का स्वस्तिक आलेखित करें -
"स्वस्तिभूगगननागविष्टपेषूदितं जिनवरोदयेक्षणात्। स्वस्तिकं तदनुमानतो जिनस्याग्रतो बुधजनैर्विलिख्यते।।
तत्पश्चात् निम्न छंद द्वारा बिम्ब के आगे चन्दन या सोने-चाँदी का नंद्यावर्त्त रखें या अक्षत का नंद्यावर्त्त आलेखित करें -
"त्वत्सेवकानां जिननाथ दिक्षु सर्वासु सर्वे निधयः स्फुरन्ति। अतः चतुर्धानवकोणनंद्यावर्त्तः सतां वर्तयतां सुखानि ।।
तत्पश्चात् अष्टमंगलों को गन्ध, पुष्प, फल एवं पकवान से पूजें। फिर हाथ में पुष्पमाला लेकर निम्न छंदपूर्वक जिनबिम्ब पर चढ़ाएं। यह अष्टमंगलों की स्थापना की विधि है -
"दर्पणभद्रासन वर्द्धमानपूर्णघटमत्स्ययुग्मैश्च। नंद्यावर्त्तश्रीवत्सविस्फुटस्वस्तिकैर्जिनार्चासु।।
फिर हाथ में पुष्प ग्रहण कर निम्न छंदपूर्वक बिम्ब को स्नात्रपीठ से उठाकर यथास्थान रख दें और यदि स्थिर बिम्ब हो तो "आज्ञाहीनं क्रियाहीनं“ मंत्रपूर्वक पुष्प चढ़ाएं -
"देवेन्द्रैः कनकाद्रिमूर्द्धनि जिनस्नात्रेण गन्धार्पणैः पुष्पैर्भूषणवस्त्रमंगलगणैः संपूज्य मातुः पुनः। आनीयान्यतएवमत्र भविका बिम्बं जगत्स्वामिनस्तत्कृत्यानि समाप्य कल्पितमतः संप्रापयन्त्यास्पदम् ।।
तत्पश्चात् पूर्व की भाँति ही आरती, मंगलदीपक आदि की विधि पूजा-विधि के समान ही करें। फिर चैत्यवंदन करके साधुओं को वन्दन करें। दिक्पाल, क्षेत्रपाल, ग्रहों आदि के विसर्जन हेतु निम्न छंद बोलें -
__"यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्। सिद्धिं दत्त्वा च महतीं पुरागमनाय च ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 138 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
उपर्युक्त छंदपूर्वक पुष्प चढ़ाकर ग्रह, दिक्पाल, क्षेत्रपाल, आदि का विसर्जन करें - यह बृहत्स्नात्र की विधि है।
नूतन बिम्ब की प्रतिष्ठा के समय या सभी प्रतिष्ठाओं के समय, शान्तिक, पौष्टिक-कर्म के समय और पों एवं महोत्सवों के समय, तीर्थयात्रा में तथा नए बिम्ब की प्राप्ति होने पर बृहत्स्नात्रविधि करनी ही चाहिए। अन्य क्रियाओं के सम्बन्ध में कोई विकल्प हो सकता है, परन्तु स्नात्रविधि में कोई विकल्प नहीं होता है। यह बृहत्स्नात्रविधि की विशेषता है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार तीन दिन, पाँच दिन या सात दिन तक नंद्यावर्त सहित बृहत्स्नात्रविधि से पूजा करें। तत्पश्चात् नंद्यावर्त्त का विसर्जन करें।
नंद्यावर्त्त-विसर्जन की विधि यह है -
पूर्व क्रमानुसार सर्ववलय के देवताओं की पूजा करें। फिर बाहर के वलय में स्थित देवताओं के प्रति ‘यान्तुदेवगणा सर्वे" यह कहकर निम्न मंत्रपूर्वक नवग्रह एवं क्षेत्रपाल का विसर्जन करें -
"ऊँ ग्रहाः सक्षेत्रपालाः पुनरागमनाय स्वाहा।" ।
तत्पश्चात् उसके मध्य वलय में स्थित देवताओं की पूजा करें। फिर बाहर के वलय में स्थित देवताओं के प्रति ‘यान्तुदेवगणा सर्वे' यह कहकर निम्न छंदपूर्वक क्रमशः दिक्पाल, शासनयक्षिणी, इन्द्राणी, इन्द्र, लोकान्तिकदेव, विद्यादेवी, जिनमाता, पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय, वाग्देवता, ईशानेन्द्र एवं सौधर्मेन्द्र का विसर्जन करें -
ॐ दिक्पालाः पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ शासन यक्षिण्यः पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ सर्वेन्द्र देव्यः पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ सर्वेन्द्रा पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ सर्वलोकान्तिका पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ विद्यादेव्य पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ जिनमातारः पुनरागमनाय स्वाहा। ॐ पंचपरमेष्ठीसरत्नत्रयाः पुनरागमनाय स्वाहा। ऊँ वाग्देवते पुनरागमनाय स्वाहा। ॐ ईशानेन्द्र पुनरागमनाय स्वाहा।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 139 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान .
ऊँ सौधर्मेन्द्र पुनरागमनाय स्वाहा।
तत्पश्चात् “ॐ ह्रीं श्रीपरमदेवतासन परमेष्ट्यधिष्ठान श्री नंद्यावर्त्त पुनरागमनाय स्वाहा। “आज्ञाहीनं क्रियाहीनं." मंत्रपूर्वक हाथ जोड़कर नंद्यावर्त्त का विसर्जन करें। यह नंद्यावर्त्त-विसर्जन की विधि है।
अब कंकण-मोचन की विधि बताते हैं - एक वर्ष में किया जाने वाला कंकण-मोचन उत्कृष्ट, छ: मास में किया जाने वाला कंकण-मोचन मध्यम एवं एक मास, एक पक्ष, दस दिन, सात दिन या तीन दिन में किया जाने वाला कंकण-मोचन जघन्य माना जाता है। परमात्मा के आगे दो पीठों पर क्षेत्रपाल एवं ग्रहों सहित दिक्पालों की स्थापना करें। बृहत्स्नात्रविधि से जिनप्रतिमा को पंचामृत स्नान कराएं
और उसी प्रकार सर्व औषधियों के जल से परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्रविधि के अन्तिम श्लोक "मेरुश्रृंग." बोलते हुए एक सौ आठ शुद्ध जल के कलशों से स्नान कराएं। नानाविध गन्धों से जिनबिम्ब का विलेपन करें और पूर्ववत् पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य से पूजा करें। फिर लघुस्नात्रपूजा के अनुसार पूर्ववत् दिक्पाल एवं सक्षेत्रपाल ग्रहों की पूजा करें। तत्पश्चात् चार स्तुतियों से चैत्यवंदन करें और शान्तिस्तव का पाठ करें। फिर कंकण-मोचन एवं प्रतिष्ठादेवता के विसर्जन के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ - ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें एवं कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता एवं वैयावृत्यकर देवों की आराधना के लिए कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व की भाँति ही करें। तत्पश्चात् सौभाग्यमुद्रा से जिनबिम्ब पर निम्न मंत्र का न्यास करें -
“ॐ अवतर अवतर सोमे सोमे कुरू-कुरू वग्गु-वग्गु निवग्गु-निवग्गु सोमे सोमणसे महुमहुरे कविल ऊँ कः क्षः स्वाहा।"
मंत्र का न्यास कर एवं परमेष्ठीमंत्र बोलकर मंगलगीत, नृत्य एवं वाद्य-ध्वनियों के बीच मदनफल-अरिष्ट आदि से युक्त कंकण बिम्ब पर से उतारकर सधवास्त्रियों के हाथ में दें। फिर जिनबिम्ब पर
जनबिम्ब पर अवतर अमहुमहुरे कापात्र बोलकर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 140 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान वासक्षेप डालकर, अंजलिमुद्रा बनाकर तथा निम्न मंत्र बोलकर प्रतिष्ठादेवता का विसर्जन करें -
“ॐ विसर-विसर प्रतिष्ठादेवते स्वाहा"
दिक्पाल एवं ग्रहों का विसर्जन पूर्व की भाँति ‘यान्तुदेव.' एवं 'आज्ञाहीन.' इत्यादि बोलकर करें। जब तक कंकण-मोचन नहीं होता है, तब तक नित्य बृहत्स्नात्रविधि से स्नात्र करें। कंकण-मोचन हो जाने पर एक वर्ष तक नित्य लघुस्नात्रविधि से स्नात्र करें। एक वर्ष पूर्ण हो जाने पर बृहत्स्नात्रविधि से स्नात्र करें तथा उसके बाद नित्य पूजा करें। - यह हमारी परम्परा के अनुसार कंकण-मोचन की विधि है। अब अन्य आचार्यों के मतानुसार कंकण-मोचन की विधि बताते
बोलकर निसर्वप्रथम पूजा करत करें। चन्दन ए दुग्ध, दही, इक्षुरस सकोरे
__ प्रतिष्ठा दिन से तीन, पाँच, सात या नौ दिनों बाद कंकण-मोचन करें। वहाँ नंदीफल (नैवेद्य) बनाएं। नैवेद्य में दो सकोरे खीर तथा सत्ताईस पूड़ी या रोटी बनाएं। घृत, दुग्ध, दही, इक्षुरस तथा सौषधि से पंचामृतस्नात्रविधि करें। चन्दन एवं कर्पूर के विलेपन से बिम्ब की सर्वप्रथम पूजा करें। “नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः" बोलकर निम्न छंदपूर्वक बिम्ब के आगे कुसुमांजलि चढ़ाएं।
"उवणेउमंगलं वो जिणाण मुहालिजालसंवलिआ। तित्थपवत्तणसमए तियसविमुक्का कुसुमवुट्ठी ।।"
इसी प्रकार क्रमशः निम्न छंदपूर्वक पैरों पर, हाथों पर एवं सिर पर कुसुमांजलि अर्पण करें - पैरों पर - “जाहिजूहियकुन्दमन्दारनीलुप्पलवरकमलसिन्दुवारचम्पय।
समुज्जलपसरन्तपरिमलबहुलगन्धलुद्धनच्चन्तमहुयर।। इयं कुसुमांजलिजिणचलणि चिंतय पावपणासं।
मुक्कियतारायणसरिसभवेवह पूरबु आस।।" हाथों पर - "सयवत्तकुंदमालय बहुवियकुसुमाइ पंचवन्नाई।
जिणनाहन्हवणकाले दिंतु सुरा कुसुमांजलि हत्था।।" सिर पर - “मुक्कजिणवमुक्कजिणवन्हवनकालम्मि कुसुमांजलिसुरवरिहि महमहंततिहुअणमहग्घिय निवडतजिणपयकमलि हरउ दुरिउ
जिणा
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 141 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान सिरिसमणसंघहा वीरजिणंदहपयकमलि देवहिमुक्कसतोस। सा कुसुमांजलि अवहरड़ भवियह दुरिय असेस।
तत्पश्चात् धूप-उत्क्षेपण करें। इसके साथ ही इस प्रकार की भावना करें कि क्षीरोदधि से पूर्ण स्वर्ण-कलशों को चन्दनसहित हाथ में लेकर जय-जय शब्दारव करते हुए मेरुशिखर पर पार्श्वजिन के अभिषेक की भाँति अभिषेक की धाराएँ हृदय को सिंचित करके नीचे गिरती हुई ऐसी प्रतीत होती हैं, मानों ग्रीष्मऋतु की तपन को प्राप्त वृक्ष को वर्षाऋतु की पहली जलधारा स्नान करा रही हों। बाल्यावस्था में स्वामी को सुमेरुशिखर पर स्वर्ण-कलशों से भवनपति, ज्योतिष एवं वैमानिकदेव स्नान कराते हैं। वे धन्य हैं, जिन्होंने परमात्मा को देखा
सर्वप्रथम सामान्य स्नात्रपूजा करें। प्रत्येक स्नात्र के बीच पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' पूर्वक निम्न श्लोक बोलकर घृत से स्नान कराएं -
“घृत मायुर्वृद्धिकरं भवति परं जैनगात्रसंपर्कात्। तद्भगवतोऽभिषेके पातु घृतं घृतसमुद्रस्य।
पुनः पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं तथा धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोकपूर्वक दुग्धस्नान कराएं।
“दुग्धं दुग्धाम्भोधेरुपाहृतं यत्सुरासुरवरेन्द्रैः।। तबलपुष्टिनिमित्तं भवतु सतां भगवदभिषेके।।"
पुनः पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं तथा धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोकपूर्वक दही से स्नान
कराएं -
"दधि मंगलाय सततं जिनाभिषेकोपयोगतोऽभ्यधिकम् । भवतु भविनां शिवाध्वति दधि जलधेराहृतं त्रिदशैः।।"
तत्पश्चात् पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोक बोलकर इक्षुरस से स्नान कराएं -
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आचारदिनकर (खण्ड-३). 142 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"इक्षुरसोदादुपहृत इक्षुरसः सुरवरैस्तदभिषेके। भवदवसदवथु भविनां जनयतु शैत्यं सदानन्दम् ।।
फिर पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। फिर कस्तुरी या कर्पूर के लेप से लिप्त एक सौ आठ कलशों से स्नान कराएं। पुनः पुष्पांजलि अर्पण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोकपूर्वक सर्वौषधि से स्नान कराएं -
... "सर्वोषधीषु निवसति अमृतमिदं सत्यमर्हदभिषेकात् । तत्सर्वौषधिसहितं पंचामृतमस्तु वः सिद्धयै ।।"
तत्पश्चात् जिनबिम्ब के अंगों का प्रक्षालन करें। फिर उन्हें पोंछकर विलेपन करें। सुगन्धित पुष्पों से पूजा करें। फल, पत्र (पान), सुपारी, अक्षत, धूप, दीप, जल एवं नंदीफल चढ़ाएं। अगरू धूप-उत्क्षेपण करें। पवित्र थाल में “ॐ नमः सूर्याय" इत्यादि मंत्रपूर्वक ग्रहों की स्थापना करें। इसके बाद निम्नांकित ग्रहशान्ति का पाठ करें
“प्रणम्य सर्वभावेन देवं विगतकल्मषम्। ग्रहशान्तिं प्रवक्ष्यामि सर्वविघ्नप्रणाशिनीम् ।।१।।
सम्यक्स्तुता ग्रहाः सर्वे शान्तिं कुर्वन्ति नित्यशः। तेनाहं श्रद्धया किंचित्पूजां वक्ष्ये विधानतः ।।२।।"
ग्रहवर्णानि गन्धानि पुष्पाणि च फलानि च। अक्षतानि हिरण्यानि धूपाश्च सुरभीणि च ।।३।।
एवमादिविधानेन ग्रहाः सम्यक्प्रपूजिताः। व्रजन्ति तोषमत्यर्थ तुष्टाः शान्तिं ददाति च।।४।।
बन्धूकपुष्पसंकाशो रक्तोत्पलसमप्रभः। लोकनाथे जगद्दीपः शान्तिं दिशतु भास्करः ।।१।।
शङ्खहारमृणालाभः काशपुष्पनिभोपमः। शशाको रोहिणीभर्ता सदा शान्तिं प्रयच्छतु।।२।।
धरणीगर्भसंभूतो बन्धुजीवनिभप्रभः। शान्तिं ददातु वो नित्यं कुमारो वक्रगः सदा।।३।।
शिरीषपुष्पसंकाशः कृशाङ्गो भूषणार्जनः। सोमपुत्रो बुधः सौम्यः सदा शान्तिं प्रयच्छतु ।।४।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 143 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
सुवर्णवर्णसंकाशो भोगदायुः प्रदो विदुः। देवमन्त्री महातेजा गुरुः शान्तिं प्रयच्छतु।।५।।
काशकुन्देन्दुसंकाशः शुक्रो वै ग्रहपुंगवः। शान्तिं करोतु वो नित्यं भृगुपुत्रो महायशाः ।।६।।
नीलोत्पलदलश्यामो वैडूर्यांजनसप्रभः। शनैश्चरो विशालाख्यः सदा शान्तिं प्रयच्छतु।७।।
__ अतसीपुष्पसंकाशो मेचकाकारसन्निभः। शान्तिं दिशतु वो नित्यं राहुश्चन्द्रार्कमर्दनः ।।८।।
सिन्दूररुधिराकारो रक्तोत्पलसमप्रभः। प्रयच्छतु सदा शान्तिं केतुरारक्तलोचनः।।६।।
वर्णसंकीर्तनैरित्थं स्तुताः सर्वे नवग्रहाः। शान्तिं दिशन्तु मे सम्यक् अन्येषामपि देहिनाम् ।।१०।।
एवं शान्तिं समायोज्य पूजयित्वा यथाविधि। तद्भक्तलिङ्गिनां पश्चादोजनं दानमाचरेत् ।।११।।
स्वल्पमन्नं ग्रहस्योक्तमादौ दत्वा विचक्षणः। पश्चात्कामिकमाहारं दत्वां तं भोजयेन्नरः।।१२।।
___ नानाभक्ष्यविशेषैश्च तथा मिष्टान्नपानकैः। यावद्भवन्ति संतुष्टास्तावत्संभोज्य पूजयेत् ।।१३।।
तेषां संतोषमात्रेण ग्रहास्तोषमुपागताः। आतुरस्यार्तिहरणं कुर्वन्ति मुदिताः सदा।।१४।।
फिर कुंकुम, कर्पूर, कस्तूरी एवं गोरोचन से ग्रहों को सुशोभित करें। कणयर, पुष्प, कमल, जासूद, चम्पक, सेवन्ती, जाइ, वेउल, कुन्द एवं नीली - इन नौ पुष्पों से नवग्रहों की पूजा करें। द्राक्षा, इक्षु, सुपारी, नारंगी, करूण, बीजपूर, खजूर, नारियल, दाडिम (अनार) - ये नौ फल चढ़ाएं। शक्ति के अनुसार (कम या ज्यादा) नैवेद्य चढ़ाएं। धूपपूजा, वासक्षेपपूजा एवं कर्पूरपूजा आदि अवश्य करें। मूलमंत्र से बलि को अभिमंत्रित करके भूतबलि दें। फिर दिक्पाल की पूजा करें। तत्पश्चात् नमक एवं जलधारा द्वारा नजर उतारें। आरती, मंगलदीपक एवं देववन्दन करें। फिर "प्रतिष्ठादेवता के विसर्जन एवं कंकण-मोचन के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - यह कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 144 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें। कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर "श्रुतदेवता की आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर एक नवकार का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्ण करके "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्य" पूर्वक “सुयदेवयाभग.“ स्तुति बोलें। इसी प्रकार वाग्देवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रदेवता एवं समस्त वैयावृत्त्यकर देवताओं के आराधनार्थ एक-एक नवकार का कायोत्सर्ग करके क्रमशः निम्न स्तुति बोलें -
वाग्देवी की स्तुति - “वाग्देवी वरदीभूत पुस्तिका पद्मलक्षितौ। आपोद्या बिभ्रती हस्तौ पुस्तिकापद्मलक्षितौ ।।"
शान्तिदेवता की स्तुति - "उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगतिदुः स्वप्नदुनिमित्तादिः ।
संपादितहितसंपन्नामग्रहणं जयति शान्तेः ।।"
क्षेत्रदेवी की स्तुति - “यस्याः क्षेत्र समाश्रित्य साधुभिः साध्यते क्रिया।
सा क्षेत्र देवता नित्यं भूयान्नः सुखदायिनी।।"
समस्त वैयावृत्त्यकर देवता की स्तुति - “सम्मइंसणजुत्ता जिणमय भत्ताणहिययसमजुत्ता।
जिणवेयावच्चगरा सव्वे मे हुतु संतिकरा ।।
तत्पश्चात् शुभमुहूर्त में सौभाग्यमुद्रा द्वारा निम्न मंत्र से मंगलाचारपूर्वक कंकण-मोचन करें -
"ऊँ अवतर-अवतर सोमे-सोमे कुरू कुरू वग्गु-वग्गु निवग्गु-निवग्गु सोमेसोमणसे महुमहुरे कविल ऊँ कः क्षः स्वाहा।
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक अंजलिमुद्रा से प्रतिष्ठादेवता का विसर्जन करें -
"ॐ विसर-विसर प्रतिष्ठा देवता स्वाहा।'
इसी प्रकार निम्न श्लोक द्वारा सभी देवताओं का विसर्जन करें
"देवा देवार्चनार्थ ये पुरुहूताश्चतुर्विधाः। ते विधायार्हतः पूजां यान्तु सवै यथागतम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् शान्ति का पाठ करें एवं साधर्मिकवात्सल्य करें । शक्ति के अनुसार बारह वर्ष तक नित्य स्नात्रपूजा करें एवं वार्षिकोत्सव करें। प्रतिष्ठा अधिकार में अन्य आचार्यों द्वारा कंकण - मोचन की यह विधि बताई गई है।
चैत्य की स्थापना, नवग्रहों की स्थापना और धातु, काष्ठ, पाषाण एवं हाथीदाँत से निर्मित जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा विधि एक जैसी ही है, किन्तु लेप्यमय प्रतिमा की प्रतिष्ठा में इतना विशेष है कि लेप्यमय प्रतिमा पर स्नात्रविधि न करके उसके समक्ष स्थित दर्पण के प्रतिबिम्ब पर स्नात्र करें, शेष पूर्ववत् करें। गृहचैत्य में पूजनीय बिम्बों की जहाँ प्रतिष्ठा की गई हो, यदि उन्हें उसी गृह में प्रतिष्ठित करना हो, तो भी पूर्व प्रतिष्ठित बिम्बों की कंकण मोचन - विधि की जाती है। अन्य किसी गृह में, अन्य गाँव में या अन्य देश में स्थापित करना हो, तो वहाँ ले जाकर प्रवेश महोत्सवपूर्वक कंकण मोचन करें। कंकणमोचन की यह भी एक विधि है । इस प्रकार प्रतिष्ठा अधिकार में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा सम्बन्धी क्रियाएँ सम्पूर्ण होती हैं ।
अब चैत्य-प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं । वह इस प्रकार हैं बिम्ब-प्रतिष्ठा के शुभ लग्न में, अर्थात् उसी लग्न में जिसमें बिम्ब की प्रतिष्ठा हुई हो, यथाशीघ्र दिन, मास, पक्ष या एक वर्ष व्यतीत होने पर संघ को एकत्रित करें। चैत्य की चारों दिशाओं में वेदिका बनाएं। फिर चौबीस तन्तुसूत्रों से अन्दर की तरफ एवं बाहर की तरफ लपेटकर शान्ति- मंत्र द्वारा चैत्य की रक्षा करें। तत्पश्चात् पूर्व की भाँति ही गुणों से युक्त स्नान कराने वाले पाँच पुरुषों को और औषधि कूटने वाली पाँच स्त्रियों को आमंत्रित करें। इस विधि में सुरमा एवं शहद से रसांजन बनाने की क्रिया नहीं होती है। बृहत्स्ना विधि से परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। बिम्ब-प्रतिष्ठा की भाँति ही सात प्रकार के धान्य चढ़ाएं तथा रक्षाबन्धन करें। फिर रौद्रदृष्टिपूर्वक दोनों मध्य अंगुलियों को खड़ी करके बाएँ हाथ में स्थित जल से चैत्य को अभिसिंचित करें। उसके बाद बिम्ब-प्रतिष्ठा की भाँति चैत्य के ऊपर वस्त्र ढक दें। नानाविध गन्ध, फल एवं पुष्पों से पूजा करें। फिर बिम्ब - प्रतिष्ठा की भाँति ही नंद्यावर्त्त - मण्डल की
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
146 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
स्थापना एवं उसके पूजन की सम्पूर्ण क्रिया करें। तत्पश्चात् लग्न-वेला आने पर वासक्षेपपूर्वक जिनप्रतिष्ठा - मंत्र पढ़कर वास्तुदेवता का निम्न मंत्र पढ़ें
"ॐ ह्रीं श्रीं क्षां क्षीं क्षं ह्रां ह्रीं भगवति वास्तुदेवते ल ल ल ल लक्षि क्षि क्षि क्षि क्षि इह चैत्ये अवतर - अवतर तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ।" इस प्रकार वासक्षेपपूर्वक चैत्य की देहली, तोरण ( द्वारश्रिया ) एवं शिखर पर सात-सात बार वासक्षेप डालें । वेदी के निकट नैवेद्य एवं अंकुरित जवारों के सकोरे आदि पूर्ववत् रखें। फिर प्रतिष्ठा कराने वाला पुनः बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा के बिम्ब की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् चैत्य के ऊपर से वस्त्र उतारकर महोत्सव आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् ही करें। उसके बाद प्रतिष्ठादेवता का विसर्जन करें । शक्रस्तव का पाठ, कायोत्सर्ग एवं स्तुति आदि सब क्रियाएँ बिम्ब-प्रतिष्ठा की भाँति ही करें। फिर चैत्य के ऊपर प्रतिष्ठित ध्वजा चढ़ाएं। ध्वज - प्रतिष्ठा की विधि उसके अधिकार के अनुसार करें। नंद्यावर्त्त का विसर्जन पूर्व की भाँति ही करें। मण्डप की प्रतिष्ठा - विधि महाचैत्य की प्रतिष्ठा के समान ही है, किन्तु वहाँ एक बार ही परमात्मा की स्नात्रपूजा की जाती है। देवकुलिका की प्रतिष्ठा के समय वेदी बनाएं तथा वेदी - बलि की विधि करें। वहाँ बृहत् नंद्यावर्त्त पूजन न करके मात्र लघु नंद्यावर्त्तपूजा करें । उसकी विधि यह है
पूर्ववत् नंद्यावर्त्त का आलेखन करें। उसके दाएँ हाथ की तरफ धरणेन्द्र की, बाएँ हाथ की तरफ अम्बिकादेवी की, नीचे श्रुतदेवी की तथा ऊपर गौतम गणधर की स्थापना करें। प्रथम वलय में पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय की स्थापना करें । द्वितीय वलय में विद्यादेवियों की स्थापना करें। तृतीय वलय में शासन यक्षिणियों की स्थापना करें । चतुर्थ वलय में दिक्पालों की स्थापना करें। पंचम वलय में नवग्रहों एवं क्षेत्रपाल की स्थापना करें। फिर बाहर की तरफ चारों दिशाओं में चतुर्निकाय देवों की स्थापना करें। इनके आह्वान एवं पूजन की सम्पूर्ण विधि पूर्ववत् है । यह पंचवलययुक्त नंद्यावर्त्त की विधि है । अन्य सभी क्रियाएँ चैत्य - प्रतिष्ठा के समान करें ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
147 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मण्डपिका की प्रतिष्ठा देवकुलिका - प्रतिष्ठा के समान ही करें। कोष्ठिका आदि की प्रतिष्ठा में सूत्र द्वारा रक्षा करें, दिक्पाल एवं ग्रहों की पूजा करें तथा पूर्वकथित वास्तुदेवता के मंत्र से वासक्षेप डालें । - प्रतिष्ठा अधिकार में यह चैत्य प्रतिष्ठा की विधि बताई गई
अब कलश-प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं । वह इस प्रकार है पूर्व की भाँति ही भूमि की शुद्धि करें। लग्न की शुद्धि प्रतिष्ठा के समान करें तथा गन्धोदक एवं पुष्प द्वारा भूमि की प्राण-प्रतिष्ठा करें। पूर्व की भाँति ही सर्वप्रथम उस भूमि में कुम्भकार के चाक की मिट्टी सहित पंचरत्न डालकर उसके ऊपर कलश स्थापित करें। तत्पश्चात् सर्वजलाशयों से एवं पवित्र स्थानों से पूर्व की भाँति जल लाएं। उसके बाद बृहत्स्नात्रविधि से चैत्य के बिम्ब की स्नात्रपूजा करें। पंचवलय के नंद्यावर्त्त की स्थापना एवं पूजा पूर्व की भाँति करें तथा जिनबिम्ब, चैत्य, मण्डप, देवकुलिका, मण्डपिका, कलश, ध्वज एवं गृह बिम्ब की प्रतिष्ठा करवाने वाले के घर या राजा के घर या हवन करवाने वाले के घर में पूर्व की भाँति शान्तिक एवं पौष्टिक - कर्म करें। नंद्यावर्त्त पूजा के बाद सभी दिशाओं में दिक्पालों के नाम लेकर निम्न मंत्रपूर्वक शान्ति - बलि दें -
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“ॐ इन्द्राय नमः ॐ इन्द्र इह कलश प्रतिष्ठायां इमं बलिं गृहाण - गृहाण स्थापक-स्थापक कर्तृणां संघस्य जनपदस्य शान्तिं तुष्टिं पुष्टिं कुरू कुरू स्वाहा । "
इसी प्रकार सभी दिशाओं की तरफ मुँह करके सर्व दिक्पालों को बलि दें। बलिदान से पूर्व चुल्लूभर जल डालें। फिर सुगन्धित द्रव्य के छींटे तथा पुष्प डालें एवं सात प्रकार के पक्व धान्य डालें । उपर्युक्त बलिमंत्रपूर्वक सभी दिक्पालों के नाम, यथा- "ॐ आग्नेय नमः" "ॐ अग्नये ." इत्यादि बोलकर बलि दें। पूर्व में बताए गए गुणों वाली स्त्रियों द्वारा पूर्वोक्त औषधियों को तैयार करवाएं और पूर्ववत् स्नात्रकारों को आमन्त्रित करें। पूर्व की भाँति ही सकलीकरण की क्रिया करे साथ ही पूर्व की भाँति स्नात्रकार शुचिविद्या का आरोपण करें । फिर परमात्मा की प्रतिमा के समक्ष चार स्तुतियों द्वारा चैत्यवंदन करें ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 148 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, शासनदेवता, क्षेत्रदेवता एवं समस्त-वैयावृत्त्यकर देवों की आराधना के लिए कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व की भाँति ही करें। तत्पश्चात् पुष्पांजलि लेकर निम्न छंदपूर्वक कलश पर पुष्पांजलि अर्पित करें -
“पूर्ण येन सुमेरुश्रृंगसदृशं चैत्यं सुदेदीप्यते यः कीर्ति यजमान धर्मकथनप्रस्फूर्जितां भाषते।
यः स्पर्धा कुरुते जगत् त्रयमहीदीपेन दोषारिणा सोऽयं मंगल रूप मुख्य गणनः कुम्भश्चिरं नन्दतु।"
तत्पश्चात् आचार्य मध्य की दोनों अंगुलियों को खड़ा करके, रौद्रदृष्टिपूर्वक तर्जनी मुद्रा करें। फिर बाएँ हाथ में जल लेकर कलश पर छांटे। फिर कलश पर चन्दन का तिलक करके पुष्पादि से उसकी पूजा करें। तत्पश्चात् मुद्गरमुद्रा का दर्शन कराएं। फिर निम्न मंत्रपूर्वक कलश के ऊपर हाथ से स्पर्श करके चक्षु रक्षा करें एवं कलश के ऊपर पूर्व की भाँति सात धान्य डालें -
"ऊँ ह्रीं क्षां सर्वोपद्रवं रक्ष-रक्ष स्वाहा।"
फिर चाँदी से निर्मित चार कलशों से निम्न छंदपूर्वक कलश की स्नात्रपूजा करें, अर्थात् स्नान कराएं -
