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आचारदिनकर (खण्ड-३)
1 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान तेंतीसवाँ उदय प्रतिष्ठा-विधि
किसी व्यक्ति और वस्तु को प्रधानता या पूज्यता प्रदान करने के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे प्रतिष्ठा कहते हैं। यथा - मुनि आचार्यपद या अन्य योग्य पद से, ब्राह्मण वेदसंस्कार से, क्षत्रिय राज्य में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर अभिसिक्त होने से, वैश्य श्रेष्ठिपद से, शूद्र राज्य-सम्मान से एवं शिल्पी शिल्प के सम्मान से प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं। इनको तिलक, अभिषेक, मंत्रक्रिया आदि द्वारा पूज्यता प्रदान की जाती है। तिलकादि द्वारा या पदाभिषेक द्वारा उनकी देह की पुष्टि नहीं होती, किन्तु उक्त क्रियाओं द्वारा दिव्यशक्ति का संचरण करने के लिए इस प्रकार की विधि की जाती है। इसी प्रकार पाषाण से निर्मित या किसी वस्तु से निर्मित जिनेश्वर परमात्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, चण्डी, क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमाओं को भी प्रतिष्ठा-विधि द्वारा उनको विशिष्ट नाम देकर पूज्यता प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है कि भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकदेव उनके अधिष्ठायक होने के कारण उनकी मूर्ति को प्रभावक शक्ति प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लोग गृह, कुएँ, बावड़ी आदि की प्रतिष्ठा-विधि से उनकी प्रभावकता में वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार सिद्ध तथा अरिहंत परमात्मा की प्रतिष्ठा-विधि से भी उनकी प्रतिमा के प्रभाव में अभिवृद्धि होती है। उस प्रतिष्ठा-विधि से उन प्रतिमाओं में मोक्ष में स्थित परमात्मा का अवतरण तो नहीं होता, किन्तु प्रतिष्ठा-विधि से सम्यग्दृष्टि देव तथा अधिष्ठायक देव मूर्ति के प्रभाव में अभिवृद्धि करते हैं और इसी कारण अर्हत्-प्रतिमापूजा प्रतिष्ठा के विशेष योग्य बनती है।
यहाँ १. जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा २. चैत्य-प्रतिष्ठा ३. कलशप्रतिष्ठा ४. ध्वज-प्रतिष्ठा ५. बिम्बपरिकर-प्रतिष्ठा ६. देवी-प्रतिष्ठा ७. क्षेत्रपाल-प्रतिष्ठा ८. गणेश आदि देवों की प्रतिष्ठा ६. सिद्धमूर्ति-प्रतिष्ठा १०. देवतावसर-समवशरण-प्रतिष्ठा ११. मंत्रपट
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