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आचारदिनकर (खण्ड-३) 168 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
देवतावसर-समवसरण की प्रतिष्ठा में लग्न एवं भूमि की शुद्धि बिम्ब-प्रतिष्ठा के सदृश करें। सम्यक् प्रकार से लिप्त, विशिष्ट प्रकार के चंदरवें से सुशोभित, उपाश्रय में, सम्यक् प्रकार से स्नान किए हुए, हाथ में कंकण एवं मुद्रिका पहने हुए, सदश, दोषरहित एवं नवीन वस्त्रों को धारण किए हुए, पवित्र सुखासन में बैठे हुए आचार्य विधिवत् भूमि-शुद्धि एवं सकलीकरण करके समवसरण की पूजा करें। सकलीकरण की विधि सूरिमंत्रकल्प से या गुरु-परम्परा से जानें। वह गोपनीय होने से यहाँ नही बताई गई है। उस उपलिप्त भूमि के ऊपर आचार्य आसन पर बैठे। तत्पश्चात् पवित्र चौकी पर स्वर्ण, चाँदी, ताँबे एवं कांसे के थाल के ऊपर कल्प में कही गई विधि के अनुसार गंगासागर एवं सिन्धुसागर से लाई गई कौड़ियों में से सूरि अपने हाथ की मुष्टि से साढ़े तीन मुष्टिपरिमाण कौड़ियों को सिंही, व्याघ्री, हंसी एवं कपर्दिकासहित स्थापित करें। उसके ऊपर अन्दर-अन्दर की तरफ क्रमशः कम विस्तार वाले तीन मणिवलय बनाएं। इस सम्बन्ध में गच्छ-विधि प्रमाण है। कुछ गच्छों में वलय नहीं बनाते हैं और कुछ गच्छों में चाँदी, सोने एवं मणियों से निर्मित तीन वलय बनाए जाते हैं। हमारे गच्छ, अर्थात् खरतरगच्छ की रुद्रपल्ली शाखा में तीन वलय होते हैं। एक वलय स्फटिक से निर्मित होता है, उसके चारों दिशाओं में शंख और कौड़ियों को स्थापित किया जाता है तथा मध्य में बृहत् आकार की सूर्यकान्तमणि स्थापित की जाती है और उसके चारों तरफ छोटी-छोटी मणियाँ क्रमानुसार बृहत् कौड़ी के ऊपर स्थापित की जाती है। उसके मध्य में स्फटिक से निर्मित साढ़े तीन हाथ अंगुल-परिमाण स्थापनाचार्य स्थापित किए जाते हैं। इस अवसर पर आचार्य प्रतिष्ठा-विधि के सदृश ही दिक्पालों का आह्वान करें। पूर्ववत् स्वयं के अंगों पर शुचिविद्या का आरोपण एवं सकलीकरण करें। तत्पश्चात् दक्षिण दिशा की तरफ मुँह करके, रौद्रदृष्टि एवं ऊर्ध्व स्थित मध्य की दोनों अंगुलियों द्वारा निम्न मंत्रपूर्वक रक्षा करके सम्पूर्ण समवसरण को दूध से स्नान कराएं। तत्पश्चात् यक्षकर्दम का विलेपन करें और वस्त्र से ढक दें -
"ऊँ ह्रीं श्रीं सर्वोपद्रवं समवसरणस्य रक्ष-रक्ष स्वाहा ।"
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