___ “यत्पूतं भुवनत्रयसुरासुराधीशदुर्लभं वर्ण्यम् । हेम्ना तेन विमिश्रं कलशे स्नात्रं भवत्वधुना।।" ..
___तत्पश्चात् - १. सर्वौषधियों २. मूलिका (जड़ीबूटियाँ) ३. गन्धोदक ४. वासोदक ५. चन्दनोदक ६. कुंकुमोदक ७. कर्पूरोदक ८. कुसुमोदक - इनसे भरे हुए कलशों से स्नात्र-छंदों द्वारा स्नान कराएं, किन्तु छंद के मध्य में जिनबिम्ब के स्थान पर कलश शब्द का उच्चारण करें। पंचरत्न एवं सफेद सरसों से युक्त रक्षापोट्टलिका का बन्धन भी पूर्व की भाँति ही करें। तत्पश्चात् "ऊँ अर्हत्परमेश्वराय इहागच्छतु-इहागच्छतु" - मंत्रपूर्वक बाएँ हाथ में कलश लेकर दाएँ हाथ से उसे पूर्ण रूप से चंदन से लिप्त करके पुष्पसहित मदनफल एवं ऋद्धि-वृद्धियुक्त कंकण का बंधन करें। पूर्व की भाँति कलश पर धूप उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् स्त्रियाँ कलश को बधाएं। कलश को - १. सुरभिमुद्रा २. परमेष्ठीमुद्रा ३. गरूडमुद्रा ४. अंजलिमुद्रा एवं
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
149 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
५. गणधरमुद्रा के दर्शन कराएं तथा तीन बार सूरिमंत्र द्वारा उसकी स्थापना करें। “ऊँ स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा' - इस मंत्र से कलश को वस्त्र से आच्छादित करें। उसके ऊपर पूर्व की भाँति जम्बीर, आदिफल, सप्तधान्य, पुष्प एवं पत्र चारों तरफ डालें। फिर निम्न छंदपूर्वक कलश को उतारें - “दुष्टसुरासुररचितं नरैः तद्गच्छत्वतिदूरंभविक कृतारात्रिक विधानैः ।। "
कृतं दृष्टिदोषजं विघ्नम् ।
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फिर चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् " अधिवासना ( प्रतिष्ठा ) देवी की आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ' यह कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर पूर्ववत् अधिवासनादेवी की स्तुति बोलें, किन्तु उसमें जिनबिम्ब के स्थान पर जिनकलश शब्द का उच्चारण करें ।
तत्पश्चात् शान्तिदेवी, अम्बिकादेवी, समस्त वैयावृत्त्यकर देवों के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्ववत् करें। पुनः शान्ति - बलि प्रदान करें। फिर शक्रस्तव द्वारा चैत्यवंदन करें तथा बृहत् शान्तिस्तव बोलें। तत्पश्चात् "प्रतिष्ठादेवता के आराधनार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें।
कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव तथा निम्न स्तुति बोलें " यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सर्वा सर्वास्पदेषु नन्दन्ति । श्री जिन बिम्बं प्रविशतु सदेवता सुप्रतिष्ठमिदम् ।। “ आचार्य स्वयं अंजलि में अक्षत ले करके और जन-समुदाय भी उसी प्रकार समीप में ही अंजलि में अक्षत ग्रहण करते हुए जिनकलश को बधा करके मंगलगाथा का पाठ करें। मंगलपाठ “नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः " बोलकर बोलें
" जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में स्वर्ग प्रतिष्ठित हैं, उसी प्रकार से जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश भी सुप्रतिष्ठित रहे । जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में मेरु सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 150 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान भी सुप्रतिष्ठित रहे। जिस प्रकार से समग्र समुद्रों के मध्य लवण समुद्र सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश भी सुप्रतिष्ठित रहे। जिस प्रकार से समग्र द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश भी सुप्रतिष्ठित रहे। तत्पश्चात् पूर्व कथित छंद द्वारा पुष्पांजलि दें। कलश पर से वस्त्र उतारना, महोत्सव करना एवं धर्मदेशना देना आदि सब कार्य पूर्ववत् करें। तत्पश्चात् प्रसाद या मण्डप के ऊपर कलशारोपण करें। उसकी स्थापना करने वाले को वस्त्र, कंकण आदि का दान करें, अष्टाह्निका-महोत्सव करें, साधुओं को वस्त्र, पात्र एवं अन्न का दान दें, संघ की पूजा करें तथा याचकों को दान देकर संतुष्ट करें। पाषाण से निर्मित कलश हो, तो चैत्य-प्रतिष्ठा पूर्ण होते ही उसी समय उसे भी स्थापित कर दें, इस प्रकार चैत्य-प्रतिष्ठा के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा भी पूर्ण हो जाती हैं। यह तो चैत्य-प्रतिष्ठा से भिन्न समय में कलशारोपण करने की विधि है। विवाह-मण्डप आदि में मिट्टी के कलशों को आरोपित करके परमेष्ठीमंत्रपूर्वक वासक्षेप करके प्रतिष्ठित करते हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठा अधिकार में कलश-प्रतिष्ठा की विधि समाप्त होती है।
__अब ध्वज-प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - भूमि की शुद्धि पूर्व की भाँति करें। उस भूमि पर गन्धोदक, पुष्प आदि द्वारा पूर्ववत् पूजा करें। पूर्व की भाँति अमारि घोषणा कराएं। पूर्व की भाँति संघ को आमन्त्रित करें, वेदिका बनाएं, बृहत्, अर्थात् दसवलय वाले नंद्यावर्त्त का आलेखन करें और दिक्पालों आदि की स्थापना करें। तत्पश्चात् जिनके हाथ में कंकण एवं मुद्रिका हैं तथा जो सदशवस्त्र-परिधान को धारण किए हुए हैं- ऐसे आचार्य पूर्व की भाँति सकलीकरण करके शुचिविद्या का आरोपण करते हैं। पूर्व में बताए गए गुणों से युक्त स्नात्रकारों को कलशारोपण-विधि की भाँति ही अभिमंत्रित करें। सर्व दिशाओं में धूप एवं जल सहित बलि प्रक्षिप्त करते हैं। बलि को अभिमंत्रित करने का मंत्र निम्नांकित है -
__“ॐ ह्रीं क्ष्वी सर्वोपद्रवं रक्ष-रक्ष स्वाहा।"
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151 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
प्रतिष्ठा-विधि की भाँति दिक्पालों का आह्वान करें। तत्पश्चात् शान्ति हेतु बलि देकर बृहत्स्नात्रविधि से मूलबिम्ब की स्नात्रपूजा करें। फिर संघ के साथ गुरु चार स्तुतियों से चैत्यवंदन करें। शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता एवं वैयावृत्यकर देवों की आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - यह कहकर पूर्व की भाँति कायोत्सर्ग करें और स्तुति बोलें। तत्पश्चात् निम्न छंदपूर्वक ध्वजदण्ड पर कुसुमांजलि डालें
“रत्नोत्पत्तिर्बहुसरलता सर्वपर्वप्रयोगः सृष्टोच्चत्वं गुणसमुदयो मध्यगम्भीरता च ।
आचारदिनकर (खण्ड-:
ड-३)
यस्मिन् सर्वा स्थितिरतितरां देवभक्तप्रकारा तस्मिन् वंशे कुसुमविततिर्भव्य हस्तोद्गतास्तु । ।"
कलश-प्रतिष्ठा की भाँति ध्वजदण्ड पर चन्दन से लेप करें, पुष्प आदि से पूजा करें तथा चाँदी से निर्मित जल - कलशों से स्नान कराएं। तत्पश्चात् क्रमश - १. कर्पूर २. कस्तूरी ३. पंचरत्न का चूर्ण ४. गाय के सींगों से खोदकर निकाली गई मिट्टी, चौराहे की मिट्टी, राजद्वार की मिट्टी एवं वल्मीक की मिट्टी ५. मूली ६. अगरू ७. सहस्रमूली ८. गन्ध ६. वास ( वासक्षेप, अर्थात् चन्दन का चूर्णं) १०. चन्दन ११. कुंकुम १२. तीर्थोदक एवं १३. स्वर्णमिश्रित जल के कलशों से पूर्व कथित छंदों से जिनबिम्ब के स्थान पर ध्वज शब्द बोलकर ध्वजदण्ड की स्नात्रपूजा करें। फिर बृहत्स्ना विधि के काव्यों से ध्वजदण्ड को पंचामृत स्नान कराएं। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्रविधि के काव्यों से ध्वजदण्ड पर चन्दन का लेप करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। ऋद्धि-वृद्धि, सफेद सरसों एवं मदनफल से युक्त कंकण का बंधन बिम्ब-प्रतिष्ठा की भाँति ही करें । नंद्यावर्त्त पूजा करें। प्रतिष्ठा की लग्नवेला आने पर ध्वजदण्ड को सदशवस्त्र से आच्छादित करें। कलश- प्रतिष्ठा की भाँति पंचमुद्राओं द्वारा न्यास करें। चार स्त्रियाँ ध्वजदण्ड को बधाएं । फिर ध्वजपट्ट की वासक्षेप द्वारा पूजा करें एवं धूप-उत्क्षेपण आदि क्रिया करें। "ॐ श्रीठः " इस मंत्र से ध्वजदण्ड को अभिमंत्रित करें। तत्पश्चात् जवारारोपण, अनेक जातियों के फल, बलि, नैवेद्य आदि चढ़ाएं। कलश की आरती के छंद से ध्वज
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 152 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान की आरती उतारें, किन्तु कलश के स्थान पर ध्वज का नाम लें। पुनः जिनस्तुतियों से युक्त चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् “शान्तिनाथ भगवान् के आराधनार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें। कायोत्सर्ग पूर्ण करके शान्तिनाथ भगवान् की स्तुति बोलें -
“श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्ति विधायिने। त्रैलोक्यमराधीश मुकुटाभ्यः चितांघ्रये।।
तत्पश्चात् श्रुतदेवी, शान्तिदेवी, शासनदेवी, अम्बिकादेवी, क्षेत्रदेवी, प्रतिष्ठादेवी एवं समस्त वैयावृत्यकर देवों की आराधना के लिए कायोत्सर्ग एवं स्तुति आदि की क्रिया पूर्ववत् करें।
फिर बैठकर शक्रस्तव का पाठ करें एवं बृहत्शान्तिस्तव बोलें। बलिप्रदान में सात प्रकार के धान्य एवं विभिन्न प्रकार के फलों का दान करें। उन्हें वासक्षेप, पुष्प एवं धूप से वासित करें। ध्वजदण्ड पर से वस्त्र को उतारें। फिर ध्वजदण्ड पर ध्वजपट्ट को आरोपित करें। जिस चैत्य पर ध्वज का आरोपण किया जाना है, उस चैत्य की पार्श्व से तीन प्रदक्षिणा दें। फिर प्रासाद के शिखर पर निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि अर्पण करें -
"कुलधर्मजातिलक्ष्मीजिनगुरुभक्तिप्रमोदितोन्नमिदे। प्रासादे पुष्पांजलिरयमस्मत्कर कृतो भूयात् ।। निम्न छंदपूर्वक शिखर के कलश को स्नान कराएं - "चैत्याग्रतां प्रपन्नस्य कलशस्य विशेषतः।। ध्वजारोपविधौस्नानं भूयाद्भक्तजनैः कृतम् ।।"
ध्वज के गृह में, अर्थात् पीठ में पंचरत्न डालें। जब सर्वग्रहों की दृष्टि शुभ हो तथा लग्न भी शुभ हो, उस समय ध्वज आरोपित करें। आचार्य सूरिमंत्र से वासक्षेप करे। विभिन्न प्रकार के फल, सात प्रकार के धान्य, बलि, मोरिण्डक (?) मोदक आदि वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में डालें। प्रतिमा के दाएँ हाथ की तरफ महाध्वज को ऋजुगति से बांधे। प्रवचन मुद्रापूर्वक आचार्य धर्मदेशना दे। संघपूजा एवं अष्टाह्निका पूजा करें। तत्पश्चात् विषम दिन में, अर्थात् तीन, पाँच या सात की संख्या वाले दिन बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की पूजा करके, भूतबलि
संख्या वा तत्पश्चात् विषाचार्य धर्मदेशना महाध्वज ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 153 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान देकर, चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता एवं समस्त वैयावृत्यकर देवताओं के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति करें। फिर महाध्वज की छोटन-क्रिया करें।
पूर्व की भाँति नंद्यावर्त्त-मण्डल का विसर्जन करें, साधुओं को वस्त्र, अन्न एवं पेय पदार्थों का दान दें एवं शक्ति के अनुसार, याचकों को संतुष्ट करें। ध्वज का रूप इस प्रकार है -
ध्वजपट्ट श्वेत, लाल अथवा विचित्र वर्ण वाला एवं घण्टियों से युक्त होता है। ध्वजदण्ड - सोने का, बांस का या अन्य किसी वस्तु से निर्मित होता है। पताका की सूरिमंत्रपूर्वक वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठा करें। चन्दन का लेप करें एवं पुष्प चढ़ाएं। बिम्ब के परिकर में जो शिखर होता है, वहाँ से मण्डप सहित प्रासाद के भीतर से लेकर बाहर जो ध्वजदण्ड स्थापित होता है, वहाँ तक लम्बा ध्वजदण्डाश्लेषी महाध्वज होता हैं।
इस महाध्वज को परमात्मा के बिम्ब के सम्मुख ले जाएं। वहाँ कुंकुम के रस से ध्वजा पर माया-बीज लिखें और फिर उसके अन्दर कुंकुम के छीटें दें। ध्वज के किनारे पर पंचरत्न बाँधे तथा सूरिमंत्रपूर्वक वासक्षेप डालें। फिर महाध्वज को आरोपित करें।
अब राजध्वज की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं -
राजध्वज-मत्स्य, सिंह, वानर, कलश, गज (हाथी) की अंबाडी, ताल, चामर, दर्पण, चक्र-मण्डल से अंकित बहुत प्रकार की होती है
और उसकी प्रतिष्ठा राजमहल पर होती है। वहाँ पौष्टिककर्म करें। बृहत्स्नात्रविधि से गृहबिम्ब की स्नात्रपूजा करें तथा जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के समान ही दसवलय से युक्त बृहत्नंद्यावर्त्त की स्थापना एवं पूजा करें। तत्पश्चात् संपूर्ण क्रिया होने पर, पूर्ववत् ध्वज की शुद्धि हो जाने पर तथा उसे पंचरत्न से युक्त करने के बाद भूमि पर सीधी खड़ी कर दें। उसके मूल में अनेक नैवेद्य, फल एवं मुद्रा रखें। तत्पश्चात् वासक्षेप लेकर आचार्य अपने पद के योग्य द्वादश-मुद्रा एवं वर्धमान-विद्या द्वारा ध्वजा को अभिमंत्रित करें। फिर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 154 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान ध्वजप्रतिष्ठामंत्रपूर्वक ध्वज पर एक सौ आठ बार वासक्षेप डालें। ध्वजप्रतिष्ठा का मंत्र यह हैं -
“ॐ जये जये जयन्ते अपराजिते ही विजये अनिहते अमुक अमुक चिन्हांकितं ध्वजम् अवतर-अवतर शत्रुविनाशं जयं यशो देहि-देहि स्वाहा।।"
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य द्वारा ध्वज की पूजा करें -
___"ॐ जये गन्धं गृहाण-गृहाण अक्षतान् पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं गृहाण शान्तिं तुष्टिं जयं कुरु-कुरू स्वाहा।"
___ तत्पश्चात् तीन दिन तक ध्वज की रक्षा एवं महोत्सव करें। राजध्वज की प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थ गुरु को स्वर्ण, आभरण एवं वस्त्रादि का दान दें। दीनजनों का दारिद्रय दूर करें एवं ब्राह्मणों का पोषण करें। तत्पश्चात् तीसरे दिन ध्वज को उतारें तथा जयदेवी का विसर्जन करें। साथ ही पूर्ववत् नंद्यावर्त्त का भी विसर्जन करें - यह राजध्वज की प्रतिष्ठा-विधि है। इस प्रकार प्रतिष्ठा अधिकार में ध्वज-प्रतिष्ठा की विधि पूर्ण होती है।
अब जिनबिम्ब के परिकर की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - यदि परिकर जिनबिम्ब के साथ ही हो, तो जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के समय ही वासक्षेप डालने मात्र से ही परिकर की प्रतिष्ठा पूर्ण हो जाती है, किन्तु परिकर जिनबिम्ब से अलग हो, तो उसकी अलग से प्रतिष्ठा होती है। परिकर का आकार निम्न प्रकार का होता है - बिम्ब के नीचे गज, सिंह एवं कमल अंकित होता है। सिंहासन के पार्श्व में दो चामरधारी होते हैं। उसके बाहर अंजलिबद्ध दो पुरुष खड़े हुए होते हैं। मस्तक के ऊपर क्रमशः एक के ऊपर एक तीन छत्र होते हैं। उसके पार्श्व में सूंड के अग्रभाग में स्वर्ण-कलशों को धारण किए हुए- ऐसे दो श्वेत हाथी होते हैं तथा हाथी के ऊपर झर्झर वाद्य बजाने वाले दो पुरुष होते हैं। उसके ऊपर दो मालाकार होते हैं। शिखर पर दो शंख बजाने वाले होते हैं और उसके ऊपर कलश होता है। मतान्तर से सिंहासन के मध्यभाग में दो हिरण एवं तोरण से अंकित धर्मचक्र होता है तथा उसके दोनों तरफ
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 155 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान पार्श्व में नवग्रहों की मूर्तियाँ होती हैं। इस प्रकार से निर्मित परिकर की प्रतिष्ठा हेतु बिम्ब-प्रतिष्ठा के योग्य लग्न आने पर भूमिशुद्धि, अमारिघोषणा एवं संघ-आह्वानपूर्वक बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् कलश-पूजा के सदृश परिकर की पूजा करें। परिकर पर सात प्रकार के धान्य चढ़ाएं। फिर दो अंगुलियों को खड़ी करके रौद्रदृष्टिपूर्वक बाएँ हाथ की हथेली में स्थित जल से उसका सिंचन करें। अक्षत से पूर्ण पात्र उसके आगे चढ़ाएं। तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक परिकर की गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य से पूजा करें तथा सदशवस्त्र से उसे ढक दें -
“ॐ ह्रीं श्रीं जयन्तु जिनोपासकाः सकला भवन्तु स्वाहा।"
फिर चार स्तुतियों द्वारा चैत्यवंदन करें। शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता, वैयावृत्यकर देवता एवं प्रतिष्ठादेवता के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुतियाँ पूर्व की भाँति करें। फिर लग्नवेला के आने पर सब लोगों को दूरकर द्वादशमुद्रा एवं सूरिमंत्र द्वारा वासक्षेप अभिमंत्रित करके वासक्षेप डालें। धर्मचक्र पर निम्न मंत्र से तीन बार वासक्षेप डालें -
“ॐ ह्रीं श्रीं अप्रतिचक्रे धर्मचक्राय नमः। फिर सर्वग्रहों पर निम्न मंत्र से तीन बार वासक्षेप डालें - “ॐ घृणिचद्रां ऐं क्षौं ठः ठः क्षां क्षी सर्वग्रहेभ्यो नमः।"
उसके बाद निम्न मंत्र से सिंहासन पर तीन बार वासक्षेप डालें -
“ऊँ ह्रीं श्रीं आद्यशक्ति कमलासनाय नमः।" । ... तदनन्तर निम्न मंत्र से अंजलिबद्ध दोनों पुरुषों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें -
“ॐ ह्रीं श्रीं अर्हद्भक्तेभ्यो नमः।
तत्पश्चात् निम्न मंत्र से दोनों चामरधारियों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें - ___ "ॐ हीं चं चामरकरेभ्यो नमः ।"
फिर निम्न मंत्र से दोनों हाथियों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 156 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“ॐ ह्रीं विमलवाहनाय नमः ।
फिर निम्न मंत्र से दोनो मालाधारकों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें -
"पुर-पुर पुष्पकरेभ्यो नमः ।
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक शंखधरों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें -
“ॐ ह्रीं शंखधराय नमः।
फिर निम्न मंत्रपूर्वक पूर्ण कलश पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालें -
“ॐ पूर्ण कलशाय नमः।
तत्पश्चात् अनेक प्रकार के फल एवं नैवेद्य चढ़ाएं। पुनः बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की स्नात्रपूजा करें और चैत्यवंदन करें। तदनन्तर प्रतिष्ठादेवता के विसर्जनार्थ अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करें तथा कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर नंद्यावर्त्त-मण्डल का विसर्जन आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् ही करें। इस अवसर पर अष्टाह्निकामहोत्सव करें, संघपूजा करें एवं याचकों को दान देकर संतुष्ट करें।
जलपट्ट (फलक) की प्रतिष्ठा-विधि में भी जलपट्ट के ऊपर पूर्ववत् बृहत्नंद्यावत की स्थापना करें। जलपट्ट को क्षीर-स्नान कराएं। स्थापन-स्थल पर पंचरत्न रखें तथा वस्त्र-मंत्र से वासक्षेप डालें। फिर नंद्यावर्त्त-मण्डल का विसर्जन करें। यह जलपट्ट की प्रतिष्ठा-विधि है।
तोरण-प्रतिष्ठा में बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की स्नात्रपूजा करे और मुकुट-मंत्र से तथा द्वादशमुद्रा से अभिमंत्रित वासक्षेप तोरण पर डालें। मुकुट मंत्र निम्न है -
"ॐ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ........ हकार पर्यन्तं नमो जिनाय सुरपतिमुकुटकोटिसंघट्टितपदाय इति तोरणे समालोकयसमालोकय स्वाहा।
यह तोरण-प्रतिष्ठा की विधि है।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 157 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में परिकर आदि की प्रतिष्ठा-विधि समाप्त होती है। अब देवी की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं -
देवी तीन प्रकार की होती है १. प्रासाददेवी २. संप्रदायदेवी एवं ३. कुलदेवी। प्रासाददेवी-पीठ के उपपीठ पर, क्षेत्र के उपक्षेत्र पर, गुफा स्थित, भूमि स्थित एवं प्रासाद स्थित लिंगरूप या स्वयं भूतरूप या मनुष्य निर्मित रूप में होती है। संप्रदायदेवी - अम्बिका, सरस्वती, त्रिपुरा, तारा आदि गुरु द्वारा उपदिष्ट मंत्र की उपासना के लिए होती है। कुलदेवी- चण्डी, चामुण्डा, कण्टेश्वर सत्यका, सुशयना, व्याघ्रराजी आदि देवियों की प्रतिष्ठा भी देवी-प्रतिष्ठा की भाँति ही होती है। इस विधि में सर्वप्रथम प्रतिष्ठा कराने वाला ग्रहशान्तिक-पौष्टिक-कर्म करें। तत्पश्चात् प्रासाद या गृह में बृहत्स्नात्रविधि द्वारा स्नात्रपूजा करें। देवी के प्रासाद में ग्रह-प्रतिमा को ले जाकर स्नात्र करें। तत्पश्चात् पूर्वोक्त विधि से भूमिशुद्धि करें। वहाँ पंचरत्न रखें तथा उसके ऊपर कदम्ब-काष्ट का पीठ स्थापित करें। उस पीठ पर देवी की स्थापना करें। स्थिर प्रासाद की देवी-प्रतिमा को तो कुलपीठ के ऊपर ही पंचरत्न न्यासपूर्वक स्थापित करें। तत्पश्चात् बारह-बारह अंजलिप्रमाण सभी धान्यों को मिलाकर उनके (नैवेद्य के) द्वारा देवी की प्रतिमा को प्रसन्न करें। इसका मंत्र निम्नांकित है -
“ॐ श्रीं सर्वान्नपूर्णे सर्वान्ने स्वाहा।'
तत्पश्चात् पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त चार स्नात्रकारों को आमंत्रित करें। आचार्य और स्नात्रकार कंकणसहित सदशवस्त्र एवं मुद्रा (अंगूठी) से युक्त होने चाहिए। फिर आचार्य स्वयं के और उनके (स्नात्रकारों के) अंगों की रक्षा निम्न मंत्रपूर्वक तीन-तीन बार करें।
जैसे - - ऊँ ह्रीं नमो ब्रह्मानि हृदये (हृदय पर)। ऊँ ह्रीं नमो वैष्णवि भुजयोः (दोनो भुजाओं पर)। ॐ ह्रीं नमः सरस्वति कण्ठे (कंठ पर)। ऊँ ह्रीं नमः परमभूषणे मुखे (मुख पर)। ऊँ ह्रीं नमः सुगन्धे नासिकयोः (नासिका पर)। ऊँ ह्रीं नमः श्रवणे कर्णयोः (कानों पर)। ऊँ ह्रीं नमः सुदर्शने नेत्रयोः (नेत्रों पर)। ऊँ ह्रीं नमो भ्रामरि ध्रुवोः (भौहों पर)। ऊँ ह्रीं नमो महालक्ष्मी भाले (भाल पर)। ऊँ ह्रीं नमः प्रियकारिणि शिरसि
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 158 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिकं-पौष्टिककर्म विधान (सिर पर)। ऊँ ह्रीं नमो भुवन स्वामिनि शिखायां (शिखा पर)। ऊँ ह्रीं नमो विश्वरूपे उदरे (उदर पर)। ऊँ ह्रीं नमः पद्मवासे नाभौ (नाभि पर)। ऊँ ह्रीं नमः कामेश्वरि गुह्ये (गुह्य अंग पर)। ऊँ ह्रीं नमो विश्वोत्तमे ऊर्वो (ऊर्वो पर)। ऊँ ह्रीं नमः स्तम्भिनि जान्वोः (जानु पर)। ॐ ह्रीं नमः सुगमने जंघयोः (जांघ पर)। ऊँ ह्रीं नमः परमपूज्ये पादयोः (पैरों पर)। ऊँ ह्रीं नमः सर्वगामिनि कवचम् (सम्पूर्ण शरीर पर)। ऊँ ह्रीं नमः परमरौद्रि आयुधं।
इस प्रकार गुरु स्वयं के तथा स्नात्रकारों के अंगों की रक्षा करें। तत्पश्चात् निम्न छंदपूर्वक पंचगव्य से देवी को स्नान कराएं -
“विश्वस्यापि पवित्रतां भगवती प्रौढ़ानुभावैर्निजैः संधत्ते कुशलानुबन्धकलिता मामरोपासिता।
तस्याः स्नात्रमिहाधिवासनाविधौ सत्पंचगव्यैः कृतं नो दोषाय महाजनागमकृतः पन्थाः प्रमाणं परम् ।।"
तत्पश्चात् पुष्पांजलि लेकर निम्न छंदपूर्वक पुष्पांजलि दें -
“सर्वाशापरिपूरिणि निजप्रभावैर्यशोभिरपि देवि। आराधनकर्तृणां कर्तय सर्वाणि दुःखानि।।१।।"
इसी प्रकार क्रमशः निम्न सात छंदपूर्वक सात बार पुष्पांजलि अर्पण करें -
___ “यस्या प्रौढ़दृढ़प्रभावविभवैर्वाचंयमाः संयमं निर्दोषं परिपालयन्ति कलयन्त्यन्यत्कलाकौशलम्।
तस्यै नम्रसुरासुरेश्वरशिरः कोटीरतेजश्छटाकोटिस्पृष्ट शुभांघ्रये त्रिजगतां मात्रे नमः सर्वदा।।२।।
न व्याधयो न विपदो न महान्तराया नैवायशांसि न वियोगविचेष्टितानि।
यस्याः प्रसादवशतो बहुभक्ति भाजामाविर्भवन्ति हि कदाचन सास्तु लक्ष्म्यै ।।३।।
दैत्यच्छेदोद्यतायां परमपरमतक्रोधबोधप्रबोधक्रीड़ानिर्दीडपीडाकरणमशरणं वेगतो धारयन्त्या।
लीलाकीलाकर्पूर जनिनिजनिज क्षुत्पिपासा विनाशः क्रव्यादामास यस्यां विजयमविरतं सेश्वरा वस्तनोतु।।४।।
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बर
आचारदिनकर (खण्ड-३) 159 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
लुलायदनुजक्षयं क्षितितले विधातुं सुखं चकार रभसेन या सुरगणैरतिप्रार्थिता।
चकाररभसेन या सुरगणैरतिप्रार्थिता तनोतु शुभमुत्तमं भगवती प्रसादेन वा।।५।।
सा करोतु सुखं माता बलिजित्तापवारिणी। प्राप्यते यत्प्रसादेन बलिजित्तापवारिणी।।६।।
जयन्ति देव्याः प्रभुतामतानि निरस्तनिः संचरतामतानि। निराकृताः शत्रुगणाः सदैव संप्राप्य यां मंक्षु जयै सदैव।।७।। सा जयति यमनिरोधनकी संपत्करी सुभक्तानाम् । सिद्धिर्यत्सेवायामत्यागेऽपि हि सुभक्तानाम् ।।८।।"
इस प्रकार आठ पुष्पांजलियाँ देते हैं। तत्पश्चात् देवी के आगे भगवती-मण्डल की स्थापना करें। उसकी विधि यह है -
सर्वप्रथम षट्कोण-चक्र का आलेखन करें। उसके मध्य में सहनभुजावाली नानाविध अस्त्रों को धारण करने वाली, श्वेतवस्त्रधारी, सिंह की सवारी करने वाली भगवती का आलेखन या स्थापना या कल्पना करें। फिर षटकोण प्रारंभ से लेकर प्रदक्षिणा-क्रम से निम्न मंत्रपूर्वक छ: देवियों की स्थापना करें -
१. ऊँ ह्रीं जम्भे नमः २. ऊँ ह्रीं जम्भिन्यै नमः ३. ऊँ ह्रीं स्तम्भे नमः
४. ऊँ ह्रीं स्तम्भिन्यै नमः ५. ॐ ह्रीं मोहे नमः ६. ऊँ ह्रीं मोहिन्यै नमः।
तत्पश्चात् बाहर की तरफ वलय बनाएं तथा उसमें अष्टदल (पंखुडियाँ) बनाएं। फिर निम्न मंत्रपूर्वक उनमें प्रदक्षिणा-क्रम से क्रमशः आठ देवियों की स्थापना करें -
१. ह्रीं श्रीं ब्रह्माण्यै नमः २. ह्रीं श्रीं माहेश्वर्यै नमः ३. ह्रीं श्रीं कौमार्यै नमः ४. ह्रीं श्रीं वैष्णव्यै नमः ५. ह्रीं श्रीं वारायै नमः ६. ह्रीं श्रीं इन्द्राण्यै नमः ७. ह्रीं श्रीं चामुण्डायै नमः ८. ह्रीं श्रीं कालिकायै नमः
पुनः वलय बनाएं, उसमें सोलह पुखंडियाँ बनाकर निम्न मंत्रपूर्वक प्रदक्षिणा-क्रम से सोलह विद्यादेवियों की स्थापना करें -
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आचारदिनकर (खण्ड- -3)
160
१. ह्रीं श्रीं रोहिण्यै नमः ३. ह्रीं श्रीं वज्र श्रृङ्खलायै नमः ५. ह्रीं श्रीं अप्रतिचक्रायै नमः ७. ह्रीं श्रीं काल्यै नमः ६. ह्रीं श्रीं गौर्यै नमः ११. ह्रीं श्रीं महाज्वालायै नमः १३. ह्रीं श्रीं वैरोट्यायै नमः १५. ह्रीं श्रीं मानस्यै नमः
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
२. ह्रीं श्रीं प्रज्ञप्त्यै नमः ४. ह्रीं श्रीं वज्राङ्कुश्यै नमः ६. ह्रीं श्रीं पुरुषदत्तायै नमः ८. ह्रीं श्रीं महाकाल्यै नमः १०. ह्रीं श्रीं गान्धार्यै नमः १२. ह्रीं श्रीं मानव्यै नमः १४. ह्रीं श्रीं अच्छुप्तायै नमः १६. ह्रीं श्रीं महामानस्यै नमः
पुनः बाहर की ओर वलय बनाकर चौसठ पंखुड़ियाँ बनाएं तथा निम्न मंत्रपूर्वक उनमें प्रदक्षिणा क्रम से चौसठ देवियों ( योगिनियों) की स्थापना करें
१. ॐ ब्रह्माण्यै नमः नमः ४. ॐ शाङ्कर्यै नमः नमः ७. ॐ कराल्यै नमः
२. ऊँ कौमार्यै नमः ५. ॐ इन्द्राण्यै नमः
ॐ काल्यै नमः
ए.
