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आचारदिनकर (खण्ड-३) 164 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
इसी प्रकार दही, घृत, मधु, सौषधि के कलश लेकर क्रमशः निम्न छंदपूर्वक शेष चार स्नान कराएं - दही-स्नात्र का छंद - “घनं घनबलाधारं स्नेहपीवरमुज्ज्वलम् ।
संदधातु दधि श्रेष्ठं देवी स्नात्रे सतां सुखम् ।।२।। घृत-स्नात्र का छंद - "स्नेहेषु मुख्यमायुष्यं पवित्रं पापतापहृत् ।
घृतं भगवती स्नात्रे भूयादमृतमंजसा ।।३।।" मधु-स्नात्र का छंद - “सर्वौषधिरसं सर्वरोगहत्सर्वरंजनम् ।
क्षौद्रं क्षुद्रोपद्रवाणां हन्तु देव्यभिषेचनात् ।।४।। सौषधि-स्नात्र का छंद - “सौषधिमयं नीरं नीरं सद्गुणसंयुतम्।
भगवत्यभिषेकेऽस्मिन्नुपयुक्तं श्रियेऽस्तु नः ।।५।।" तत्पश्चात् मांसीचूर्ण, चन्दनचूर्ण एवं कुंकुमचूर्ण लेकर क्रमशः निम्न छंदपूर्वक देवी की प्रतिमा पर इन तीनों चूणों को लगाएं - “सुगन्धं रोगशमनं सौभाग्यगुणकारणम् ।
इह प्रशस्तं मास्यास्तु मार्जनं हन्तु दुष्कृतम् ।। शीतलं शुभ्रममलं धुततापरजोहरम्।
निहन्तु सर्वप्रत्यूहं चन्दनेनांगमार्जनम् ।। कश्मीरजन्मजैश्चूर्णैः स्वभावेन सुगन्धिभिः ।
प्रमार्जयाम्यहं देव्याः प्रतिमां विघ्नहानये।।" इस प्रकार पंचस्नात्र एवं तीन चूर्णों का विलेपन करके देवी-प्रतिमा के आगे स्त्रियों के योग्य सर्ववस्त्र, आभूषण, गन्ध, माला, श्रृंगार की वस्तुएँ आदि चढ़ाएं। साथ ही बहुत प्रकार के नैवेद्य चढ़ाएं। फिर प्रतिष्ठा पूर्ण होने के बाद नंद्यावर्त्त-मण्डल-विसर्जन के सदृश ही भगवती-मण्डल का विसर्जन करें। तत्पश्चात् पूजन करने वाली कन्या एवं गुरु (विधिकारक) को दान दें। महोत्सव तथा संघ-पूजा महाप्रतिष्ठा के सदृश ही करें। इसी प्रकार प्रासाददेवी, संप्रदायदेवी एवं कुलदेवी - इन तीनों देवियों की प्रतिष्ठा एवं पूजा विधि गुरुगम एवं कुलाचार से जानें। ग्रंथ-विस्तार-भय के कारण तथा आगम में अनुल्लेखित होने के कारण उसकी विधि यहाँ नहीं बताई गई है। जैसा कि कहा गया है - “आगम में इन सभी विषयों को गोपनीय रखने का प्रयत्न किया गया
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