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आचारदिनकर (खण्ड-३) 204 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान लिए कल्याणकारी होता है। सरसों से किया गया तृतीय स्नान तृतीयपाद के धनवृद्धि में बाधक सभी दोषों का नाश करता है।
सप्तधान्यों से युक्त एवं मंत्रपूर्वक किया गया चतुर्थ स्नान सर्वदोषों को दूर करता है तथा पिता के लिए सर्वसंपत्तिकारी होता है। शुभत्व की अभिवृद्धि के लिए अर्हत् परमात्मा के अठारह अभिषेक के स्नात्रजल के कुम्भ से बालक का अभिषेक करें। फिर शिशु को दर्पण दिखाएं तथा अर्घपात्र के भी दर्शन कराएं। गुरु प्रकट रूप से पद्म, मुद्गर, गरुड़, काम आदि मुद्राओं का दर्शन कराएं। बीजौरा, नारंगी एवं बैर आदि प्रमुख फलों से बालक के अंक (खोले) को भरकर गुरु वस्त्र से उसे ढक दे। लग्नसमय के आने पर बालक को उठाकर दधि में उसके मुख को दिखाएं। उसके बाद घी में और फिर सभी साक्षाप में उसे देखें।
मूलनक्षत्र का विधान करने पर दुरितों का नाश होता है, समत्व का स्फुरण होता हैं, कुशलमंगल होता है, सर्वमनोरथों की सिद्धि होती है। आश्लेषा और मूलनक्षत्र में उत्पन्न बालक के मुख को पिता तब तक न देखे, जब तक कि वह शान्तिककर्म न करवाएं। गण्डान्त, व्यतिपात, भद्रा आदि में बालक का जन्म होने पर सूतक के अन्त में शान्तिककर्म करना चाहिए। तीन पुत्रों के पश्चात् कन्या होने पर, तीन कन्याओं के पश्चात् पुत्र होने पर, जुड़वाँ कन्या होने पर, हीनाधिक अंगोपांग वाले शिशु का जन्म होने पर भी मूलस्नान करने के लिए कहा गया है। श्री पुष्पदन्त मंत्र से मंत्रित जल से स्नान के बाद बालक को कंकण बांधा जाता है। कुछ लोग इसके पूर्व दिग्बन्धन आदि भी करते हैं। दिशाबन्धन आगे वर्णित अनुसार करें। पूर्व आदि दिशाओं में निम्न मंत्र द्वारा पुष्प, अक्षत और नैवेद्य प्रक्षेपित करके दिग्बन्ध करें -
“ॐ इन्द्राय नमः इन्द्राण्य नमः। ॐ अग्नय नमः आग्नेय्यै नमः। ॐ यमाय नमः याम्यै नमः। ॐ निर्ऋतये नमः नैर्ऋत्यै नमः। ॐ वरुणाय नमः वारुण्यै नमः । ॐ वायवे नमः वायव्यै नमः। ॐ कुबेराय नमः कौबेर्ये नमः। ॐ ईशानाय नमः ईशान्यै नमः। ऊँ नागेभ्यो नमः नागाण्यै नमः। ॐ ब्रह्मणे नमः ब्रह्मण्यै नमः। ॐ इन्द्राग्निय
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