२०. ॐ
नमः १०. ॐ चामुण्डायै नमः ११. ॐ ज्वालामुख्यै नमः १२. ॐ कामाख्यायै नमः १३. ऊँ कापालिन्यै नमः १४. ॐ भद्रकाल्यै नमः १५. ॐ दुर्गायै नमः १६. ॐ अम्बिकायै नमः १७. ॐ ललितायै नमः १८. ॐ गौर्यै नमः १६. ऊँ समुङ्गलायै नमः रोहिण्यै नमः २१. ॐ कपिलायै नमः २२. ॐ शूलकटायै नमः २३. ऊँ कुण्डलिन्यै नमः २४. ॐ त्रिपुरायै नमः २५. ॐ कुरुकुल्लायै नमः २६. ॐ भैरव्यै नमः २७. ॐ भद्रायै नमः २८. ॐ चन्द्रावत्यै नमः २६. ॐ नारसिंह्यै नमः ३०. ॐ निरंजनायै नमः ३१. ऊँ हेमकान्त्यै नमः ३२. ॐ प्रेतासन्यै नमः ३३. ॐ ईश्वर्यै नमः ३४. ॐ माहेश्वर्यै नमः ३५. ॐ वैष्णव्यै नमः ३६. ॐ वैनायक्यै नमः ३७. ॐ यमघण्टायै नमः ३८. ॐ हरसिद्धयै नमः ३८. ॐ सरस्वत्यै नमः ४०. ऊँ तोतलायै नमः ४१. ॐ चण्ड्यै नमः ४२. ॐ शङ्खिन्यै नमः ४३. ॐ पद्मिन्यै नमः ४४. ॐ चित्रिण्यै नमः ४५. ॐ शाकिन्यै नमः ४६. ॐ नारायण्यै नमः ४७. ॐ पलादिन्यै नमः ४८. ॐ यमभगिन्यै नमः ४६. ॐ सूर्यपुत्र्यै नमः ५०. ॐ शीतलायै नमः ५१. ॐ कृष्णपासायै नमः ५२. ॐ रक्ताक्ष्यै नमः
५३. ॐ
३. ऊँ वाराहूयै ६. ऊँ कड्काल्यै ६. ॐ महाकाल्यै
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 161 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कालरात्र्यै नमः ५४. ऊँ आकाश्यै नमः ५५. ऊँ सृष्टिन्यै नमः ५६. ॐ जयायै नमः ५७. ऊँ विजयायै नमः ५८. ऊँ धूम्रवर्यै नमः ५६. ऊँ वेगेश्वर्यै नमः ६०. ऊँ कात्यायन्यै नमः ६१. ॐ अग्निहोत्र्यै नमः ६२. ऊँ चक्रेश्वर्यै नमः ६३. ऊँ महाम्बिकायै नमः ६४. ऊँ ईश्वरायै नमः पुनः वलय बनाकर बावन पंखुड़ियाँ बनाएं तथा उनमें निम्न मंत्रपूर्वक बावन देवों (बावन वीरों) की स्थापना करें
१. ऊँ क्रों क्षेत्रपालाय नमः २. ऊँ क्रों कपिलाय नमः ३. ऊँ क्रों बटुकाय नमः ४. ऊँ क्रों नारसिंहाय नमः ५. ऊँ क्रों गोपालाय नमः ६. ऊँ क्रों भैरवाय नमः ७. ॐ क्रों गरुडाय नमः ८. ॐ क्रों रक्तसुवर्णाय नमः ६. ऊँ क्रों देवसेनाय नमः १०. ऊँ क्रों रुद्राय नमः ११. ॐ क्रों वरुणाय नमः १२. ऊँ क्रों भद्राय नमः १३. ऊँ क्रों वज्राय नमः १४. ऊँ क्रों वज्रजङ्घाय नमः १५. ऊँ क्रों स्कन्दाय नमः १६. ॐ क्रों कुरवे नमः १७ ऊँ क्रों प्रियंकराय नमः १८. ॐ क्रों प्रियमित्राय नमः १६. ऊँ क्रों वह्नये नमः २०. ऊँ क्रों कन्दाय नमः २१. ॐ क्रों हंसाय नमः २२. ॐ क्रों एकजङ्घाय नमः २३. ऊँ क्रों घण्टापथाय नमः २४. ॐ क्रोंदजकाय नमः २५. ॐ क्रों कालाय नमः २६. ॐ क्रों महाकालाय नमः २७. ऊँ क्रों मेघनादाय नमः २८. ऊँ क्रों भीमाय नमः २६. ऊँ क्रों महाभीमाय नमः ३०. ऊँ क्रों तुङ्गभद्राय नमः ३१. ऊँ क्रों विद्याधराय नमः ३२. ऊँ क्रों वसुमित्राय नमः ३३. ऊँ क्रों विश्वसेनाय नमः ३४. ऊँ क्रों नागाय नमः ३५. ऊँ क्रों नागहस्ताय नमः ३६. ऊँ क्रों प्रद्युम्नाय नमः ३७. ऊँ क्रों कम्पिल्लाय नमः ३८. ॐ क्रों नकुलाय नमः ३६. ॐ क्रों आह्लादाय नमः ४०. ऊँ क्रों त्रिमुखाय नमः ४१. ऊँ क्रों पिशाचाय नमः ४२. ऊँ क्रों भूतभैरवाय नमः ४३. ऊँ क्रों महापिशाचाय नमः ४४. ऊँ क्रों कालमुखाय नमः ४५. ऊँ क्रों शुनकाय नमः ४६. ॐ क्रों अस्थिमुखाय नमः ४७. ॐ क्रों रेतोवेधाय नमः ४८. ॐ क्रों श्मशानचाराय नमः ४६. ॐ क्रों कलिकलाय नमः ५०. ऊँ क्रों भृङ्गाय नमः ५१. ऊँ क्रों कण्टकाय नमः ५२. ऊँ क्रों विभीषणाय नमः।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 162 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
पुनः वलय बनाकर आठ पंखुड़ियाँ बनाएं। वहाँ निम्न मंत्रपूर्वक आठ देव (अष्ट भैरव) की स्थापना करें -
१. ह्रीं श्रीं भैरवाय नमः २. ह्रीं श्रीं महाभैरवाय नमः ३. ह्रीं श्रीं चण्डभैरवाय नमः ४. ह्रीं श्रीं रुद्रभैरवाय नमः ५. ह्रीं श्रीं कपालभैरवाय नमः ६. ह्रीं श्रीं आनन्दभैरवाय नमः ७. ह्रीं श्रीं कंकालभैरवाय नमः ८. ह्रीं श्रीं भैरव भैरवाय नमः।
पुनः उसके ऊपर वलय बनाकर निम्न मंत्रपूर्वक सर्वदेवियों को वलयरूप में स्थापित करें -
ॐ ह्रीं श्रीं सर्वाभ्यो देवीभ्यः सर्वस्थाननिवासिनीभ्यः सर्वविघ्नावनाशिनीभ्यः सर्वदिव्यधारिणीभ्यः सर्वशास्त्रकरीभ्यः सर्ववर्णाभ्यः सर्वमन्त्रमयीभ्यः सर्वतेजोमयीभ्यः सर्वविद्यामयीभ्यः सर्वमन्त्राक्षरमयीभ्यः सर्वर्द्धिदाभ्यः सर्वसिद्धिदाभ्यो भगवत्यः पूजां प्रयच्छन्तु स्वाहा।।
तत्पश्चात् उसके ऊपर वलय बनाकर दस पंखुडियाँ बनाएं तथा निम्न मंत्रपूर्वक उसमें प्रदक्षिणा-क्रम से दस दिक्पालों की स्थापना करें -
१. ॐ इन्द्राय नमः २. ॐ अग्नये नमः ३. ऊँ यमाय नमः ४. ॐ निर्ऋतये नमः ५. ॐ वरुणाय नमः ६. ऊँ वायवे नमः ७. ऊँ कुबेराय नमः ८. ऊँ ईशानाय नमः ६. ऊँ नागेभ्यो नमः १०. ॐ ब्रह्मणे नमः।
पुनः वलय बनाकर उसमें दस पंखुडियाँ बनाएं तथा उनमें निम्न मंत्रपूर्वक प्रदक्षिणा-क्रम से क्षेत्रपाल सहित नवग्रहों की स्थापना
करें -
१. ॐ आदित्याय नमः २. ऊँ चन्द्राय नमः ३. ऊँ मङ्गलाय नमः ४. ॐ बुधाय नमः ५. ऊँ गुरवे नमः ६. ऊँ शुक्राय नमः ७. ऊँ शनैश्चराय नमः ८. ॐ राहवे नमः ६. ॐ केतवे नमः १०. ऊँ क्षेत्रपालाय नमः।
तत्पश्चात् उसके बाहर चतुष्कोण भूमिपुर बनाएं। उसके मध्य में ईशानकोण में गणपति, पूर्वदिशा में अम्बा, आग्नेयकोण में कार्तिकेय, दक्षिणदिशा में यमुना, नैर्ऋत्य कोण में क्षेत्रपाल, पश्चिमदिशा
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 163 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान में महाभैरव, वायव्यकोण में गुरु एवं उत्तरदिशा में गंगा को स्थापित करें।
इस प्रकार स्थापित भगवती-मण्डल की पूजा करें -
“ऊँ ह्रीं नमः अमुकदेव्यै अमुकभैरवाय अमुकवीराय अमुकयोगिन्यै अमुकदिक्पालाय अमुकग्रहाय अमुक भगवन् अमुक अमुके आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चरुं आचमनीयं गृहाण-गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा जलं गृहाण-गृहाण गन्धं पुष्पं अक्षतान् फलं मुद्रां धूपं दीपं नैवेद्यं गृहाण-गृहाण सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण शान्तिं कुरू कुरू तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं सर्वसमीहितं कुरु-कुरू स्वाहा।
इस मंत्र द्वारा यथाक्रम सभी देवी-देवताओं की सर्व वस्तुओं से एवं सर्व प्रकार की पूजा-सामग्रियों से पूजा करें तथा त्रिकोण कुण्ड में घी, मधु, गुग्गुल द्वारा उन देव-देवियों की संख्या के अनुसार, नंद्यावर्त्त-पूजा-विधि के सदृश निम्न हवन-मंत्र-पूर्वक आहुतियाँ दें -
हवन का मंत्र यह है - “ॐ रां अमुको देवः अमुका देवी वा संतर्पितास्तु स्वाहा।" - - यह विधि करके देवी की प्रतिमा को सदशवस्त्र से ढंक दें। उसके ऊपर चन्दन, अक्षत एवं फल-पूजा करें। निज मतानुसार देवी की प्रतिष्ठा में वेदिका नहीं होती हैं। तत्पश्चात् लग्नवेला के आने पर गुरु एकान्त में देवी की प्रतिष्ठा करें। वहाँ निम्न पच्चीस द्रव्यों से निर्मित वासक्षेप का संग्रह करें। वे पच्चीस द्रव्य इस प्रकार हैं - चन्दन, कुंकुम, कक्कोल, कपूर, विष्णुक्रान्ता, शतावरी, वालक, दूर्वा, प्रियंगु, उशीर, तगर, सहदेवी, कुष्ठ, कर्नूर, मांसी, शैलेय, कुसुम्भ, करोध्र, बलात्वक, कदम्ब । वासक्षेप डालने से पूर्व देवी-प्रतिमा के सर्व अंगों पर देवी के मंत्रपूर्वक मायाबीज का न्यास करें। फिर सभी लोगों के समक्ष देवी पर आच्छादित वस्त्र उतारकर गन्ध, अक्षत आदि से पूजा करें। उसके बाद भगवती को स्नान कराएं। सर्वप्रथम क्षीर-कलश लेकर निम्न छंदपूर्वक स्नान कराएं - _ "क्षीराम्बुधेः सुराधीशैरानीतं क्षीरमुत्तमम् ।
अस्मिन्भगवतीस्नात्रे दुरितानि निकृन्ततु ।।१।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 164 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इसी प्रकार दही, घृत, मधु, सौषधि के कलश लेकर क्रमशः निम्न छंदपूर्वक शेष चार स्नान कराएं - दही-स्नात्र का छंद - “घनं घनबलाधारं स्नेहपीवरमुज्ज्वलम् ।
संदधातु दधि श्रेष्ठं देवी स्नात्रे सतां सुखम् ।।२।। घृत-स्नात्र का छंद - "स्नेहेषु मुख्यमायुष्यं पवित्रं पापतापहृत् ।
घृतं भगवती स्नात्रे भूयादमृतमंजसा ।।३।।" मधु-स्नात्र का छंद - “सर्वौषधिरसं सर्वरोगहत्सर्वरंजनम् ।
क्षौद्रं क्षुद्रोपद्रवाणां हन्तु देव्यभिषेचनात् ।।४।। सौषधि-स्नात्र का छंद - “सौषधिमयं नीरं नीरं सद्गुणसंयुतम्।
भगवत्यभिषेकेऽस्मिन्नुपयुक्तं श्रियेऽस्तु नः ।।५।।" तत्पश्चात् मांसीचूर्ण, चन्दनचूर्ण एवं कुंकुमचूर्ण लेकर क्रमशः निम्न छंदपूर्वक देवी की प्रतिमा पर इन तीनों चूणों को लगाएं - “सुगन्धं रोगशमनं सौभाग्यगुणकारणम् ।
इह प्रशस्तं मास्यास्तु मार्जनं हन्तु दुष्कृतम् ।। शीतलं शुभ्रममलं धुततापरजोहरम्।
निहन्तु सर्वप्रत्यूहं चन्दनेनांगमार्जनम् ।। कश्मीरजन्मजैश्चूर्णैः स्वभावेन सुगन्धिभिः ।
प्रमार्जयाम्यहं देव्याः प्रतिमां विघ्नहानये।।" इस प्रकार पंचस्नात्र एवं तीन चूर्णों का विलेपन करके देवी-प्रतिमा के आगे स्त्रियों के योग्य सर्ववस्त्र, आभूषण, गन्ध, माला, श्रृंगार की वस्तुएँ आदि चढ़ाएं। साथ ही बहुत प्रकार के नैवेद्य चढ़ाएं। फिर प्रतिष्ठा पूर्ण होने के बाद नंद्यावर्त्त-मण्डल-विसर्जन के सदृश ही भगवती-मण्डल का विसर्जन करें। तत्पश्चात् पूजन करने वाली कन्या एवं गुरु (विधिकारक) को दान दें। महोत्सव तथा संघ-पूजा महाप्रतिष्ठा के सदृश ही करें। इसी प्रकार प्रासाददेवी, संप्रदायदेवी एवं कुलदेवी - इन तीनों देवियों की प्रतिष्ठा एवं पूजा विधि गुरुगम एवं कुलाचार से जानें। ग्रंथ-विस्तार-भय के कारण तथा आगम में अनुल्लेखित होने के कारण उसकी विधि यहाँ नहीं बताई गई है। जैसा कि कहा गया है - “आगम में इन सभी विषयों को गोपनीय रखने का प्रयत्न किया गया
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 165 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान है, क्योंकि गोपनीयता से सिद्धि होती है और प्रकाशन से संशय होता
सर्वदेवियों की प्रतिष्ठा उन-उन देवी मंत्रों से तथा उन-उनके कल्प में कहे गए अनुसार या गुरु के उपदेशानुसार करें। सर्वदेवियों की प्रतिष्ठा में शेष सभी क्रियाएँ एक जैसी हैं। जिन देवियों की प्रतिष्ठा-विधि एवं मंत्र अनुल्लेखित हों, उनसे सम्बन्धित कल्प भी उपलब्ध न हों तथा उस सम्बन्ध में गुरु के उपदेश का अभाव हो, नामानुसार मंत्र भी नहीं जानते हों, तो उन देवियों की प्रतिष्ठा अम्बामंत्र या चण्डीमंत्र या त्रिपुरामंत्र से करें। देवी-प्रतिष्ठा में शासनदेवी, गच्छदेवी, कुलदेवी, नगरदेवी, भुवनदेवी, क्षेत्रदेवी एंव दुर्गादेवी - इन सभी की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में देवी- प्रतिष्ठा की विधि सम्पूर्ण होती है।
__ अब क्षेत्रपाल आदि की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है -
सर्वप्रथम प्रतिष्ठा कराने वाला ग्रहशान्ति हेतु शान्तिक एवं पौष्टिक-कर्म करे। फिर बृहत्स्नात्रविधि से अर्हत् परमात्मा की स्नात्रपूजा करे। क्षेत्रपाल आदि की मूर्ति को परमात्मा के चरणों के आगे स्थापित करे। प्रासाद में या घर में प्रतिष्ठित करने हेतु क्षेत्रपाल की मूर्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - १. कायारूप एवं २. लिंगरूप, किन्तु इन दोनों की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। पूर्व में कहे गए अनुसार वेदी-मण्डल की स्थापना करें और पूर्ववत् उसकी पूजा करें। फिर मिश्रित पंचामृत द्वारा क्षेत्रपाल के मूलमंत्र से उनकी मूर्ति को स्नान कराए। मूलमंत्र निम्न है - ___ "ऊँ क्षां क्षीं दूं मैं क्षौं क्षः क्षेत्रपालाय नमः।
तत्पश्चात् सबको दूर करके एकान्त में विधिकारक गुरु मूलमंत्र से मूर्ति के सभी अंगों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठा करे। तिल के चूर्ण से होम करें तथा करम्ब, यूष (शोरवा), कंसार, बकुल (बाफला), लपन (लापसी) एवं श्रीखण्ड सहित उनके आगे नैवेद्य चढ़ाएं। कुंकुम, तेल, सिन्दूर एवं लाल पुष्प द्वारा उनकी मूर्ति की पूजा करें। क्षेत्रपाल, बटुकनाथ, कपिलनाथ, हनुमान,
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 166 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान नरसिंहादि, वीरपुरपूजित नाग आदि एवं देशपूजित गोगा आदि-इन सबकी प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है, किन्तु गृह-क्षेत्रपाल, कपिल, गौर, कृष्णादि की प्रतिष्ठा गृह में, बटुकनाथ की प्रासाद में, हनुमान की श्मशान में, नृसिंहादि की पुरपरिसर में, पुरपूजितनागादि एवं देशपूजित गोगा आदि की उन-उन के स्थानों पर होती है। इन सबकी प्रतिष्ठा की विधि एवं मूल मंत्रों की जानकारी उन-उन की आम्नाय को मानने वाले लोगों से प्राप्त करें। प्रतिष्ठा मूलमंत्र द्वारा ही होती है। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में क्षेत्रपाल आदि की प्रतिष्ठा-विधि संपूर्ण होती है।
अब गणपति की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार हैंप्रासाद स्थित गणपति की मूर्ति पूजनीय होती हैं एवं विद्या गणेश धारण करने के योग्य होते हैं। गुरु के उपदेश विशेष से दो भुजा, चारभुजा, छ: भुजा, नौ भुजा, अठारह भुजा एवं एक सौ आठ भुजा रूप गणपति अनेक प्रकार के होते हैं। उन सबकी प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। गणपतिकल्प में उनकी मूर्ति सोने, चाँदी, तांबा, जस्ता (रांगा), काँच, स्फटिक, प्रवाल, पद्मराग, चन्दन, रक्तचन्दन, सफेद
आंकड़ा आदि वस्तुओं से निर्मित बताई गई है। इस प्रकार विविध प्रकार की वस्तुओं से निर्मित मूर्ति विविध फल देने वाली तथा आनंद, सुख एवं संतुष्टि देने वाली होती है। उनका प्रभाव रहस्यमय है, उसे गुरुगम से जानें। पूर्व में कहे गए अनुसार उनकी स्थापना करें तथा निम्न मूलमंत्र से स्वर्णमाक्षिका (एक प्रकार का खनिज पदार्थ) से स्नान
कराएं -
"ऊँ गां गी गू गौं गः गणपतये नमः।
वासक्षेप-पूजा के स्थान पर मूलमंत्रपूर्वक तीन-तीन बार सर्वांग पर सिन्दूर लगाएं। फिर एक सौ आठ लड्डू चढ़ाएं। इस प्रकार प्रतिष्ठा करें तथा अंजलि बनाकर निम्न स्तुति बोलें -
"जय-जय लम्बोदर परशुवरदयुक्तापसव्यहस्तयुग। सव्यकरमोदकाभयधरयावकवर्णपीतलसिक।। मूषकवाहनपीवरजंघाभुजबस्तिलम्बिगुरुजठरे। वारणमुखैकरद वरद सौम्य जयदेव गणनाथ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 167 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
सर्वाराधनसमयेकार्यारम्भेषु मंगलाचारे। मुख्ये लभ्ये लाभे देवैरपि पूज्यसे देव ।।"
माणुधण आदि श्रद्धेय कुलदेवों की प्रतिष्ठा भी इसी प्रकार शान्तिमंत्र से करें। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में गणपति आदि की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है।
अब सिद्धमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार हैजिन शासन में सिद्ध के पन्द्रह भेद बताए गए हैं। इनमें स्वलिंगसिद्ध के पुरुषरूप पुण्डरीक आदि, स्त्रीरूप ब्राह्मी आदि, नपुंसकलिंग मस्त्येन्द्र, गोरक्ष आदि, परलिंग सिद्ध वल्कलचीरी आदि की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। यदि उनकी प्रतिष्ठा गृहस्थ अपने घर में करता है, तो वह उसके घर में शान्तिक एवं पौष्टिककर्म करें तथा उनकी प्रतिमा स्थापित करके बृहत्स्नात्र-विधि द्वारा उसे स्नात्र कराएं। तत्पश्चात् मूलमंत्र से सिद्धमूर्ति की पंचामृतस्नात्र विधि करें। फिर निम्नांकित मूलमंत्र से सर्वांगों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डाले -
“ॐ अं आं ह्रीं नमो सिद्धाणं बुद्धाणं सर्वसिद्धाणं श्री आदिनाथाय नमः।"
उन-उन लिंग के सिद्धों की प्रतिष्ठा में उन-उन लिंगों में धारण की जाने वाली उन-उन वस्तुओं, पात्रों एवं भोजन आदि का दान करें। यदि यति प्रतिष्ठा करते हैं, तो मूलमंत्र से वासक्षेप डालने से ही सिद्धमूर्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाती है। सिद्ध के पन्द्रह भेद इस प्रकार है -
१. जिनसिद्ध २. अजिनसिद्ध ३. तीर्थसिद्ध ४. अतीर्थसिद्ध ५. स्त्रीसिद्ध ६. पुरुषसिद्ध ७. नपुंसकसिद्ध ८. स्वलिंगसिद्ध ६. अन्यलिंगसिद्ध १०. गृहस्थलिंगसिद्ध ११. प्रत्येकबुद्धसिद्ध १२.स्वयंबुद्धसिद्ध १३. बुद्धबोधितसिद्ध १४. एकसिद्ध १५. अनेकसिद्ध
__ इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में सिद्धमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि संपूर्ण होती है।
अब देवतावसर की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 168 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
देवतावसर-समवसरण की प्रतिष्ठा में लग्न एवं भूमि की शुद्धि बिम्ब-प्रतिष्ठा के सदृश करें। सम्यक् प्रकार से लिप्त, विशिष्ट प्रकार के चंदरवें से सुशोभित, उपाश्रय में, सम्यक् प्रकार से स्नान किए हुए, हाथ में कंकण एवं मुद्रिका पहने हुए, सदश, दोषरहित एवं नवीन वस्त्रों को धारण किए हुए, पवित्र सुखासन में बैठे हुए आचार्य विधिवत् भूमि-शुद्धि एवं सकलीकरण करके समवसरण की पूजा करें। सकलीकरण की विधि सूरिमंत्रकल्प से या गुरु-परम्परा से जानें। वह गोपनीय होने से यहाँ नही बताई गई है। उस उपलिप्त भूमि के ऊपर आचार्य आसन पर बैठे। तत्पश्चात् पवित्र चौकी पर स्वर्ण, चाँदी, ताँबे एवं कांसे के थाल के ऊपर कल्प में कही गई विधि के अनुसार गंगासागर एवं सिन्धुसागर से लाई गई कौड़ियों में से सूरि अपने हाथ की मुष्टि से साढ़े तीन मुष्टिपरिमाण कौड़ियों को सिंही, व्याघ्री, हंसी एवं कपर्दिकासहित स्थापित करें। उसके ऊपर अन्दर-अन्दर की तरफ क्रमशः कम विस्तार वाले तीन मणिवलय बनाएं। इस सम्बन्ध में गच्छ-विधि प्रमाण है। कुछ गच्छों में वलय नहीं बनाते हैं और कुछ गच्छों में चाँदी, सोने एवं मणियों से निर्मित तीन वलय बनाए जाते हैं। हमारे गच्छ, अर्थात् खरतरगच्छ की रुद्रपल्ली शाखा में तीन वलय होते हैं। एक वलय स्फटिक से निर्मित होता है, उसके चारों दिशाओं में शंख और कौड़ियों को स्थापित किया जाता है तथा मध्य में बृहत् आकार की सूर्यकान्तमणि स्थापित की जाती है और उसके चारों तरफ छोटी-छोटी मणियाँ क्रमानुसार बृहत् कौड़ी के ऊपर स्थापित की जाती है। उसके मध्य में स्फटिक से निर्मित साढ़े तीन हाथ अंगुल-परिमाण स्थापनाचार्य स्थापित किए जाते हैं। इस अवसर पर आचार्य प्रतिष्ठा-विधि के सदृश ही दिक्पालों का आह्वान करें। पूर्ववत् स्वयं के अंगों पर शुचिविद्या का आरोपण एवं सकलीकरण करें। तत्पश्चात् दक्षिण दिशा की तरफ मुँह करके, रौद्रदृष्टि एवं ऊर्ध्व स्थित मध्य की दोनों अंगुलियों द्वारा निम्न मंत्रपूर्वक रक्षा करके सम्पूर्ण समवसरण को दूध से स्नान कराएं। तत्पश्चात् यक्षकर्दम का विलेपन करें और वस्त्र से ढक दें -
"ऊँ ह्रीं श्रीं सर्वोपद्रवं समवसरणस्य रक्ष-रक्ष स्वाहा ।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान तत्पश्चात् विद्यापीठ पर तीन बार वासक्षेप डालें। यह अधिवासना की विधि है । फिर प्रतिष्ठा - लग्नवेला के आने पर स्वर्ण-कंकण, मुद्रिका एवं दोषरहित श्वेतवस्त्र से विभूषित गुरु द्वारा गणधररूप १. सौभाग्यमुद्रा २. प्रवचन ३. परमेष्ठी ४. अंजलि ५. सुरभि ६. चक्र ७. गरुड़ एवं ८. आरात्रिक इन आठ मुद्राओं द्वारा मंत्राधिराज के पाँच प्रस्थान ( पदों) का जाप करके अन्दर प्रविष्ट श्वास के द्वारा तीन बार सकल मूलमंत्र से धूप आदि उत्क्षेपणपूर्वक समवसरण पर से वस्त्र उतरवाकर प्रतिष्ठा - कार्य करें । पूर्व में देवीप्रतिष्ठा-अधिकार में बताए गए अनुसार पच्चीस प्रकार के द्रव्यों से निर्मित वासक्षेप को द्वादश मुद्राओं से अभिमंत्रित करें। तत्पश्चात् पूर्व में बताए गए लब्धिपदों को पढ़कर वासक्षेप डालें। फिर 'ॐ वग्गु' यहाँ से लेकर प्रथम विद्यापीठ द्वारा सात बार वासक्षेपपूर्वक सभी कौड़ियों की प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात् द्वितीय विद्यापीठ द्वारा चौथे परमेष्ठी एवं पाँचवें परमेष्ठी से युत बाहर वाले वलय की पाँच बार वासक्षेप से प्रतिष्ठा करें। उसके बाद तीसरी विद्यापीठ द्वारा मध्यवलय की तीन बार वासक्षेप द्वारा प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात् चौथे विद्यापीठ द्वारा मुख्य परमेष्ठी से युक्त मध्यवलय की एक बार वासक्षेप द्वारा प्रतिष्ठा करें। फिर शतपत्रपुष्पों द्वारा या अखण्डित चावलों से मूलमंत्र का एक सौ आठ बार जाप करें। उसके बाद समवसरण - स्तोत्र एवं परमेष्ठी - मंत्र - स्तोत्र द्वारा चैत्यवंदन करें । दिक्पाल का विसर्जन पूर्व की भाँति ही करें तथा निम्न मंत्रपूर्वक प्रतिष्ठा - देव का विसर्जन करें
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“ॐ विसर - विसर प्रतिष्ठादेवते स्वस्थानं गच्छ गच्छ स्वाहा । " समवशरण - पूजा गोपनीय होने से यहाँ नहीं कही गई है, उसे सूरिमंत्रकल्प से जानें इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में देवतावसर-समवसरण की प्रतिष्ठा पूर्ण होती है ।
मंत्रपट्ट धातु से, अर्थात् सोना, चाँदी, ताँबे या काष्ठ से निर्मित होता है। मंत्रपट्ट को मिश्रित पंचामृत से स्नान कराकर, गन्धोदक एवं शुद्धजल से धोकर तथा यक्षकर्दम का लेप करके पच्चीस वस्तुओं से निर्मित वासक्षेप द्वारा उसकी प्रतिष्ठा करनी चाहिएं। मंत्रपट्ट
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 170 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान में जो मंत्र लिखे हुए हैं, उन्हीं मंत्रों द्वारा वासक्षेप डालकर मंत्र का न्यास करें। उस यंत्र पर उत्कीर्ण मूर्ति पर निम्न मंत्र द्वारा मंत्र का न्यास करें -
“ॐ ह्रीं अमुक देवाय अमुकदैव्यै वा नमः।"
वस्त्र पर निर्मित या शिला पर निर्मित आलेखित मूर्ति, चित्र अथवा लिखित यंत्र पर या समवसरण पर या भरितपट्ट पर उनमें लिखित मंत्र पाठ द्वारा तथा उसमें गर्भित देवताओं को नमस्कार करके वासक्षेपपूर्वक पट्ट की प्रतिष्ठा करें। यहाँ परमार्थ के कारण वस्त्रपट्ट आदि की स्नात्र-विधि का वर्जन किया गया है। यहाँ दर्पण में प्रतिबिम्बित उसके बिम्ब पर ही स्नात्र-विधि कराने का विधान है, क्योंकि स्नात्रविधि के बिना प्रतिष्ठा अपूर्ण मानी जाती है - इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में मंत्रपट्ट की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है।
अब पितृमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है
प्रासाद में स्थापित की जाने वाली गृहस्थों की पितृमूर्ति पत्थर से निर्मित होती है। गृह में पूजा के लिए स्थापित की जाने वाली गृहस्थों की पितृमूर्ति धातु की या पट्टिका के रूप में या पट्ट पर आलेखित होती है। कण्ठ में पहनने के लिए उनके शरीर की आकृति या नामांकित करके उनकी प्रतिष्ठा की जाती है। इन सब की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। बृहत्स्नात्रविधि द्वारा अर्हत् परमात्मा की स्नात्र-विधि करें। उस स्नात्र के जल से तीनों प्रकार की पितृमूर्तियों को स्नान कराएं। फिर गुरु वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात् साधर्मिकवात्सल्य और संघपूजा करें। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में पितृमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि समाप्त होती है।
__अब यति (साधु-साध्वी) मूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है -
प्रासाद में, पौषधागार में साधु की मूर्ति या यतिस्तूप स्थापित करने की विधि यह है। आचार्य की मूर्ति या स्तूप की प्रतिष्ठा निम्न मंत्र से तीन बार वासक्षेपपूर्वक करें -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 171 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
__“ॐ नमो आयरियाणं भगवंताणं णाणीणं पंचविहायारसुट्ठिआणं इह भगवन्तो आयरिया अवयरन्तु साहुसाहुणी सावयसावियाकयं पूअं पडिच्छन्तु सव्व सिद्धिं दिसन्तु स्वाहा ।।
उपाध्याय की मूर्ति या उनके स्तूप की प्रतिष्ठा निम्न मंत्र से तीन बार वासक्षेपपूर्वक करें -
“ऊँ नमो उवज्झायाणं भगवंताणं वारसंगपढगपाढगाणं सुअहराणं सज्झायज्झाणसत्ताणं इह उवज्झाया भगवन्तो अवयरन्तु साहुसाहुणी सावयसावियाकयं पूयं पडिच्छन्तु सव्व सिद्धिं दिसन्तु स्वाहा।"
