________________
आचारदिनकर (खण्ड-३) 167 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
सर्वाराधनसमयेकार्यारम्भेषु मंगलाचारे। मुख्ये लभ्ये लाभे देवैरपि पूज्यसे देव ।।"
माणुधण आदि श्रद्धेय कुलदेवों की प्रतिष्ठा भी इसी प्रकार शान्तिमंत्र से करें। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में गणपति आदि की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है।
अब सिद्धमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार हैजिन शासन में सिद्ध के पन्द्रह भेद बताए गए हैं। इनमें स्वलिंगसिद्ध के पुरुषरूप पुण्डरीक आदि, स्त्रीरूप ब्राह्मी आदि, नपुंसकलिंग मस्त्येन्द्र, गोरक्ष आदि, परलिंग सिद्ध वल्कलचीरी आदि की प्रतिष्ठा-विधि एक जैसी ही है। यदि उनकी प्रतिष्ठा गृहस्थ अपने घर में करता है, तो वह उसके घर में शान्तिक एवं पौष्टिककर्म करें तथा उनकी प्रतिमा स्थापित करके बृहत्स्नात्र-विधि द्वारा उसे स्नात्र कराएं। तत्पश्चात् मूलमंत्र से सिद्धमूर्ति की पंचामृतस्नात्र विधि करें। फिर निम्नांकित मूलमंत्र से सर्वांगों पर तीन-तीन बार वासक्षेप डाले -
“ॐ अं आं ह्रीं नमो सिद्धाणं बुद्धाणं सर्वसिद्धाणं श्री आदिनाथाय नमः।"
उन-उन लिंग के सिद्धों की प्रतिष्ठा में उन-उन लिंगों में धारण की जाने वाली उन-उन वस्तुओं, पात्रों एवं भोजन आदि का दान करें। यदि यति प्रतिष्ठा करते हैं, तो मूलमंत्र से वासक्षेप डालने से ही सिद्धमूर्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाती है। सिद्ध के पन्द्रह भेद इस प्रकार है -
१. जिनसिद्ध २. अजिनसिद्ध ३. तीर्थसिद्ध ४. अतीर्थसिद्ध ५. स्त्रीसिद्ध ६. पुरुषसिद्ध ७. नपुंसकसिद्ध ८. स्वलिंगसिद्ध ६. अन्यलिंगसिद्ध १०. गृहस्थलिंगसिद्ध ११. प्रत्येकबुद्धसिद्ध १२.स्वयंबुद्धसिद्ध १३. बुद्धबोधितसिद्ध १४. एकसिद्ध १५. अनेकसिद्ध
__ इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में सिद्धमूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि संपूर्ण होती है।
अब देवतावसर की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org