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आचारदिनकर (खण्ड-३) 229 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान .
छत्तीसवाँ उदय
बलि-विधान अब बलि-विधान की विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है -
'बलि' शब्द का अर्थ देवताओं के संतर्पण के लिए उन्हें नैवेद्य (भोज्य-पदार्थ) अर्पित करना है। इस विधान में नाना प्रकार के खाद्य, पेय, चूष्य एवं लेह्य पदार्थ, जो अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम - इन चार प्रकार के आहारों में समाविष्ट हैं, देवता को अर्पित किए जाते हैं। देवता विशेष की वृत्ति या रुचि के अनुसार बलि के पदार्थों में भी भेद होता है। वह बताते हैं -
गृह-आचार के अनुसार जो भी भोज्य पदार्थ बनाए गए हैं, उनमें से तेल से निर्मित आहार तथा कांजी को छोड़कर शेष तत्काल निर्मित अग्रपिण्ड को पवित्र पात्र में रखकर उसी दिन जिन-प्रतिमा के समक्ष चढ़ाएं। भगवान् ने पहले भी अपने आयुष्यकाल में महाव्रत ग्रहण करने के बाद अपने लिए बनाए गए आहार से शरीर का पोषण नहीं किया था, अतः उनके लिए अलग से कोई नैवेद्य नहीं बनाया जाता है, इसीलिए भविकजन अपने मानसिक संतोष के लिए नैवेद्य के रूप में गृहस्थों के लिए बनाएं गए भोज्य-पदार्थ को ही भगवान् के सामने रखते हैं। नाना प्रकार के खाद्य-पदार्थ, चूष्य, लेय, विविध भोज्य-पदार्थ, घी के व्यंजन, पकवान, दूध, दही, घी, गुड़ आदि से निर्मित रंजक वस्तुएँ अपनी शक्ति के अनुसार सोने-चाँदी तांबे या कांसे के पवित्र पात्र में रखकर परमात्मा की प्रतिमा के सम्मुख सुविलिप्त भूमि पर रखें। फिर हाथ जोड़कर परमेष्ठीमंत्र बोलें। फिर निम्न गाथा बोलें - “अर्हन्तुः प्राप्त निर्वाणा निराहारा निरंगकाः।
जुषन्तु बलिमेतं मे मनः सन्तोष हेतवे ।।" ___ - यह जिनबिम्ब को दी जाने वाली बलि की विधि है। विष्णु और शिव को तो गृहस्थ द्वारा अपने तथा उनके निमित्त बनाए गए आहार में से बलि देना कल्पता है। जैसा कि सुना जाता है -
पितरों को बगीचे के कन्दों एवं फलों से संतर्पित करते हैं। पुरुष जो खाता है, उसी अन्न से उसके देवता को तर्पण करता है।
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