___ साधु-साध्वी की मूर्ति या उनके स्तूप की प्रतिष्ठा निम्न मंत्र से तीन बार वासक्षेपपूर्वक करें -
“ॐ नमो सव्वसाहूणं भगवन्ताणं पंचमहव्वयधराणं पंचसमियाणं तिगुत्ताणं तवनियमनाणदंसणजुत्ताणं मक्खसाहगाणं साहुणो भगवन्तो इह अवयरन्तु भगवईओ साहुणीओ इह अवयरन्तु साहु साहुणी सावयसावियाकयं पूअं पडिच्छन्तु सव्व सिद्धिं दिसन्तु स्वाहा।।
इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में यतिमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब ग्रहों की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार
सर्वप्रथम प्रासाद में या गृह में बृहत्स्नात्रविधि द्वारा परमात्मा की प्रतिमा को स्नान कराएं। उसी समय प्रतिष्ठा हेतु नवग्रहों की मूर्तियाँ भी स्थापित करें। ऊपर कहे गए नवग्रहों में से एक या दो या तीन या चार या पाँच अथवा अपनी आवश्यकता के अनुसार ग्रहों की मूर्ति स्थापित करें। काष्ट निर्मित ग्रहों की मूर्तियों में सूर्यादि नवग्रहों की मूर्तियाँ क्रमशः लालचन्दन, चन्दन, खैर, नीम, कदम्ब, घातकी, शेफाली, बबूल एवं बैर के वृक्ष की लकड़ियों से निर्मित होती है। धातु की अपेक्षा से सूर्य आदि नवग्रहों की मूर्तियाँ क्रमशः ताँबा, चाँदी, रांगा, सीसा, सोना, लोहा, कांसा और पीतल की होती है। उनको कुण्डल, मुद्रिका आदि की स्थापना क्रमशः माणिक्य, मोती, प्रवाल (मूंगा), मरकत, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद एवं वैदूर्य रत्नों से करें। उनकी मूर्तियों की स्थापना तथा प्रतिष्ठा का भी एक क्रम है। उनके
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
172 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
आयुधों एवं वाहनों को वास्तुशास्त्र से जानें | नवग्रहों के प्रतिष्ठा की विधि यह है - जिनस्नात्र के बाद पच्चीस वस्तुओं से निर्मित वासक्षेप द्वारा मंत्रन्यास करते हैं, इससे पूर्व सभी ग्रहों की मूर्तियों को क्षीर (दूध) से स्नान कराएं।
नवग्रह के स्थापना के मंत्र निम्नांकित हैं
सूर्यमंत्र - "ॐ ह्रीं श्रीं घृणि- घृणि नमः सूर्याय भुवनप्रदीपाय जगच्चक्षुषे जगत्साक्षिणे भगवन् श्री सूर्य इह मूर्ती स्थापनायां अवतर-अवतर तिष्ठ तिष्ठ प्रत्यहं पूजकदत्तां पूजां गृहाण-गृहाण स्वाहा । "
चंद्रमंत्र “ॐ चं चं चुरू-चुरू नमः चन्द्राय औषधीशाय सुधाकराय जगज्जीवनाय सर्वजीवितविश्वंभराय भगवन् श्री चन्द्र इह मूर्ती.... शेष पूर्ववत् । "
मंगल ( भौम) मंत्र- "ॐ ह्रीं श्रीं नमो मंगलाय भूमिपुत्राय वक्राय लोहितवर्णाय भगवन् मंगल इह मूर्ती ...... शेष पूर्ववत् । " बुधमंत्र “ऊँ क्रौं प्रौं नमः श्रीसौम्याय सोमपुत्राय प्रहर्षुलाय हरितवर्णाय भगवन् बुध इह मूर्ती..... शेष पूर्ववत् । " गुरु (जीव) मंत्र "ॐ जीवजीव नमः श्री गुरवे सुरेन्द्रमंत्रिणे सोमाकाराय सर्ववस्तुदाय सर्वं शिवंकराय भगवन् श्री बृहस्पते इह मूर्ती. शेष पूर्ववत् । "
शुक्रमंत्र - "ॐ श्रीं श्रीं नमः श्री शुक्राय काव्याय दैत्यगुरुवे संजीवनीविद्यागर्भाय भगवन् श्री शुक्र इह मूर्तीशेष पूर्ववत् । " शनिमंत्र “ॐ शं शं नमः शनैश्चराय पंगवे महाग्रहाय श्यामवर्णाय नीलवासाय भगवन् श्री शनैश्चर इह मूर्ती.. शेष पूर्ववत् ।" राहुमंत्र- "ॐ रं रं नमः श्री राहवे सिंहिकापुत्राय अतुलबलपराक्रमाय कृष्णवर्णाय भगवन् श्री राहो इह मूर्ती..... शेष पूर्ववत् ।"
केतुमंत्र “ॐ धूं धूं नमः श्री. केतवे शिखाधराय उत्पातदाय राहु प्रतिच्छन्दाय भगवन श्री केतो इह मूर्ती.. शेष पूर्ववत् । "
1
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—
इन मंत्रों द्वारा क्रम से तीन-तीन बार वासक्षेपपूर्वक प्रतिष्ठा सम्पन्न करें। तत्पश्चात् चैत्यवंदन एवं शान्तिपाठ करें। नक्षत्रों की प्रतिष्ठा भी उन-उन देवताओं की मूर्तियों एवं मंत्रों द्वारा संक्षेप में सम्पन्न करें। शेष प्रतिष्ठा - विधि ग्रहप्रतिष्ठा - विधि की भाँति करें ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 173 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान उन-उन देवताओं के मंत्र शान्तिक-अधिकार में कहे गए हैं। तारों की भी प्रतिष्ठा निम्न मंत्रपूर्वक वासक्षेप डालकर करें तथा शेष प्रतिष्ठा-विधि ग्रहप्रतिष्टा के सदृश करें -
"ऊँ ह्रीं श्रीं अमुकः अमुकतारके इहावतर-इहावतर तिष्ठ-तिष्ठ आराधककृतां पूजां गृहाण-गृहाण स्थिरीभव स्वाहा।'
इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में सूर्यादि नवग्रह की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब चतुर्निकाय देवों की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है -
दस प्रकार की भुवनपति-निकाय के बीस इन्द्रों, सोलह प्रकार की व्यंतर-निकाय के बत्तीस इन्द्रों, वैमानिकों के बारह कल्प के बारह इन्द्रों, नवग्रैवेयक के नौ एवं पंच अनुत्तर विमान का एक - इस प्रकार कुल दस अहमेन्द्रों की उनके वर्णानुसार काष्ठ, धातु या रत्नों से निर्मित मूर्तियों की प्रतिष्ठा-विधि इस प्रकार से करें -
__ चैत्य में या गृह में सर्वप्रथम बृहत्स्नात्रविधि द्वारा अर्हत् परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् मिश्रित पंचामृत द्वारा देवों की प्रतिमाओं को स्नान कराएं। फिर पच्चीस प्रकार के द्रव्यों से निर्मित वास द्वारा वासक्षेप करें, धूप उत्क्षेपण करें, यक्षकर्दम का लेप करें तथा पुष्प आदि से पूजा करें। प्रतिष्ठा का मंत्र निम्नांकित है -
“ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्यूँ कुरू-कुरू, तुरू-तुरू, कुलु-कुलु, चुरू-चुरू, चुलु-चुलु, चिरि-चिरि, चिलि-चिलि, किरि-किरि, किलि-किलि, हर-हर, सर-सर हूं सर्वदेवेभ्यो नमः अमुक निकायमध्यगत अमुकजातीय अमुकपद अमुकव्यापार अमुकदेव इह मूर्तिस्थापनायां अवतर-अवतर, तिष्ठ-तिष्ठ, चिर पूजकदत्तां पूजां गृहाण-गृहाण स्वाहा।
मंत्र में निकाय के स्थान पर भुवनपति, व्यंतर, वैमानिक शब्द
बोलें।
वैमानिकों में सौधर्म आदि, पद के स्थान पर इन्द्र, सामानिक, पारिषद्य, त्रायस्त्रिंश, अंगरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोगिक, किल्विषक, लौकान्तिक, तिर्यजृम्भक आदि बोलें, वृत्ति (व्यापार) के स्थान पर उनके गुणों का कीर्तन करें या उनके द्वारा
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
174 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
किए जाने वाले कार्यों का उल्लेख करें। फिर उनके वर्ण, आयुध एवं परिवार के बारे में बोलें। मंत्र के मध्य 'अमुक' शब्द के स्थान पर उपर्युक्त कथन करें यह इसका आशय है । देवियों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की विधि है । यहाँ गणिपिटक, शासनयक्ष, शासनयक्षिणी, ब्रह्मशान्तियक्ष आदि की प्रतिष्ठा विधि का समावेश व्यंतरदेवों में हो जाता हैं । कन्दर्पादिक की प्रतिष्ठा विधि का समावेश वैमानिकदेवों में, लोकपालों की प्रतिष्ठा - विधि का समावेश भवनपतिदेवों में, नैर्ऋत्य (दिक्पालों) की प्रतिष्ठा - विधि का समावेश व्यंतरदेवों में, ज्योतिष्कदेवों की प्रतिष्ठा - विधि का समावेश ग्रहों की प्रतिष्ठा में हो जाता है । इस प्रकार प्रतिष्ठा - अधिकार में चतुर्निकाय देव की प्रतिष्ठा - विधि समाप्त होती है।
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अब गृह की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं । वह इस प्रकार है वास्तुशास्त्र के अनुसार एवं सूत्रधारों के अनुसार बताई गई विधि से निर्मित गृह, राजमन्दिर एवं सामान्य मन्दिर ( भवन ) की प्रतिष्ठा - विधि एक जैसी ही है। सर्वप्रथम गृह में जिनबिम्ब लेकर आएं। बृहत्स्नात्रविधि द्वारा अर्हत् परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। स्नात्रजल से सम्पूर्ण गृह को अभिसिंचित करें । सर्वप्रथम बाहर की तरफ द्वार की देहली को निर्मल जल से धोएं। तत्पश्चात् गन्ध, धूप, दीप, नैवैद्य आदि से उसकी पूजा करें और ऊँ कार (ॐ) लिखे । इसी प्रकार द्वारश्रिय को धोकर, चन्दन का लेप एवं पूजा करके ह्रीं कार ( ह्रीं) लिखें। फिर तीन बार वासक्षेप डालकर दोनों की प्रतिष्ठा करें। इन दोनों के प्रतिष्ठा - मंत्र इस प्रकार हैं
१. ॐ ह्रीं देहल्यै नमः ।
तत्पश्चात् बाहर की तरफ निम्न १. वामे - गंगायै नमः । २ दक्षिणे - यमुनायै नमः । इन मंत्रों द्वारा बाहर की तरफ बाईं और दाईं ओर जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य प्रदान करने के पूर्व तीन-तीन बार वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठा करें। सभी द्वारों की प्रतिष्ठा इसी प्रकार से करें। फिर अन्दर प्रवेश करके निम्न मंत्र से द्वार - प्रतिष्ठा के समान ही सर्वभित्ति भागों की प्रतिष्ठा करें.
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२. ॐ ह्रीं द्वारश्रियै नमः । मंत्र बोलें
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 175 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“ॐ अं अपवारिण्यै नमः।"
तत्पश्चात् शाला के (वरण्डों) की प्रतिष्ठा पूर्ववत् करें। फिर स्तम्भों की निम्न मंत्र से प्रतिष्ठा करें -
"ॐ हीं शेषाय नमः।"
सभी स्तम्भों की प्रतिष्ठा द्वार-विधि के सदृश है। मध्यशाला, द्वार, बाहर के स्तम्भों एवं भित्तियों की प्रतिष्ठा भी पूर्ववत् करें। वहाँ भूमि पर “ऊँ में मध्यदेवतायै नमः" - इस मंत्र द्वारा वासक्षेप से प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात् कमरों की “ऊँ आं श्रीं गर्भश्रिये नमः"- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। उसके द्वारों, भित्तियों, छतों एवं स्तम्भों की प्रतिष्ठा भी पूर्ववत् करें। फिर पाकशाला की “ऊँ श्री अन्नपूर्णायै नमः"- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। कोष्ठागार की प्रतिष्ठा भी इसी मंत्र से करें। इसी प्रकार भाण्डागार की “ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नमः "- मंत्र से, जलागार की "ॐ वं वरुणाय नमः'- मंत्र से, शयनागार की “ॐ शों संवेशिन्यै नमः"- मंत्र से, देवतागार की “ॐ ह्रीं नमः"- मंत्र से, ऊपर की सभी भूमियों की “ॐ आं क्रों किरीटिन्यै नमः'- मंत्र से, हस्तिशाला की “ॐ श्रीं श्रिये नमः"- मंत्र से, अश्वशाला की "ऊँ रे रेवंताय नमः"- मंत्र से, गाय, भैंस, बकरी एवं बैल की शाला की “ऊँ ह्रीं अडनकिलि-किलि स्वाहा"- मंत्र से, सभाभवनों की “ऊँ मुखमण्डिन्यै नमः"- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। इस प्रकार सभी आगारों की पूर्वोक्त विधि से वासक्षेप द्वारा प्रतिष्ठा करें। उनके द्वार, स्तम्भ, छत एवं भित्तियों की प्रतिष्ठा भी पूर्वोक्त विधि से करें। तत्पश्चात् आंगन में आए। वहाँ कलश-प्रतिष्ठा के समान दिक्पालों का आह्वान करके शान्ति हेतु बलि प्रदान करें। तत्पश्चात् हाट की “ऊँ श्री वांछितदायिन्यै नमः "- मंत्र से, मठ की “ऊँ ऐं वाग्वादिन्यै नमः"मंत्र से, आश्रम की “ऊँ ह्रीं ब्लूं सर्वायै नमः"- मंत्र से, धातुनिर्माणशाला की “ॐ भूतधात्र्यै नमः"- मंत्र से, तृणागार की “ॐ शों शांतायै नमः"- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। शास्त्रागार की प्रतिष्ठा पाकशाला के समान तथा परब (प्याऊ) की प्रतिष्ठा पानीशाला के समान ही होती है। हवनशाला की “ऊँ रं अग्नये नमः "- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। इन सभी के द्वार, छत एवं भित्तियों की प्रतिष्ठा भी
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डालने के भाग में पूर्व में नद्यावत पूर्ववत् करें। अधी, मधु, खीर
आचारदिनकर (खण्ड-३) 176 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान पूर्ववत् ही करें। इनके अतिरिक्त अन्य नीचकृत्य करने वाले विप्रादि के गृहों की प्रतिष्ठा-विधि अकृत्य होने के कारण यहाँ नहीं बताई गई है। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में गृह-प्रतिष्ठा की विधि सम्पूर्ण होती है।
अब जलाशय की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है____ जलाशय की प्रतिष्ठा पूर्वाषाढ़ा, शतभिषा, रोहिणी एवं धनिष्ठा नक्षत्रों का योग होने पर करें। सर्वप्रथम जलाशय की प्रतिष्ठा कराने वाले के घर में शान्तिक एवं पौष्टिक-कर्म करें। फिर सर्व उपकरण लेकर जलाशय पर जाएं। सर्वप्रथम चौबीस तन्तुओं से गर्भित सूत्र से पूर्ववत् जलाशय की रक्षा करें। वहाँ जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्र-विधि से स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् जलाशय में पंचगव्य डालने के बाद अर्हत् परमात्मा के स्नात्रजल को डालें। फिर जलाशय के अग्रभाग में पूर्ववत् लघुनंद्यावर्त की स्थापना करें, किन्तु नंद्यावर्त्त-मण्डल के मध्य में नंद्यावर्त्त के स्थान पर वरुणदेव की स्थापना करें और उन सभी की पूजा पूर्ववत् करें। वरुण की विशेष रूप से तीन बार पूजा करें। फिर त्रिकोण अग्निकुंड में घी, मधु, खीर एवं नाना प्रकार के सूखे फलों द्वारा नंद्यावर्त्त-मण्डल में स्थापित देवताओं के नामस्मरणपूर्वक, नमस्कार (प्रणाम) पूर्वक प्रत्येक देवता सम्बन्धी मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोलकर आहुति दें, किन्तु वरुण को पृथक् रूप से एक सौ आठ बार आहुति दें। फिर शेष आहुति एवं जल को जलाशय में डाल दें। उसके बाद गृहस्थ गुरु पंचामृत के कलशों को हाथ में लेकर उस जलाशय के मध्य में धारा डालते हुए निम्न मंत्र सात बार बोलें -
“ॐ वं वं वं वं वं वलय् वलिप् नमो वरुणाय समुद्रनिलयाय मत्स्यवाहनाय नीलाम्बराय अत्र जले जलाशये वा अवतर-अवतर सर्वदोषान् हर-हर स्थिरीभव-स्थिरीभव ॐ अमृतनाथाय नमः।'
फिर इसी मंत्र से पंचरत्नों को स्थापित कर वासक्षेप डालें। उसके बाद जलाशय के देहली, स्तम्भ, भित्ति, द्वार, छत एवं आंगन की प्रतिष्ठा गृहप्रतिष्ठा के समान करें। उसके समीप में प्रतिष्ठासूचक यूपस्तम्भ आदि की प्रतिष्ठा को “ॐ स्थिरायै नमः"- मंत्र से करें।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 177 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान वापी, कूप, तड़ाग नदी, नहर, झरना, विवरिका, धर्मजलाशय आदि की भी प्रतिष्ठा-विधि यही है।।
इस प्रकार जलाशय की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब वृक्ष की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं और वह इस प्रकार है
स्वतः वृद्धि प्राप्त करने वाले, आश्रय देने वाले प्राचीन वृक्षों की भी प्रतिष्ठा होती है। वृक्ष के मूल में जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रपूजा करें। लघुनंद्यावर्त की स्थापना, पूजन एवं हवन पूर्ववत् ही करें। उसके बाद जिनस्नात्र जल एवं मिश्रित तीर्थजल के एक सौ आठ कलशों से वृक्ष को अभिसिंचित करें। वासक्षेप डालें और कौसुम्भसूत्र से रक्षाबन्धन करें। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि प्रदान करें। अभिषेक, वासक्षेप एवं रक्षा करने का मंत्र निम्न है -
"ऊँ यां रां चं चुरू-चुरू चिरि-चिरि वनदैवत अत्रावतर-अत्रावतर तिष्ठ-तिष्ठ श्रियं देहि वांछितदाता भव-भव स्वाहा।"
तत्पश्चात् पूर्व की भाँति साधुओं एवं संघ की पूजा करे तथा नंद्यावर्त्त के विसर्जन की विधि पूर्व की भाँति ही करें। वाटिका, आराम (उद्यान) एवं वनदेवता की प्रतिष्ठा की विधि भी यही है।
इस प्रकार प्रतिष्ठाधिकार में वृक्ष एवं वनदेवता की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब अट्टालिकादि की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - ___ अट्टालिका, स्थण्डिल (यज्ञीय भूखंड) एवं नवनिर्मित पथ में जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रविधि से अट्टालिका, स्थण्डिल एवं पथ को सिंचित करें और उन पर वासक्षेप डालें। जल-सिंचन करने तथा वासक्षेप करने का मंत्र निम्न है -
___ऊँ ह्रीं स्थां-स्थां स्थीं-स्थीं भगवति भूमिमातः अत्रावतर-अत्रावतर पूजां गृहाण-गृहाण सर्व समीहितं देहि-देहि स्वाहा।"
इसी मंत्र द्वारा चौबीस तन्तु वाले सूत्र से रक्षाबन्धन करें। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूर्ववत् प्रदान करें। नंद्यावर्त्त-मण्डल
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 178 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान का विसर्जन भी पूर्व की भांति ही करें। फिर साधुओं को दान दें एवं संघपूजा करें।
इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार से अट्टालिकादि की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब दुर्ग की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं, जो इस प्रकार
___ नवनिर्मित दुर्ग में सर्वप्रथम चौबीस तन्तु से युक्त सूत्र द्वारा अन्दर और बाहर की तरफ शान्तिमंत्रपूर्वक रक्षा करें। फिर उसके मध्य में ईशानदिशा की तरफ जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रविधि से स्नात्रपूजा करें। दसवलय से युक्त बृहत् नंद्यावर्त्त की स्थापना एवं हवन बिम्बप्रतिष्ठा की भाँति ही करें। तत्पश्चात् विधिपूर्वक शांतिक एवं पौष्टिककर्म करें। फिर शान्तिक एवं पौष्टिककर्म के जलकलश को ग्रहण कर अन्दर और बाहर की तरफ (जल की) धारा दें। दुर्ग के कंगूरों पर तथा चार दिवारी पर वासक्षेप डालें। धारा एवं वासक्षेप डालने का मंत्र निम्न है -
____ "ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गे दुर्गमे दुःप्रघर्षे दुःसहे दुर्गे अवतर-अवतर तिष्ठ-तिष्ट दुर्गस्योपद्रवं हर-हर डमरं हर-हर दुर्भिक्षं हर-हर परचक्रं हर-हर मरकं हर-हर सर्वदा रक्षां शान्तिं तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।'
इस प्रकार दुर्ग की प्रतिष्ठा करके मुख्यमार्ग की एवं द्वार की प्रतिष्ठा करें। यहाँ इतना विशेष है कि अधोभाग में दाईं तरफ “ऊँ
अनन्ताय नमः", बाईं तरफ “ॐ वासुकये नमः", ऊपर की तरफ दाईं ओर "ऊँ श्री महालक्ष्म्यै नमः", एवं बाईं ओर “ॐ गं गणेशाय नमः"- मंत्र से प्रतिष्ठा करें। उसके बाद दुर्ग के मध्यभाग में आकर गोबर से लिप्त भूमि पर खड़े होकर कलश-विधि के समान दिक्पालों का आह्वान करें और कलश-विधि के सदृश ही शान्ति हेतु बलि प्रदान करें। तत्पश्चात् पूर्व की भाँति नंद्यावर्त्त का विसर्जन करें। साधुओं को दान दें और संघपूजा करें। यंत्र की प्रतिष्ठा-विधि में भैरवादि के यंत्रों की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। परिपूर्ण यंत्रों के मूल में जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रविधि से स्नात्रपूजा करें।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 179 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान फिर उस स्नात्रजल से यंत्र को अभिसिंचित करें तथा वासक्षेप डालें। वासक्षेप डालने का मंत्र निम्न है -
“ऊँ ह्रीं षट्-षट् लिहि-लिहि ग्रन्थे ग्रन्थिनि भगवति यंत्रदेवते इह अवतर-अवतर शत्रून् हन-हन समीहितं देहि-देहि स्वाहा।"
तत्पश्चात् इसी मंत्र से रक्षाबन्धन करें। तत्पश्चात् वैज्ञानिकों का सम्मान करें। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में दुर्ग एवं यंत्र की प्रतिष्ठा-विधि समाप्त होती है।
अब अधिवासना की विधि बताते हैं और वह इस प्रकार है -
वासक्षेप, कुलाभिषेक एवं हस्तन्यास द्वारा अधिवासना की विधि होती है। पूजा-भूमि-अधिवासना में निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ लल। पवित्रिताया मंत्रैकभूमौ सर्वसुरासुराः ।
आयान्तु पूजां गृह्णन्तु यच्छन्तु च समीहितम् ।।" शयनभूमि-अधिवासना में निम्न मंत्र बोलें - "ॐ लल। समाधिसंहतिकरी सर्वविघ्नापहारिणी
संवेशदेवतात्रैव भूमौ तिष्ठतु निश्चला।।" आसनभूमि-अधिवासना में निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ लल। शेषमस्तकसंदिष्टा स्थिरा सुस्थिरमंगला।
निवेश भूमावत्रास्तु देवता स्थिर संस्थितिः।।" विहारभूमि-अधिवासना में निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ लल। पदे पदे निधानानां खानानीनामपि दर्शनम् ।
करोतु प्रीतहृदया देवी विश्वंभरा मम।।" क्षेत्रभूमि-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ लल। समस्त रम्यवृक्षाणां धान्यानां सर्वसंपदाम् ।
निदानमस्तु मे क्षेत्र भूमिः संप्रीतमानसा।।" सर्व उपयोगी भूमि-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ लल। यत्कार्य महमत्रैक भूमौ संपादयामि च।
तच्छीघ्रं सिद्धिमायातु सुप्रसन्नास्तु मे क्षितिः।।" जल-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ वव। जलं निजोपकराया परोपकृतयेऽथवा।
- पूजार्थायाथ गृह्णामि भद्रमस्तु न पातकम्।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 180 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
अग्नि-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ रं। धमार्थकार्यहोमाय स्वदेहाय वाऽनलम्।
संधुक्षयामि नः पापं फलमस्तु ममेहितम् ।।" चूल्हे की अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ रं। अग्न्यगारमिदं शान्तं भूयाद्विघ्न विनाशनम् ।
तद्युक्तिपाकेवान्येन पूजिताः सन्तु साधवः ।।" शकट-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ । सर्वदेवेष्टदानस्य महातेजोमयस्य च।
आधारभूता शकटी वढेरस्तु समाहिता।।" वस्त्र-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ श्रीं। चतुर्विधमिदं वस्त्रं स्त्रीनिवास सुखाकरम् ।
वस्त्रं देहघृतं भूयात्सर्वसंपत्तिदायकम् ।।" आभूषण-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ श्रीं। मुकुटांगदहारार्धहाराः कटकनूपुरे।
सर्वभूषणसंघातः श्रियेऽस्तु वपुषा घृतः ।।" माल्य-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ श्रीं। सर्वदेवस्य संतृप्तिहेतु माल्यं सुगन्धि च।
पूजाशेषं धारयामि स्वदेहेन त्वदर्चना ।।" गन्ध-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ ह्ये । कर्पूरागरूकस्तूरीश्रीखण्डशशिसंयुतः।
गन्धपूजादिशेषो मे मण्डनाय सुखाय च।।" ताम्बूल-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ श्रीं। नागवल्लीदलैः पूगकस्तूरीवर्णमिश्रितैः।
ताम्बूलं मे समस्तानि दुरितानि निकृन्ततु।।" चन्द्रोदय एवं छत्र-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ श्रीं ह्रीं। मुक्ताजालसमाकीर्ण छत्रं राज्यश्रियः समम् ।
श्वेतं विविध वर्ण वा दद्याद्राज्यश्रियं स्थिराम् ।। शय्यासन, सिंहासन आदि की अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें
“ॐ ह्रीं लल। इदं शय्यासनं सर्वं रचितं कनकादिभिः ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 181 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
वस्त्रादिभिर्वा काष्ठाद्यैः सर्व सौख्यं करोतु मे।।" हाथी-घोड़े आदि की अंबाड़ी की अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें -
“ॐ स्थास्थीं। सर्वावष्टम्भजननं सर्वासनसुखप्रदम् ।
____ पर्याणं वर्यमत्रास्तु शरीरस्य सुखावहम् ।। पादत्राण (जूते, चप्पल आदि)-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र
।
बोलें
“ऊँ सः। काष्ठचर्ममयं पादत्राणं सर्वाघ्रिरक्षणम् ।
नयतान्मां पूर्णकामकारिणी भूमिमुत्तमाम् ।।" सर्व पात्र-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ क्रां। स्वर्णरूप्यताम्रकांस्यकाष्ठमृच्चर्मभाजनम् ।
पानान्नहेतु सर्वाणि वांछितानि प्रयच्छतु।।" सर्व औषधि-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ सुधासुधा। धन्वन्तरिश्च नासत्यौ मुनयोऽत्रिपुरस्सराः ।
अत्रौषधस्य ग्रहणे निघ्नन्तु सकला रुजः।।" मणि-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ वं हं सः। मण्यो वारिधिभवा भूमिभाग समुद्भवाः।
देहिदेहभवाः सन्तु प्रभावात् वांछित प्रदाः।।" दीप-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ जप-जप। सूर्यचन्द्रश्रेणिगतसर्वपापतमोपहः ।
दीपो मे विघ्नसंघातं निहन्त्यान्नित्यपार्वणः।।" भोजन-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ हन्तु-हन्तु। पूजादेवबलेः शेष-शेषं च गुरुदानतः।
___ भोजनं ममतृप्त्यर्थं तुष्टिं-पुष्टिं करोतु च ।।" भाण्डागार एवं कोष्ठागार की अधिवासना गृहप्रतिष्ठा-विधि से
जानें।
पुस्तक-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ ऐं। सारस्वतमहाकोशनिलयं चक्षुरुत्तमम्।
श्रुताधारं पुस्तक में मोहध्वान्तं निकृन्ततु।।" जपमाला-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - .
