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________________ आचारदिनकर (खण्ड-३) 208 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान की, नदी के दोनों किनारों की तथा इन्द्रस्थान की मिट्टी, बैल के सींगों से उत्खनित मिट्टी तथा गणिका के द्वार की मिट्टी लाएं। तदनन्तर गिरिशिखर पर उत्पन्न दूर्वा तथा वाल्मीक की मिट्टी से दोनों पाश्वों का प्रक्षालन करें। इन्द्रस्थान की मिट्टी से ग्रीवा और बैलों के सींगो से उत्खनित मिट्टी से बाहु का तथा राजा के द्वार की मिट्टी से हृदय का तथा वेश्या के द्वार की मिट्टी से हाथ का शोधन करें। आगे लोकाचार के अनुसार युद्ध में प्रयाण करते समय राजा के नक्षत्र भोजन का उल्लेख किया गया है। नक्षत्र भोजन का यह विधान जैन परम्परा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है, अतः यहाँ उसका अनुवाद अपेक्षित नहीं है। यह विवरण वैदिक परम्परा का अनुसरण करके लिखा गया है, यह आचार्य वर्धमानसूरि की अपनी मान्यता नहीं है, अतः इस अंश का अनुवाद नहीं किया गया है। ऐसा माना गया है कि राजा को युद्ध हेतु प्रयाण करते समय दिशा और नक्षत्र का विचार करके भोजन करने पर विजय प्राप्त होती है। स्वाद रहित भोजन, केश और मक्खी जिसमें गिरी हुई हो - ऐसा भोजन, दुर्गन्ध युक्त भोजन एवं अपर्याप्त भोजन का सेवन हानिप्रद होता है। राजा को प्रयाण के समय सरस, कोमल, रूचिपूर्ण एवं मनोऽनुकूल पर्याप्त भोजन ही करना चाहिए। व्यक्ति के जन्म का नक्षत्र आद्य या प्रथम नक्षत्र कहलाता है, दसवाँ नक्षत्र कर्म संज्ञक कहा गया है। इसी प्रकार पहले से सोलहवाँ नक्षत्र सांधातिक एवं अठारहवाँ नक्षत्र समुदाय संज्ञक है। बीसवें से तीसरा अर्थात् बाबीसवाँ नक्षत्र विनाशकारी होता हैं, किन्तु पच्चीसवाँ नक्षत्र मानस संज्ञक है, वह तो प्रत्यक्ष पुरुष ही है अर्थात् वांछित को पूर्ण करने वाला है। राजा तथा कुलाधिपति आदि प्रमुख पदों के अभिषेक हेतु नव नक्षत्र बताए गए है। उनमें अमिश्र संज्ञक एक पुष्य नक्षत्र, मिश्र संज्ञक, दो विशाखा एवं कृतिका नक्षत्र तथा शेष छ: - अश्विनि, भरणी, रोहिणी, मृगशिरा, आषाढ़ा और पुनर्वसु सम्मिलित है। उसमें पुष्य सर्वश्रेष्ठ है शेष साधारण है। इस विषय में दोष और गुण प्रधान पुरुष का ही सेवन करते है। कूर्मचक्र के अनुसार जिस देश का जो नक्षत्र है उसी में राजा का राज्याभिषेक किया जाना चाहिए। नक्षत्र की जो जातियाँ होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001720
Book TitlePratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size16 MB
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