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आचारदिनकर (खण्ड-३) 177 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान वापी, कूप, तड़ाग नदी, नहर, झरना, विवरिका, धर्मजलाशय आदि की भी प्रतिष्ठा-विधि यही है।।
इस प्रकार जलाशय की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब वृक्ष की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं और वह इस प्रकार है
स्वतः वृद्धि प्राप्त करने वाले, आश्रय देने वाले प्राचीन वृक्षों की भी प्रतिष्ठा होती है। वृक्ष के मूल में जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रपूजा करें। लघुनंद्यावर्त की स्थापना, पूजन एवं हवन पूर्ववत् ही करें। उसके बाद जिनस्नात्र जल एवं मिश्रित तीर्थजल के एक सौ आठ कलशों से वृक्ष को अभिसिंचित करें। वासक्षेप डालें और कौसुम्भसूत्र से रक्षाबन्धन करें। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि प्रदान करें। अभिषेक, वासक्षेप एवं रक्षा करने का मंत्र निम्न है -
"ऊँ यां रां चं चुरू-चुरू चिरि-चिरि वनदैवत अत्रावतर-अत्रावतर तिष्ठ-तिष्ठ श्रियं देहि वांछितदाता भव-भव स्वाहा।"
तत्पश्चात् पूर्व की भाँति साधुओं एवं संघ की पूजा करे तथा नंद्यावर्त्त के विसर्जन की विधि पूर्व की भाँति ही करें। वाटिका, आराम (उद्यान) एवं वनदेवता की प्रतिष्ठा की विधि भी यही है।
इस प्रकार प्रतिष्ठाधिकार में वृक्ष एवं वनदेवता की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब अट्टालिकादि की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - ___ अट्टालिका, स्थण्डिल (यज्ञीय भूखंड) एवं नवनिर्मित पथ में जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्रविधि से अट्टालिका, स्थण्डिल एवं पथ को सिंचित करें और उन पर वासक्षेप डालें। जल-सिंचन करने तथा वासक्षेप करने का मंत्र निम्न है -
___ऊँ ह्रीं स्थां-स्थां स्थीं-स्थीं भगवति भूमिमातः अत्रावतर-अत्रावतर पूजां गृहाण-गृहाण सर्व समीहितं देहि-देहि स्वाहा।"
इसी मंत्र द्वारा चौबीस तन्तु वाले सूत्र से रक्षाबन्धन करें। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूर्ववत् प्रदान करें। नंद्यावर्त्त-मण्डल
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