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 182 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान "ऊँ ह्रीं। रत्नैः सुवर्णे/जैर्या रचिता जपमालिका।
सर्वजापेषु सर्वानि वांछितानि प्रयच्छतु।।" वाहन-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ यां यां। तुरंगहस्तिशकटरथमोढवाहनम् ।
गमने सर्वदुःखानि हत्वा सौख्यं प्रयच्छतु।।" सर्वशस्त्र-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ द्रां द्रीं ह्रीं। अमुक्तं चैव मुक्तं च सर्वं शस्त्रं सुतेजितम् ।
हस्तस्थं शत्रुघाताय भूयान्मे रक्षणाय च।।" कवच-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ रक्ष-रक्ष। लोहचर्ममयो दंशो वज्रमंत्रेण निर्मितः ।
पततोऽपि हि वज्रान्मे सदा रक्षां प्रयच्छतु।।" प्रक्षर (एक प्रकार का कवच)-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र
बोलें
"ॐ रक्ष रक्ष। तुरंगस्यास्यरक्षार्थ प्रक्षरं धारितं सदा।
कुर्यात् पोषं स्वपक्षीये परपक्षे च खण्डनम् ।। स्फर (ढाल)-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - “ॐ रक्ष-रक्ष। सर्वोपनाहसहितः सर्वशस्त्रापवारणः ।
स्फर स्फरतु मे युद्धे शत्रुवर्णक्षयंकरः ।। गाय, भैंस, बैल आदि की अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ घन-घन। गावोनानाविधैर्वर्णैः श्यामला महिषीगणा।
वृषभाः सर्वसंपत्तिं कुर्वन्तु मम सर्वदा।।" गृह-उपकरण-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ श्रीं। गृहोपकरणं सर्वं स्थाली घट उलूखलम्।
स्थिरं चलं वा सर्वत्र सौख्यानि कुरुतात् गृहे ।।" क्रय-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ऊँ श्रीं । गृह्यमाणं मया सर्व क्रयवस्तु निरन्तरम् ।
सदैवं लाभदं भूयात् स्थिरं सुखदमेव च।।" विक्रय-अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें - "ॐ श्रीं। एतत् वस्तु च विक्रेयं विक्रीणामियदंजसा।
तत्सर्व सर्वसंपत्तिं भाविकाले प्रयच्छतु।।"
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आचारदिनकर (खण्ड- -३)
183 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
सर्व भोग्य-उपकरण - अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें "ॐ खं खं । सर्वभोग्योपकरणं सजीवं जीववर्जितम् । तत्सर्वं सुखदं भूयान्माभूत्पापं तदाश्रयम् ।। " चामर - अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें “ॐ चं चं । गोपुच्छसंभवं हृद्यं पवित्र चामरद्वयम् । राज्यश्रियं स्थिरीकृत्य वांछितानि प्रयच्छतु ।। " सर्व वाद्य - अधिवासना हेतु निम्न मंत्र बोलें “ ॐ वद । सुषिरं च तथाऽऽनद्धं ततं घनसमन्वितम् । वाद्यं प्रौढ़ेन शब्देन रिपुचक्रं निकृन्ततु ।।" उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त सर्व वस्तुओं की अधिवासना निम्न मंत्र से करें
-
“ऊँ श्रीं आत्मा। सर्वाणि यानि वस्तूनि मम यान्त्युपयोगिताम् । तानिसर्वाणि सौभाग्यं यच्छन्तु विपुलां श्रियम् ।। " गृहस्थ को जिन वस्तुओं की प्रतिष्ठा करनी हो ऐसी जीव- अजीवरूप वस्तुओं की प्रतिष्ठा उन-उन वस्तुओं के मंत्रों से करें तथा उक्त वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की प्रतिष्ठा अन्तिम मंत्र से करें ।
चन्द्रबल होने पर शुभदिन में ही अधिवासना की विधि होती है । निम्न छंद द्वारा सभी देव देवियों के कलश एवं ध्वजों की स्थापना करें -
प्रयच्छ ।
-
“भद्रं कुरुष्व परिपालय सर्ववंशं विघ्नं हरस्व विपुलां कमलां
जैवातृकार्क सुरसिद्धजलानि यावत्स्थैर्यं भजस्व वितनुष्व
समीहितानि ।।" अर्हत् मत में प्रतिष्ठा कभी भी रात्रि में नहीं होती है। जिनवल्लभसूरि द्वारा विशेष रूप से इसका निषेध किया गया है। अब सभी प्रतिष्ठाओं की प्रतिष्ठा - दिनशुद्धि की विधि बताते हैं -
स्व-स्व नक्षत्र, तिथि और वारों में कृष्णपक्ष एवं शुभलग्न में चन्द्रमा एवं तारों का बल देखकर उन-उन देवों की स्थापना करें पुष्य, श्रवण, अभिजित नक्षत्र में ऐश्वर्य से परिपूर्ण कुबेर और
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 184 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कार्तिकेय की प्रतिष्ठा करें। अनुराधा, तिग्मरूच, हस्त एवं मूल नक्षत्र में दुर्गादि की प्रतिष्ठा करें। गणपति (गणेश), राक्षस, यक्ष, भूत, कामदेव, राहू, सरस्वती आदि की प्रतिष्ठा रेवती नक्षत्र में करें। बुध की प्रतिष्ठा श्रवण नक्षत्र में तथा लोकपालों की प्रतिष्ठा धनिष्ठा (वासव) नक्षत्र में करें तथा शेष देवों की प्रतिष्ठा स्थिर अर्थात् उत्तरात्रय एवं रोहिणी नक्षत्रों में करें। व्यास, वाल्मिकी, अगस्त्य एवं बृहस्पति के अनुसार सप्तऋषि जिस नक्षत्र में गोचर हो, उस-उस समय उन-उन देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा पुष्य नक्षत्र में चंद्र आदि ग्रहों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। सिंह लग्न में सूर्य की, मिथुन लग्न में महादेव की, कन्या लग्न में विष्णु की एवं कुंभ लग्न में ब्रह्मा की, द्विस्वभाव-लग्नों (३, ६, ६, १२) में देवियों की, चर-लग्नों में (१, ४, ७, १०) योगिनियों की एवं स्थिरलग्नों (२, ५, ८, ११) में सभी देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। रवि आदि वारों में की गई प्रतिष्ठा क्रमशः तेजस्विनी, मंगलकारी, अग्निदाह करने वाली, वांछित पूर्ण करने वाली, दृढ़ता देने वाली, शुक्रवार की आनंदप्रद एवं शनिवार की कल्पपर्यन्त निवास करने वाली होती है। केन्द्र एवं त्रिकोण में सद्ग्रह हो एवं तीसरे, छठवें एवं ग्यारहवें स्थान में चंद्र, अर्क (रवि), मंगल एवं शनि ग्रह हो, तो ऐसे लग्न में यदि प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाए, तो वह कर्ता को पुत्र, अर्थ, संपत्ति एवं आरोग्यता प्रदान करने वाली होती है। लग्न में सौम्य ग्रह हो तो मूर्ति उत्कृष्ट पराक्रम को बढाने वाली होती है। छठे भाव को छोड़कर शेष भावों में ग्रहों की इस प्रकार की स्थिति कर्ता के शत्रुओं का विशेष रूप से विनाश करती है।
प्राण प्रतिष्ठा के समय संवत्सर, तिथि, वार गुणयुक्त होने चाहिए तथा योग एवं करण भी प्रकरण के अनुसार प्रशस्त होना चाहिए। सर्वप्रथम नक्षत्रों का फल होता है। इसके पश्चात् मुहूर्त एवं जन्म नक्षत्र का फल और इसके बाद उपग्रह का फल सूर्य के संक्रमण काल में घटित होता हैं। यदि गोचर में चन्द्रबल और लग्नबल का चिन्तन सम्यक् प्रकार से किया जाए तथा अग्नि ग्रहण संस्कार सविधि
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 185 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान सम्पन्न हो तो यात्रा, विवाह, मूर्ति-प्रवेश, गृहप्रवेश, नवीन वस्त्रधारण तथा देव प्रतिष्ठा आदि कल्याणप्रद रहती है।
प्रतिष्ठा लक्षण निरूपण करते हुए कहते है- कि सपत्नीक यजमान स्वर्ण तथा अन्य रत्नों से वासित एवं सुगंधित जल से सिरसा स्नान करके नाना प्रकार के तुरहि आदि वाद्य यंत्रों की मंगल ध्वनि के साथ पुण्यावाचनपूर्वक वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा पूर्व दिशा में इन्द्र एवं शिव के मंत्रों का तथा दक्षिण दिशा में अग्नि के लिए बताए गए वैदिक मंत्रों का जप करवाना चाहिए और उन्हें दक्षिणा देकर उनका सविधि सत्कार करना चाहिए।
जिस देवता की स्थापना की जाए उसी देवता के मंत्रों से द्विजगण अग्नि में हवन करे तथा इस निमित्त स्थाई रूप से इन्द्रध्वज
आदि को स्थापित करें। षट् ऐश्वर्य सम्पन्न विष्णु, सूर्य, भस्मधारण किए हुए शंकर, मातृकादेवियों, सब के कल्याण भावना वाले शाक्यपुत्र बुद्ध, दिगम्बर जिन का स्वरूप जानने वाले विप्रजनों को तथा जो लोग जिस देवता की उपासना करते हैं, वे अपनी सम्प्रदाय की विधि से उनके उस देवता की प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया सम्पादित करे।
प्रासाद पूर्ण निष्पन्न होने पर अर्हत्-प्रतिमा की स्थापना करें। विष्णु, विनायक, देवी एवं सूर्य की प्रतिष्ठा भी प्रासाद पूर्ण निष्पन्न होने पर ही करें। मूर्तिरूप शिव की प्रतिमा का द्वार से प्रवेश कराएं तथा अनाच्छन्न प्रासाद में लिंग का प्रवेश गगन मार्ग से प्रवेश कराएं। अर्हत्, विष्णु, गणेश, सूर्य, देवी एवं शिव की क्रमशः तीन, तीन, पाँच, तीन, एक आधी परिक्रमा करनी चाहिए। अर्हत् के पीछे शिव की दृष्टि कभी नहीं पड़नी चाहिए तथा विष्णु एवं सूर्य - इन दोनों के पार्श्व भाग में चण्डी की स्थापना नहीं करनी चाहिए, इसलिए नगर के बाहर देवी का नूतन प्रासाद बनाना चाहिए। अन्य देवताओं के मंदिर निर्माण में विकल्प रखा गया हैं अर्थात् उनके मंदिर नगर में या नगर के बाहर हो सकते हैं।
मंदिर के द्वार के सामने कुण्ड, कूप, वृक्ष, छत का कोण या स्तम्भ का होना निन्दित माना गया हैं, क्योंकि यह वेध अर्थात् बाधक है। रिक्त भूमि में दुगना और चैत्य में चारगुना भूमि भाग छोड़कर
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 186 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान इनका निर्माण करे तो वेध आदि का दोष नहीं होता - ऐसा विश्वकर्मा का मत हैं। वेध का लक्षण करते हुए आगे कहा गया हैं कि अत्यधिक ऊँचा, तिर्यक् (तिरछा) एवं लम्बा आंगन तथा अत्यधिक ऊँचा राजसिंहासन राज भवन में वेध रूप माना गया है।
इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में उभयधर्म अर्थात् गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के स्तम्भ रूप प्रतिष्ठा-विधि नामक यह तेंतीसवाँ उदय समाप्त होता हैं।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
187 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान चौंतीसवाँ उदय शान्तिक-कर्म
अब शान्तिक-कर्म की विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है -
गृहस्थ गुरु (विधिकारक) अच्छी तरह से स्नान करके और हाथ में कंकण एवं मुद्रिका को तथा सदश, दोषरहित, श्वेतवस्त्र को धारण करके यह विधि सम्पन्न करें। शान्तिक-कर्म करवाने वाला भी भाई एवं पुत्र सहित उसी प्रकार के वेष एवं आभूषण को धारण करें। फिर गीत, नृत्य, वाद्य आदि में निपुण मंगलगान गाने वाली स्त्रियों को आमंत्रित करें तथा अर्हत् परमात्मा की बृहत्स्नात्रविधि प्रारम्भ करें।
सर्वप्रथम स्नात्रपीठ पर शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा स्थापित करें। यदि शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा न मिले, तो अन्य भगवान् की प्रतिमा में भी शान्तिनाथ भगवान् की कल्पना करके उनकी स्थापना कर सकते हैं।
मंत्र - “ॐ नमोऽर्हद्भ्यस्तीर्थकरेभ्यः समास्त्वत्र तीर्थंकरनाम पंचदशकर्मभूमिभवः तीर्थकरो योऽत्राराध्यते सोऽत्र प्रतिमायां सन्निहितोऽस्तु।'
- इस मंत्र द्वारा जिनप्रतिमा में जिस तीर्थंकर की कल्पना करते हैं, वह उसी तीर्थंकर की पूजनीक प्रतिमा हो जाती है। इस प्रकार वासक्षेपपूर्वक अन्य जिनप्रतिमा में शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना करें। फिर पूर्व में निर्दिष्ट अर्हत्कल्प-विधि से परमात्मा की सम्पूर्ण पूजा करें। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्रविधि के अनुसार कुसुमांजलि अर्पण करें। फिर बिम्ब के आगे पवित्र सोने, चाँदी, ताँबे या कांसे के सात पीठों की स्थापना करें। वहाँ प्रथम पीठ पर क्रम से पंचपरमेष्ठी की स्थापना करें। द्वितीय पीठ पर अक्षत् या तिलक द्वारा दिक्पालों की स्थापना करें। उसी प्रकार तृतीय पीठ पर दिशाक्रम से चारों दिशाओं में तीन-तीन राशियों की स्थापना करें। चौथी पीठ पर चारों दिशाओं में सात-सात नक्षत्रों की स्थापना करें। पाँचवीं पीठ पर दिशाक्रम से क्षेत्रपाल को छोड़कर नवग्रहों की स्थापना करें। छठवीं पीठ पर चारों
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 188 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिकं-पौष्टिककर्म विधान दिशाओं में चार-चार विद्यादेवियों की स्थापना करें। सातवीं पीठ पर गणपति, कार्तिकेय, क्षेत्रपाल, पुरदेवता एवं चतुर्निकाय देवों की स्थापना करें। पंचपरमेष्ठी की पूजा पूर्ववत् करें। उस पीठ को पाँच हाथ के वस्त्र से आच्छादित करें। शेष सर्व क्रिया नंद्यावर्त्त-पूजा के समान करें। नंद्यावर्त के समान ही दिक्पालों की पूजा करें। उस पीठ पर दस हाथ का वस्त्र ढ़कें। राशियों की पूजा-विधि यह है -
पुष्पांजलि लेकर निम्न छंदपूर्वक राशिपीठ के ऊपर पुष्पांजलि प्रक्षेपित करें - "मेषवृषभमिथुनकर्कटसिंहकनीवाणिजादिचापधराः ।
मकरधनमीनसंज्ञा संनिहिता राशयः सन्तु।। फिर निम्न छंदपूर्वक सर्व प्रकार की पूजा-सामग्रियों से मेष राशि की पूजा करें -
। “मंगलस्य निवासाय सूर्योच्चत्वकराय मेषाय पूर्वसंस्थाय नमः।"
ॐ नमो मेषाय मेष इह शान्तिकमहोत्सवे आगच्छ-आगच्छ इदमयं पाद्यं बलिं चरुं आचमनीयं गृहाण-गृहाण सन्निहितो भव-भव स्वाहा जलं गृहाण-गृहाण गन्धं अक्षतान् फलानि पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण शान्तिं कुरु-कुरू तुष्टि-पुष्टिं ऋद्धि-वृद्धिं सर्व समीहितानि यच्छ-यच्छ स्वाहा।।"
इसी प्रकार क्रमशः वृषभ आदि राशियों की भी उन-उन के छंदों एवं मंत्रों से पूजा करें। प्रत्येक राशि के मंत्र इस प्रकार हैं - वृषभराशि हेतु -
"चन्द्रोच्चकरणो याम्यदिशिस्थायी कवेर्गृहं ।
वृषः सर्वाणि पापानि शांतिकेऽत्र निकृन्ततु।।" “ॐ नमो वृषाय वृष इह शान्तिकमहोत्सवे ..... शेष पूर्ववत्। मिथुनराशि हेतु -
"शशिनंदनगेहाय राहूच्चकरणाय च। पश्चिमाशास्थितायास्तु मिथुनाय नमः सदा।।"
“ॐ नमो मिथुनाय मिथुन इह शान्तिकमहोत्सवे ...... शेष पूर्ववत्।"
कर्कराशि हेतु -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 189 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"वाक्पतेरुच्चकरणं शरणं तारकेशितुः। कर्कटं धनदाशास्थं पूजयामो निरन्तरम् ।।
ऊँ नमः कर्काय कर्क इह शान्तिकमहोत्सवे.... शेष पूर्ववत्।" सिंहराशि हेतु -
“पद्मिनीपतिसंवासः पूर्वाशाकृतसंश्रयः। सिंह समस्तदुःखानि विनाशयतु धीमताम् ।।
“ॐ नमः सिंहाय सिंह इह शान्तिकमहोत्सवे...शेष पूर्ववत् ।' कन्याराशि हेतु - "बुधस्य सदनं रम्यं तस्यैवोच्चत्वकारिणी। कन्या कृतान्त दिग्वासा ममानन्दं प्रयच्छत।।"
“ॐ नमः कन्यायै कन्ये इह शान्तिकमहोत्सवे..... शेष पूर्ववत्।"
तुलाराशि हेतु -
“यो दैत्यानां महाचार्यस्तस्यावासत्वमागतः। शनेरुच्चत्वदातास्तु पश्चिमास्थस्तुलाधरः।।"
“ॐ नमः तुलाधराय तुलाधर इह शान्तिकमहोत्सवे...... शेष पूर्ववत् ।
वृश्चिकराशि हेतु -
"भौमस्य तु सुखं क्षेत्रं धनदाशाविभासकः । वृश्चिको दुःखसंघातं शान्तिकेऽत्र निहन्तु नः ।।
___ “ऊँ नमो वृश्चिकाय वृश्चिक इह शान्तिकमहोत्सवे...... शेष पूर्ववत् ।
धनुराशि हेतु -
“सर्वदेवगणाय॑स्य सदनं पददायिनः। सुरेन्द्राशास्थितो धन्वी धनवृद्धिं करोतु नः।।"
“ऊँ नमो धन्विने धन्विन् इह शान्तिकमहोत्सवे....... शेष पूर्ववत् ।
मकरराशि हेतु -
"निवासः सूर्य पुत्रस्य भूमिपुत्रोच्चताकरः। मकर दक्षिणासंस्थः संस्थाभीतिं विहन्तु नः।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 190 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“ॐ नमो मकराय मकर इह शान्तिकमहोत्सवे...... शेष पूर्ववत् ।
कुंभराशि हेतु -
"ग्रहेशतनयस्थानं पश्चिमानन्ददायकः। कुम्भः करोतु निर्दभं पुण्यारंभं मनीषिणाम् ।।
“ॐ नमः कुम्भाय कुम्भ इह शान्तिकमहोत्सवे..... शेष पूर्ववत्।"
मीनराशि हेतु -
“कवेरूच्चत्वदातारं क्षेत्रं सुरगुरोरपि। वन्दामहे नृधर्माशापावनं मीनमुत्तमम्।।"
“ॐ नमो मीनाय मीन इह शान्तिकमहोत्सवे...... शेष पूर्ववत्।"
इन मंत्रों द्वारा प्रत्येक राशि की पूजा करें। तत्पश्चात् निम्न मंत्र से सभी राशियों की सामूहिक पूजा करें -
“ऊँ मेषवृषमिथुनकर्कसिंहकन्यातुलावृश्चिकधनुमकरकुम्भमीनाः सर्वराशयः स्वस्वस्वाम्यधिष्ठिताः इहशान्तिके आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं पाद्यं बलिं चरुं आचमनीयं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु मुद्रा गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सन्निहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा, जलं गृह्णन्तुगृह्णन्तु, गन्धं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, अक्षतान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, फलानि गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, मुद्रां गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, पुष्पं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, धूपं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, दीपं गृह्णन्तु- गृह्णन्तु, नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु, शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, तुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, ऋद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, वृद्धि कुर्वन्तु-कुर्वन्तु, सर्व समीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा।।
फिर उस पीठ को बारह हाथ परिमाण वस्त्र से ढक दें। फिर पुष्पांजलि लेकर निम्न छंद से नक्षत्रपीठ पर पुष्पांजलि प्रक्षेपित करें -
__ "नासत्यप्रमुखादेवाअधिष्ठितनिजोडवः। अत्रैत्य शान्तिके सन्तु सदा सन्निहिताः सताम् ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 191 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
तत्पश्चात् अश्विनीनक्षत्र के प्रति “ऊँ ज्वी नमो नासत्याभ्यां स्वाहा - यह मूलमंत्र तथा निम्न मंत्र बोलकर अश्विनीनक्षत्र की पूजा करें -
“ॐ नमो नासत्याभ्यां अश्विनी स्वामिभ्यां नासत्यौ इह. शान्तिके आगच्छतं-आगच्छतं इदमयं पाद्यं बलिं चरुं आचमनीयं गृणीतं-गृहणीतं संनिहितौ भवतं-भवतं स्वाहा जलं गृणीतं-गृहीतं गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं गृहणीतं-गृह्णीत सर्वोपचारान् गृणीतं-गृह्णीतं शान्तिं कुरुतं-कुरूतं तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुरुतं-कुरूतं सर्वसमीहितानि ददतं-ददतं स्वाहा ।।" (द्विवचन)
इसी प्रकार निम्न मंत्रों से क्रमशः शेष सत्ताईस नक्षत्रों की
पूजा करें -
भरणीनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ यं यं नमो यमाय स्वाहा।"
"ऊँ नमो यमाय भरणीस्वामिने यम इह शान्तिके आगच्छ-आगच्छ इदमयं बलिं चरूं आचमनीयं गृहाण-गृहाण संनिहितो भव-भव स्वाहा जलं गृहाण-गृहाण गन्धं गृहाण-गृहाण अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहाण-गृहाण शान्तिं कुरू-कुरू तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धि कुरू-कुरू सर्वसमीहितानि देहि-देहि स्वाहा। (एकवचन)
कृतिकानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ रं रं नमो अग्नये स्वाहा।'
“ॐ नमो अग्नये कृत्तिकास्वामिने अग्ने इह शान्तिके..... शेष मंत्र पूर्ववत्। (एकवचन)
रोहिणीनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ॐ ब्रह्म ब्रह्मणे नमः।"
"ऊँ नमो ब्रह्मणे रोहिणीश्वराय ब्रह्मन् इह शान्तिके..... शेष मंत्र पूर्ववत् । (एकवचन)
मृगशिरनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ॐ चं चं नमः चन्द्राय नमः स्वाहा।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 192 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“ॐ नमः चन्द्राय मृगशिरोधीशाय चन्द्र इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।“ (एकवचन)
आर्द्रानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ द्रु द्रु नमो रुद्राय स्वाहा।'
"ऊँ नमो रुद्राय आद्रश्वराय रुद्र इह शान्तिके..... शेष मंत्र .. पूर्ववत् ।' (एकवचन में)
पुनर्वसुनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ॐ जनि-जनि नमो अदितये स्वाहा।"
“ॐ नमो अदितये पुनर्वसुस्वामिन्यै अदिते इह शान्तिके....... शेष मंत्र पूर्ववत् । (स्त्रीलिंग एकवचन में)
पुष्यनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ऊँ जीव-जीव नमो बृहस्पतये स्वाहा।'
"ऊँ नमो बृहस्पतये पुष्याधीशाय बृहस्पतये इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।' (एकवचन में)
आश्लेषानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ फु फु नमः फणिभ्यः स्वाहा।"
“ऊँ नमः फणिभ्यः आश्लेषास्वामिभ्यः इह शान्तिके आगच्छत-आगच्छत इदमयं गृहीत-गृणीत सन्निहिता भवत-भवत स्वाहा जलं गृणीत-गृहीत गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहणीत-गृणीत शान्तिं कुरूत-कुरूत तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुरूत-कुरूत सर्वसमीहितानि ददध्वं-ददध्वं स्वाहा।" (बहुवचन)
मघानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ स्वधा नमः पितृभ्यः स्वाहा।"
"ऊँ नमः पितृभ्यो मघेशेभ्यः पितर इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।" (बहुवचन में)
पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ॐ ऐं नमो योनये स्वाहा।"
"ऊँ नमो योनये पूर्वाफाल्गुनीस्वामिन्यै योने इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।" (स्त्रीलिंग एकवचन में)
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
193 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र की पूजा के लिए मूलमंत्र मूलग्रन्थ में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र की पूजा हेतु मूलमंत्र का उल्लेख नहीं किया गया है ।
"ॐ घृणि घृणि नमोऽर्यम्णे उत्तराफाल्गुनीस्वामिने अर्यमन् इह शान्तिके....... शेष मंत्र पूर्ववत् । " ( एकवचन में ) हस्तनक्षत्र की पूजा के लिए
मूलमंत्र - "ॐ घृणि घृणि नमो दिनकराय स्वाहा । "
“ॐ नमो दिनकराय हस्तस्वामिने दिनकर इह शान्तिके... शेष मंत्र पूर्ववत् । " ( एकवचन में ) चित्रानक्षत्र की पूजा के लिए
-
पूर्ववत् । " ( एकवचन में )
स्वाहा ।"
मूलमंत्र – “ ॐ तक्ष - तक्ष नमो विश्वकर्मणे स्वाहा । "
“ॐ नमः चित्रेशाय विश्वकर्मन् इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।" ( एकवचन में )
स्वाति नक्षत्र की पूजा के लिए
-
.
-
-
मूलमंत्र – “ ॐ यः यः नमो वायवे स्वाहा ।"
-
“ॐ नमो वायवे स्वातीशाय वायो इह शान्तिके शेष मंत्र
विशाखा नक्षत्र की पूजा के लिए
मूलमंत्र - “ॐ वषट् नमः इन्द्राय स्वाहा ऊँ रं रं नमो अग्नये
“ॐ नमः इन्द्राग्निभ्यां विशाखास्वामिभ्यां इन्द्राग्नी इह शान्तिके शेष मंत्र पूर्ववत् । " ( द्विवचन में )
अनुराधानक्षत्र की पूजा के लिए -
मूलमंत्र – “ ॐ नमः घृणि- घृणि नमो मित्राय स्वाहा ।" “ॐ नमो मित्राय अनुराधेश्वराय मित्र इह शान्तिके... शेष मंत्र पूर्ववत् । " ( एकवचन में )
ज्येष्ठानक्षत्र की पूजा के लिए
-
मूलमंत्र – “ ॐ वषट् नम इन्द्राय स्वाहा । "
-
“ॐ नमः इन्द्राय ज्येष्ठेश्वराय इन्द्र इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् । " ( एकवचन में )
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 194 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
मूलनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ऊँ षुषा नमो निर्ऋत्ये स्वाहा ।"
"ऊँ नमो नैऋताय मूलाधीशाय नैऋते इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।" (एकवचन में)
पूर्वाषाढ़ानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ वं वं नमो जलाय स्वाहा।"
“ॐ नमो जलाय पूर्वाषाढा स्वामिने जल इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत्।" (एकवचन में) ।
उत्तराषाढ़ानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ विश्व विश्व नमो विश्वदेवेभ्यः स्वाहा।"
“ॐ नमो विश्वेदेवेभ्यः उत्तराषाढ़ास्वामिभ्यः विश्वेदेवा इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत्।। (बहुवचन में)
अभिजितनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ ब्रह्म-ब्रह्म नमो ब्रह्मणे स्वाहा।'
“ॐ नमो ब्रह्मणे अभिजिदीशाय ब्रह्मन् इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् । (एकवचन में)
श्रवणनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ अं नमो विष्णवे स्वाहा।"
"ऊँ नमो विष्णवे श्रवणाधीशाय विष्णो इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् । (एकवचन में)
धनिष्ठानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ नमो वसुभ्यः स्वाहा।
"ऊँ नमो वसुभ्यो धनिष्ठेशेभ्यः वसवः इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् । (बहुवचन में)
शतभिषानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ वं वं नमो वरुणाय स्वाहा।'
"ॐ नमो वरुणाय शतभिषगीशाय इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् । (एकवचन में)
पूर्वाभाद्रपदानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - “ॐ नमो अजपादाय स्वाहा।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 195 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
__“ॐ नमो अजपादाय पूर्वाभद्रपदेश्वराय अजपाद इह शान्तिके.. शेष मंत्र पूर्ववत्। (एकवचन में)
उत्तराभाद्रपदानक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - मूलग्रंथ में इस नक्षत्र का मूलमंत्र नहीं दिया गया
“ॐ नमो अहिर्बुध्न्याय उत्तराभद्रपदेश्वराय अहिर्बुध्न्य इह शान्तिके...... शेष मंत्र पूर्ववत् ।' (एकवचन में)
रेवतीनक्षत्र की पूजा के लिए - मूलमंत्र - "ॐ घृणि-घृणि नमः पूष्णे स्वाहा।"
“ॐ नमः पूष्णे रेवतीशाय पूषन् इह शान्तिके....... शेष मंत्र पूर्ववत् । (एकवचन में)
। तत्पश्चात् निम्न मंत्र से सर्वनक्षत्रों की सामूहिक पूजा करें तथा उस पीट पर अट्ठाईस हाथ-परिमाण का वस्त्र ढक दें -
____ “ॐ नमः सर्वनक्षत्रेभ्यः सर्वनक्षत्राणि सर्वनक्षत्रेशा इह शान्तिके आगच्छन्तु- आगच्छन्तु इदम् आचमनीयं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सन्निहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु तुष्टि-पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितं ददतु-ददतु स्वाहा।'
फिर नंद्यावर्त्त-पूजन की भाँति पंचम पीठ पर नवग्रहों की पूजा करके उस पर नौ हाथ-परिमाण का वस्त्र ढक दें। छठवें पीठ पर नंद्यावर्त्त-पूजन की भाँति सोलह विद्यादेवियों की पूजा करके उसे सोलह हाथ-परिमाण वस्त्र से ढक दें। सातवें पीठ पर (स्थित) गणपति की पूजा निम्न मंत्र से करें तथा विशेष रूप से मोदक का नैवेद्य चढ़ाएं
मूलमंत्र - "ऊँ गं नमो गणपतये स्वाहा।"
“ॐ नमो गणपतये सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय गणपते इह शान्तिके...... शेष पूर्ववत्।“ (पुल्लिंग एकवचन में)
