________________
आचारदिनकर (खण्ड-३) 10 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
"जिस प्रकार त्रिलोक के चूड़ामणिरूप सिद्धस्थान पर सिद्धों की प्रतिष्ठा है, उसी तरह यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में स्वर्ग प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित
रहे।
जिस प्रकार से समग्र लोकाकाश में मेरु सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
जिस प्रकार से समग्र समुद्रों में लवण समुद्र सुप्रतिष्ठित है, उसी प्रकार से यावत् चन्द्र और सूर्य हैं, तावत् यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित रहे।
___इन गाथाओं से पुष्पांजलि अर्पण करें। तत्पश्चात् मुखोद्धाटन करें। महापूजा-महोत्सव करें। गुरु प्रवचनमुद्रा में देशना दे। देशना इस प्रकार है -
“स्तुति दान, मंत्र, न्यास, आह्वान, जिनबिम्ब का दिशाबन्ध, प्रतिमा का नेत्रोन्मीलन और देशना - यह इस कल्प में गुरु के अधिकार हैं।"
जिस प्रकार से राजा अपने बल एवं शक्ति द्वारा धवलयश को प्राप्त करता है, वैसे ही यह प्रतिमा भी सुप्रतिष्ठित होकर उस देश में विपुल पुण्यबंध का कारण बने। जिस प्रकार से सम्यक विधि से की गई भक्ति एवं पूजा रोग, मारि और दुर्भिक्ष को दूर कर देती है, उसी प्रकार से भावपूर्वक की गई यह प्रतिष्ठा समस्त लोक के लिए कल्याणकारी हो। जो भी भक्तिपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करता है, करवाता है या उसकी अनुमोदना करता है, वह सर्वत्र सुख का भागी होता है। जिनबिम्ब के प्रतिष्ठा-कार्य में जो अपने द्रव्य का उपयोग करता है, उसका द्रव्य सार्थक होता है और उसके दुर्गति को ले जाने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org