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आचारदिनकर (खण्ड-३) 205 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान मनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशाननागब्रह्मणों दिगदिशाः स्वस्वशक्तियुताः सायुधबलवाहनाः स्वस्वदिक्षु सर्वदुष्टक्षयं सर्वविघ्नोपशांतिं कुर्वन्तु-कुर्वन्तु स्वाहा।"
फिर माता और शिशु के अंगों पर मंत्र का न्यास करे जैसे - मस्तक पर ऊँ, ललाट पर श्री, भौंहों पर बूं, नेत्रों पर ही, नासिका पर ही, कर्ण पर ऐं, कण्ठ पर ही, हृदय पर ही, भुजाओं पर हूं, पेट पर स्वां, नाभि पर क्लीं, लिंग पर हः, जंघा पर हवा, पैरों पर यः और सर्वसंधियों पर ब्लूं मंत्र का न्यास करें। तत्पश्चात् पूर्वोक्त श्लोक के पाठपूर्वक मूल के चतुर्थपाद के निवारण के लिए कही गई वस्तुओं से, अर्थात् सप्तधान्यों से युक्त जल से क्रमशः स्नान कराएं। फिर क्रमपूर्वक पूर्वोक्त शतमूली औषधि के जल से स्नान कराएं। उसके बाद पूर्वोक्त परमात्मा के स्नात्रजल से स्नान कराएं और फिर तीर्थोदक रूप शुद्धजल से स्नान कराएं। तत्पश्चात् शिशु को दर्पण एवं अर्घपात्र का दर्शन कराएं। बालक के सिर पर पद्म, मुद्गर, गरुड़, कामधेनु एवं पंचपरमेष्ठीरूप पंचमुद्रा करें (बनाएं)। फिर बिजौरा आदि फलसहित बालक को वस्त्र से ढ़ककर ले जाएं। लग्नवेला के आने पर पिता बालक के मुख पर से कपड़ा हटाकर क्रमशः दधि के पात्र एवं घी के पात्र में उसका मुख देखने के पश्चात् उसे साक्षात् रूप में देखें। यह विधि पूर्व में बताई गई शान्तिक-विधि के मध्य में अलग से करते हैं। - यह मूलनक्षत्र का विधान है।
पूर्वाषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए वरुणदेव की स्थापना करें और पूर्ववत् उनकी पूजा करके घृत, मधु, गुग्गुल एवं कमलों से आहुति दें। उत्तराषाढ़ानक्षत्र की शान्ति के लिए विश्वदेव की स्थापना कर पूजा करें तथा मधु, सर्वान्न एवं सर्व फलों से हवन करें। अभिजित्नक्षत्र की शान्ति के लिए ब्रह्मदेव की स्थापना एवं पूजा करके घृत, तिल, यव एवं दर्भ से हवन करें। श्रवण नक्षत्र की शान्ति के लिए विष्णु की स्थापना एवं पूजा कर, पूर्णतः घृत से लिप्त वस्तुओं का हवन करें। धनिष्ठानक्षत्र की शान्ति के लिए वसुओं की स्थापना और पूजा कर घृत, मधु एवं मुक्ताफल का हवन करें। शतभिषानक्षत्र की शान्ति के लिए वरुणदेव की पूजा कर घृत, मधु, फल एवं कमल
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