कार्तिकेय की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलें - मूलमंत्र - “ऊँ क्लीं नमः कार्तिकेयाय स्वाहा।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 196 प्रतिष्टाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
__“ऊँ नमः कार्तिकेयाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय कार्तिकेय इह शान्तिके...... शेष पूर्ववत् । (पुल्लिंग एकवचन में)
क्षेत्रपाल की पूजा पूर्ववत् करें। पुरदेवता की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलें - मूलमंत्र - “ऊँ मं मं नमः पुरदेवाय स्वाहा।"
"ऊँ नमः पुरदेवाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय पुरदेव इह शान्तिके...... शेष पूर्ववत्। (पुल्लिंग एकवचन में)
चतुर्निकाय देवों की पूजा पूर्ववत् करें तथा इस पीठ को आठ हाथ-परिमाण वस्त्र से ढक दें। इस प्रकार सभी की पूजा करके त्रिकोण कुण्ड में हवन करें। पंचपरमेष्ठियों को संतुष्ट करने के लिए खाण्ड (शक्कर), घी तथा खीर से एवं चन्दन तथा श्रीपर्णी की समिधाओं से आहुति दी जाती है। दिक्पालों को संतुष्ट करने के लिए घी, नारियल (मधुफल) तथा वटवृक्ष एवं पीपल की समिधाओं से आहुति दी जाती है। ग्रहों को संतुष्ट करने के लिए दूध, मधु, घी तथा कैर एवं पीपल की समिधाओं से आहुति दी जाती है। क्षेत्रपाल को संतुष्ट करने के लिए तिलपिण्डों एवं धतूरे की समिधाओं से आहुति दी जाती है। पुरदेवता को संतुष्ट करने के लिए घी, गुड़ तथा चम्पकवृक्ष एवं वटवृक्ष की समिधाओं से हवन करें। चतुर्निकाय देवों को संतुष्ट करने के लिए नाना प्रकार के फल, खीर एवं प्राप्त समिधाओं से हवन करें। सभी आहुतियों में आहुति देने का मंत्र ही मूल मंत्र होता है तथा सभी आहुतियों में एक बेंत-परिमाण की समिधाएँ होती हैं। इस प्रकार आहुतिपूर्वक सभी का पूजन करें। पुष्पांजलि प्रक्षेपित करने के तुरन्त बाद बृहत्स्नात्रविधि में जो भी स्नात्र की विधि कही गई है, वही सम्पूर्ण विधि करें। स्नात्र करने के बाद सम्पूर्ण स्नात्रजल को एकत्रित करें और फिर उसमें सर्वतीर्थों के जल को मिलाकर, उसे बिम्ब के आगे अच्छी तरह से लिपी गई भूमि पर या चौकी के ऊपर अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार, मदनफल आदि से युक्त, रक्षासूत्रों से आबद्ध कण्ठ वाले शान्ति कलश को स्थापित करें। सभी जगह रक्षादि का बन्धन शान्तिमंत्र से करें। तत्पश्चात् शान्तिमंत्र द्वारा कलश में सोने, चाँदी की मोहरें, सुपारी एवं नारियल
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 197 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान रखें। फिर दो स्नात्रकार शुद्धजल की अखण्डित धारा से स्नात्रकलश को भरें। ऊपरी छत से संलग्न तथा कलश के तल तक लटकता हुआ सदशवस्त्र बांधे।
गृहस्थ गुरु कुश द्वारा उनकी जलधाराओं को शान्तिकलश में डाले। शान्तिदण्डक के पाठ से उसे अभिमंत्रित करें। शान्तिदण्डक निम्नांकित है -
"नमः श्रीशान्तिनाथाय सर्वविघ्नापहारिणे। सर्वलोकप्रकृष्टाय सर्ववांछितदायिने ।।"
इह हि भरतैरावतविदेहजन्मनां तीर्थकराणां जन्मसु चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्राश्चलितासना विमानघण्टाटड्कार क्षुभिताः प्रयुक्तावधिज्ञानेन जिनजन्मविज्ञानपरमतममहाप्रमोदपूरिताः मनसा नमस्कृत्य जिनेश्वरं सकलसामानिकाङ्गरक्षपार्षद्यत्रयस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकातियोगिकसहिताः साप्सरोगणाः सुमेरुश्रृङ्गमागच्छन्ति। तत्र य सौधर्मेन्द्रेण विधिना करसंपुटानीतांस्तीर्थकरान् पाण्डुकम्बलातिपाण्डुकम्बलातिरक्तकम्बला शिलासु न्यस्तसिंहासनेषु सुरेन्द्रक्रोडस्थितान् कल्पितमणिसुवर्णादिमययोजनमुखकलशाद्गतैस्तीर्थवारिभिः स्नपयन्ति । ततो गीतनृत्यवाद्यमहोत्सवपूर्वकं शान्तिमुद्घोषयन्ति। ततस्तत्कृतानुसारेण वयमपि तीर्थंकर स्नात्रकरणानंतरं शान्तिकमुद्धोषयामः। सर्वे कृतावधानाः सुरासुरनरोरगाः श्रृण्वन्तु स्वाहा। ऊँ नमो अर्हन्नमो जय जय पुण्याहं पुण्याहं प्रीयतां प्रीयतां भगवन्तोऽर्हन्तो विमलकेवला लोकपूज्यास्त्रिलोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकरा महातिशया महानुभावा महातेजसो महापराक्रमा महानंदा ऊँ ऋषभ अजितसंभव अभिनंदनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभसुविधिशीतलश्रेयांसवासुपूज्यविमलअनन्तधर्मशान्तिकुन्थुअरमल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपार्श्ववर्धमानान्ता जिना अतीतानागतवर्तमानाः पंचदशकर्मभूमिसंभवाः विहरमाणाश्च शाश्वतप्रतिमागताः भुवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभुवनसंस्थिताः तिर्यक्लोकनंदीश्वररुचकेषु कारककुण्डलवैताठ्यगजदंतवक्षस्कारमेरुकृतनिलया जिनाः सुपूजिताः सुस्थिताः शांतिकरा भवन्तु स्वाहा। देवाश्चतुर्णिकाया भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकास्तदिन्द्राश्च साप्सरः सायुधाः सवाहनाः सपरिकराः प्रीताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा ॐ रोहिणीप्रज्ञप्तीवज्रश्रृङ्
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 198 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान खलावज्राङ्कुशीअप्रतिचक्रापुरुषदत्ताकालीमहाकालीगौरीगान्धारीसर्वास्त्रमहाज्वालामानवीवैरोट्याअछुप्तामानसीमहामानसीरूपाः षोडशविद्यादेव्यः प्रीताः शान्तिकारिण्यो भवन्तु स्वाहा। ऊँ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुपरमेष्ठिनः सुपूजिताः प्रीताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिर आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा स्वाती विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा अभिजित् श्रवण धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा रेवतीरूपाणि नक्षत्राणि प्रीतानि शान्तिकराणि भवन्तु स्वाहा। ऊँ मेषवृषमिथुनकर्कसिंहकन्यातुलवृश्चिकधनुर्मकरकुम्भमीनरूपा राशयः सुपूजिताः सुप्रीताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा। ऊँ . सूर्यचन्द्राङ्गारकबुधगुरुशुक्रशनैश्चरराहुकेतुरूपा ग्रहाः सुपूजिताः प्रीताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा। ऊँ इन्द्राग्नियमनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशाननागब्रह्मरूपा दिक्पालाः सुपूजिताः सुप्रीताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा। ॐ गणेशस्कन्दक्षेत्रपालदेशनगरग्रामदेवताः सुपूजिताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा। ऊँ अन्येऽपि क्षेत्रदेवा जलदेवा भूमिदेवाः सुपूजिताः सुप्रीता भवन्तु शान्तिं कुर्वन्तु स्वाहा। अन्याश्च पीठोपपीटक्षेत्रोपक्षेत्रवासिन्यो देव्यः सपरिकराः सबटुकाः सुपूजिताः भवन्तु शान्तिं कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ सर्वेपि तपोधनतपोधनी श्रावक श्राविकाभवाश्चतुर्णिकायदेवाः सुपूजिताः सुप्रीताः शान्तिं कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ अत्रैव देशनगरग्रामगृहेषु दोषरोगवैरिदौर्मनस्यदारिद्रयमरकवियोगदुःखकलहोपशमेन शान्तिर्भवतु। दुर्मनोभूतप्रेतपिशाचयक्षराक्षसवैतालझोटिंकशाकिनीडाकिनीतस्कराततायिनां प्रणाशेन शान्तिर्भवतु। भूकम्पपरिवेषविद्युत्पातोल्कापातक्षेत्रदेशनिर्घातसवोत्पातदोषशमनेन शान्तिर्भवतु। अकालफलप्रसूतिवैकृत्यपशुपक्षिवैकृत्याकालदुश्चेष्टाप्रमुखोपप्लवोपशमनेन शान्तिर्भवतु। ग्रहगणपीडितराशिनक्षत्रपीड़ोपशमेन शान्तिर्भवतु। जाङ्घिकनैमिकाकस्मिकदुःशकुनदुःस्वप्नोपशमेन शान्तिर्भवतु। "उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगतिदुःस्वप्नदुर्निमित्तादि।
संपादितहितसंपन्नामग्रहणं जयति शान्तेः ।। या शान्तिः शान्तिजिने गर्भगते वाजनिष्ट वा जाते।
सा शान्तिरत्र-भूया-त्सर्वसुखोत्पादनाहेतुः ।।"
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 199 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
अत्र च गृहे सर्वसंपदागमेन सर्वसन्तानवृद्ध्या सर्वसमीहितसिद्ध्या सर्वोपद्रवनाशेन माङ्गल्योत्सवप्रमोदकौतुकविनोददानोद्भवेन शान्तिर्भवतु। भ्रातृपत्नीपितृपुत्रमित्रसम्बन्धिजननित्यप्रमोदेन शान्तिर्भवतु। आचार्योपाध्यायतपोधनतपोधनाश्रावकश्राविकारूपसंघस्य शान्तिर्भवतु। सेवकभृत्यदासद्विपदचतुष्पदपरिकरस्य शान्तिर्भवतु। अक्षीणकोष्ठागारबलवाहनानां नृपाणां शान्तिर्भवतु। श्रीजनपदस्य शान्तिर्भवतु श्रीजनपदमुख्यानां शान्तिर्भवतु श्रीसर्वाश्रमाणां शान्तिर्भवतु चातुर्वर्ण्यस्यशान्तिर्भवतु पौरलोकस्य शान्तिर्भवतु पुरमुख्यानां शान्तिर्भवतु राज्यसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु गोष्टिकानां शान्तिर्भवतु धनधान्यवस्त्रहिरण्यानां शान्तिर्भवतु ग्राम्याणां शान्तिर्भवतु क्षेत्रिकाणां शान्तिर्भवतु क्षेत्राणां शान्तिर्भवतु। “सुवृष्टाः सन्तु जलदाः सुवाताः सन्तु वायवः। सुनिष्पन्नास्तु पृथिवी सुस्थितोऽस्तु जनोऽखिलः।। ॐ तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिसर्वसमीहितसिद्धिर्भूयात्। शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूगतणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। सर्वेपि सन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।। जगत्यां सन्ति ये जीवाः स्वस्वकर्मानुसारिणः । ते सर्वे वांछितं स्वं स्वं प्राप्नुवन्तु सुखं शिवम् ।।"
जलधारा के अभिमंत्रणसहित इस शान्तिदण्डक को तीन बार पढ़ें। फिर उस शान्तिकलश के जल से शान्तिककर्म करवाने वाले को उसके परिवारसहित अभिसिंचित करें। तदनन्तर उसके सम्पूर्ण गृह एवं गाँव को भी अभिसिंचित करें। दिक्पाल आदि सर्व देवों का विसर्जन पूर्ववत् करें। - यह शान्तिककर्म की विधि है।
सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में, सभी प्रतिष्ठाओं में छ:मास या वर्ष में, महाकार्य के प्रारम्भ में, उपद्रव दिखाई देने पर या उत्पन्न होने पर, रोग, दोष, महाभय या संकट के आने की स्थिति में, दूसरों के आधिपत्य में गई हुई भूमि आदि प्राप्त न होने की स्थिति में, महापाप होने की स्थिति में विद्वानों एवं गृहस्थों द्वारा निश्चित रूप से शान्तिकक्रिया करवाई जानी चाहिए। इससे दुष्ट आशयों का नाश होता है तथा रोग एवं दोषों का शमन होता है। दुष्ट आशय वाले देव, असुर, मनुष्य एवं स्त्रियाँ परांमुखी होते हैं।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 200 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान प्रसन्नता, शुभत्व, कल्याण एवं तुष्टि-पुष्टि की वृद्धि होती हैं। शान्तिक-विधान से इच्छित कार्य की सिद्धि होती है। - यह शान्तिककर्म का फल हैं। शान्तिककर्म के अन्त में साधुओं को भी फल, वस्त्र, भोजन, उपकरण आदि प्रदान करें। इस विधि में जहाँ-जहाँ गृह शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ-वहाँ गृहपति के नाम का उच्चारण करें।
अब नक्षत्र एवं ग्रह की शान्तिक-विधि बताते हैं -
क्रूर ग्रह, क्रूर वेध तथा चन्द्र-सूर्य ग्रहण से जन्म एवं नाम नक्षत्र के दूषित होने पर बिना प्रमाद किए यह शान्तिककर्म करें। इसी प्रकार अयुक्त तथा अविहित आश्लेषा एवं मूल नक्षत्रों में जन्म होने पर, ज्येष्ठानक्षत्र में पुत्र का जन्म होने पर, रोगग्रस्त होने पर ग्रह-चक्र (जन्मकुण्डली) में वधक दशा के आने पर - इत्यादि कारणों के उपस्थित होने पर नक्षत्र-शान्ति करें। गोचर में बाईं ओर वेध हो, अष्टवर्ग का संश्रय हो, निर्बल ग्रह में जन्म तथा जन्मकाल के समय ग्रहों की निर्बल दशा हो, तो-इन कारणों के होने पर भी ग्रहशान्तिककर्म करें। नक्षत्रों में नक्षत्र की शान्ति तथा सोमादि वारों में ग्रहशान्ति करें।
यहाँ सर्वप्रथम नक्षत्र-शान्तिक की विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - हाथ में पुष्पांजलि लेकर निम्न छंदपूर्वक पूर्वस्थापित पीठ के ऊपर पुष्पांजलि प्रक्षेपित करें। अश्विन्यादीनि धिष्ण्यानि संमतान्यब्धिजादिभिः।
युतानि शान्तिं कुर्वन्तु पूजितान्याहुति क्रमैः।। अश्विनीनक्षत्र की शान्ति के लिए अश्विनीकुमार की दो मूर्तियाँ स्थापित कर पूर्वोक्त विधि से पूजा कर घी, मधु एवं गुग्गुलसहित सर्व
औषधि से आहुति दें। सभी नक्षत्रों के हवन में चौकोर कुण्ड होते हैं। एक बेंत-परिमाण की पीपल, बरगद, प्लक्ष एवं आंकड़े की लकड़ी की समिधाएँ दी जाती हैं। प्रत्येक नक्षत्र के प्रति आहुति दें। इस प्रकार अट्ठाईस आहुतियाँ होती हैं। अपने-अपने मूलमंत्र द्वारा संस्थापित तिलकमात्र से या आकृति बनाकर नक्षत्रों की स्थापना करें। भरणीनक्षत्र की शान्ति के लिए यम को स्थापित कर, पूर्ववत् अच्छी तरह पूजा कर, विशेषतः घी, गुग्गुल एवं मधु के मिश्रण से आहुति
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 201 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान दें। कृतिकानक्षत्र की शान्ति के लिए अग्नि की स्थापना कर पूर्ववत् पूजा कर, तिल, यव एवं घृत से आहुति दें। रोहिणीनक्षत्र की शान्ति के लिए ब्रह्मा की स्थापना कर उसकी पूर्ववत् पूजा कर दर्भसहित तिल, यव एवं घी से आहुति दें। मृगशीर्षनक्षत्र की शान्ति के लिए चंद्र की स्थापना कर पूर्ववत् पूजा कर घृतसहित सर्वौषधियों से हवन करें। आ नक्षत्र की शान्ति के लिए शम्भु (शंकरजी) की स्थापना कर, पूर्ववत् पूजा कर, घृत एवं तिल का हवन करें। पुनर्वसुनक्षत्र की शान्ति के लिए अदिति की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, घृतसहित केसर, लाख, मदयन्ती, मांसी आदि से हवन करें। पुष्यनक्षत्र की शान्ति के लिए बृहस्पति की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, तिल, यव, घृत एवं कुश से होम करें। आश्लेषानक्षत्र की शान्ति के लिए नाग की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, दूध और घी से हवन करें। आश्लेषा में उत्पन्न होने वाले बालक के शान्तिकर्म की विधि मूलनक्षत्र के विधान से जानें। मघानक्षत्र की शान्ति के लिए पितरों की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, घृत मिश्रित तिलपिण्डों से हवन करें। पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्र की शान्ति के लिए योनि की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर घृतसहित मधूकपुष्पों (महुए के फूलों) से हवन करें। उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र की शान्ति के लिए सूर्य की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, घृत एवं मधुसहित कमलों से हवन करें। हस्तनक्षत्र की शान्ति के लिए सूर्य की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर घृत एवं मधुसहित कमलों से हवन करें। स्वातिनक्षत्र की शान्ति के लिए वायुदेव की स्थापना कर तथा पूर्ववत् पूजा कर, तिल, मधु एवं घृत से हवन करें। विशाखानक्षत्र की शान्ति के लिए इन्द्राग्नि की स्थापना तथा पूजा कर घृत, मधु एवं खीर से या मात्र घी से हवन करें। अनुराधानक्षत्र की शान्ति के लिए सूर्य की पूजा कर, घृत एवं मधुसहित कमलों से हवन करें। ज्येष्ठानक्षत्र की शान्ति के लिए इन्द्र की पूजा कर घृत, मधु एवं खीर से हवन करें। ज्येष्ठानक्षत्र में कन्या या पुत्र का जन्म हुआ हो, तो ज्येष्ठपुरुष घर के मध्य में जाकर कुंभ, ताँबे का चरू, थाल आदि बर्तन विप्र आदि को दान में दे। जब तक दान न दे, तब तक पिता नवजात शिशु का मुख न देखे। यदि यह
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 202 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान क्रिया नहीं करे, तो ज्येष्ठव्यक्ति, अर्थात् दादा, पिता, चाचा या परिवार के अन्य किसी प्रमुख व्यक्ति का विनाश होता है। मूलनक्षत्र की शान्ति के लिए निर्ऋती की पूजा कर, तिल, सरसों, आसुरी, कड़वे तेल, लवण एवं घी से हवन करें। ज्येष्ठा, मूल, आश्लेषा, गण्डान्त, व्यतिपात, वैधृति, शूल, विष्टि, वज्र, विष्कम्भ, परिघाऽतिगंड में जन्मे बालकों के मुहूर्त, घटिका, पाद, बेला आदि तथा वार आदि से उत्पन्न होने वाले दोषों को ज्योतिषशास्त्र से जानें। यहाँ नक्षत्रशान्ति की विधि ही बताई गई है।
अब मूल एवं आश्लेषा नक्षत्रों के शान्ति-विधान की विधि बताते हैं -
अभुक्त मूलनक्षत्र में बालक का जन्म हो, तो उस बालक का त्याग कर दें या समाष्टक हो, तो पिता उसका मुँह न देखे। इस नक्षत्र में बालक का जन्म प्रथम पाद में हो, तो पिता का, द्वितीय पाद में हो, तो माता का, तृतीय पाद में हो, तो धन का नाश होता है तथा चतुर्थ पाद में हो, तो शुभ होता है। यह नक्षत्र अन्तिम पाद में विपरीत फल देता है। यही बात आश्लेषानक्षत्र के बारे में भी कही गई है। उक्त दोषों की शान्ति करने के लिए शान्तिकर्म करें। शत औषधि, मूल, सागर की मिट्टी, सागर के रत्न एवं अन्नगर्भित (सद्बीजगर्भे) कलशों से मंत्रपूर्वक जननी, पिता एवं बालक को स्नान कराएं साथ ही कल्याण के लिए हवन करें एवं दान दें। पूर्व में लिपी गई भूमि पर कर्पूर, चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से वासित एवं मंत्र से संस्कारित अखण्ड अक्षतों से मंगल-चिन्ह रूप स्वस्तिक बनाएं। उस पर श्रीपर्णी की पीठ स्थापित करें। उसके ऊपर नवग्रहों की स्थापना करके उसके मध्य में सुगंधित द्रव्यों से पुरुषाकार मूल नक्षत्र को आलेखित करें। आश्लेषानक्षत्र की शान्ति हेतु सर्प बनाएं। उसके ऊपर “ऊँ ह्रीं अहये नमः "- यह मंत्र लिखकर कलश स्थापित करें तथा उसे सुगंधित द्रव्यों के मिश्रित जल से भर दें। एक सौ आठ पुष्प, शुष्क एवं आर्द्रफल एवं मुद्रासहित धूप, दीप एवं नैवेद्यों से कलश की पूजा करें। कलश को ढकने के लिए बारह हाथ-परिमाण वस्त्र का उपयोग करें। उसके आगे शिशु एवं माता पूर्वाभिमुख होकर बैठे। उसके आगे दस
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 203 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान हस्त-परिमाण का लाल वस्त्र रखें तथा वहाँ शिशु के निमित्त स्वर्ण निर्मित अंगुली एवं दो नारियल कलश के मध्य में रखें तथा उसे शुष्क एवं आई फलों से भर दें। एक नारियल शान्तिककर्म के समय कलश में डालें। फिर निम्न मंत्र से दर्भ द्वारा कलश के जल को इक्कीस बार अभिमंत्रित कर उसमें शतमूल-चूर्ण डालकर कलश के जल से बालक के सिर को अभिसिंचित करें।
“ॐ नमो भगवते अरिहउ सुविहिनाहस्स पुष्पदन्तस्स सिज्झउमें भगवई महाविज्जा पुप्फे सुपुप्फे पुष्पंदते पुष्पवइ ठटः स्वाहा।"
कुम्भ में नारियल रखें। तत्पश्चात् बालक के सभी अंगों पर मदनफल, ऋद्धि एवं अरिष्ट से युक्त कंकण बांधे। फिर बालक के हाथ में चाँदी की मुद्रा दें और कण्ठ में सोने की मूलपत्रिका पहनाएं। अधिवासना एवं आच्छादन की क्रिया जिनबिम्ब के सदृश ही करें। फिर वस्त्र से आच्छादित बालक को पिता के समीप रखे। तत्पश्चात् लग्नवेला के आने पर गृहस्थ गुरु बालक के कान में निम्न मंत्र तीन बार बोले - "जं मूलं सुविहिजम्मेण जायं विग्यविणासणं ।
तं जिणस्स पइट्ठाए बालस्स सुशिवंकरं ।।। तत्पश्चात् महामहोत्सवपूर्वक शिशु को आवासगृह में ले जाएं। मूलनक्षत्र में जन्मा हो, तो मूल-वृक्षांकित तथा आश्लेषानक्षत्र में जन्मा हो, तो सांकित सोने या चाँदी का पत्रक शिशु के गले में पहनाएं। .
- यह मूल एवं आश्लेषानक्षत्र का शान्तिविधान है। गृहस्थ गुरु को स्वर्णमुद्रिका प्रदान करें। बालक को वस्त्र पहनाएं। कन्या को तीन वस्त्र पहनाएं। कुछ लोग मूलनक्षत्र के चतुर्थपाद में बालक का जन्म होने पर अन्य प्रकार से स्नात्र करने के लिए कहते हैं। दिग्बन्धन से पूर्व बलि दें तथा रक्षा करें। शिशु एवं माता के अंगों पर विधिवत् मंत्राक्षरों का आरोपण करें। इस प्रकार मंत्रसहित किया गया प्रथम स्नान मूल नक्षत्र के प्रथम पाद के करोड़ों दोषों का हरण करता है तथा पिता के लिए कल्याणकारी होता है। युगंधर्या द्वारा किया गया स्नान द्वितीयपाद के सभी दोषों का हरण कर लेता है तथा माता के
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 204 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान लिए कल्याणकारी होता है। सरसों से किया गया तृतीय स्नान तृतीयपाद के धनवृद्धि में बाधक सभी दोषों का नाश करता है।
सप्तधान्यों से युक्त एवं मंत्रपूर्वक किया गया चतुर्थ स्नान सर्वदोषों को दूर करता है तथा पिता के लिए सर्वसंपत्तिकारी होता है। शुभत्व की अभिवृद्धि के लिए अर्हत् परमात्मा के अठारह अभिषेक के स्नात्रजल के कुम्भ से बालक का अभिषेक करें। फिर शिशु को दर्पण दिखाएं तथा अर्घपात्र के भी दर्शन कराएं। गुरु प्रकट रूप से पद्म, मुद्गर, गरुड़, काम आदि मुद्राओं का दर्शन कराएं। बीजौरा, नारंगी एवं बैर आदि प्रमुख फलों से बालक के अंक (खोले) को भरकर गुरु वस्त्र से उसे ढक दे। लग्नसमय के आने पर बालक को उठाकर दधि में उसके मुख को दिखाएं। उसके बाद घी में और फिर सभी साक्षाप में उसे देखें।
मूलनक्षत्र का विधान करने पर दुरितों का नाश होता है, समत्व का स्फुरण होता हैं, कुशलमंगल होता है, सर्वमनोरथों की सिद्धि होती है। आश्लेषा और मूलनक्षत्र में उत्पन्न बालक के मुख को पिता तब तक न देखे, जब तक कि वह शान्तिककर्म न करवाएं। गण्डान्त, व्यतिपात, भद्रा आदि में बालक का जन्म होने पर सूतक के अन्त में शान्तिककर्म करना चाहिए। तीन पुत्रों के पश्चात् कन्या होने पर, तीन कन्याओं के पश्चात् पुत्र होने पर, जुड़वाँ कन्या होने पर, हीनाधिक अंगोपांग वाले शिशु का जन्म होने पर भी मूलस्नान करने के लिए कहा गया है। श्री पुष्पदन्त मंत्र से मंत्रित जल से स्नान के बाद बालक को कंकण बांधा जाता है। कुछ लोग इसके पूर्व दिग्बन्धन आदि भी करते हैं। दिशाबन्धन आगे वर्णित अनुसार करें। पूर्व आदि दिशाओं में निम्न मंत्र द्वारा पुष्प, अक्षत और नैवेद्य प्रक्षेपित करके दिग्बन्ध करें -
“ॐ इन्द्राय नमः इन्द्राण्य नमः। ॐ अग्नय नमः आग्नेय्यै नमः। ॐ यमाय नमः याम्यै नमः। ॐ निर्ऋतये नमः नैर्ऋत्यै नमः। ॐ वरुणाय नमः वारुण्यै नमः । ॐ वायवे नमः वायव्यै नमः। ॐ कुबेराय नमः कौबेर्ये नमः। ॐ ईशानाय नमः ईशान्यै नमः। ऊँ नागेभ्यो नमः नागाण्यै नमः। ॐ ब्रह्मणे नमः ब्रह्मण्यै नमः। ॐ इन्द्राग्निय
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 205 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशाननागब्रह्मणों दिगदिशाः स्वस्वशक्तियुताः सायुधबलवाहनाः स्वस्वदिक्षु सर्वदुष्टक्षयं सर्वविघ्नोपशांतिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु स्वाहा।"
फिर माता और शिशु के अंगों पर मंत्र का न्यास करे जैसे - मस्तक पर ऊँ, ललाट पर श्री, भौंहों पर बूं, नेत्रों पर ही, नासिका पर ही, कर्ण पर ऐं, कण्ठ पर ही, हृदय पर ही, भुजाओं पर हूं, पेट पर स्वां, नाभि पर क्लीं, लिंग पर हः, जंघा पर हवा, पैरों पर यः और सर्वसंधियों पर ब्लूं मंत्र का न्यास करें। तत्पश्चात् पूर्वोक्त श्लोक के पाठपूर्वक मूल के चतुर्थपाद के निवारण के लिए कही गई वस्तुओं से, अर्थात् सप्तधान्यों से युक्त जल से क्रमशः स्नान कराएं। फिर क्रमपूर्वक पूर्वोक्त शतमूली औषधि के जल से स्नान कराएं। उसके बाद पूर्वोक्त परमात्मा के स्नात्रजल से स्नान कराएं और फिर तीर्थोदक रूप शुद्धजल से स्नान कराएं। तत्पश्चात् शिशु को दर्पण एवं अर्घपात्र का दर्शन कराएं। बालक के सिर पर पद्म, मुद्गर, गरुड़, कामधेनु एवं पंचपरमेष्ठीरूप पंचमुद्रा करें (बनाएं)। फिर बिजौरा आदि फलसहित बालक को वस्त्र से ढ़ककर ले जाएं। लग्नवेला के आने पर पिता बालक के मुख पर से कपड़ा हटाकर क्रमशः दधि के पात्र एवं घी के पात्र में उसका मुख देखने के पश्चात् उसे साक्षात् रूप में देखें। यह विधि पूर्व में बताई गई शान्तिक-विधि के मध्य में अलग से करते हैं। - यह मूलनक्षत्र का विधान है।
पूर्वाषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए वरुणदेव की स्थापना करें और पूर्ववत् उनकी पूजा करके घृत, मधु, गुग्गुल एवं कमलों से आहुति दें। उत्तराषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए विश्वदेव की स्थापना कर पूजा करें तथा मधु, सर्वान्न एवं सर्व फलों से हवन करें। अभिजित्नक्षत्र की शान्ति के लिए ब्रह्मदेव की स्थापना एवं पूजा करके घृत, तिल, यव एवं दर्भ से हवन करें। श्रवण नक्षत्र की शान्ति के लिए विष्णु की स्थापना एवं पूजा कर, पूर्णतः घृत से लिप्त वस्तुओं का हवन करें। धनिष्ठानक्षत्र की शान्ति के लिए वसुओं की स्थापना और पूजा कर घृत, मधु एवं मुक्ताफल का हवन करें। शतभिषानक्षत्र की शान्ति के लिए वरुणदेव की पूजा कर घृत, मधु, फल एवं कमल
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 206 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान से हवन करें। पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र की शान्ति के लिए अज एक पाद अर्थात् सूर्य की पूजा करें, घी एवं मधु से हवन करें। उत्तराभाद्रपद नक्षत्र की शान्ति के लिए अहिर्बुध्न्य (सूर्य) की पूजा कर घी एवं मधु से हवन करें। रेवतीनक्षत्र की शान्ति के लिए सूर्यदेव की पूजा कर घृत एवं मधुसहित कमलों से हवन करें। फिर निम्न मंत्र द्वारा नक्षत्रों की सामूहिक पूजा करें -
“ॐ नमो अश्विन्यादिरेवतीपर्यन्तनक्षत्रेभ्यः सर्वनक्षत्राणि, सायुधानि, सवाहनानि, सपरिच्छदानि इह नक्षत्रशान्तिके आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं आचमनीयं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सन्निहितानि भवन्तु स्वाहा-स्वाहा, जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृहणन्तु शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा।" - यह नक्षत्रों की सामूहिक पूजा हुई।
तत्पश्चात् नक्षत्रपीठ पर दोष से रहित दस हाथ चौड़ा एवं अट्ठाईस हाथ लम्बा वस्त्र ढकें। शान्तिककर्म कर लेने पर जिस नक्षत्र की शान्ति करनी हो, उसका उसी विधि से हवन करें। शेष नक्षत्रों के हवन एवं पूजन पूर्ववत् करें। कुछ लोग इस विधि से भिन्न भी नक्षत्रशान्तिककर्म की विधि बताते हैं।
___अब लोकाचार के अनुसार, स्नानादि द्वारा की जाने वाली नक्षत्र शान्ति की विधि बताते हैं -
प्रथम नक्षत्र (अश्विनी) की शान्ति के लिए मदयन्ति, गन्ध, मदनफल, वच एवं मधु से वासित जल से स्नान करना शुभ कहा गया है। भरणीनक्षत्र की शान्ति के लिए सफेद सरसों, चीड़ का वृक्ष, एवं वच से वासित जल से स्नान करें। कृत्तिकानक्षत्र की शान्ति के लिए बरगद, सिरस एवं पीपल के पत्रों तथा गन्ध से वासित जल से स्नान करें। रोहिणीनक्षत्र की शान्ति के लिए बहुबीज से वासित जल से स्नान करें। मृगशीर्षनक्षत्र की शान्ति के लिए मोती एवं सोने से वासित जल से स्नान करें। आर्द्रानक्षत्र की शान्ति के लिए वच, अश्वगन्ध एवं प्रियंगु (केसर) के मिश्रित जल से स्नान करें। पुनर्वसुनक्षत्र की शान्ति के लिए गोबर, गोशाला की मिट्टी, श्वेत
