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आचारदिनकर (खण्ड-३) 150 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान भी सुप्रतिष्ठित रहे। जिस प्रकार से समग्र समुद्रों के मध्य लवण समुद्र सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश भी सुप्रतिष्ठित रहे। जिस प्रकार से समग्र द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जब तक चन्द्र और सूर्य रहें, तब तक यह कलश भी सुप्रतिष्ठित रहे। तत्पश्चात् पूर्व कथित छंद द्वारा पुष्पांजलि दें। कलश पर से वस्त्र उतारना, महोत्सव करना एवं धर्मदेशना देना आदि सब कार्य पूर्ववत् करें। तत्पश्चात् प्रसाद या मण्डप के ऊपर कलशारोपण करें। उसकी स्थापना करने वाले को वस्त्र, कंकण आदि का दान करें, अष्टाह्निका-महोत्सव करें, साधुओं को वस्त्र, पात्र एवं अन्न का दान दें, संघ की पूजा करें तथा याचकों को दान देकर संतुष्ट करें। पाषाण से निर्मित कलश हो, तो चैत्य-प्रतिष्ठा पूर्ण होते ही उसी समय उसे भी स्थापित कर दें, इस प्रकार चैत्य-प्रतिष्ठा के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा भी पूर्ण हो जाती हैं। यह तो चैत्य-प्रतिष्ठा से भिन्न समय में कलशारोपण करने की विधि है। विवाह-मण्डप आदि में मिट्टी के कलशों को आरोपित करके परमेष्ठीमंत्रपूर्वक वासक्षेप करके प्रतिष्ठित करते हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठा अधिकार में कलश-प्रतिष्ठा की विधि समाप्त होती है।
__अब ध्वज-प्रतिष्ठा की विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - भूमि की शुद्धि पूर्व की भाँति करें। उस भूमि पर गन्धोदक, पुष्प आदि द्वारा पूर्ववत् पूजा करें। पूर्व की भाँति अमारि घोषणा कराएं। पूर्व की भाँति संघ को आमन्त्रित करें, वेदिका बनाएं, बृहत्, अर्थात् दसवलय वाले नंद्यावर्त्त का आलेखन करें और दिक्पालों आदि की स्थापना करें। तत्पश्चात् जिनके हाथ में कंकण एवं मुद्रिका हैं तथा जो सदशवस्त्र-परिधान को धारण किए हुए हैं- ऐसे आचार्य पूर्व की भाँति सकलीकरण करके शुचिविद्या का आरोपण करते हैं। पूर्व में बताए गए गुणों से युक्त स्नात्रकारों को कलशारोपण-विधि की भाँति ही अभिमंत्रित करें। सर्व दिशाओं में धूप एवं जल सहित बलि प्रक्षिप्त करते हैं। बलि को अभिमंत्रित करने का मंत्र निम्नांकित है -
__“ॐ ह्रीं क्ष्वी सर्वोपद्रवं रक्ष-रक्ष स्वाहा।"
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