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आचारदिनकर (खण्ड-३) 128 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
विशदविशदप्राज्यप्राज्यप्रवारणवारणा हरिणहरिण श्रीद श्रीदप्रबोधनबोधना। कमलकमलव्यापव्यापदरीतिदरीतिदा गहनगहन श्रेणीश्रेणी विभाति विभाति च।।"
इन पाँच छंदों द्वारा कुसुमांजलि दें। तत्पश्चात् निम्न छंद बोलें
___"जयजयजयदेवदेवाधिनाथो लसत्सेवया प्रीणितस्वान्त कान्तप्रभप्रतिघबहुलदावनिर्वापणे पावनाम्भोदवृष्टे विनष्टाखिलाद्यव्रज। मरणभयहराधिकध्यानविस्फूर्जितज्ञानदृष्टिप्रकृष्टेक्षणाशंसन त्रिभुवनपरिवेषनिःशेषविद्वज्जनश्लाघ्यकीर्तिस्थितिख्यातिताश प्रभो।।"
इस छंद द्वारा बिम्ब के आगे हाथ जोड़कर क्षणभर ध्यान करें। पुनः शक्रस्तव का पाठ करें तथा “ऊर्ध्वायो" छंदपूर्वक धूप-उत्क्षेपण करें।
इस प्रकार पच्चीस कुसुमांजलियाँ प्रक्षिप्त करें, अर्थात् दें। इसी प्रकार कुसुमांजलिविधि के अन्तर्गत आए इन पच्चीस काव्यों को छोड़कर इनकी जगह एक सौ पच्चीस स्तुतियों एवं महाकाव्य विद्वानों को बोलने चाहिए या पढ़ने चाहिए, अथवा पढ़ाने चाहिए। - इसके बाद जिस प्रकार प्रतिष्ठा के समय नंद्यावर्त की स्थापना की थी, उसी विधि से नंद्यावर्त्त में सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र, पंचपरमेष्ठी, जिनमाताओं, लोकान्तिकदेवों, विद्यादेवी, इन्द्र, इन्द्राणी, शासनयक्ष, शासनयक्षिणी, दिक्पाल, नवग्रहों, चतुर्निकायदेव आदि की स्थापना एवं पूजन करें। अन्तर मात्र इतना है कि प्रतिष्ठा के दिन जिस प्रकार मुद्रा, फल, नैवेद्य के सकोरे आदि चढ़ाते हैं, उस प्रकार की विधि न करके गन्ध, पुष्प आदि द्रव्यों से ही उनकी सामान्य पूजा करें। नंद्यावर्त्त की स्थापना हमेशा न करें, पर्व-दिनों में प्रतिमा- प्रवेश, शान्तिकर्म, पौष्टिककर्म, बृहत्स्नात्रविधि के समय नंद्यावर्त्त की स्थापना करें। इन अवसरों पर नंद्यावर्त की पूर्वोक्त वलयक्रम से स्थापना नही करें, किंतु अलग से दूसरे पीठ पर क्रमशः दिक्पाल, क्षेत्रपाल, नवग्रह एवं चतुर्निकायदेव सहित स्थापना करें। पूर्व निर्मित मूर्ति, अर्थात् धातु, काष्ठ एवं पाषाण से निर्मित प्रतिमा की स्थापना करें, अथवा विविध प्रकार की धातुओं से, कुसुम या चंदन आदि से उनकी आकृतियाँ
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