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 207 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान चावल, पुष्प, दो हजार सरसों, प्रियंगु (केसर) एवं मदयन्ति से वासित जल से स्नान करें। आश्लेषा नक्षत्र की शान्ति के लिए सौ वाल्मिकों की मिट्टी से एवं मघा नक्षत्र की शान्ति के लिए देव-निर्माल्य से वासित जल से स्नान करें। इसी प्रकार पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्र की शान्ति के लिए लवणसहित घी एवं सेमल के वृक्ष से वासित जल से स्नान करने के लिए कहा गया है। उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र की शान्ति के लिए सौ पुष्प, प्रियंगु (केसर) एवं मोथा से वासित जल से स्नान करें। हस्तनक्षत्र की शान्ति के लिए सरोवर एवं गिरि (पर्वत) की मिट्टी से वासित जल से स्नान करें। चित्रानक्षत्र की शान्ति के लिए देव-निर्माल्य से वासित जल से स्नान करें। स्वातिनक्षत्र की शान्ति के लिए कमल-पुष्पों से वासित जल से स्नान करें। विशाखानक्षत्र की शान्ति के लिए मत्स्य-चम्पक से वासित जल से स्नान करें। अनुराधानक्षत्र की शान्ति के लिए नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से वासित जल से स्नान करें। ज्येष्ठानक्षत्र की शान्ति के लिए हरिताल मिट्टी से वासित जल से स्नान करें। मूलनक्षत्र की शान्ति के लिए शमी के दो हजार पत्रों से वासित जल से स्नान करें। पूर्वाषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए मधूक सहित पद्ममत्स्य से वासित जल से स्नान करें। उत्तराषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए उशीर (वीरणमूल /खस) चन्दन एवं पद्ममिश्रित जल से स्नान करें। श्रवणनक्षत्र की शान्ति के लिए नदी के दोनों किनारों की मिट्टीसहित स्वर्ण से वासित जल से स्नान करें। धनिष्ठा नक्षत्र की शान्ति के लिए घी, चीड़वृक्ष एवं मधु से वासित जल से स्नान करें। शतभिषानक्षत्र की शान्ति के लिए मदनफलसहित, सहदेवी, वृश्चिक, मदयन्ति, घी एवं चम्पा से वासित जल से स्नान करें। पूर्वाभाद्रपदानक्षत्र की शान्ति के लिए कमल एवं प्रियंगु (केसर) से वासित जल से स्नान करें। उत्तराभाद्रपदानक्षत्र की शान्ति के लिए अत्यन्त सुगन्धित द्रव्य से स्नान करें। राजाओं को पद्म, उशीर एवं चन्दन से वासित जल से स्नान करना प्रशस्त कहा गया है। रेवती नक्षत्र में बैल के सींगों से उत्खनित मिट्टी, मधु एवं घीसहित जल से स्नान करना चाहिए। विजययात्रा हेतु प्रस्थान करने वालो के लिए गोरोचन एवं अंजन से वासित जल से स्नान करना प्रशस्त माना गया है। पर्वत की वाल्मीक की, नदीमुख
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 208 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान की, नदी के दोनों किनारों की तथा इन्द्रस्थान की मिट्टी, बैल के सींगों से उत्खनित मिट्टी तथा गणिका के द्वार की मिट्टी लाएं। तदनन्तर गिरिशिखर पर उत्पन्न दूर्वा तथा वाल्मीक की मिट्टी से दोनों पाश्वों का प्रक्षालन करें। इन्द्रस्थान की मिट्टी से ग्रीवा और बैलों के सींगो से उत्खनित मिट्टी से बाहु का तथा राजा के द्वार की मिट्टी से हृदय का तथा वेश्या के द्वार की मिट्टी से हाथ का शोधन करें।
आगे लोकाचार के अनुसार युद्ध में प्रयाण करते समय राजा के नक्षत्र भोजन का उल्लेख किया गया है। नक्षत्र भोजन का यह विधान जैन परम्परा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है, अतः यहाँ उसका अनुवाद अपेक्षित नहीं है। यह विवरण वैदिक परम्परा का अनुसरण करके लिखा गया है, यह आचार्य वर्धमानसूरि की अपनी मान्यता नहीं है, अतः इस अंश का अनुवाद नहीं किया गया है।
ऐसा माना गया है कि राजा को युद्ध हेतु प्रयाण करते समय दिशा और नक्षत्र का विचार करके भोजन करने पर विजय प्राप्त होती है। स्वाद रहित भोजन, केश और मक्खी जिसमें गिरी हुई हो - ऐसा भोजन, दुर्गन्ध युक्त भोजन एवं अपर्याप्त भोजन का सेवन हानिप्रद होता है। राजा को प्रयाण के समय सरस, कोमल, रूचिपूर्ण एवं मनोऽनुकूल पर्याप्त भोजन ही करना चाहिए। व्यक्ति के जन्म का नक्षत्र आद्य या प्रथम नक्षत्र कहलाता है, दसवाँ नक्षत्र कर्म संज्ञक कहा गया है। इसी प्रकार पहले से सोलहवाँ नक्षत्र सांधातिक एवं अठारहवाँ नक्षत्र समुदाय संज्ञक है। बीसवें से तीसरा अर्थात् बाबीसवाँ नक्षत्र विनाशकारी होता हैं, किन्तु पच्चीसवाँ नक्षत्र मानस संज्ञक है, वह तो प्रत्यक्ष पुरुष ही है अर्थात् वांछित को पूर्ण करने वाला है। राजा तथा कुलाधिपति आदि प्रमुख पदों के अभिषेक हेतु नव नक्षत्र बताए गए है। उनमें अमिश्र संज्ञक एक पुष्य नक्षत्र, मिश्र संज्ञक, दो विशाखा एवं कृतिका नक्षत्र तथा शेष छ: - अश्विनि, भरणी, रोहिणी, मृगशिरा, आषाढ़ा और पुनर्वसु सम्मिलित है। उसमें पुष्य सर्वश्रेष्ठ है शेष साधारण है। इस विषय में दोष और गुण प्रधान पुरुष का ही सेवन करते है। कूर्मचक्र के अनुसार जिस देश का जो नक्षत्र है उसी में राजा का राज्याभिषेक किया जाना चाहिए। नक्षत्र की जो जातियाँ होती
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आचारदिनकर (खण्ड - ३ )
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
हैं, उन्हें ज्योतिषी के निराकरण के लिए मैं कहूंगा । पूर्वात्रय नक्षत्र अग्निहोत्री द्विजों के लिए, राजाओं एवं क्षत्रियों के लिए पुष्य नक्षत्र सहित उत्तरात्रय नक्षत्र निर्दिष्ट हैं। रेवती, अनुराधा, मघा, पुष्य एवं रोहिणी - ये नक्षत्र किसानों के लिए निर्दिष्ट किए गए है । पुनर्वसु, हस्त, अभिजित और अश्विनी ये नक्षत्र वैश्यों के लिए अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार हेतु लाभप्रद कहे गए है । मूल, आर्द्रा, पूर्वाषाढा और शतभिषा नक्षत्र उग्र जातियों के है । सेवार्थ स्वामी के समीप आए हुए सेवकों के लिए मृगशीर्ष, ज्येष्ठा, चित्रा, धनिष्ठा नक्षत्र अभीष्ट माने गए हैं। आश्लेषा, विशाखा, श्रवण एवं भरणी नक्षत्रों का निर्देश चाण्डाल जाति के लिए किया गया हैं ।
1
यदि सूर्य और शनि ग्रह मंगल ग्रह से ग्रसित हो या शनि ग्रह वक्र दृष्टि वाला हो अथवा सूर्य ग्रह ग्रहण से ग्रसित हो तो अथवा उल्कापात से हत हो तो वह मुखादि इन्द्रियों को पीड़ादायी होते है । ग्रहों की यह स्थिति क्षत-विक्षत कही जाती है । वे अपनी प्रकृति से विपरीत अवस्था में होने के कारण शत्रु वर्ग द्वारा पीड़ाकारी होते है । इसके विपरीत ग्रहों की स्थिति समृद्धिकारी मानी जाती है।
जन्म नक्षत्र में किया गया कार्य सफल नहीं होता है तथा रोगो के आगमन, धन का विनाश, कलह से पीड़ा एवं सांघातिक भेद का कारण होता है अथवा समुदायिक पीड़ा होने पर उसके निवारण के लिए संग्रहित द्रव्य का व्यय हो जाता है तथा कायिक विपदाओं के कारण चिन्ता होती है और मन दुःखी हो जाता है ।
नि उपद्रुत नक्षत्रों में व्यक्ति रोग-रहित, सुखी, शत्रु से रहित और धन से समृद्ध होता है। छह उपद्रुत नक्षत्रों में और अन्य तीन नक्षत्रों में राजा विनाश को प्राप्त होता हैं। शारीरिक कष्टों को उपशान्त करने के उपायों के अभाव में भी यदि शरीर की वेदना का अनुभव नहीं होता है, ऐसा व्यक्ति पक्ष में ही मर जाता है। ऐसा देवलऋषि का मत है । इन सभी विपत्तियों में एक दिन का उपवास करके किसी देवता या ब्राह्मण विशेष के समक्ष दूध प्रदान करने वाले वृक्षों की समिधाओं से अग्नि में हवन करें। गाय के दूध, सफेद बैल के गोबर और मूत्र तथा पूर्ण कोश वाले पत्तों के द्वारा स्नान करने
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 210 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान पर पवित्र आचार वाले व्यक्तियों के जन्म नक्षत्र के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं।
दस दिन तक अम्ल, मदिरा और मांस का सेवन न करता हुआ, शहद और घी की आहुति से हवन करें तथा दूर्वा, प्रियंगु, राई, शतावरी - इन सबको जल में डालकर स्नान करें। सांघातिक दोष से पीड़ित होने पर मांस, मधु तथा क्रूरता एवं कामवासना का त्याग करके, इन्द्रियों का संयम करते हुए, दूर्वा से हवन करें और यथा शक्ति दान देवें। सामुहिक रूप से पीड़ा देने वाले नक्षत्रों के लिए स्वर्ण एवं चाँदी का दान देकर उन्हें संतुष्ट करें और विनाश करने वाले नक्षत्रों में अन्न, पेय पदार्थ एवं भूमि आदि का गुणशाली व्यक्ति अर्थात् द्विजों को दान दें। मानसिक कष्ट के समय कमल के द्वारा हवन करें और पूज्य ब्राह्मणों को खीर का भोजन दे तथा हाथी के मस्तक से निकलने वाले मदाजल, शिरीष के पुष्प, चन्दन, तिल आदि से वासित जल से स्नान करें - यह लोक परम्परा के अनुसार नक्षत्र शान्ति की विधि हैं। __ अब ग्रह-शान्तिक की विधि बताते हैं -
सर्वप्रथम निम्न विधि से ग्रहों की स्थापना करें। विधिवत् पूजित तीर्थंकर की प्रतिमा के आगे गोबर से लिप्त शुद्ध भूमि पर चन्दन से लिप्त श्रीखण्ड (चन्दन) या श्रीपर्णी के पीट, अर्थात् चौकी पर स्व-स्व वर्णानुसार ग्रहों को स्थापित करें। उनकी स्थापना की विधि इस प्रकार है -
चावलों से मध्य में सूर्य, पूर्व-दक्षिण (आग्नेयकोण) में चन्द्र, दक्षिणदिशा में मंगल, पूर्व-उत्तर (ईशानकोण) में बुध, उत्तरदिशा में गुरु, पूर्वदिशा में शुक्र, पश्चिमदिशा में शनि, दक्षिणदिशा में राहु, पश्चिम-उत्तर दिशा में (वायव्यकोण में) केतु की स्थापना करें। सूर्य के लिए गोल मण्डल बनाएं, चन्द्र हेतु चतुष्काकार बनाएं, मंगल के लिए त्रिकोण आकार बनाएं, बुध के लिए बाण के सदृश आकृति बनाएं, गुरु के लिए पट्टिकाकार (आयताकार) बनाएं, शुक्र के लिए पंचकोण बनाएं और शनि के लिए धनुष की आकृति बनाएं। राहु हेतु शूर्प के आकार की आकृति बनाएं तथा केतु के लिए ध्वजा का आकार
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 211 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान बनाएं। इस प्रकार नौ मण्डल बनाएं। शुक्र और सूर्य को पूर्वमुखी, गुरु और बुध को उत्तरमुखी, शनि और सोम को पश्चिममुखी एवं शेष सभी ग्रहों को दक्षिणमुखी जानें। प्रतिष्ठा एवं अष्टाह्निका आदि के अवसर पर ग्रहों के मण्डल-स्थापना की यही विधि है। यह विधि सभी के लिए कल्याणकारी हो - इस प्रकार ग्रहों की स्थापना करने के बाद हाथ में पुष्पांजलि लेकर गृहशान्ति का निम्न पाट बोलें - "जगद्गुरुं नमस्कृत्य श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम्।
ग्रहशान्तिं प्रवक्ष्यामि लोकानां सुखहेतवे ।।१।। जिनेन्द्रैः खेचरा ज्ञेयाः पूजनीया विधिक्रमात् ।
पुष्पैर्विलेपनैधूपैनैवेद्यैस्तुष्टिहेतवे।।२।। पद्मप्रभस्य मार्तण्डश्चन्द्रश्चन्द्रप्रभस्य च।
वासुपूज्यो भूमिपुत्रो बुधोऽप्यष्टजिनेश्वराः ।।३।। विमलानन्तधर्माराः शान्तिः कुन्थुमिस्तथा।
___ वर्धमानो जिनेन्द्राणां पादपद्मे बुधं न्यसेत् ।।४।। ऋषभाजितसुपाङ अभिनन्दनशीतलौ।
सुमतिः संभवः स्वामी श्रेयांसश्च बृहस्पतिः ।।५।। सुविधिः कथितः शुक्रः सुव्रतश्च शनैश्चरः।
नेमिनाथो भवेद्राहुः केतुः श्रीमल्लिपार्श्वयोः ।।६।। जन्मलग्ने च राशौ च पीडयन्ति यदा ग्रहाः।
तदा संपूजयेद्धीमान्खेचरैः सहितान् जिनान् ।।७।। गन्धपुष्पादिभिधूपैनैवेद्यैः फलसंयुतैः।
वर्णसदृशदानैश्च वासोभिर्दक्षिणान्वितैः ।।८।। आदित्यसोममङ्गलबुधगुरुशुक्राः शनैश्चरो राहुः।
केतुप्रमुखाः खेटा जिनपतिपुरतोऽवतिष्ठन्तु।।६।। जिनानामग्रतः स्थित्वा ग्रहाणां तुष्टिहेतवे।
नमस्कारस्तवं भक्तया जपेदष्टोत्तरं शतम् ।।१०।। भद्रबाहुरुवाचेदं पंचमः श्रुतकेवली।
विद्याप्रवादतः पूर्वं ग्रहशान्तिविधिस्तवः ।।११।।"
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212 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
यह पाठ बोलकर पाँच वर्ण के पुष्पों की अंजलि ग्रहपट्ट पर प्रक्षिप्त करें। फिर निम्न मंत्र एवं स्तुतिपूर्वक क्रमशः सूर्य, चन्द्र आदि नवग्रहों की पूजा करें सूर्य की पूजा के लिए -
“ॐ घृणि घृणि नमः श्रीसूर्याय सहस्त्रकिरणाय रत्नादेवीकान्ताय वेदगर्भाय यमयमुनाजनकाय जगत्कर्मसाक्षिणे पुण्यकर्मप्रभावकाय पूर्वदिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय रक्तवस्त्राय कमलहस्ताय सप्ताश्वरथवाहनाय श्रीसूर्यः सायुधः सवाहनः सपरिच्छदः इह ग्रहशान्तिके आगच्छ-आगच्छ इदमर्घ्यं पाद्यं बलिं चरुं आचमनीयं गृहाण - गृहाण सन्निहितो भव-भव स्वाहा जलं गृहाण- गृहाण गन्धं पुष्पं अक्षतान् फलानि मुद्रां धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहाण - गृहाण शान्तिं कुरू कुरू तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुरू कुरू सर्वसमीहितं देहि देहि स्वाहा ।।"
"अदितेः कुक्षिसंभूतो भ (ध) रण्यां विश्वपावनः । काश्यपस्य कुलोत्तंसः कलिङ्गविषयोद्भवः । । १ । । रक्तवर्णः पद्मपाणिर्मन्त्रमूर्तिस्त्रयीमयः ।
आचारदिनकर (खण्ड-:
-३)
रत्नादेवीजीवितेशः सप्ताश्वो ऽरुणसारथिः ।। २ ।। एकचक्ररथारूढ़ : सहस्त्रांशुस्तमोपहः ।
ग्रहनाथ ऊर्ध्वमुखः सिंहराशौ कृतिस्थितिः । । ३ । । लोकपालो ऽनन्तमूर्तिः कर्मसाक्षी सनातनः ।
संस्तुतो वालखिल्यैश्च विघ्नहर्ता दरिद्रहा । । ४ । । तत्सुता यमुना वापी भद्रायमशनैश्चराः ।
अश्विनीकुमारौ पुत्रौ निशाहा दैत्यसूदनः । । ५ । । पुन्नागकुङ्कुमैर्लेपै रक्तपुष्पैश्च धूपनैः ।
-
द्राक्षाफलैर्गुड़ान्नेन प्रीणितो दुरितापहः । । ६ । । पद्मप्रभजिनेन्द्रस्य नामोच्चारेण भास्करः ।
शान्तिं तुष्टिं च पुष्टिं च रक्षां कुरू कुरू (ध्रुवं) द्रुतम् । ७ ।। सूर्यो द्वादशरूपेण माठरादिभिरावृतः ।
अशुभोऽपि शुभस्तेषां सर्वदा भास्करो ग्रहः । । ८ । । पूजा
के लिए
चन्द्र की
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 213 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
“ॐ पंचंचं नमश्चन्द्राय शम्भुशेखराय षोडशकलापरिपूर्णाय तारागणाधीशाय आग्नेयदिगधीशाय अमृतमयाय सर्वजगत्पोषणाय श्वेतशरीराय श्वेतवस्त्राय श्वेतदशवाजिवाहनाय सुधाकुम्भहस्ताय श्रीचन्द्रः सायुधः....... शेष पूर्ववत्।"
“अत्रिनेत्रसमुद्भूतः क्षीरसागरसंभवः ।
___ जातो यवनदेशे च चित्रायां समदृष्टिकः।।१।। श्वेतवर्णः सदाशीतो रोहिणीप्राणवल्लभः ।
नक्षत्र ओषधीनाथस्तिथिवृद्धिक्षयंकरः ।।२।। मृगाङ्कोऽमृतकिरणः शान्तो वासुकिरूपभृत् ।
शम्भुशीर्षकृतावासो जनको बुधरेवयोः ।।३।। अर्चितश्चन्दनैः श्वेतैः पुष्पैधूपवरेक्षुभिः।
नैवेद्यपरमान्नेन प्रीतोऽमृतकलामयः ।।४।। चन्द्रप्रभजिनाधीशनाम्ना त्वं भगणाधिपः ।
प्रसन्नो भव शान्तिं च कुरु रक्षां जयश्रियम् ।।५।।" मंगल की पूजा के लिए -
ऊँ ह्रीं हूं हं सः नमः श्रीमङ्गलाय दक्षिणदिगधीशाय विद्रुमवर्णाय रक्ताम्बराय भूमिस्थिताय कुद्दालहस्ताय श्रीमङ्गलाय सायुधः.......शेष पूर्ववत्।" "भौमो हि मालवे जात आषाढ़ायां धरासुतः।
रक्तवर्ण ऊद्ध्वदृष्टिर्नवार्चिस्साक्षको बली ।।१।। प्रीतः कुकुमलेपेन विद्रुमैश्च विभूषणैः।
पूर्ण वेद्यकासारै रक्तपुष्पैः सुपूजितः ।।२।। सर्वदा वासुपूज्यस्य नाम्नासौ शान्तिकारकः।
रक्षां कुरू धरापुत्र अशुभोपि शुभो भव ।।३।। बुध की पूजा के लिए -
"ऊँ ऐं नमः श्रीबुधाय उत्तरदिगधीशाय हरितवर्णाय हरितवस्त्राय कलहंसवाहनाय पुस्तकहस्ताय श्रीबुध सायुधः....... शेष पूर्ववत्।" “मगधेषु धनिष्ठायां पंचार्चिः पीतवर्णभृत्।
कटाक्षदृष्टिकः श्यामः सोमजो रोहिणीभवः ।।१।। कर्कोटरूपो रूपाढ्यो धूपपुष्पानुलेपनैः।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 214 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
दुग्धान्नैर्वरनारङ्गैस्तर्पितः सोमनन्दनः ।।२।। विमलानन्तधर्माराशान्तिकुन्थुनमिस्तथा। विमलानातमाशान्त
____ महावीरादिनामस्थः शुभो भूयात्सदा बुधः ।।३।। गुरु की पूजा के लिए -
“ॐ जीव जीव नमः श्रीगुरवे बृहतीपतये ईशानदिगधीशाय सर्वदेवाचार्याय सर्वग्रहबलवत्तराय कांचनवर्णाय पीतवस्त्राय पुस्तकहस्ताय हंसवाहनाय श्रीगुरो सायुधः....... शेष पूर्ववत् ।" "बृहस्पतिः पीतवर्ण इन्द्रमन्त्री महामतिः ।
द्वादशाZिर्देवगुरु पद्मश्च समदृष्टिकः ।।१।। उत्तराफल्गुनीजातः सिन्धुदेशसमुद्रवः ।
दधिभाजनजम्बीरैः पीतपुष्पैर्विलेपनैः ।।२।। ऋषभाजितसुपाङ अभिनंदनशीतलौ।
सुमतिः संभवः स्वामी श्रेयांसो जिननायकः ।।३।। एतत्तीर्थकृतां नाम्ना पूजया च शुभो भव।
शान्तिं तुष्टिं च पुष्टिं च कुरू देवगणार्चितः ।।४।।" शुक्र की पूजा के लिए -
“ॐ सुं नमः श्रीशुक्राय दैत्याचार्याय आग्नेयदिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय श्वेतवस्त्राय कुम्भहस्ताय तुरगवाहनाय श्रीशुक्र सायुधः ...... शेष पूर्ववत् ।
“शुक्रः श्वेतो महापद्मः षोडशार्चिः कटाक्षदृक् ।
____ महाराष्ट्रेषु ज्येष्ठायामथाभूदृगु- नन्दनः ।।१।। दानवार्यो दैत्यगुरुर्विद्यासंजीविनीविधिः ।
सुगन्धचन्दनालेपैः सितपुष्पैः सुपूजितः ।।२।। घृतनैवेद्यजम्बीरैस्तर्पितो भार्गवो ग्रहः।
नाम्ना सुविधिनाथस्य हृष्टोऽरिष्टनिवारकः ।।३।।" शनि की पूजा के लिए -
"ऊँ शः नमः शनैश्चराय पश्चिमदिगधीशाय नीलदेहाय नीलाम्बराय परशुहस्ताय कमठवाहनाय श्रीशनैश्चर सायुधः...... शेष पूर्ववत्।"
"शनैश्चरः कृष्णवर्णश्छायाजो रेवतीभवः ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 215 प्रतिष्टाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
__ नीलवर्णः सुराष्ट्रायां शङ्खः पिङ्गलकेशकः।।१।। रविपुत्रो मन्दगतिः पिप्पलादनमस्कृतः।
रौद्रमूर्तिरधोदृष्टिः स्तुतो दशरथेन च।।२।। नीलपत्रिकया प्रीतस्तैलेन कृतलेपनः।
उत्पित्तकाचकासारतिलदानेन तर्पितः ।।३।। मुनिसुव्रतनाथस्य आख्यया पूजितः सदा।
अशुभोऽपि शुभाय स्यात्सप्तार्चिः सर्वकामदः ।।४।।" राहु की पूजा के लिए -
"ॐ क्षः नमः श्रीराहवे नैर्ऋतिदिगधीशाय कज्जलश्यामलाय श्यामलवस्त्राय परशुहस्ताय सिंहवाहनाय श्रीराहो सायुधः...... शेष पूर्ववत् । "शिरोमात्रः कृष्णकान्तिर्ग्रहमल्लस्तमोमयः।
पुलकश्च अधोदृष्टिर्भरण्यां सिंहिकासुतः।।१।। संजातो बर्बरकूले सधूपैः कृष्णलेपनैः।
नीलपुष्पैर्नारिकेलैस्तिलमाषैश्च तर्पितः ।।२।। राहुः श्रीनेमिनाथस्य पादपो ऽतिभक्तिभाक् ।
पूजितो ग्रहकल्लोलः सर्वकाले सुखावहः ।।३।। केतु की पूजा के लिए -
“ॐ नमः श्रीकेतवे राहुप्रतिच्छदाय श्यामाङ्गाय श्यामवस्त्राय पन्नगवाहनाय पन्नगहस्ताय श्रीकेतो सायुधः....... शेष पूर्ववत् ।' "पुलिन्दविषये जातोऽनेकवर्णोऽहिरूपभृत्।।
आश्लेषायां सदा क्रूरः शिखिभौमतनुः फणी।।१।। पुण्डरीककबन्धश्च कपालतोरणः खलः।
कीलकस्तामसो धूमो नानानामोपलक्षितः ।।२।। मल्लेः श्रीपार्श्वनाथस्य नामधेयेन राक्ष्यसौ।
दाडिमैश्च विचित्रात्रैस्तर्प्यते चित्रपूजया।।३।। राहोः सप्तमराशिस्थः कारणे दृश्यतेऽम्बरे।
अशुभोऽपि शुभो नित्यं केतुर्लोके महाग्रहः ।।४।।" तत्पश्चात् नवग्रहों की पीठ के ऊपर सदश एवं दोष रहित नौ हाथ-परिमाण वस्त्र रखें तथा निम्न मंत्र बोलें -
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 216 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान "जिननामकृतोच्चारा देशनक्षत्रवर्णकैः ।
स्तुताः च पूजिता भक्त्या ग्रहाः सन्तु सुखावहाः ।।१।। जिननामाग्रतः स्थित्वा ग्रहाणां सुखहेतवे।
नमस्कारशतं भक्त्या जपेदष्टोत्तरं नरः ।।२।। एवं यथानाम कृताभिषेका आलेपनैबूंपनपूजनैः च फलैः च नैवेद्यवरैर्जिनानां नाम्ना ग्रहेन्द्राः शुभदा भवन्तु ।।३।। साधुभ्यो दीयते दानं महोत्साहो जिनालये।
चतुर्विधस्य संघस्य बहुमानेन पूजनम् ।।४।। भद्रबाहुरुवाचेदं पंचमः श्रुतकेवली।
विद्याप्रवादातः पूर्वात् ग्रह शान्ति विधिं शुभम् ।।५।।" सभी ग्रहों के मध्य में उक्त स्तुतिपूर्वक पुष्प, फल एवं नैवेद्य से पूजा करें। अन्यत्र सूर्यादि ग्रहों की पूजा के लिए क्रमशः निम्न पुष्प बताए गए हैं -
१. रक्त करवीर २. कुमुद ३. जासूद ४. चम्पक ५. शतपत्री ६. जाई ७. बकुल ८. कुन्द और ६. पंचवर्णपत्री। इसी प्रकार उनके लिए क्रमशः ये फल बताए हैं - १. द्राक्षा २. सुपारी ३. नारंगी ४. जम्बीर ५. बिजौरा ६. खजूर ७. नारियल ८. दाडिम ६. खारक १०. अखरोट (ज्ञातव्य है आचारदिनकर में ६ के स्थान पर १० फल उल्लेखित हैं।) नैवेद्य का क्रम इस प्रकार है - १. गुड़ौदन २. खीर ३. कसार ४. घृतपुर ५. दधिकरम्ब ६. भक्तघृत ७. किशर ८. माष ६. सावरथउ। सूर्य की शान्तिक के लिए घी, मधु एवं कमल से हवन करें। सभी ग्रहों की शान्ति में उनके मूलमंत्र से १०८ बार आहुति दें तथा सभी हवनों में पीपल, बरगद एवं प्लक्ष की समिधाएँ काम में लें। चावल, श्वेतवस्त्र एवं अश्व का दान करें। चन्द्र की शान्ति के लिए घी एवं सर्वौषधि का हवन करें तथा चावल, मोती एवं श्वेत वस्त्र का दान करें। मंगल की शान्ति के लिए घी, मधु एवं सर्व धातु का हवन करें तथा लाल वस्त्र एवं लाल अश्व का दान करें। बुध की शान्ति के लिए घी, मधु एवं प्रियंगु (केशर) का हवन करें तथा मरकत (पन्ना) एवं गाय का दान करें गुरु की शान्ति के लिए घी, मधु, जौ एवं तिल का हवन करें तथा स्वर्ण
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 217 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान एवं पीत वस्त्र का दान करें। शुक्र की शान्ति के लिए पंचगव्य का हवन करें तथा श्वेत रत्न एवं श्वेत गाय का दान करें। शनि की शान्ति के लिए तिल एवं घी का हवन करें तथा काली गाय, बैल एवं नीलमणि का दान करें। राहु की शान्ति के लिए तिल एवं घी का हवन करें तथा भेड़ एवं शास्त्रादि का दान करें। केतु की शान्ति के लिए तिल एवं घी का हवन करें तथा ऊन एवं लोहे का दान करें। नवग्रहों का हवनकुण्ड त्रिकोण होता है। तत्पश्चात् निम्न मंत्र से ग्रहों की सामूहिक पूजा करें -
“ॐ नमः सूर्यसोमांगारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतुभ्यो ग्रहेभ्यः सर्वग्रहाः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः इह ग्रहशान्तिके आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमयं. आचमनीयं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सन्निहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा जलं गृह्णन्तु-गृहणन्तु गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहणन्तु-गृहणन्तु शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्व समीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा।
बालावबोध के लिए देशभाषा के अनुसार प्रकारान्तर से ग्रहों की पूजा-विधि निम्न प्रकार से भी बताई गई है।
रविग्रह की पूजा के लिए -
श्री आदिनाथ परमात्मा के आगे कुंकुम एवं चन्दन से रविबिम्ब का आलेखन करें। बिम्ब की पट्टलिका पर ६ थाली में ६ सुपारी, ६ पत्ते, ६ नारियल, १ काचाकपूरवालु, ६ सकोरे नैवेद्य लापसी, १ पीतवर्ण कपड़ा, १ द्रामु पहिरावणी, ६ लोहडिया (?) रखें तथा तिल, यव एवं घी से हवन करें।
चन्द्रग्रह की पूजा के लिए - चंद्रप्रभु भगवान् के आगे चन्दन से चन्द्रबिम्ब का आलेखन करें तथा बिम्ब की पट्टलिका पर ६ थाली में € पत्ते, ६ सुपारी, १ बिजौरा, १ काचाकपूरवालु, ६ सकोरे नैवेद्य, १ पहिरावणीजादरू खण्डु (श्वेतवस्त्र), १ द्रामु, २ लोहड़िया रखें एवं हवन करें। मंगलग्रह की पूजा के लिए - कुंकुम से मंगल ग्रह का आलेखन करें। ६ थाली में ६ पत्ते, € सुपारी, १ नारंगी, १ काचाकपूरवालु, १ नैवेद्य लाडू सत्कचूरि एवं लालवस्त्र, १ पहिरावणी
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
मुद्रा, ६ लोहड़िया रखें एवं तिल, यव एवं घी से हवन करें। बुध की पूजा के लिए गोरोचन से बुध के बिम्ब का आलेखन करें । ६ थाली में ६ पत्ते, ६ सुपारी, १ करूणाफल, ६ सकोरे नैवेद्य बलासत्कवाकुला, १ मुद्रा, ६ लोहड़िया एवं १ पहिरावणी रूप सुनहरी वस्त्र रखें तथा तिल, यव एवं घी से हवन करें। बृहस्पति की पूजा के लिए जिनेश्वर के आगे सोने या कुंकुम से बृहस्पति के बिम्ब का आलेखन करें । १ पीली यज्ञोपवीत, ६ थाली में ६ पत्ते, ६ सुपारी, १ काचाकपूरवालु, ३ सकोरे नैवेद्य घूघरीमाणा, १ पहिरावणी पीलावस्त्र, १ मुद्रा, ६ लोहड़िया, १ दाड़िमफल रखें एवं तिल, यव तथा घी से हवन करें। शुक्र की पूजा के लिए चांदी या कुंकुम से चंद्रप्रभु परमात्मा के आगे शुक्र के बिम्ब का आलेखन करें ६ थाली में ६ पत्ते, ६ सुपारी, १ काचाकपूरवालु, ६ केला (कदली फल ), १ पहिरावणी श्वेतवस्त्र ( जादरुखण्ड), १ मुद्रा, ६ लोहड़िया, मुहाली नैवेद्य रखें तथा तिल, यव एवं घी से हवन करें। शनि की पूजा के लिए कस्तूरी से राहु के बिम्ब का आलेखन करें । ६ थाली में पत्ते, सुपारी, १ काचाकपूरवालू, ६ नैवेद्य की वाटकी, १ मुद्रा, ६ लोहड़िया, १ पहिरावणी काला कपड़ा ( पाटुखण्ड ) एवं १ नारियल रखें तथा तिल, यव एवं घी से हवन करें। विल्कल - तारक की गमन - विधि बताते हैं जब ऊपर की ओर जाता है तब शुक्र अस्तगत की तरफ जाता है । जिस समय शुक्र दिखाई दे, उस समय खड़े होकर कुहूलाड़क ( कुल्हाड़ी / कुल्हड़ ) में जल और मिट्टी लेकर मार्ग में खोदकर डाल दें और उसके ऊपर से जाएं। जिस गाँव में स्थित हों, उस गाँव की अग्रभूमि पर जाकर जमीन पर अपने शरीर का घर्षण करें। फिर गाँव में रहने पर तारक-पीड़ा नहीं होती है । प्रकारान्तर से यह ग्रह - पूजा की विधि बताई गई है ।
अब लोकाचार के अनुसार ग्रह - शान्ति हेतु स्नान की विधि
बताते हैं
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विद्वानों द्वारा सूर्यग्रह की शान्ति के लिए मनःसिल, देवदारू, कुंकुम, विरणमूल, यष्टि (लता) मधु एवं कमल से वासित जल से स्नान करना हितकारी माना गया है। विषम स्थिति में लाल पुष्पों से
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आचार्गदनकर (खण्ड-३) 219 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान वासित जल से स्नान करने के लिए कहा गया है। चन्द्रग्रह से उत्पन्न दोषों की शान्ति के लिए पंचगव्य, हाथी के गण्डस्थल का मद, शंख, सीप, कमल एवं स्फटिक से वासित जल से स्नान करें - यह स्नान राजाओं के लिए बताया गया है। मंगलग्रह की शान्ति के लिए बिल्व, चन्दन, बला, लालपुष्प, हिंगुल, प्रियंगुलता, मौलसिरी वृक्ष एवं मांसियुत जल से स्नान करने के लिए कहा गया है। पृथ्वी से उत्पन्न बुधग्रह के प्रभाव से होने वाले अशुभ दोषों का निवारण करने के लिए विद्वानों ने गोबर, अक्षत, फल, सरोचन (एक प्रकार की औषधि), चम्पकवृक्ष, सीप, भवमूल एवं सोने से वासित जल से स्नान करने के लिए कहा है। गुरु ग्रह से उत्पन्न दोषों की शान्ति के लिए मालती के फूल, सफेद सरसों, मदयन्तिका की कोपलों तथा मधु-मिश्रित जल से स्नान करने के लिए कहा गया है। फल, मूल एवं कुंकुमसहित इलायची तथा शिलाजीत से वासित जल से स्नान करने से शुक्रग्रह से उत्पन्न दोषों की निःसंशय रूप से शान्ति होती है। काले तिल, अंजन, रोध्र, बला, सौपुष्प, अघन एवं गीले धान्य से वासित जल से स्नान करने पर रविपुत्र शनिग्रह से उत्पन्न प्रतिकूल दोषों का नाश होता है - ऐसा आचार्यों ने कहा है। त्रिशास्त्र में कहा गया है कि सद् औषधियों से रोगों का नाश होता है, तांत्रिक पद्धति से जैसे दुःख और भय का नाश होता है, उसी प्रकार से ऊपर कही गई विधि के अनुसार स्नान करने से निश्चय ही अशुभ दोषों का नाश होता है। अर्क (आकड़ा), कमल, खदिर, अपामार्ग, पीपल, सौंठ, उदुम्बर वृक्ष की शाखाएँ, शमी, दूर्वा एवं कुश आदि की एक बालिश्त की समिधाओं से सूर्य आदि ग्रह-मण्डल के लिए हवन करें - ऐसा सरल और सौम्य बुधजनों का कथन है। गाय, शंख, लाल बैल, स्वर्ण, पीतवस्त्र, श्वेत अश्व, दूध देने वाली गाय, काला लोहा, बड़ा बकरा - सूर्यादि ग्रहों की मुनिजनों ने यह दक्षिणा बताई है। स्नान, दान, हवन एवं बलि से ग्रह संतुष्ट होते हैं। प्रतिदिन देवता और ब्राह्मण को नमस्कार, गुरु की आज्ञा का पालन, साधुओं द्वारा शास्त्र एवं धर्मकथा का श्रवण और पवित्र भावों से जप, दान, यज्ञ एवं हवन, दर्शन करने से पुरुष को ग्रह पीड़ित नहीं करते हैं। ग्रहों की विषम स्थिति में विकाल में भ्रमण, शिकार
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान और हाथी, घोड़े आदि वाहनों से साहसपूर्वक अति दूरी तक गमन न करना, दूसरों के घर में जाना आदि कार्यों का राजा को वर्जन करना चाहिएं। मूंगे को धारण करने से मंगल और सूर्यग्रह, चांदी को धारण करने से शुक्रग्रह, स्वर्ण को धारण करने से बुधग्रह, मोती को धारण करने से चन्द्रग्रह, लोहे को धारण करने से शनिग्रह एवं राजावर्त को धारण करने से बृहस्पति आदि अन्य सभी ग्रह संतुष्ट होते हैं । अन्य मतानुसार सूर्यग्रह की शान्ति के लिए माणक, चन्द्रग्रह की शांति के लिए निर्मल मोती, मंगलग्रह की शान्ति के लिए मूंगा, बुधग्रह की शान्ति के लिए मरकत (पन्ना), देवताओं के गुरु बृहस्पति ग्रह की शान्ति के लिए पुखराज, असुर के अमात्य शुक्रग्रह की शान्ति के लिए हीरा, शनिग्रह की शान्ति के लिए नीलम, अन्य ग्रह, अर्थात् राहुग्रह की शान्ति के लिए गोमेध, केतुग्रह की शान्ति के लिए वैडूर्य ( लहसुनिया ) धारण करें। राहु-केतु की शान्ति हेतु शनिवार को पूजा करें । जिस प्रकार कवच के धारण करने पर बाणों के प्रहारों से रक्षा होती है, उसी प्रकार उपर्युक्त रत्नों के धारण करने से ग्रहों के उपघात से शान्ति होती है । नक्षत्रों और ग्रहों की विशेष पूजा में अपेक्षित ग्रह या नक्षत्र को प्रधान रूप से स्थापित करें और उनकी पूजा एवं हवन करें। अन्य नक्षत्रों एवं ग्रहों को परिकर प्रतिष्ठा की भाँति स्थापित करके उनकी पूजा करें। नक्षत्रों और ग्रहों के विसर्जन की विधि पूर्ववत् ही जानें, अर्थात् " यान्तु दे., आज्ञाहीनं. " इत्यादि क्रिया से करें । यह ग्रह - शान्तिक की विधि है ।
सूर्यादि ग्रहों की स्तुति निम्नांकित है
“जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् । तमोरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ।।१।। दध्याभं खण्डकाकारं क्षीरोदधिसमुद्भवम् । नमामि सततं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम् । । २ । । धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम् । कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम् || ३ || प्रियङ्गुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम् । सौम्यं सोमगणोपेतं नमामि शशिनः सुतम् ।।४ ।। देवानां च ऋषीणां च गुरुं कांचनसंनिभम् । बुद्धभूतं त्रिलोकस्य प्रणमामि बृहस्पतिम् ।। ५ ।। हेमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम् । सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं
प्रणमाम्यहम् ।।६ ।।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 221 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान . नीलांजनसमाकारं रविपुत्रं महाग्रहम्। छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम् ।।७।। अर्धकायं महावीर्य चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ।।८।। पलालधूमसंकाशं तारकाग्रहमर्दकम्। रुद्राद्रुद्रतमं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम् ।।६ ।। इदं व्यासमुखोद्भूतं यः पठेत्सुसमाहितः। दिवा वा यदि वा रात्रौ तेषां शान्तिर्भविष्यति ।।१०।। ऐश्वर्यमतुलं चैवमारोग्यं पुष्टिवर्धनम् । नरनारीवश्यकरं भवेत्दुःस्वप्ननाशनम् ।।११।। ग्रहनक्षत्रपीडां च तथा चाग्निसमुद्रवम्। तत्सर्वं प्रलयं याति व्यासो ब्रूते न संशयः ।।१२।।" __ ग्रहपूजा के अन्त में शान्ति हेतु यह पाठ तीन बार बोलें।
आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के उभयधर्मस्तम्भ में शान्ताधिकार-कीर्तन नामक यह चौंतीसवाँ उदय समाप्त होता है।
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
222 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान पैंतीसवाँ उदय पौष्टिक-कर्म-विधि
अब पौष्टिक-कर्म की विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है -
चंदन से लिप्त पीठ के ऊपर श्री युगादिदेव ऋषभदेव की जिन-प्रतिमा को स्थापित कर पूर्ववत् पूजा करें। यदि आदिनाथ भगवान् का बिम्ब प्राप्त न हो, तो पूर्ववत् किसी भी तीर्थंकर की प्रतिमा में ऋषभदेव के बिम्ब की कल्पना करके बृहत्स्नात्रविधि के अनुसार पच्चीस पुष्पांजलि अर्पण करें। फिर प्रतिमा के आगे पूर्ववत् पाँच पीठ स्थापित कर, प्रथम पीट पर पूर्व की भाँति चौसठ इन्द्रों की स्थापना एवं पूजा करें। द्वितीय पीठ पर पूर्ववत् दिक्पालों की स्थापना करें एवं पूजन करें। तृतीय पीठ पर पूर्ववत् क्षेत्रपाल सहित नवग्रहों की स्थापना एवं पूजा करें। चौथे पीठ पर पहले की तरह ही सोलह विद्या देवियों की स्थापना एवं पूजा करें। पाँचवें पीठ पर षट् द्रह देवियों की स्थापना करें। अब उसकी पूजन विधि बताते हैं -
सर्वप्रथम पुष्पांजलि लेकर निम्न छंद से पुष्पांजलि अर्पण करें
"श्रीही घृतयः कीर्तिर्बुद्धिर्लक्ष्मीश्च षण्महादेव्यः। पौष्टिक समये संघस्य वांछित पूरयन्तु मुद्रा।।"
फिर निम्न मंत्र बोलकर पीठ पर क्रमशः छहों देवियों की स्थापना करें -
“ॐ श्रियै नमः ऊँ ह्रियै नमः ॐ घृतये नमः ऊँ कीर्तये नमः ॐ बुद्धये नमः ऊँ लक्ष्म्यै नमः।।"
श्रियादेवी की पूजा के लिए निम्न मूल मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा करें -
मूलमंत्र - ऊँ श्रीं श्रिये नमः। "अम्भोजयुग्मवरदाभयपूतहस्ता पद्मासना कनकवर्णशरीरवस्त्रा।
सर्वांगभूषणधरोपचितांगयष्टि: श्रीः श्रीविलाससमतुलं कलयत्वनेकम् ।।
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान “ॐ श्रियै पद्मद्रहनिवासिन्यै श्रियै नमः श्रि इह पौष्टिके आगच्छ-आगच्छ सायुधाः सवाहनाः सपरिकराः इदमर्थ्यं . आचमनीयं गृहाण - गृहाण सन्निहिता भव भव स्वाहा जलं गृहाण - गृहाण गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृहाण- गृहाण शान्तिं कुरू कुरू तुष्टिं कुरू कुरू पुष्टिं कुरू कुरू ऋद्धि कुरू कुरू वृद्धि कुरू कुरू सर्वसमीहितानि देहि देहि स्वाहा । "
ह्रियंदेवी की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा
आचारदिनकर (खण्ड-:
३)
करें -
मूलमंत्र "ॐ ह्रीं हिये नमः ।"
“धूम्रांगयष्टिरसिखेटकबीजपूरवीणाविभूषितकरा घृतरक्तवस्त्रा । ह्रीर्घोरवारणविघातनवाहनढ्या पुष्टीश्च पौष्टिकविधौ विदधातु
नित्यम् ।।"
ॐ नमो हिये महापद्मद्रहवासिन्यै हि इह पौष्टिके...... शेष
पूर्ववत् । "
धृतिदेवी की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा
करें -
मूलमंत्र – “ ॐ ध्रां धीं धौं धः धृतये नमः । "चंद्रोज्वलांगवसना शुभमानसौकः पत्रिप्रयाणकृदनुत्तरसत्प्रभावा । स्रक्पद्मनिर्मलकमण्डलुबीजपूरहस्ता धृतिं धृतिरिहानिशमादधातु ।।" “ॐ नमो धृतये तिगिच्छिद्रहवासिन्यै धृते इह पौष्टिके..... शेष पूर्ववत् । "
कीर्तिदेवी की पूजा
करें
कर्मणात्र ।। "
मूलमंत्र - "ॐ श्रीं शः कीर्तये नमः । " “शुक्लांगयष्टिरुडुनायकवर्णवस्त्रा हंसासना धृतकमण्डलुकाक्षसूत्रा। श्वेताब्जचामरविलासिकरातिकीर्तिः कीर्तिं ददातु वरपौष्टिक
पूर्ववत् । "
के लिए निम्न मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा
"ॐ नमः कीर्तये केशरिद्रहवासिन्यै इह पौष्टिके शेष
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आचारदिनकर (खण्ड-३) ___224 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
बुद्धिदेवी की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा करें -
मूलमंत्र - “ऊँ ऐं धीं बुद्धये नमः ।" “स्फारस्फुरत्स्फटिकनिर्मलदेहवस्त्रा शेषाहिवाहनगतिः पटुदीर्घशोभा।
वीणोरुपुस्तकवराभयभासमानहस्ता सुबुद्धिमधिकां प्रददातु बुद्धिः ।।
“ॐ नमो बुद्धये महापुण्डरीकद्रहवासिन्यै बुद्धे इह पौष्टिके.... .. शेष पूर्ववत्।
लक्ष्मीदेवी की पूजा के लिए निम्न मंत्र बोलकर सर्वप्रकारी पूजा करें -
मूलमंत्र - “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः।" “ऐरावणासनगतिः कनकाभवस्त्रदेहा च भूषणकदम्बकशोभमाना। मातंगपद्मयुगलप्रसृतातिकान्तिर्वेदप्रमाणककरा जयतीह लक्ष्मीः।।"
“ऊँ नमो लक्ष्म्यै पुण्डरीकद्रहवासिन्यै लक्ष्मि इह पौष्टिके..... शेष पूर्ववत् ।
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक सभी देवियों की सामूहिक पूजा करें
“ॐ श्रीं ह्रीं धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यौ वर्षधरदेव्यः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः इह पौष्टिके आगच्छन्तु-आगच्छन्तु इदमर्थ्य आचमनीयं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु सन्निहिता भवन्तु-भवन्तु स्वाहा जलं गृह्णन्तु-गृह्णन्तु गन्धं अक्षतान् फलानि मुद्रां पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं सर्वोपचारान् गृह्णन्तु-गृह्णन्तु शान्तिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु सर्वसमीहितानि यच्छन्तु-यच्छन्तु स्वाहा ।"
इस प्रकार पंचम पीट पर षदेवियों (षष्ठी माताओं) की स्थापना एवं पूजा करके प्रत्येक देवी हेतु उसके मूलमंत्र से हवन करें। पौष्टिककर्म में सभी हवन अष्टकोण के अग्निकुंड में, आम्रवृक्ष की समिधाओं तथा इक्षुदण्ड, खजूर, द्राक्षा, घृत और दूध से होते हैं। तत्पश्चात् पूर्व में प्रक्षिप्त की गई पुष्पांजलि वाले जिनबिम्ब पर बृहत्स्नात्रविधि के द्वारा सम्पूर्ण स्नात्रविधि करें। तदनन्तर स्नात्रजल एवं तीर्थों के जल को मिलाकर उस मिश्रित जल के कलश को
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आचार्गदनकर (खण्ड-३) 225 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान शान्ति-कलश के समान ही व्यवस्थित रूप से स्थापित किए हुए पौष्टिक-कलश में डालें। उसमें सोने-चाँदी की दो मुद्राएँ एवं एक नारियल डालें। पूर्ववत् ही कलश की सम्यक् प्रकार से पूजा करें। फिर छत से लेकर कलश के तल को स्पर्शित करता हुआ सदश एवं दोषरहित वस्त्र बांधे, जो ऊपर से नीचे लटकता हुआ हो। पाँचों पीठों को क्रमशः चौंसठ, दस, दस, सोलह एवं छ: हाथ-परिमाण वस्त्र से ढकें। गुरु, स्नात्रकार तथा गृह-अध्यक्ष (प्रमुख) पूर्व की भाँति ही कंकण से युक्त कलश धारण करें। गुरु को स्वर्ण-कंकण, मुद्रिका तथा सदश एवं दोष-रहित श्वेत रेशमी वस्त्र दें। फिर दो स्नात्रकार पूर्व की भाँति अखण्डित धारा से शुद्ध जल कलश में डालें। उस समय गृहस्थ गुरु उस गिरती हुई जलधारा को पौष्टिक-दण्डक का पाठ करते हुए कुश द्वारा कलश में डाले। पौष्टिक-दण्डक इस प्रकार है -
"येनैतद्भवनं निजोदयप दे सर्वाः कला निर्मलं शिल्पं (शल्यं) पालनपाठनीतिसुपथे बुद्ध्या समारोपितम्। श्रेष्ठाद्यः पुरुषोत्तमस्त्रिभुवनाधीशो नराधीशतां किंचित्कारणमाकलय्य कलयन्नर्हन् शुभायादिमः ।।१।। इह हि तृतीयारावसाने षट्पूर्वलक्षवयसि श्रीयुगादिदेवे परमभट्टारके परमदैवते परमेश्वरे परमतेजोमये परमज्ञानमये परमाधिपत्ये समस्तलोकोपकाराय विपुलनीतिविनीतिख्यापनाय प्राज्यं राज्यं प्रवर्तयितुकामे सम्यग्दृष्टयश्चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्राश्चलितासना निर्दम्भसंरम्भभाजोऽवधिज्ञानेन जिनराज्याभिषेकसमयं विज्ञाय प्रमोदमेदुरमानसाः निजनिजासनेभ्य उत्थाय ससम्भ्रमं सामानिकाङ्गरक्षकत्रायस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोगिकलोकान्तिकयुजः साप्सरोगणाः सकटकाः स्वस्वविमानकल्पान् विहायैकत्र संघट्टिता इक्ष्वाकुभूमिमागच्छन्ति। तत्र जगत्पतिं प्रणम्य सर्वोपचारैः संपूज्याभियोगिकानादिश्य संख्यातिगैर्योजनमुखैर्मणिकलशैः सकलतीर्थजलान्यानयन्ति। ततः प्रथमार्हतं पुरुषप्रमाणे मणिमये सिंहासने कटिप्रमाणपादपीठपुरस्कृते दिव्याम्बरधरं सर्वभूषणभूषितागं भगवन्तं गीतनृत्यवाद्यमहोत्सवे सकले प्रवर्तमाने नृत्यत्यप्सरोगणे प्रादुर्भवति दिव्यपंचके सर्वसुरेन्द्रास्तीर्थोदकैरभिषिंचन्ति त्रिभुवनपतिं तिलकं पट्टबन्धं च कुर्वन्ति शिरस्युल्लासयन्ति श्वेतातपत्रं चालयन्ति चामराणि वादयन्ति वाद्यानि शिरसा वहन्त्याज्ञां प्रवर्तयन्ति च।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 226 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान ततो वयमपि कृततदनुकाराः स्नात्रं विधाय पौष्टिकमुद्घोषयामः। ततस्त्यक्तकोलाहलैघृतावधानैः श्रूयतां स्वाहा ॐ पुष्टिरस्तु रोगोपसर्गदुःखदारिद्रयडमरदौर्मनस्यदुर्भिक्षमरकेतिपरचक्रकलहवियोगविप्रणाशात्पुष्टिरस्तु आचार्योपाध्यायसाधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां पुष्टिरस्तु ऊँ नमोऽर्हद्भ्यो जिनेभ्यो वीतरागेभ्यस्त्रिलोकनाथेभ्यः भगवन्तोर्हन्तः ऋषभाजित. वर्धमानजिनाः २४ भरतैरावतविदेहसंभवा अतीतानागतवर्तमानाः विहरमाणाः प्रतिमास्थिताः भुवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकविमानभुवनस्थिताः नन्दीश्वररुचककुण्डलेषुकारमानुषोत्तरवर्षधरवक्षस्कारवेताढ्यमेरुप्रतिष्ठा ऋषभवर्धमानचन्द्राननवारिषेणाः सर्वतीर्थंकराः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। भुवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः सम्यग्दृष्टिसुराः सायुधाः सपरिवाराः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। ॐ चमरबलिधारणभूतानन्दवेणुदेववेणुदारिहरिकान्तहरिसह अग्निशिखाग्निमानवपुण्यवसिष्ठजलकान्तजलप्रभअमितगतिमितवाहनवेलम्बप्रभंजनघोषमहाघोषकालमहाकालसुरूपप्रतिरूपपुण्यभद्रमाणिभद्रभीममहाभीमकिंनरकिंपुरुषसत्पुरुषमहापुरुष अहिकाय महाकाय ऋषिगीतरतिगीतयशसन्निहितसन्मानधातृविधातृऋषिऋषिपालईश्वरमहेश्वरसुवक्षविशालहास्यहास्यरतिश्वेतमहाश्वेतपतङ्गपतंगरतिचन्द्रसूर्यशक्रेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तक (शुक्रारणा) शुकसहस्त्रारणाच्युतनामानश्चतुष्षष्टिसुरासुरेन्द्राः सायुधाः सवाहनाः सपरिवाराः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। इन्द्राग्नियमनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशाननागब्रह्मरूपा दिक्पालाः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ सूर्यचन्द्रागारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतुरूपा ग्रहाः सक्षेत्रपालाः पुष्टिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ रोहिणी १६ षोडशविद्यादेव्यः सायुधाः सवाहनाः सपरिच्छदाः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ श्री ही धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मीवर्षधरदेव्यः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। ऊँ गणेशदेवताः पुरदेवताः पुष्टिं कुर्वन्तु स्वाहा। अस्मिंश्च मण्डले जनपदस्य पुष्टिर्भवतु जनपदाध्यक्षाणां पुष्टिर्भवतु राज्ञां पुष्टिर्भवतु राज्यसनिवेशानां पुष्टिर्भवतु पुरस्य पुष्टिर्भवतु पुराध्यक्षाणां पुष्टिर्भवतु ग्रामाध्यक्षाणां पुष्टिर्भवतु सर्वाश्रमाणां पुष्टिर्भवतु सर्वप्रकृतीनां पुष्टिर्भवतु पौरलोकस्य पुष्टिर्भवतु पार्षद्यलोकस्य पुष्टिर्भवतु जैनलोकस्य पुष्टिर्भवतु अत्र च गृहे गृहाध्यक्षस्य पुत्रभ्रातृस्वजनसम्बन्धिकलत्रमित्रसहितस्य पुष्टिर्भवतु एतत्स
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 227 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान माहितकार्यस्य पुष्टिर्भवतु तथा दासभृत्यसेवककिंकरद्विपदचतुष्पदबलवाहनानां पुष्टिर्भवतु भाण्डागारकोष्ठागाराणां पुष्टिरस्तु।। “नमः समस्तजगतां पुष्टिपालनहेतवे। विज्ञानज्ञानसामस्त्यदेशकायादिमाऽर्हते।।१।। येनादौ सकला सृष्टिर्विज्ञानज्ञानमापिता। स देवः श्रीयुगादीशः पुष्टिं तुष्टिं करोत्विह।।२।।" यत्र चेदानीमायतननिवासे तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिमाङ्गल्योत्सवविद्यालक्ष्मीप्रमोदवांछितसिद्धयः सन्तु शान्तिरस्तु पुष्टिरस्तु ऋद्धिरस्तु वृद्धिरस्तु यच्छ्रेयस्तदस्तु “प्रवर्धतां श्रीः कुशलं सदास्तु प्रसन्नतामंचतु देववर्गः। आनन्दलक्ष्मीगुरुकीर्तिसौख्यसमाधियुक्तोऽस्तु समस्तसंघः ।।१।। सर्वमङ्गल. ।।२।।
इस दण्डक को तीन बार पढ़ें। पौष्टिक-कलश के पूर्ण हो जाने पर पौष्टिककर्म करवाने वाला कुश द्वारा उस जल से अपने गृह को अभिसिंचित करें। कलश अच्छी तरह से घर में ले जाकर हमेशा उस जल से छिड़काव करे। पाँचों पीठ का विसर्जन पूर्ववत् “यान्तुदेवगणा. एवं आज्ञाहीनं." श्लोक से करें। साधुओं को प्रचुरमात्रा में वस्त्र एवं अन्नपान का दान करें तथा सभी प्रकार की पूजा-सामग्री से गुरु की पूजा करें। सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में दीक्षा ग्रहण के पूर्व, किसी व्रत को ग्रहण करने के पूर्व, सभी प्रकार की प्रतिष्ठाओं में, राज्य एवं संघ में किसी पदारोपण के समय, सभी शुभ कार्यों में, सभी पवों में, महोत्सव के संपूर्ण होने पर, महाकार्य के संपूर्ण होने पर, इत्यादि स्थितियों में पौष्टिककर्म करें। इससे आधि, व्याधि, दुराशयी, दुष्टों, शत्रुओं एवं पापों का नाश होता है। पौष्टिककर्म का यह महत्त्व बताया गया है, कि इससे देवता प्रसन्न होते हैं। यश, बुद्धि एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। आनन्द एवं प्रताप में वृद्धि होती है तथा प्रयत्नपूर्वक आरम्भ किए गए महाकार्यों में विशेष सफलता मिलती है। नक्षत्र, ग्रह, भूत, पिशाचादिजन्य दोषों एवं रोगों का नाश होता है और कार्य में कभी भी विघ्न नहीं आता है। विद्वानों ने पौष्टिककर्म का यही फल बताया है। यह पौष्टिककर्म की विधि है। विशुद्धात्मा एवं तत्त्वज्ञ विचक्षणजन सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थों के सभी संस्कारों में महाकार्य के
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आचारदिनकर (खण्ड-३)
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प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
प्रारम्भ में, सभी प्रतिष्ठाओं में एवं राज्याभिषेक के समय शान्तिक तथा पौष्टिक इन दोनों कर्मों को करें।
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इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में उभयधर्म, अर्थात् गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के स्तम्भरूप पौष्टिककर्म कीर्तन नामक यह पैंतीसवाँ उदय समाप्त होता है ।
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 229 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान .
छत्तीसवाँ उदय
बलि-विधान अब बलि-विधान की विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है -
'बलि' शब्द का अर्थ देवताओं के संतर्पण के लिए उन्हें नैवेद्य (भोज्य-पदार्थ) अर्पित करना है। इस विधान में नाना प्रकार के खाद्य, पेय, चूष्य एवं लेह्य पदार्थ, जो अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम - इन चार प्रकार के आहारों में समाविष्ट हैं, देवता को अर्पित किए जाते हैं। देवता विशेष की वृत्ति या रुचि के अनुसार बलि के पदार्थों में भी भेद होता है। वह बताते हैं -
गृह-आचार के अनुसार जो भी भोज्य पदार्थ बनाए गए हैं, उनमें से तेल से निर्मित आहार तथा कांजी को छोड़कर शेष तत्काल निर्मित अग्रपिण्ड को पवित्र पात्र में रखकर उसी दिन जिन-प्रतिमा के समक्ष चढ़ाएं। भगवान् ने पहले भी अपने आयुष्यकाल में महाव्रत ग्रहण करने के बाद अपने लिए बनाए गए आहार से शरीर का पोषण नहीं किया था, अतः उनके लिए अलग से कोई नैवेद्य नहीं बनाया जाता है, इसीलिए भविकजन अपने मानसिक संतोष के लिए नैवेद्य के रूप में गृहस्थों के लिए बनाएं गए भोज्य-पदार्थ को ही भगवान् के सामने रखते हैं। नाना प्रकार के खाद्य-पदार्थ, चूष्य, लेय, विविध भोज्य-पदार्थ, घी के व्यंजन, पकवान, दूध, दही, घी, गुड़ आदि से निर्मित रंजक वस्तुएँ अपनी शक्ति के अनुसार सोने-चाँदी तांबे या कांसे के पवित्र पात्र में रखकर परमात्मा की प्रतिमा के सम्मुख सुविलिप्त भूमि पर रखें। फिर हाथ जोड़कर परमेष्ठीमंत्र बोलें। फिर निम्न गाथा बोलें - “अर्हन्तुः प्राप्त निर्वाणा निराहारा निरंगकाः।
जुषन्तु बलिमेतं मे मनः सन्तोष हेतवे ।।" ___ - यह जिनबिम्ब को दी जाने वाली बलि की विधि है। विष्णु और शिव को तो गृहस्थ द्वारा अपने तथा उनके निमित्त बनाए गए आहार में से बलि देना कल्पता है। जैसा कि सुना जाता है -
पितरों को बगीचे के कन्दों एवं फलों से संतर्पित करते हैं। पुरुष जो खाता है, उसी अन्न से उसके देवता को तर्पण करता है।
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बलि दें। नापूर्ण, तेल एवं कमोदकों से बलि बकुल से युक्त
आचारदिनकर (खण्ड-३) 230 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान पितरों का मनोवांछित भोजन स्वगुरु एवं विप्रों को दान देने से वे संतुष्ट होते हैं। - यह पितृबलि का विधान है।
अपनी-अपनी आम्नाय विशेष के अनुसार देवी की पूजा की जाती है। उसमें परिकर-विधि की भाँति ही बलि दें। देवी के पूजन में नाना प्रकार के पकवान, करम्भ, एवं सप्तधान्य बकुल से युक्त बलि दी जाती है। गणपति को ताजे मोदकों से बलि दें। क्षेत्रपाल के भेद के अनुसार तिलचूर्ण, तेल एवं करम्भ से या पुएं आदि सहित बकुल की बलि दें। नंद्यावर्त्त के वलय आदि के पूजन में नाना पकवानों एवं व्यंजनों से युक्त वलय के देवों की संख्या के अनुरूप उतनी संख्या में भिन्न-भिन्न पात्रों से बलि दें। इन्द्रों, ग्रहों, दिक्पालों, विद्यादेवियों, लोकान्तिक देवों, परमात्मा की माताओं, पंचपरमेष्ठी एवं चतुर्निकाय देवों को भिन्न-भिन्न पात्रों में बलि दें। शाकिनी, भूत, वेताल, ग्रह एवं योगिनियों की चौराहे पर तेल तथा विविध मुख वाले दीपक सहित मिश्रधान्य की बलि दें। इसी प्रकार भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदि के संतर्पण के लिए वैसी ही बलि, अर्थात् उसी प्रकार की सामग्री की बलि श्मशान में दें। निधि (खजाना) प्राप्त होने की दशा में निधिदेवता को भी उचित बलि दें। निधिदेवता के कथन के अभाव में निधि के समीप में सुलिप्त भूमि पर धनद (कुबेर) की स्थापना एवं पूजा करके निधि को ग्रहण करें। माताओं की पूजा के समय माताओं के पीछे गुरु, शुक्र, वत्स एवं कुलदेवता की स्थापना बुद्धिशालियों द्वारा की जानी चाहिए।
विद्वान्जन जिनेश्वर, शिव एवं विष्णु को छोड़कर प्रायः सभी देवताओं का उनके वर्णानुसार गन्ध एवं पुष्पों से पूजा करें। इस प्रकार अर्हत्दर्शन में प्रतिष्ठा, शान्ति आदि में सर्वदेवों की पूर्व में जो-जो बलि बताई गई है, वह बलि दें। सर्वदेवों एवं सर्व देवियों की पूजा एवं हवन की सम्पूर्ण विधि अपनी गुरु-परम्परा के अनुसार करें। - यह बलि-विधान है।
इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के उभयस्तम्भ में बलिदान-कीर्तन नामक यह छत्तीसवाँ उदय समाप्त होता है।
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प्राच्यविद्यापीठ के संस्थापक निदेशक
एवं ग्रन्थमाला सम्पादक
प्रो. डॉ. सागरमल जैन
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) प्रकाशन सूची 1. जैन दर्शन के नव तत्त्व - डॉ. धर्मशीलाजी 2. Peace and Religious Hormony - Dr. Sagarmal Jain 3. अहिंसा की प्रासंगिकता - डॉ. सागरमल जैन । 4. जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास यात्रा - डॉ. सागरमल जैन 5. जैन गृहस्थ के षोडशसंस्कार - अनु. साध्वी मोक्षरत्ना श्री 6. जैन मुनि जीवन के विधि-विधान-अनु. साध्वी मोक्षरत्नाश्री 7. अनुभूति एवं दर्शन-साध्वी रूचिदर्शनाश्री 8. जैन विधि-विधानों के साहित्यों का बृहद् इतिहास-साध्वी सौम्यगुणाश्री 9. प्रतिष्ठा, शान्तिककर्म, पौष्टिक कर्म एवं बलि विधान-अन. साध्वी मोक्षरत्नाश्री
10. प्रायश्चित्त, आवश्यक, तप एवं पदारोपण विधि-अनु. मोक्षरत्नाश्री
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________________ mam प्रवचन-सारोद्धार प्रवचन-सारोबार दातरमका वनतिजा साध्वी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी का जन्म राजस्थान के गुलाबी नगर जयपुर में सन् 1975 को एक सुसंस्कारित धार्मिक परिवार में हुआ। पिता श्री छगनलालजी जुनीवाल एवं माता श्रीमती कान्ताबाई के धार्मिक संस्कारों का आपके बाल मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि व्यवहारिक अध्ययन के साथ-साथ ही आप धार्मिक अध्ययन पर विशेष ध्यान देने लगी। शनै:शनै: आपमें वैराग्य-भावना विकसित होती गई और चारित्र व्रत अंगीकार करने का निर्णय ले लिया। आपके दृढ़ संकल्प को देखकर परिजनों ने सहर्ष दीक्षा ग्रहण की आज्ञा प्रदान कर दी। अंतत: सन् 1998 में जयपुर में ही पू. चंद्रकला श्रीजी म.सा. की पावन निश्रा में प.पू. हर्षयशा श्री जी म.सा. की शिष्या के रूप में दीक्षित हो गयी। आपका नाम साध्वी मोक्षरत्ना श्री रखा गया / धार्मिक अध्ययन के साथ-साथ आपने गुजरात यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की / आपने डॉ. सागरमलजी के निर्देशन में "आचारदिनकर में वर्णित संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन" पर शोध प्रबन्ध लिखकर जैन विश्व भारती लाडनू से "डाक्टरेक्ट'' की पदवी प्राप्त की हैं। मुद्रक : आकृति आफसेट, उज्जैन (म.प्र.) फोन : 0734-2561720,98272-42489,98276-77780 Jain Education Nernational Eon Private & Personal Use Only